रविवार, 18 अक्तूबर 2009

जब कदम ही साथ न दे

कभी फ्रेंच चिन्तक  रूसो ने कहा था कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है लेकिन दुनिया में आते ही जंजीरों में जकड़ जाता है. उसने तो ऐसा तत्कालीन फ्रांस के शासकों के शोषण से परेशान नागरिकों के बारे में कहा था. क्या हम परिस्थितियों के गुलाम हैं. अगर हर कोई ऐसा ही सोंचने लगे तो दुनिया का क्या होगा? मन कि यह हमारे हाथों में नहीं होता कि हम अमीर घर में पैदा होंगे या गरीब घर में. लेकिन बाद की स्थितियों का महत्व होता तो है पर इतना ज्यादा भी नहीं कि सबकुछ वही हो जाये और हमारी भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की रह जाये. अगर हमारे पूर्वजों ने परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लिया होता तो हम आज भी गुलाम होते. या फ़िर मानव आज भी बैलगाड़ी चला रहा होता. फ़िर भी इतना तो निश्चित है कि परिस्थितियां हमारे हाथों में नहीं होती. हमारे तों में होता है उनका सामना करना. साधन हमारे हाथों में होते हैं. शायद इसलिए गाँधी जी (मेरा मतलब महात्मा गाँधी से है न कि गाँधी-नेहरु परिवार के किसी सदस्य से) ने साधन की पवित्रता पर इतना जोर दिया था. बोए पेड़ बाबुल का जैसे हिंदी कहावत भी इसी ओर इशारा करते हैं. शेरदिल इंसान को परिस्थिति रूपी पिंजरा अपने भीतर बंद नहीं कर सकता. कई बार हमारे जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें लगता है कि जैसे हम बंद गली के आखिरी मकान को भी पार कर चुके हैं और जीवन का अंत आ गया है. लेकिन जिन्दगी रूकती नहीं है. परिस्थितियों के निर्माण में कहीं-न-कहीं हमारी सोंच का, हमारे कर्मों का भी हाथ होता है. भगत और गाँधी का बचपन अलग-अलग माहौल में बीता और इसका प्रभाव हम उनकी सोंच और उनके कार्यों में देख सकते हैं. इनमें किसी को भी हम गलत नहीं ठहरा सकते. हाँ इतना निश्चित है कि गाँधी को जिस तरह व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ वैसा भगत को नहीं मिला और उन्हें जनता ने काफी हद तक अपराधी ही माना क्योंकि उनका मार्ग हिंसा का था और इतिहास गवाह है कि भारत में अशोक, अकबर जैसे शासकों को महान कहा गया अलाउद्दीन या गोरी को नहीं. मतलब यह कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी बुरी क्यों न हो विवेक से काम लें. मानव विवेकी जीव है और उसके जीवन में कभी विकल्पों का अकाल नहीं पड़ता. उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ते कार्याणि न मनोरथै. भले ही गली बंद हो कहीं न कहीं से जाने का मार्ग मौजूद अवश्य होता है थोड़ा लम्बा भले ही हो.

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