मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

एकरूपता लाएं हिंदी अख़बार

हिंदी भारत की राजभाषा की अधिकारिणी होते हुए भी नहीं है जबकि हमें आजाद हुए ६ दशक बीत चुके हैं. हिंदी की इस दुर्गति में तथाकथित हिंदी सेवी अख़बारों का काम योगदान नहीं रहा है. सारे अख़बार स्टाइल शीट के नाम पर अपनी डफली अपना राग बजा रहे हैं. अभी दीपावली में कोई दिवाली लिख रहा था तो कोई दीवाली. इतना ही नहीं सारे अख़बारों के फांटों में भी एकरूपता का घोर आभाव है जिससे इन्टरनेट से सामग्री को सेव या कॉपी करना मुश्किल ही नहीं असंभव बन गया है. अंग्रेजी में इस तरह कि कोई समस्या नहीं है. आनेवाला युग इन्टरनेट का ही है और शब्दरूपों और फौंटों में विविधता से हिंदीभाषियों के लिए जहाँ भ्रम की या असमंजस की स्थिति पैदा होती है वहीँ अहिन्दीभाषी लोगों के लिए हिंदी सीख पाना दुरूह हो जाता है और इसलिए बेवजह हिंदी पर कठिन होने का आरोप लगाया जाता है. हालाँकि इन्टरनेट पर हिंदी में सामग्री उपलब्ध है लेकिन उन्हें भी एसएमएस की तरह रोमन में लिखना पड़ता है इस तरह हिंदी की-बोर्ड का प्रयोग ही हिंदी प्रेमी नहीं कर पाते अगर फौंटों में एकरूपता होती तो यह समस्या नहीं खड़ी होती. जहाँ तक बिहार के अख़बारों का सवाल है तो हम पत्रकार मात्रा डेढ़-दो सौ शब्दों से काम चलाते हैं और उनका भी सही प्रयोग नहीं कर पाते. अधिकांश अख़बारों में आगज़नी और अगलगी में कोई अंतर नहीं होता. शीर्षकों में ही गलतियों की भरमार होती है, वर्तनी सम्बन्धी भी और व्याकरणिक भी; फ़िर मुख्य भाग का तो भगवान ही मालिक है. ऐसा क्यों ही मैं इसका पोस्टमार्टम नहीं करना चाहता लेकिन इतना तो निश्चित है कि बिहार में अख़बार पढने से बच्चों की भाषा के बिगाड़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है. अब आप ही बताईये क्या इसे हिंदी सेवा कहेंगे या हिंदी के विनाश का प्रयत्न. यह हिंदी के प्रति मित्रतापूर्ण नहीं बल्कि शत्रुतापूर्ण व्यवहार है.

कोई टिप्पणी नहीं: