गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

पड़ोसियों से सावधान

भाजपा के शीर्षस्थ नेता अपनी विशेष भाषण-शैली के लिए प्रसिद्ध अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधानमंत्री थे तब अक्सर कहा करते थे कि आप मित्र बदल सकते है,शत्रु भी बदल सकते हैं मगर पड़ोसी नहीं बदल सकते.लेकिन मेरा दुर्भाग्य कुछ ऐसा रहा है कि हर साल-दो-साल पर मुझे नए पड़ोसियों का सामना करना पड़ता है.वर्ष १९९२ से ही मेरा परिवार किराये के मकानों में रहता आ रहा है.एक-दो सालों तक तो मकान मालिक के साथ हनीमून पीरियड चलता है और फ़िर उसका हमसे मन उबने लगता है.फ़िर वह भाड़ा बढ़ाने की बात करने लगता है और हम भाड़ा में मनमाना वृद्धि करने के बजाए डेरा ही बदल लेते हैं.एक झटके में मोहल्ले का नाम,पता-ठिकाना सब बदल जाता है और साथ ही बदल जाते हैं पड़ोसी भी.१९९२ में जब हम स्वर्ग से सुन्दर अपने गाँव को छोड़कर महनार आए तब हमारे मोहल्ले यानी चकबंदी कालोनी से ज्यादा वी.आई.पी. कोई मोहल्ला नहीं था.एक पूर्व प्रिंसिपल,दो प्रोफ़ेसर और एक बैंक क्लर्क हमारे पड़ोसी बने.प्रिन्सिपलाईन को पड़ोसियों से सामान मांगने की बुरी बीमारी थी.उनकी दूत यानी नातिन भी एक ही जिद्दी थी.मना करने पर कहती कि नहीं देंगे कैसे?मैं तो चीनी या चायपत्ती या कुछ और लेकर ही जाऊंगी.एक और पड़ोसी थे प्रोफ़ेसर साहब.आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया वाले आदमी थे.रंग भैंसे से भी ज्यादा गहरा.उनके एक सहकर्मी की राय थी कि जब वे पान खा लेते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने भैंसे की लाद में भाला मार दिया है.उनकी पत्नी को एक अजीबोगरीब बीमारी थी.अगर उनका कोई बच्चा टी.वी. देखने दूसरे घरों में या सिनेमा हॉल में सिनेमा देखने चला जाता तो रात के १२ बजे भी पूस में भी उसे बिना स्नान के घर में नहीं घुसने देती.कोई अगर उनका स्पर्श कर जाता तो ठण्ड की परवाह किए बिना शीघ्र स्नान कर लेतीं.यहाँ तक कि कोई अगर उनके बिछावन पर बैठ जाता तो बिछावन बदल देतीं और अगर कोई कुर्सी पर बैठ जाता तो कुर्सियों को भी चाहे कंपकंपाती ठण्ड ही क्यों न हो धोने लगतीं.दुर्भाग्यवश उनकी इसी छुआछूत की बीमारी के चलते हमें डेरा-परिवर्तन करना पड़ा.हुआ यह कि एक दिन माँ ने मेरे नवजात भांजे का पेशाब किया हुआ बिछावन सार्वजनिक अलगनी पर सूखने को डाल दिया.इस पर वे इतनी आगबबुला हुईं और गालियों की ऐसी बौछार कर दीं कि हमने डेरा बदल लेने में ही अपनी भलाई समझी.गाँव से हम शांति की तलाश में ही शहर आए थे और अशांति यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही थी सो हमने ही उनसे पीछा छुड़ा लिया.वहीँ पर एक ऐसे पड़ोसी भी थे जो प्यादा से फर्जी हुए थे इसलिए जनाब हमेशा टेढो-टेढो जाते थे.पहले स्टेट बैंक में चपरासी थे अब क्लर्क कम कैशियर बन गए थे.दुर्योगवश उनकी सुन्दर बिटिया को हमसे प्रथम दृष्टया प्रेम हो गया वो भी एकतरफा.मुझे तो वो फूटी आँखों भी नहीं सुहाती थी.गाहे-बगाहे मेरे इर्द-गिर्द मंडराती रहती.अंत में जब मेरी ओर से कोई ग्रीन सिग्नल नहीं मिला तो जा पहुंची मेरी माँ के पास.एक सप्ताह बाद उसकी शादी होनी थी और मोहतरमा फार्म रही थीं कि काकी अगर आप मुझे बहू बनना स्वीकार कर लें तो मैं यह शादी रूकवा दूँगी.माँ ठहरी ग्रामीण संस्करोंवाली महिला सो आश्चर्यचकित-सी रह गई और साफ तौर पर मना कर दिया.नए डेरे में भी हम ज्यादा समय तक नहीं टिक सके.यहाँ से भागने का कारण बनी मकान-मालकिन जो पूरे महनार में अपनी यौन-स्वच्छंदता के लिए बदनाम थी.इस डेरे में छः महीने रहने के बाद हमने सिनेमा रोड में किराये पर मकान ले लिया.वर्ष १९९५ की बात है तब हम इसका ६०० रूपये मासिक किराया देते थे जो पूरे महनार में सबसे ज्यादा था.यहाँ निकट के पड़ोसी नहीं थे.दूर के दो पड़ोसी थे और दोनों प्रोफ़ेसर थे.इन दोनों में से जो निकट में थे एक पुरसाहाल इन्सान थे.परन्तु उनके पूरे परिवार को अपनी बर्बादी का रंचमात्र भी अफ़सोस नहीं था.अफ़सोस था तो इस बात पर कि कोई दूसरा प्रोफ़ेसर आगे कैसे बढ़ रहा है.दिनभर वे और उनकी पत्नी निंदा-पुराण के पाठ में लगे रहते और हमें भी अक्सर उनलोगों के सौजन्य से निंदा रस में सराबोर होने का दुर्लभ अवसर मिल जाता.ईधर ज्यादा दूर के पड़ोसी प्रोफ़ेसर साहब का बेटा मेरा मित्र बन गया था,अच्छा या बुरा पता नहीं.वह मेरी जेब में से १-२ रूपया का सिक्का जबरन निकल लेता और उसका गुटखा खा जाता.मैं इस कैंसरकारी आत्मभोज में शामिल होने से मना कर देता तो वह और भी खुश होता कि हिस्सा नहीं बाँटना पड़ेगा.बाद में मेरी छोटी दीदी की शादी में उसने शराब पीकर जो नाटक किया कि दोस्ती दुश्मनी में तो नहीं बदली लेकिन टूट जरूर गई.उसके बाद फ़िर से हमारा घोंसला बदला और इस बार निकट पड़ोसी बने दो परिवार.एक तो बनिए का परिवार था जिसकी चौक पर दुकान थी किराने की.बनिए की बहू उन्मुक्त स्वभाव वाली थी.चापाकल पर पूरी तरह अनावृत्त होकर स्नान करती और मुझे छेड़ा भी करती.मैं अब तक जवान हो चुका था सो यह तो नहीं कह सकता कि वह मुझे अच्छी नहीं लगती थी लेकिन मेरा कभी साझेदारी में विश्वास रहा ही नहीं है.एक अन्य पड़ोसी बिजली विभाग में एस.डी.ओ. थे.दिनभर घूस खाते लेकिन पेट नहीं भरता था,आत्मा भी अतृप्त रह जाती थी.सो एक दिन हमारे गरीब मुसलमान पड़ोसी का मुर्गा चुरा बैठे और रंगे हाथों पकड़ भी लिए गए.परिणाम यह हुआ कि उन्होंने महनार से तबादला ही करवा लिया.बाद में सामनेवाली भाभी के परिवार ने भी अपना आशियाना बदल लिया और करीब डेढ़ साल तक तक हमें पड़ोसीविहीनता की दर्दनाक स्थिति में गुजारा करना पड़ा.उसके बाद मेरा परिवार हाजीपुर आ गया.यहाँ भी हम तीन बार डेरा बदल चुके हैं.वैसे संयोग यह भी रहा इन डेरों में रहते हुए किसी पड़ोसी से हम ज्यादा घुलमिल नहीं पाए.खैर पिछले डेरे में जरूर दो पड़ोसी मिले थे.एक प्रोफ़ेसर था वो भी गणित का.परीक्षा के लिए आवेदन करते समय भाई साहब मेरे पास आते उम्र निकलवाने.हाँ उनका हिसाब-किताब तिकड़म में खूब अच्छा था और दिनभर इसी चक्कर में मोटरसाइकिल का धुआं उड़ाते रहते.उनकी पत्नी को भी मांगने की बुरी आदत थी जिससे मेरी माँ बहुत परेशान रहा करती.नीचे के माले में एक शिक्षिका का सपति निवास था.इन दिनों बिहार में मुखियापति,पंचायत सदस्यपति जैसे शब्दों का खूब प्रचलन है.तो ये श्रीमान जीवन में कुछ नहीं कर सकने की मजबूरी के कारण शिक्षिकापति कहलाने लगे.चपर जिले के हैं और राजपूत भी हैं इसलिए झूठ बोलने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं.उनकी पत्नी उत्क्रमित मध्य विद्यालय,दाऊदनगर हरिजन,अंचल-बिदूपुर,जिला-वैशाली में प्रधानाध्यापिका हैं.अजी प्रधानाध्यापिका तो नाममात्र की हैं वास्तव में वे घोटाला-विशेषज्ञ हैं.दोनों परले दर्जे के कंजूस भी हैं.मैडमजी के स्कूल में ७वीं और ८वीं कक्षा के छात्र-छात्राओं को पिछले सालभर से सिर्फ कागज पर ही खिचड़ी खिलाई जा रही है.भाई साब यह तो बस नमूनाभर है उनकी कलाकारी का और भी अनगिनत मद हैं उनकी अवैध कलाकारी के उनके स्कूल में.सो वे घोटाला कर रही है और पति उसका हिसाब रखते हैं.ठीक उसी तरह जैसे बिहार में मुखियापति आदि पति रखते हैं.मियां अक्सर घर में पड़े रहते हैं और बीबी स्कूल में घोटाला-प्रशासन चलती हैं.हीनभावना से ग्रस्त मियां पूछने पर खुद को भी शिक्षक बताते हैं.घर में पड़े-पड़े बोर हो जाते तो पहुँच जाते हमारे पास हमें बोर करने.फ़िर शुरू होता पुत्रचरितमानस और रिश्तेदार पुराण.उनके अनुसार उनके बेटे दिल्ली में लाखों कमाते हैं लेकिन श्रीमान रहते हैं हाजीपुर में किराया के मकान में.न जाने कौन-सी मजबूरी है?हर महीने कहीं-न-कहीं जमीन देखते हैं लेकिन खरीदते नहीं हैं.अब मैं आता हूँ उन पड़ोसियों पर जो वर्तमान में मेरे पड़ोसी हैं.मेरे बगलवाले कमरे में मेरी पड़ोसन रहती है तीन बड़े-बड़े बच्चों के साथ.उसे हरदम बोलने की बीमारी है और वह भी फुल वॉल्यूम में.जब मैं प्रभात खबर में था तो उसने मेरी नींद हराम कर दी थी.सुबह जब मैं सोने जाता तब उसके जागने और बकवास शुरू करने का समय हो जाता.बार-बार मना करने का भी कोई असर नहीं हुआ तो मैंने हारकर नौकरी छोड़ दी.उस पर श्रीमतीजी को गंदे फ़िल्मी गाने सुनने का चस्का लगा हुआ है.मुन्नी बदनाम हुई उनके घर में इस प्रकार बजता है और वे इसे इस तरह भाव-विभोर होकर सुनते हैं जैसे हनुमान जी या दुर्गा माता की आरती हो.डी.वी.डी. पर अश्लील गाना बजने पर उनके पुत्रगण भी साथ-साथ गाते रहते हैं.मना करने पर बेटे अगर मान भी गए तो वह कहती है बंद मत करना मैं सुन रही हूँ.उनके तीनों जवान हो चुके बेटे रूम से लेकर मकान के दरवाजे तक हाफ कच्छा पहने चहलकदमी करते रहते हैं.शायद यह उनका लेटेस्ट फैशन है या फ़िर युगों का सफ़र दिनों में व्यतीत करते हुए उल्टी दिशा में एंटीक्लॉकवाईज सफ़र करते हुए वे फ़िर से आदिम युग में पहुँच गए है.वह पहले से मकान में रहने के कारण हमारे साथ कुछ इस तरह से पेश आती है जैसे वही मकान-मालकिन हो.जबकि हमारे वर्तमान मकान-मालिक परिवारसहित दिल्ली में रहते हैं.पड़ोसन का बड़ा बेटा चाचा की कमाई पर मोटरसाईकिल का धुआं उडाता है.उसकी कथित तौर पर ग्राम-फतिकवारा जो देसरी स्टेशन के पास है के रहनेवाले एक नवनियुक्त आई.ए.एस. से जान-पहचान है.गरीब कुर्मी परिवार में जन्मे इस युवक ने जब सिविल सेवा परीक्षा पास करने का कारनामा किया था तो जिले के सभी समाचार-पत्रों ने उसे प्रमुखता से छापा था.जैसा कि यह लड़का बताता है कि फैक्टरी खोलने के लिए जिलाधिकारी महोदय को हाजीपुर में एक बीघा जमीन की तलाश है.इतनी जल्दी इतनी तरक्की!श्रीमान जब पास हुए थे तब तो उनके सिर पर पक्की छत तक नहीं थी.बतौर मेरा पड़ोसी अगर सौदा पट गया तो उसे दलाली में १ लाख रूपये कट्ठा की दर से २० लाख रूपये बैठे-बिठाए मिल जाएँगे.वैसे मैं यह बताता चलूँ कि मेरे वर्तमान मोहल्ले संत कबीर नगर के ज्यादातर लोग जमीन की दलाली में ही लगे हैं.ठगी उनका धर्म है और बेईमानी उनका ईमान.तो भाइयों लगातार बदलते रंग-बिरंगे पड़ोसियों से परेशान होकर हमने खुद की जमीन खरीद ली है और अब जनवरी-फरवरी से घर बनना शुरू करनेवाले हैं.वैसे तो मैं समझता हूँ कि मेरी व्यथा से जो सीख लेनी चाहिए आपने स्वतःस्फूर्त भाव से थोक के भाव में ले ली होगी.फ़िर भी आपको सावधान करना अपना लेखकीय धर्म समझते हुए मैं आपको लाख टके की सलाह बिलकुल मुफ्त में देना चाहूँगा कि भाई मेरे,बहना मेरी जब भी किराये का मकान देखने जाना तो मकान में कितनी जगह है और वास्तुशास्त्र के मुताबिक है या नहीं बाद में देखना;पहले यह देखना कि पड़ोसी कौन लोग हैं और कैसे लोग हैं.तो भाइयों और भाइयों की बहनों पड़ोसियों से सावधान!!!

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

पढोगे-लिखोगे बनोगे ख़राब

मुझे आज अपने और अपने एम.ए. पास मित्रों के माता-पिताओं के ऊपर भारी क्रोध आ रहा है.मुझे और मेरी पूरी पीढ़ी को उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ रही है जो उसने की ही नहीं.गलतियाँ तो माता-पिता की थी जो उन्होंने हमें उच्च शिक्षा दी.हमें खेती-मजदूरी करने लायक नहीं रहने दिया.माना कि उन्हें पता नहीं था कि भविष्य में राज्य में सुशासन बाबू की सरकार आएगी और पढ़े-लिखे और अनपढ़ सब धन बाईस पसेरी हो जाएँगे.फ़िर भी हमें पढ़ाने का अपराध तो उनका ही था चाहे अनजाने में ही क्यों न किया गया हो?आखिर आईपीसी में गैर ईरादतन हत्या के लिए सजा देने का प्रावधान है कि नहीं?फ़िर बिहार सरकार उनके किए अपराध की हमें सजा देने पर क्यों आमादा है?आपने अपने बच्चे के बारे में क्या सोंच रखा है?पाठक महोदय यह प्रश्न आपसे है.अगर आप बिहार से हैं तो अगर आपका बच्चा एम.ए. करना चाहे तो हरगिज नहीं करने दीजिएगा.मियां मैं तो कहता हूँ कि मैट्रिक ही बहुत है.मिलिटरी-पुलिस में चला जाएगा,वेतन भी पूरा मिलेगा और पेंशन भी.जब तक राज्य में सुशासन है इससे ज्यादा की पढाई-लिखाई बेकार ही नहीं संज्ञेय अपराध भी है.समझे कि नहीं?नहीं समझे तो हम समझा देते हैं.हम बैठे हैं इसी काम के लिए न.अगर आपका बचवा (या बुचिया) एम.ए. कर गया तो क्या करेगा?लेक्चरर बनेगा और मिलेगा क्या?अधिकतम १२००० रूपये मासिक या २५० रूपये क्लास.मतलब इस महंगाई रूपी ऊँट के मुंह में जीरा का फोरन.वह बेचारा कुल मिलाकर टूटे-फूटे व्यक्तित्ववाला दर-दर का भिखारी बनकर रह जाएगा.खुद भी तरसेगा और पूरे परिवार को तरसाएगा.इस महंगाई में प्याज,दाल,दूध,चीनी और सब्जियां तो उसकी पहुँच में नहीं ही होंगी,रोटी का भी जुगाड़ हो पाएगा या नहीं जिस तरह महंगाई बढ़ रही है,गारंटी के साथ कह नहीं सकते.हीनभावना से ग्रस्त होकर या तो जज्बाती शायर बन जाएगा या किंकर्तव्यविमूढ़ मानसिकतावाला विक्षिप्त.उसे न तो समय-समय पर आनेवाले यू.जी.सी. वेतनमान का लाभ मिलेगा और न ही उसकी कभी प्रोन्नति होती.परिणाम यह होगा कि जितना अभिभावक ने यानी आपने उस पर खर्च किया होगा जिंदगीभर कमाने के बावजूद वह उतना भी नहीं कमा पाएगा.अगरचे तो उसकी शादी ही नहीं होगी और अगर किसी लड़कीवाले को उस पर तरस आ भी गया तो उसका वैवाहिक जीवन गारंटी के साथ कलहपूर्ण होगा.पत्नी और बच्चों को अच्छे कपड़े,अच्छे भोजन और अच्छे मकान की चाह होगी जो वह चाहकर भी नहीं दे पाएगा.अनगिनत अभिलाषाएं तिल-तिल कर दम तोड़ेंगी और वह मूकदर्शक बना रहेगा.उसके बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पायेंगे.सरकार की गलत नीतियों के चलते पहले ही बर्बाद हो चुके सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना उसकी अनचाही मजबूरी बन जाएगी.पत्नी और बच्चों को गाँव में रखना पड़ेगा और खुद अकेले शहर में कॉलेज के आस-पास डेरा लेकर बैचलर जिंदगी बितानी पड़ेगी.क्या बिडम्बना है कि बूढ़े-लाचार यथास्थितिवादी रीडरों को तो एक लाख से ऊपर की तनख्वाह बेवजह मिलेगी जबकि ऊर्जावान परिवर्तनकारी भावनाओं से ओतप्रोत नौजवानों को अधिकतम १२००० रूपये.सरासर नाइंसाफी नहीं है तो क्या है यह?क्या यही समानता का अधिकार है सुशासन बाबू?क्या समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार यही है?जो व्यक्ति दिन-रात घर-परिवार की चिरस्थाई चिंता में डूबा रहेगा वह क्या पढ़ेगा और कैसे पढ़ेगा?वह कहाँ से लेगा उत्साह शिक्षण कार्य के लिए?एम.ए. पास लोगों के लिए संस्थागत भुखमरी की व्यवस्था करनेवाली सरकार क्या बताएगी कि उसके एक मंत्री पर प्रतिमास कितना सरकारी खर्च आता है और उसका एक मंत्री कितनी ऊपरी कमाई कर लेता है?जब मंत्री को परिवार चलाने के लिए प्रतिमाह हजारों रूपये की सरकारी सुविधा और लाखों रूपये की ऊपरी आमदनी चाहिए तो फ़िर समाज का सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा व्यक्ति कैसे १२००० रूपये में काम चला लेगा?सुशासन बाबू अगर बहाली नहीं करनी है तो बिलकुल ही नहीं करिए.आपको यह अधिकार नहीं बनता है आप किसी की ज़िन्दगी बर्बाद कर दें.ज्यादा-से-ज्यादा यही होगा कि हमें रिक्शा-ठेला खींचना पड़ेगा.खीचेंगे लेकिन उसमें भी तो आपके राज्य का नाम होगा और आपको ट्रॉफी मिलेगी.दुनिया कहेगी कि वाह क्या राज्य है जहाँ वास्तव में कलियुग है!वाह क्या राज्य है जहाँ हंस वास्तव में दाना चुग रहा है और कौआ (मंत्री) मजे में मोटी खा रहा है.इतना तो निश्चित है कि हम ठेला-रिक्शा खींचकर १२००० रूपये से ज्यादा कमा लेंगे और हमारा आपसे वादा है और यह चुनावी वादा नहीं है कि हम अपने बच्चों को स्कूल-कॉलेज भेजने की गलती नहीं करेंगे जिससे वे आपके दिमाग में रोज जन्म लेने वाले नायाब आइडियाज की चपेट में नहीं आ सकें.उन्हें बिलकुल नहीं पढाएंगे क्योंकि हम जानते हैं कि कहीं गलती से उन्होंने इन्टर कर लिया तो पंचायत या प्रखंड शिक्षक बनकर और अगर महागलती करके एम.ए. कर लिया तो विश्वविद्यालय शिक्षक बनकर आजीवन भयंकर अभाव में जीने की सजा भुगतते रहेंगे.पढाई करने की सजा,साईकिल और स्कूल ड्रेस के लालच में आ जाने की सजा.

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

नई उम्मीदें जगा गया पहला दशक

१ जनवरी २००० पूरी दुनिया के लिए तीन-तीन दृष्टियों से खुशियाँ मनाने का अवसर लेकर आया था.यह अद्भुत संयोग ही था कि इस दिन एक साथ नई सहस्राब्दी,नई शताब्दी और नववर्ष की शुरुआत हो रही थी.वाईटूके की आशंकाओं के बीच पूरी दुनिया जश्न में डूबी हुई थी लेकिन भारत में लोग नई सहस्राब्दी,नई शताब्दी और नए साल का स्वागत करने के बदले साँस रोके इंडियन एयरलाइंस की उड़ान संख्या आईसी-८१४ के चालक दल समेत १९० अपहृतों की रिहाई का इंतजार कर रहे थे.खैर किसी तरह ३१ दिसंबर,१९९९ को यात्री तब जाकर रिहा हो पाए जब भारत सरकार ने विपक्ष से परामर्श के बाद उनके बदले भारत की विभिन्न जेलों में बंद तीन खूंखार आतंकवादियों को विमान-अपहरणकर्ताओं के हवाले कर दिया.एक बार फ़िर हमने आतंकवाद के आगे घुटने टेक दिए थे और कायरता का परिचय दिया था.इस ऐतिहासिक दिन भारतीयों ने खुशियाँ मनाई जरूर लेकिन बुझे मन से,हीन भावना से ग्रस्त व्यक्ति की तरह.हमने आतंकवाद के खिलाफ बिना लड़े ही हार मान की थी.बाद में वाईटूके की आशंका भी निर्मूल साबित हुई.आज दुनिया और भारत नई सहस्राब्दी और शताब्दी में १० साल आगे आ चुके हैं.अरबों साल पुरानी धरती और हजारों साल पुरानी मानव-सभ्यता के इतिहास में भले ही यह कालखंड काफी छोटा हो लेकिन तेजी से परिवर्तित हो रही आज की दुनिया में इसका महत्त्व किसी शताब्दी से कम नहीं.दुनिया ने इन दस सालों में जो कुछ और जितना कुछ देखा है शायद सौ साल पहले वही और उतना ही घटित होने में कम-से-कम एक शताब्दी का समय लगता.यही वह दशक है जिसने पश्चिम को बताया कि आतंकवाद का कोई निर्धारित क्षेत्रफल नहीं होता.इसी एक दशक में भारत सहित पूरी दुनिया में संचार क्रांति हुई और मोबाईल फोन और सेवाएँ इतने सस्ते हो गए कि कम-से-कम इस एक क्षेत्र में तो साम्यवाद आ ही गया.याद कीजिए दस साल पहले सभी विकासशील देश पश्चिम की दैत्याकार अर्थव्यवस्थाओं और कंपनियों से किस तरह आतंकित-आशंकित थे.हर भारतवासी के मन में भी भय था कि कहीं इनमें से कोई कंपनी फ़िर से ईस्ट इंडिया कंपनी न साबित हो जाए.लेकिन आज स्थितियां बिलकुल उलट हैं.आज हमारी गिनती दुनिया की सबसे तेज रफ़्तारवाली अर्थव्यवस्थाओं में होती है.आज महाशक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति भारत जो दस साल पहले अंतर्राष्ट्रीय भिखारी कहलाता था,के दरवाजे पर मदद की गुहार लेकर आता है और उम्मीद से ज्यादा लेकर वापस जाता है.जाहिर है कि अमेरिका और पश्चिम की वैश्विक श्थिति पिछले १० सालों में कमजोर हुई है.उसकी और अन्य पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाएं बीमार हो गई हैं और उनकी सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि ईलाज भी नहीं मिल रहा.तिस पर ज्यों-ज्यों दवा की जा रही है मर्ज बढ़ता ही जा रहा है.अब बदले वातावरण में चीन और भारत दुनिया के विकास के नए ईंजन बन गए हैं.चीन की अर्थव्यवस्था का इन दस सालों में अभूतपूर्व विकास हुआ है और वह अपने पड़ोसी जापान को पछाड़कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है.जबकि भारत भ्रष्टाचार के साथ विकास करता हुआ तेज रफ़्तार के बावजूद चीन से काफी नहीं तो खासा पीछे जरूर छूट गया है.लेकिन एक बात भारत के पक्ष में है और वह यह है कि भारत वर्तमान विश्व की सर्वाधिक युवा जनसंख्या को धारण करनेवाला देश है जबकि दुनिया के अन्य देश जिसमें चीन भी शामिल है अब बुढ़ाने लगे हैं.भारत की यह युवा पीढ़ी साइबर युग की है और इसे न तो नहीं सुनने की आदत है और न ही काम में विलम्ब को बर्दाश्त करने की.इसे तो प्रत्येक काम कम्प्यूटर के माऊस के क्लिक होते ही संपन्न हो जाते देखने का अभ्यास है.सिर्फ आज का युवा भारत ही नहीं अपितु पूरा भारत नई उम्मीदोंवाला भारत है.भारतीयों को अब जाति और धर्म के नाम पर बरगलाने का समय बीत चुका है.बिहार के चुनाव परिणामों ने पूरे देश के सियासतदानों को विकास के गीत के साथ सुर और ताल साधने की चेतावनी दे दी है.जनता ने उन्हें सन्देश दे दिया है कि वक़्त रहते बदल जाओ नहीं तो हम राजनीति की दशा और दिशा को ही बदल देंगे.बीता हुआ कल चाहे जिसका भी रहा हो इंग्लैण्ड,अमेरिका,रूस या चीन का;आनेवाला कल भारत का है,भारतीयों का है.हम दुनिया को आश्वस्त करते हैं कि आनेवाले कल में न तो आतंकवाद होगा और न ही प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए द्रोण हमले ही होंगे क्योंकि भारत पश्चिमी देशों और चीन की तरह दूसरों की कीमत पर विकास का हिमायती नहीं है वह तो तु वसुधैव कुटुम्बकम का प्रवर्तक है.तो आईये हम जय भारत और जय जगत के गगनभेदी उद्घोष के साथ सहस्राब्दी और शताब्दी के पहले दशक को अलविदा कहें और नई उम्मीदों,नए सपनों से लबरेज दूसरे दशक की भावभीनी अगवानी करें.जय हिंद!

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

शराब पीना समाज के लिए हानिकारक है

आजकल बिहार की सुशासनी सरकार पश्चाताप के मूड में है.आज पहली बार मुझे ब्लॉगर होने पर गर्व हो रहा है.क्योंकि मुझे खुशफहमी है कि मेरे पिछले लेख के चलते बिहार सरकार इन दिनों पश्चाताप के ताप से उबल रही है.मुख्यमंत्रीजी ने उन्हें मेरे द्वारा गलतियों का राजकुमार बताने से नाराज नहीं होते हुए अपनी अतीत की गलतियों को सुधारते हुए घोषणा की है कि आगे से शिक्षकों की बहाली से पहले उनकी परीक्षा ली जाएगी.यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि हमारे मुख्यमंत्री जो घोषणा करें उस पर वे अमल भी करें यह आवश्यक नहीं है.उदाहरणों की कोई कमी नहीं है.बहुत पहले वर्ष २००७ के सितम्बर-अक्तूबर में मार्क्सवादी नेता वासुदेव सिंह के इस आरोप पर कि बिहार सरकार प्राइवेट कंपनी बनकर रह गई है उन्होंने बयान दिया था कि आगे से उनकी सरकार संविदा (कांट्रेक्ट) के आधार पर नियुक्ति नहीं करेगी बल्कि पुरानी सेवा शर्तों पर करेगी लेकिन ऐसा हुआ क्या?सौभाग्यवश उस समय मैं पटना हिंदुस्तान में रिपोर्टर था और मैंने ही वासुदेव बाबू के बयान को हिंदुस्तान में सबमिट किया था.खैर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि यह बड़ा अच्छा प्रायश्चित है.पहले तो शिक्षकों को नियुक्त पहले कर लिया जाता था उनकी मेधा परीक्षा बाद में ली जाती थी.यानी पहले गलती फ़िर समीक्षा और अंत में सांकेतिक परीक्षा.अब पहले परीक्षा ली जाएगी.ठोक-पीटकर देखा जाएगा कि शिक्षक को गिनती-पहाडा आता है कि नहीं या फ़िर वह जरुरत पड़ने पर आवेदन-पत्र भी लिख पाएगा कि नहीं.लेकिन इससे पहले सुशासनी सरकार ने जिन अयोग्य शिक्षकों की बहाली कर दी है उनका वह क्या करेगी?आदमी का अचार तो डाल सकते नहीं,हटाने से वोट बैंक खोने का भय है.इसका तो सीधा अर्थ यह है कि इस सरकारी गलती की सजा हमारी कई पीढ़ियों को बर्बाद होकर भुगतनी ही पड़ेगी और ये लोग रिटायर होने तक बिहार की ग्रामीण जनता के सीने पर मूंग दलते रहेंगे.आगे जो शिक्षक परीक्षा के द्वारा सेवा में आएँगे (अगर नीतीश जी ने अपनी ताजा घोषणा पर अमल किया) उन्हें भी इन तिकड़म में विक्रम शिक्षकों की गन्दी राजनीति का सामना करना पड़ेगा.ये बेचारे पढ़ा तो सकते नहीं उनमें से अधिकतर में इसकी योग्यता ही नहीं है सो ये तो भाई स्कूल में राजनीति ही करेंगे.वो कहते हैं न खाली दिमाग शैतान का घर होता है.लेकिन बेहाल जनता के दुखों को देखकर सुशासनी सरकार के घुटनों से आंसुओं का सैलाब यहीं नहीं रूका और दो दिन बाद यानी २२ दिसंबर को साल के सबसे छोटे दिन मुख्यमंत्रीजी ने फ़िर से एक बड़ी घोषणा की.वैसे घोषणा इतनी भी बड़ी नहीं थी लेकिन बिहार की प्रिंट मीडिया ने उसे जरूर बड़ा बना दिया.बतौर नीतीश कुमार अब शराब की प्रत्येक दुकान के आगे बहुत मोटे-मोटे शब्दों में लिखा जाएगा कि शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है जिससे नशे में डूबा आदमी भी आसानी से इस इबारत को पढ़ सके.कितने अच्छे विचार हैं!अब तक न जाने कितने मासूम यह तथ्य नहीं जानने के चलते दवा के नाम पर इस जहर का सेवन कर रहे थे.अब उन नासमझ बेचारों को संभलने का अवसर मिल जाएगा.सरकार एक अच्छी माँ की तरह पहले शराब की दुकाने खोलेगी और फ़िर प्यार से अपनी संतानों यानी प्रजा को समझाएगी-ले ले ले ले मेले लल्ला.शराब खरीदो लेकिन पियो नहीं क्यों?क्योंकि इससे सेहत ख़राब होती है.खरीदना-बेचना जुर्म नहीं है लल्ला क्योंकि इससे सरकारी खजाने में ईजाफा होता है बस पीना मत और लल्ला मान जाएगा.दारू को खरीदने के बाद नाली में बहा देगा और घर जाकर सरकारी गोशाले से आया दूध पीयेगा.यहाँ मैं यह भी बताता चलूँ कि उसी दिन सुशासन बाबू ने सरकारी गोशाले खोलने की घोषणा भी की है.कितने महान विचार हैं सरकार के.ऐसी मासूमियत देखी है कहीं?न जाने कितने वर्षों से सिगरेट के प्रत्येक डिब्बे पर लिखा रहता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.पहले जहाँ यह कृशकाय शब्दों में लिखा रहता था अब मोटे और हृष्ट-पुष्ट हर्फों में लिखा रहता है.लेकिन क्या इससे इसका पीना कम हो गया?नहीं न.इसे ही तो कहते हैं सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे.सरकार ने गांधीगिरी भी कर ली और सिगरेट-शराब की खपत भी कम नहीं हुई.खैर सिगरेट तो केंद्र सरकार के हाथों की चीज ठहरी.लेकिन सुशासन बाबू आपलोगों को अगर लोगों के गिरते स्वास्थ्य की इतनी ही चिंता है तो क्यों नहीं शराब के निर्माण और विक्रय पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा देते हैं.आधुनिक चाणक्य महोदय यह शराब सिर्फ व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए ही हानिकारक नहीं है बल्कि यह आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि यह समाज के लिए भी नुकसानदेह है.न सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बल्कि नैतिक स्वास्थ्य के लिए भी.यह न सिर्फ व्यक्ति के आचरण को भ्रष्ट करता है बल्कि इसके सेवन से पूरे समाज का आचरण गिरता है और रसातल में चला जाता है.साथ ही रसातल में चला जाता है पूरा समाज.इसलिए जब तक आप पश्चाताप और प्रायश्चित के मूड में हैं तब तक मैं विलम्ब न करते हुए आपसे एक विनती कर लेता हूँ.वैसे भी मौसम और नेताओं के मूड का क्या ठिकाना कि कब बदल जाए.तो अर्ज किया है कि शराब की दुकानों के बाहर यह लिखने के बजाए कि शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है यह लिखा जाए कि शराब पीना समाज के लिए हानिकारक है.धन्यवाद और यह धन्यवाद मैं बिना पिए पूरे होशोहवास में दे रहा हूँ वो भी एडवांस में.इस उम्मीद में कि आप सच्चे मन से गरीब बिहारी समाज को नशे की चपेट में आने से बचाने की कोशिश करेंगे.हम जानते हैं कि आपको इस समय जनता का अपार समर्थन प्राप्त है और आप ऐसा कर सकते हैं.रही बात राजस्व के नुकसान की भरपाई की तो इसके कई तरीके हो सकते हैं.न हो तो नरेन्द्र मोदी से सीख लीजिए.डरिए मत जनता इसे सांप्रदायिक कदम नहीं मानेगी.

वार्ता की मेज पर भारत की एक और हार

वर्षों पहले माइकल जैक्सन के मुम्बई और मातोश्री आगमन पर शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा था-यह अविस्मरणीय क्षण था.वो आए,उन्होंने हमारे टॉयलेट का इस्तेमाल किया,हमारे बिस्तर पर सोये और हमारे डायनिंग टेबुल पर भोजन किया.अभी कुछ दिन पहले भारत आए चीन के प्रधानमंत्री के बारे में भी यही कहा जा सकता है.कम-से-कम भारत को तो उनकी इस यात्रा से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.उनसे पहले जब ओबामा भारत की यात्रा करके वापस लौटे तब भी इसी तरह के प्रश्न उठे थे कि गरीब भारत ने तो उनकी झोली में ५० हजार नौकरियां डाल दीं लेकिन बदले में उसे क्या मिला?सिर्फ यूएनएससी की स्थाई सदस्यता का लॉलीपॉप और उसे भी कुछ ही दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत ने यह कहकर भारत के हाथों से छीन लिया कि निकट भविष्य में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सुधार की कोई सम्भावना नहीं है.हमने यानी दुनिया के सबसे गरीब और कुपोषित देश भारत ने चीन की भी झोली में १०० अरब डॉलर का व्यापार डाल दिया है.फ़िर से दानवीर बनते हुए एकतरफा तौर पर.जहाँ ओबामा ने हमें कई आश्वासन दिए थे चीन ने आश्वासन का कोई लॉलीपॉप भी नहीं दिया.वर्ष २०१५ तक आपसी व्यापार को १०० अरब डॉलर तक पहुँचाने के अतिरिक्त ५ अन्य समझौते भी हुए जो प्रकृति में ही विचित्र हैं. हमने उस चीन से मीडिया के क्षेत्र आदान-प्रदान का समझौता किया जिस चीन में मीडिया है ही नहीं.न जाने क्या खाकर और क्या सोंचकर हमारे कूटनीतिज्ञों व राजनेताओं ने यह समझौता किया?समझौते के अनुसार भारत और चीन बैंकिंग और अन्य आर्थिक क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ाएंगे.अभी तक चीन के साथ हमारे जिस तरह के आर्थिक सम्बन्ध रहे हैं उससे यही सम्भावना बनती है कि आगे भी मक्खन-मलाई चीन मार जाएगा और सिर्फ छाछ हमारे हाथ लगेगा.अगर हमारा नेतृत्व शक्तिशाली होता तो भारत को भी बदले में बहुत-कुछ मिल सकता था.लेकिन हमें न तो नत्थी वीजा की समाप्ति के मोर्चे पर और न ही पाकिस्तानी आतंकवाद के मोर्चे पर ही कोई आश्वासन मिला.चीन जाहिर तौर पर तो भारत के साथ सहयोग की कसमें खा रहा है.जबकि उसकी समस्त नीतियाँ भारत-विरोधी हैं.चीन हमारे पड़ोसी पाकिस्तान,नेपाल,म्यांमार,श्रीलंका और बंगलादेश के साथ रणनीतिक संबंधों का विस्तार कर रहा है.पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में वह विद्युत ऊर्जा संयंत्र,डैम और हाईवे बना रहा है और पाकिस्तान के ग्वदर बंदरगाह से सिकियांग तक तेल पाईप लाईन का निर्माण कर रहा है.भारत के बाद पाकिस्तान जाकर वेन जियाबाओ ने जो कुछ ही कहा और जिस तरह से कहा उससे भी हमारी अंधी,बहरी और गूंगी सरकार को यह समझ जाना चाहिए कि चीन कभी हमारा मित्र साबित नहीं होनेवाला.भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार चीन के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की संसद में चीन को पाकिस्तान के सुख-दुःख का साथी बताते हुए हर चुनौती में पाकिस्तान का साथ देने की कसमें खाईं.चाहे मुम्बई हमला हो या पूर्वोत्तर का आतंकवाद प्रत्येक स्थान से चीनी हथियारों की बरामदगी क्या दर्शाती है कृष्णा खुद ही समझ सकते हैं?उनमें इतनी समझ तो होगी ही कि वे इन संकेतों में निहित संकेतों को समझ सकें.हमारे अन्य पड़ोसी देशो को भी अपने धनबल के बल पर उसने अपने पक्ष में कर लिया है और इस प्रकार हमारे खिलाफ रणनीतिक कोरिडोर के निर्माण में लगा है.अभी कुछ ही दिन पहले चीन के प्रजातंत्र-समर्थक नजरबन्द नेता लिऊ जिआओबो को शांति का नोबेल पुरस्कार देने के लिए ओस्लो में आयोजित समारोह में हमारे कई पड़ोसियों के प्रतिनिधि चीन के समर्थन में अनुपस्थित थे.इतना सब होते हुए भी भारत-सरकार चीन के साथ व्यापारिक समझौता कर रही है जो भविष्य में भी वर्तमान की तरह ही एकतरफा साबित होने जा रहा है.हम तब तक चीन के साथ बढ़ते व्यापारिक असंतुलन को दूर नहीं कर सकते जब तक हमारे औद्योगिक उत्पादन की गति चीन की गति से तेज नहीं हो.एक अन्य अद्भूत गुलाम मानसिकता वाले समझौते के अनुसार सी.बी.एस.ई. सिलेबस में चीनी भाषा की पढाई को शामिल किया जाएगा.अगर कोई भारतीय चीनी भाषा को पढना चाहता है तो पढ़े लेकिन इसे सिलेबस में शामिल करने का क्या तुक है?मैं वरिष्ठ राजनेता डॉ. कर्ण सिंह को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने चीन द्वारा नत्थी वीजा जारी करने का विरोध करते हुए जियाबाओ के हाथों सम्मान लेने से साफ तौर पर मना कर दिया और साथ ही भर्त्सना करता हूँ सम्मान प्राप्त कर छाती चौड़ी करनेवाले माक्सवादी नेता सीताराम येचुरी की जिन्हें आज भी भारत से ज्यादा चीन से प्यार है.दुर्भार्ग्यवश हमारे देश में चीन समर्थक राजनेताओं की एक लौबी पहले से ही मौजूद है अब उद्योगपतियों की भी एक इसी तरह की लौबी तैयार हो गई है.कुल मिलाकर चीनी प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान चीन का सिक्का खूब चला या अगर यह कहें कि सिर्फ चीन का ही सिक्का चला तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.उसने हमसे जो चाहा ले लिया और हमें बदले में दिया कुछ भी नहीं.प्रगाढ़ आर्थिक संबंधों के बावजूद भी हम अपनी चीनी सीमा को लेकर निश्चिन्त नहीं हैं.हमने बातचीत तो की लेकिन दबकर और डरकर और यह डर तब तक दूर नहीं तो सकता जब तक हम सैनिक और सामरिक स्तर पर उसकी बराबरी नहीं कर लेते.कभी नेपोलियन ने किसी यूरोपियन देश को जीतने के बाद कहा था कि हम आए,हमने देखा और हम जीत गए.दुर्भाग्यवश इस समय चीनी प्रधानमंत्री नेपोलियन और भारतीय प्रधानमंत्री पराजित देश के सेनापति की भूमिका में हैं.वेन जियाबाओ आए,उन्होंने हमारे नेताओं से बातचीत की और वार्ता की मेज पर बिना लड़े ही जीत गए.हमारा क्या है,हम तो १९७२ में पाकिस्तान के साथ जीती लड़ाई भी शिमला में समझौते की मेज पर हार चुके हैं.यह हार तो उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है!

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

गलतियों का राजकुमार नीतीश कुमार

जबसे बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम आए हैं पूरे भारत की मीडिया नीतीश नाम की माला जपने में जुटी है.कोई उन्हें भारतीय राजनीति का पथप्रदर्शक बता रहा है तो कोई उन्हें भारतीय राजनीति को नई दिशा देने का श्रेय दे रहा है.ऐसा लग रहा है मानों मीडिया सावन की अंधी है और नीतीश राज में बिहार में हरियाली ही हरियाली है.उनकी गलतियों को भुला दिया है जो वास्तव में इतनी ज्यादा और इतनी गंभीर प्रकृति के हैं कि इनकी बदौलत नीतीश बड़ी आसानी से गलतियों के राजकुमार का ख़िताब प्राप्त कर सकते हैं.कभी इतिहासकार लेनपुल ने दीने ईलाही को अकबर महान की मूर्खता का स्मारक कहा था जबकि यह अकबर की देश-काल और परिस्थिति के मद्देनजर एकमात्र गलती थी.लेकिन हमारे नीतीश कुमार की मूर्खता के एक नहीं कई स्मारक मौजूद हैं.नीतीशजी को सिपाही तो पढ़ा-लिखा चाहिए लेकिन शिक्षक अनपढ़ भी हो तो कोई बात नहीं.श्रीमान सिपाहियों से लिखित परीक्षा लेकर बहाली कर रहे हैं और शिक्षकों को बिना जाँच परीक्षा के ही नियुक्त कर रहे हैं.करा दिया न सारे स्थापित मानदंडों को शीर्षासन.ये वही बात हुई कि प्रिंसिपल मूर्ख हो तो चलेगा लेकिन चपरासी किसी भी स्थिति में मंदबुद्धि नहीं होना चाहिए बल्कि अक्लमंद चाहिए.आप तो जानते ही होंगे कि हमारा गाँव गंगा के गर्भ में स्थित है.काफी समय पहले हमारे गाँव में बाढ़ आई.एक पेटू किसान कोयले को नाव पर चढाने लगा.शायद उसे कल भोजन कैसे बनेगा की चिंता ज्यादा थी.जबकि स्वर्णाभूषणों की पेटियां पानी में बह गईं.बिहार में नीतीश भी वही काम कर रहे हैं यानी सोना बहा जा रहा है और वे कोयले पर छापा मार रहे हैं.लोग कहते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं तो इस तरह तो शिक्षक भाविष्य निर्माता हो गए.अब मैं आपको एक रोचक वाकया सुनाता हूँ.जैसा कि आप जानते हैं कि पिछले दिनों मैं अपने गाँव में था.मेरे एक ग्रामीण ने बताया कि वे एक दिन मध्य विद्यालय के पास से गुजर रहे थे.२००६ में बहाल एक शिक्षक बच्चों को १९ का पहाडा पढ़ा रहा था.उसके अनुसार १९ सते १३३ नहीं १२६ होता था और १९ अठे १५२ नहीं बल्कि १३६ होता था.मेरे ग्रामीण के खेतों की ओर बढ़ते पांव ठिठक गए.उन्होंने प्रधानाध्यापक के पास जाकर शिकायत की तो उसने अपनी लाचारी जाहिर कर दी और कहा कि यह मुखिया का चहेता है इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते.ज्ञातव्य हो कि नीतीश सरकार ने शिक्षकों की नियुक्ति के पहले चरण में तो सब कुछ और दूसरे चरण में बहुत कुछ अधिकार मुखियों के हाथों में दे रखा था.राज्यभर के मुखियों ने इन बहालियों में इतना ज्यादा पैसा बनाया कि विधायकों को भी उनसे ईर्ष्या होने लगी.वैसे बिहार के लोगों के बारे में पूरे देश में माना जाता है कि वे इतने उर्वर मस्तिष्क के स्वामी/स्वामिनी होते हैं कि लहरें गिनकर भी पैसा बना लें.शिक्षकों के द्वितीय चरण की बहाली की प्रक्रिया तो अभी भी जारी है और हजारों होनहार शिक्षकों के करोड़ों रूपये घूस के रूप में दांव पर लगे हुए हैं.हालांकि सरकार ने इस बार बहाली की प्रकिया में प्रमाण-पत्रों को लेकर सख्ती बरती है लेकिन बहाली में अब भी मुख्य भूमिका ग्रामप्रधानों की ही है.बहाली के बाद ये शिक्षक पहले चरण में नियुक्त शिक्षकों की तरह ११ बजे विद्यालय जाएँगे और वो भी महीने में २-४ दिन.बांकी समय वे ए.पी.एल.-बी.पी.एल. सूची में नाम शामिल करने के लिए लोगों से १००-२०० रूपये वसूलने में व्यतीत करेंगे या फ़िर खिचड़ी की लूट की राशि के बंटवारे में.पढाना चाहें भी तो नहीं पढ़ा सकेंगे क्योंकि उन्हें सिर्फ तिकड़म आते हैं पढाना नहीं आता.मेरे घर के सौभाग्य और गाँव के नौनिहालों के दुर्भाग्य से मेरा चचेरा भाई भी प्रथम चरण की बहाली में यानी २००६ में शिक्षक बना था.छोटे चाचा के श्राद्ध के दिन मेरे अन्य चाचा रामभवन सिंह जी जो आई.बी.,दिल्ली में इंस्पेक्टर हैं ने उससे अचानक एक सवाल पूछ दिया.सवाल बड़ा ही सरल था उसे पी.एच.डी. का पूर्ण विन्यास बताना था.मेरे अनुज का कभी पढाई-लिखाई से मतलब रहा नहीं सो जाहिर है कि वह उत्तर नहीं दे पाया और भागा-भागा मेरे पास आया.उस समय रात के ११ बज रहे थे और मैं आदतन सोया हुआ था.आते ही उसने मुझसे वही सवाल पूछा.मैंने जब बताया कि पी.एच.डी. का फुल फॉर्म डाक्टर ऑफ़ फिलोसोफी होता है तो वह डाईरेक्टर ऑफ़ फिलोसोफी रटता हुआ चला गया.अब आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि ये शिक्षक क्या पढ़ते होंगे और उनके शिष्य बड़े होकर किस तरह के नागरिक बनेंगे.वैसे मेरे भाई में एक गुण जरूर है वह सभी शराबों के नाम और दाम जानता है.नीतीश कुमार बार-बार अपनी साईकिल वितरण योजना का जिक्र करते हैं.क्या छात्र-छात्राओं को साईकिल मिल जाने से ही पढाई पूरी हो जाएगी?साईकिलें उन्हें पढ़ाएंगी तो नहीं,इसके लिए तो योग्य शिक्षक चाहिए जो सरकार ने उन्हें दिया ही नहीं.जैसा कि आप जानते होंगे कि भारत तीव्र जन्म-दर के बल पर दुनिया का सबसे युवा देश है.यानी दुनिया में युवाओं की सबसे बड़ी संख्या भारत में है.युवावस्था ही वह दोराहा होता है जहाँ से व्यक्ति अच्छे या बुरे मार्ग पर चलता है.लेकिन हमारे नीतीश जी को युवाओं की चिंता ही नहीं है.वे तो युवाओं के बजाए बुजुर्गों को काम देने में लगे हैं.कहीं अवकाशप्राप्त लोगों से काम कराया जा रहा है तो कहीं रिटायरमेंट की उम्र-सीमा बढ़ाई जा रही है.जहाँ पूरे यूरोप में इसी तरह के कदमों के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए हैं बिहार में जनता नीतीशजी को अभूतपूर्व बहुमत देकर जीता रही है.यही अंतर है परिपक्व और अपरिपक्व लोकतंत्र में.एक मामले में तो नीतीश सरकार ने उल्टी गंगा ही बहा दी है.दूध के खटालों को बंद करा दिया और शराब की दुकानें गाँव-गाँव में खोल दी.वृद्ध से लेकर बच्चा तक पीकर मस्त रहता है और सरकारी आमदनी में पैसे के साथ-साथ अपनी जिंदगी देकर योगदान कर रहा है.दुकानदारों को किराने की दुकानों में भी शराब रखनी पड़ रही है नहीं तो आटा-दाल की भी बिक्री नहीं होती.किसी भी चिकित्सक को जब बीमार शरीर दिया जाता है तो वह उसमें सुधार के प्रयास करता है लेकिन नीतीश जी ने शिक्षा सहित कई क्षेत्रों को सुधारने के नाम पर बर्बाद करके रख दिया है.अब नीतीश जी दोबारा सत्ता में आ चुके हैं वो भी प्रचंड बहुमत के साथ.देखना है कि वे अपनी पुरानी गलतियों में सुधार करते हैं या फ़िर नई गलतियाँ करके सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं और अपनी मूर्खता के नए स्मारक स्थापित करते हैं.

रविवार, 12 दिसंबर 2010

दिग्विजय के जूते दिग्विजय के ही सिर पर

कई बार हमारे महान नेताओं की बेवकूफी के कारण हम अधकच्चे लेखकों के सामने धर्मसंकट उत्पन्न हो जाया करता है.एक साथ कई-कई मुहावरे उनकी मूर्खता पर सटीक बैठने लगते हैं.कल भी ऐसा ही कठिन अवसर तब हमारे सामने अपना पैरियादार मुंह फाड़े खड़ा हो गया जब कांग्रेस के महासचिव,इल्जामों के राजा दिग्विजय सिंह उर्फ़ दिग्गी राजा ने मुम्बई हमले के शहीद हेमंत करकरे की शहादत पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया.अगर हम अपने बडबोलेपन से अनगिनत बार फजीहत झेल चुके दिग्गी राजा की बातों पर बेमन से विश्वास कर लें तो उन्होंने मुम्बई हमलों से १-२ घन्टे पहले ही शहीद करकरे से फोन पर बातचीत की थी जिसमें बाद में साहस के प्रतीक बनकर उभरे करकरे ने हिंदूवादी संगठनों से अपनी जान को खतरा बताया था.जाहिर है कि दिग्विजय यह कहना चाह रहे हैं कि करकरे पाकिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों से शहीद नहीं हुए बल्कि हिंदूवादी संगठनों ने जो पाकिस्तानी आतंकियों में घुसे हुए थे ने उनकी हत्या की.अब इस बेवकूफी को हम क्या नाम दें?इसका तो सीधा मतलब यह हुआ कि २६-११ के हमलों के सारे टी.वी. फूटेज झूठे थे और अजमल कसाब की गिरफ़्तारी भी झूठी थी.क्या मूर्ख शिरोमणि दिग्विजय यह बताने का कष्ट करेंगे कि उन्होंने किसलिए करकरे को फोन लगाया था,उन्हें ऐसा करने की जरूरत क्यों आन पड़ी?कहीं वे मालेगांव विस्फोट की जाँच को प्रभावित करने का प्रयास तो नहीं कर रहे थे?उधर वे जाँच एजेंसियां जो करकरे के फोन रिकार्ड्स को कई बार खंगाल चुकी हैं हमले के दिन उनसे दिग्विजय की किसी भी तरह की टेलीफोनिक बातचीत से ही इन्कार कर रही है.अब प्रश्न उठता है कि दिग्विजय झूठ बोल रहे हैं तो क्यों बोल रहे हैं?क्या वे मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए झूठ बोल रहे हैं?क्या उनका यह मानना नहीं है कि भारत के मुसलमान बंटवारे और आजादी के ६३ साल बाद भी पाकिस्तान के समर्थक हैं?इससे पहले दिसंबर,२००८ में २६-११ में कुछ ही दिनों बाद अल्पसंख्यक मामलों के तत्कालीन मंत्री ए.आर.अंतुले ने भी शहीद करकरे की शहादत को सवालों में घेरे में लाने का असफल प्रयास किया था और सिरफिरे हिन्दुओं पर उनकी हत्या करने का आरोप लगाया था.वे जब तक इस पद पर रहे उनका ध्यान अल्पसंख्यकों के कल्याण पर कम हिन्दुओं को गरियाने पर ज्यादा रहा.मानों उन्हें इस काम के लिए ही यह मंत्रालय सौंपा गया था.दिग्विजय सिंह इससे पहले भी बटाला हाऊस मुठभेड़ में शहीद मोहनचंद शर्मा की शहादत पर भी विवादित बयान दे चुके हैं.मुट्ठीभर कट्टरपंथी मुसलमानों को खुश करने के लिए घटना के तत्काल बाद उन्होंने न सिर्फ मुठभेड़ को फर्जी ठहराने का कुत्सित प्रयास किया बल्कि मुठभेड़ में मारे गए आतंकियों के गांवों की सांत्वना-यात्रा भी कर डाली थी.फिलहाल यह अपने-आपमें बेहद हास्यास्पद स्थिति है कि जहाँ हमारी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार २६-११ के हमलावरों और पाकिस्तानी षड्यंत्रकर्ताओं को सजा दिलाने के लिए लगातार पाकिस्तान पर दबाव बना रही है वहीँ कांग्रेस महासचिव दिग्गी राजा इस मामले में पाकिस्तान को क्लीन चिट देने और अपने ही पाले में गोल दागने पर तुले हुए हैं.इस तरह के मामलों में जैसा कि पहले भी होता आया है कांग्रेस ने व्यक्तिगत विचार कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया है और इल्जामों के दिग्गी राजा शहीद करकरे की पत्नी कविता सहित पूरे भारत की आलोचनाओं के घेरे में आ गए हैं.मुहावरों की भाषा में कहें तो उन्होंने अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार ली है.इसी तरह का एक वाकया महाभारत में भी वर्णित है जब द्रौपदी-स्वयंवर में अंगराज कर्ण का वाण प्रत्यंचा से फिसल जाता है और लक्ष्य-भेदन करने के बजाए उन्हें ही घायल कर जाता है.अंत में मैं अपनी आदत के आगे लाचार होकर दिग्गी राजा को दो सलाह और वो भी बिलकुल मुफ्त में देना चाहूँगा.पहली यह कि यार जहाँ तक हो सके मौनव्रत रखो.यह तुम्हारी शारीरिक सेहत के साथ-साथ तुम्हारे राजनैतिक स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा रहेगा और दूसरी जब पेट में बोलने की खुजली होने लगे तो बोलो मगर सोंच-समझकर.अब इस उम्र में तो ऎसी गलती मत करो कि तुम्हारे द्वारा उछाले गए जूते तुम्हारे ही सिर पर आ लगें.

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

कैंसर के चंगुल में राघोपुर प्रखंड

मैं पिछले एक सप्ताह से अपने सबसे छोटे ४५ वर्षीय चाचा के श्राद्ध के सिलसिले में अपने गाँव में था.पटना के पार्श्व में स्थित राघोपुर प्रखंड के जुड़ावनपुर बरारी गाँव में.एक ऐसे प्रखंड और गाँव में जहाँ कैंसर (हिंदी में केंकड़ा) धीरे-धीरे महामारी का रूप लेता जा रहा है.यहाँ के चापाकल अमृत के बदले नीला जहर आर्सेनिक उगल रहे हैं.मेरे चाचा सहित कुछ की इसके चलते अकालमृत्यु हो चुकी है तो कुछ की जिंदगी में अब चंद दिन ही शेष बच गए हैं.दुर्भाग्यवश इस बीमारी से ग्रस्त और मृत व्यक्तियों में ज्यादा संख्या किशोरों,युवाओं और अधेड़ो की है.उदाहरण के लिए मेरे पड़ोसी पंचायत चकसिंगार के मुखिया जवाहरलाल राय का १८ वर्षीय भतीजा कारू के कैंसर का ईलाज इस समय महावीर कैंसर अस्पताल,पटना में चल रहा है.यह किशोर इन दिनों कीमोथेरेपी के दर्दनाक दौर से गुजर रहा है.मेरे चाचा की तरह ही उसके पेट में भी भयंकर दर्द हो रहा था.जांच के बाद पता चला कि उस नौनिहाल को कैंसर हो गया है.अभी तो उसने जिंदगी जीना शुरू भी नहीं किया था कि अचानक जिंदगी की शाम हो गई.डॉक्टर अभी भी इसको लेकर निश्चिन्त नहीं हैं कि वह कुछ और सालों के लिए भी ठीक हो पाएगा कि नहीं.इसी प्रकार मेरे गाँव में ही कई अन्य लोग अचानक पेट दर्द और बुखार होने के बाद मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं.यहाँ मैं यह भी बताता चलूं कि लगभग मेरे पूरे गाँव में लोगों के सिरों और पैरों पर वैसे चकत्ते उभर रहे हैं जिनका सीधा सम्बन्ध आर्सेनिक युक्त जल से हो सकता है.बांग्लादेश में भी देखा गया है कि बाद में यही चकत्ते विकसित होकर कैंसर में बदल जाते हैं.मेरे मृत चाचा के शरीर पर भी पिछले कई सालों में ऐसे ही चकत्ते उभर आए थे.कुछ ही महीने पहले जब जढुआ,हाजीपुर में जहाँ मैं इस समय निवास करता हूँ में पेय जल की जाँच की गई थी तो उसमें आर्सेनिक की मात्रा निर्धारित सुरक्षित मात्रा से ५० गुना ज्यादा पाई गई थी.यहाँ बर्तनों में धीरे-धीरे हल्की उजली परत जम जाती है.लेकिन मैंने अपने गाँव में पाया कि पानी इतना ज्यादा प्रदूषित है कि मात्रा महीने-२ महीने में ही बाल्टियों में मोटी नीली-पीली परत जम जाती है.इस बात से भी यह अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है कि वहां के पानी में कितना ज्यादा आर्सेनिक है.गाँव के कुछ लोगों ने बताया कि आर्सेनिक रहित पेयजल के लिए कई विशेष प्रकार के चापाकल भी सरकार की तरफ से गडवाए गए हैं लेकिन आश्चर्य की बात है कि इनका पानी और भी ज्यादा गन्दा और प्रदूषित है.विशेष चापाकल लगाने के बाद अब तक कोई डॉक्टर या अधिकारी पानी की जाँच करने नहीं आया है और न ही सरकार की तरफ से कैंसर रोगियों की जाँच के लिए चिकित्सा-शिविर ही लगाया गया है.केंद्र सरकार ने तो संसद में भी स्वीकार किया है कि समस्त गांगेय क्षेत्र के पानी में कहीं कम तो कहीं ज्यादा मात्रा में आर्सेनिक आ रहा है.फ़िर भी न तो केंद्र और न ही राज्य सरकार की तरफ से ही इस नीले जहर से दियारे में रहनेवाले लाखों लोगों को बचाने का कोई प्रयास किया जा रहा है.पिछले दो सालों से बरसात नहीं होने से इस अति पिछड़े ईलाके की अर्थव्यवस्था तो पहले से ही चौपट हो चुकी है.फ़िर ऎसी स्थिति में कैंसर जैसी महँगी बीमारी का ईलाज लोग कहाँ से करवाएं?इसलिए खुद मेरे चाचा ने ईलाज नहीं करवाना और बिना किसी को बताए मौत को गले लगाना ज्यादा श्रेयस्कर समझा.अगर केंद्र और राज्य सरकार अब भी नहीं जागती है और आर्सेनिक-रहित पानी का ईंतजाम नहीं हो पाता है तो वह समय भी जल्दी ही आ जाएगा जब राघोपुर में लाशों को जलाए बिना ही गंगा में फेंकना पड़ेगा क्योंकि इस दियारे में वैसे ही लकड़ी की किल्लत रहती है.

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

कानून अपना काम (नहीं) करेगा

६ दिसंबर,२०१० को डॉ.अम्बेदकर की पुण्यतिथि पर लिखित
आपको अपने देश के नेताओं की बातों पर कितना भरोसा है मैं नहीं जानता.अपनी कहूं तो मैं मानता हूँ कि हमारे नेता हमेशा विरोधाभासी अलंकार का प्रयोग करते हैं.आप भी कहेंगे कि मैंने न जाने क्या कह दिया है तो मैं अर्थ स्पष्ट कर देता हूँ.वैसे भी अपने देश में शुद्ध हिंदी को समझने में लोगों को कठिनाई होती है लेकिन कठिन-से-कठिन अंग्रेजी को समझनेवाले सहज ही प्राप्य हैं.मेरे कहने का मतलब यह है कि हमारे नेता जो बोलते हैं मैं उसका उल्टा अर्थ लगाता हूँ,विरोधाभासी अर्थ.जैसे कि अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून अपना काम करेगा तो मैं इसका सीधा अर्थ यह लगाता हूँ कि कानून अपना काम नहीं करेगा.२जी स्पेक्ट्रम से लेकर कॉमनवेल्थ घोटाले तक में अब तक कई महीने बीत जाने पर भी जांच प्रगति शून्य है और आगे भी उम्मीद की जानी चाहिए कि बड़ी मछलियाँ तो कम-से-कम कानून के हाथ नहीं ही लगनेवाली.राष्ट्रपति,सी.वी.सी. प्रमुख से लेकर केंद्र सरकार के कई मंत्री पहले से ही दागी हैं फ़िर भी इन्हें इन पदों पर नियुक्त किया गया,मानो देश से ईमानदारी पूरी तरह से समाप्त ही हो गई है.अगर ऐसा नहीं है तो फ़िर इसका यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होने का दंभ भरनेवाली कांग्रेस पार्टी को दागियों से कुछ ज्यादा ही प्यार है.हमारी राष्ट्रपति पर प्रतिभा महिला सहकारी बैंक के माध्यम से अरबों रूपये के घपले सहित कई आरोप थे.फ़िर भी विपक्ष के प्रबल विरोध के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार बनाया.देश में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए जिम्मेदार मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर कांग्रेसनीत सरकार ने एक ऐसे व्यक्ति की हठपूर्वक नियुक्ति कर दी जिस पर खुद ही पाम आयल से दूरसंचार घोटाले तक में शामिल होने के पुख्ता प्रमाण पहले से ही मौजूद थे.जाहिर है यह आदमी जिस-जिस मंत्रालय में रहा वहां-वहां इसने घोटाला किया.वाह!!दाद देनी पड़ेगी कांग्रेस पार्टी के चयन की जो उसने भ्रष्टाचार को रोकने के एक घोटाला विशेषज्ञ की नियुक्ति कर दी.जहाँ तक राष्ट्रपति पद का सवाल है तो यह निस्संदेह देश का सबसे गरिमामय पद है इसलिए इस पर नियुक्ति भी ऐसे व्यक्ति की होनी चाहिए थी जो हर तरह के संदेहों से परे हो.लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया और राष्ट्रपति चुनाव के समय भी उसकी तरफ से यही डायलॉग बार-बार दोहराया गया कि कानून अपना काम करेगा.यू.पी.ए. १ में रेल मंत्री के पद पर घोटाला शिरोमणि लालू प्रसाद को सुशोभित कर दिया गया तो कृषि और खाद्य आपूर्ति मंत्री के पद पर चीनी-माफिया के तौर पर मशहूर शरद पवार को दे दिया गया.अब आईये देखते हैं कि कांग्रेसी राज में कानून अपना काम कैसे करता है.सुरेश कलमाड़ी आज भी राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष हैं और घोटाले की जाँच में लगी सी.बी.आई. और अन्य एजेंसियां दस्तावेजों के लिए उनकी दया-दृष्टि पर निर्भर हैं.होना तो यह चाहिए था कि खेलों के आयोजन से पहले ही जब उनपर आरोप लगने शुरू ही हुए थे तभी उन्हें पदमुक्त कर दिया जाता.लेकिन ऐसा हुआ नहीं.बल्कि उन्हें पद पर बनाए रखा गया सिर्फ इसलिए ताकि वे जाँच में पलीता लगा सकें.हमारे यहाँ एक कहावत खूब प्रचलित है कि जैसे फक्कड़ बाबा वैसी रसूलन बाई और जैसा दंत्चियोर ग्राहक वैसा लाल चावल.कुछ ऐसी ही स्थिति चल रहे जांचों की भी है.जांच करवानेवाले थॉमस भी भ्रष्ट और जाँच करानेवाले तो भ्रष्ट हैं ही.ठीक यही स्थिति आदर्श सोसाईटी घोटाले की है.जाँच शुरू होते ही जरूरी दस्तावेजों की उसी तरह किल्लत पैदा हो गई है जिस तरह कांग्रेसी सरकार की नीयत में ईमानदारी की कमी का संकट पैदा हो जाया करता है.दूरसंचार घोटाले में अभी तक सी.बी.आई. घोटालों के राजा ए.राजा.से पूछताछ भी नहीं कर पाई है और आगे भी यही उम्मीद करनी चाहिए कि इसकी नौबत नहीं आनेवाली है.आज संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेदकर की पुण्यतिथि के दिन मुझे याद आती हैं उनकी कही अमर पंक्ति कि कोई भी संविधान अच्छा या बुरा,मजबूत या कमजोर नहीं होता वरन अच्छे या बुरे,मजबूत या कमजोर होते हैं वे लोग जो इसका संचालन करते हैं.ठीक यही बात कानून के सम्बन्ध में भी लागू होती है.हमारे देश में कानून व्यापक हैं और सभी तरह के अपराधों से निपटने में सक्षम हैं लेकिन इनकी सफलता और विफलता इन्हें लागू करनेवालों पर निर्भर करती है.स्पष्ट है कि कानून अपना काम नहीं कर सकता बल्कि यह तभी अपना काम करेगा जब इसे लागू करनेवाले ईमानदारी से अपना काम करेंगे और यह बात प्रत्येक सरकार पर लागू होती है चाहे वह सरकार कांग्रेस की हो या विपक्षी दलों की.

रविवार, 5 दिसंबर 2010

राडिया के हम्माम में सभी नंगे हैं

कहते हैं कि हम्माम में सभी नंगे होते हैं.दूसरों की क्या कहूं मैं खुद भी कपड़े पहन कर नहाना पसंद नहीं करता.कुछ बंधन जैसा लगता है या फ़िर लगता है कि नहाया ही नहीं.बचपन में सातवीं कक्षा में पढने तक मैं सार्वजनिक जगहों पर भी नंगा होकर निस्संकोच नहा लेता था.भारतीय नंगे होकर नहाने का महत्त्व हमेशा से समझते रहे हैं.यही कारण है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष स्थल मोहनजोदड़ो से कई विशालकाय हम्माम प्राप्त हुए हैं.सोंचिए अगर गोपियाँ नंगी होकर नहीं नहातीं तो कृष्ण को वस्त्रहरण की मधुर-लीला करने का महान व ऐतिहासिक अवसर कैसे प्राप्त होता और कृष्ण की इस लफुअई पर कैसे भागवतपुराण के प्रवचक-व्याख्याकार वारी-वारी जाते.खैर हम्माम में सभी नंगे होते हैं और ऐसा होने में कुछ बुरा भी नहीं है यह सभी मानते हैं.लेकिन आज के संचार क्रांति के युग में लोगों के नंगा होने के तरीके में भी हाईटेकपन आ गया है.पहले जब टी.वी. का महत्व ज्यादा था तब कई सांसद और अधिकारी टी.वी. पर नंगा होते दिखने लगे.कोई सीधे भौतिक रूप से नंगा होते हुए देखा गया तो कोई चारित्रिक रूप से और सगर्व यह कहता हुआ कि बाखुदा पैसा खुदा तो नहीं है लेकिन खुदा कसम यह खुदा से कम भी नहीं है.लेकिन तेजी से बदलती दुनिया में जल्दी ही टी.वी. से ज्यादा महत्वपूर्ण और अपरिहार्य हो गया मोबाईल फोन.तब लोगों ने फोन पर नंगा होना ज्यादा प्रतिष्ठापूर्ण समझा.अचानक साइबर अन्तरिक्ष में एम.एम.एस. के माध्यम से सेक्स क्लिपों की बाढ़ आ गई.लेकिन शारीरिक रूप से नंगा होते और नंगे होते लोगों को देखते-देखते लोग जल्दी ही उबने लगे और तब उनकी सहायता के लिए आगे आई नीरा राडिया जैसी पी.आर..राजनेता,व्यापारी और पत्रकार बारी-बारी नीरा राडिया के फोन पर पूरे मान-सम्मान के साथ नंगे होने लगे.सबका देशद्रोही और लालची रूप सामने आने लगा.अब तक श्रद्धा के पत्र रहे लोग अचानक मानव पद से नीचे गिरते देखे गए.राडिया की बदनाम दुनिया में कोई पैसों के बल पर सत्ता को नचाता पाया गया तो कोई पैसों के घूँघरू पहनकर नाचता हुआ-ता ता थई,तिक्ता तिक्ता थई.नीरा की कृपा से यह भी पता चला कि भारत सच्चे अर्थों में बहुत बड़ा और विविधतापूर्ण बाजार बन चुका है.ऐसा बाजार जहाँ सबकुछ बिकता है.सिर्फ खरीदने के लिए पैसा चाहिए.भाजपा से लेकर कांग्रेसी नेता तक,टाटा से लेकर नरेश गोयल और बरखा दत्ता से लेकर वीर सांघवी तक सब देश को धोखा देते और लूटते पाए गए.इतना नंगा तो कोई हम्माम में भी नहीं होता.वहां तो सिर्फ तन अनावृत रहता है लेकिन राडिया के फोनरूपी हम्माम में तो सबका मन ही नंगा हो गया और फ़िर लोगों का ऐसा विकृत रूप खुलकर सामने आया जो मन में केवल दो ही रसों की उत्पत्ति कर सकता था और वे रस थे या तो वीभत्स रस या फ़िर जुगुप्सा रस.

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

विकिलीक्स के खुलासे और भारत की भावी विदेश नीति

विकिलीक्स के खुलासों ने दुनिया के सामने अमेरिकी कूटनीति को उघाड़ कर रख दिया है.विकिलीक्स द्वारा सार्वजनिक की गई २.५ लाख सूचनाओं में से ३ हजार का सम्बन्ध भारत से है जिनसे अमेरिका के साथ-साथ पाकिस्तान और चीन की भारत के प्रति सोंच का भी पता चलता है.एक तरफ तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भारत की धरती से भारत के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का सदस्य बनाने का समर्थन कर रहे हैं वहीँ दूसरी ओर उनका शासन भारत को इसकी सदस्यता का स्वघोषित उम्मीदवार मानता है.वाह क्या दोस्ती निभाई जा रही है!मुंह में राम बगल में छूरी.इतना ही नहीं अमेरिका ने २६-११ के बाद भारत की ख़ुफ़िया नाकामियों की आलोचना करने में भी सिर्फ इसलिए संकोच बरता क्योंकि उसे इस बात का डर था कि ऐसा करने से भारत को पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उकसावा मिल सकता है.एक तरफ तो वह अफगानिस्तान में भारत से हजारों करोड़ रूपये का निवेश करवाता है तो दूसरी ओर पाकिस्तान को खुश करने के लिए अफगानिस्तान पर होने वाली अंतर्राष्ट्रीय बैठकों से भारत को अलग भी रखता है.जब अफगानिस्तान से भविष्य में भारत को कुछ नहीं मिलनेवाला फ़िर भारत सरकार क्यों वहां पैसा लगा रही है,यह तो वही जाने.अमेरिका अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तानी सेना और पाक ख़ुफ़िया एजेंसियां एक साथ अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान और भारत में आतंक फैला रहे लश्करे तैयबा जैसे संगठनों को सहायता प्रदान कर रही हैं फ़िर भी वह उस पर सिर्फ तालिबान को काबू में करने के लिए दबाव डालता रहा है.भारत की चिंता पर उसने सिर्फ जुबानी जमा खर्च किया है,पाकिस्तान पर दबाव डालने का प्रयास नहीं किया है.इतना ही नहीं पिछले ७० सालों से पाकिस्तान को जब-जब अमेरिका ने सैन्य और वित्तीय सहायता दी है उसने इसका इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ भारत के खिलाफ किया है.विकिलीक्स द्वारा सार्वजनिक किए गए दस्तावेजों के अनुसार वर्तमान अमेरिकी शासन भी इस तथ्य से अवगत है फ़िर भी वह लगातार पाकिस्तान को सैनिक साजो-सामान और अरबों डॉलर की सहायता इस नाम पर देता जा रहा है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का सहायक है.दस्तावेजों में अमेरिका ने साफ़ तौर पर माना है कि पाकिस्तान में शासन की वास्तविक बागडोर सेना के हाथों में है और जरदारी सिर्फ कठपुतली हैं.अमेरिका यह भी मानता है कि पाकिस्तान कभी भी तालिबान का पूरा खात्मा नहीं होने देगा फ़िर भी वह भारत के बदले उसे आतंकवाद के विरुद्ध चल रहे युद्ध में साथ रखे हुए है.हमें समझ लेना चाहिए कि भारत सिर्फ अमेरिका की आर्थिक मजबूरी है जबकि पाकिस्तान उसका पुराना प्यार है.अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका आज भी उसके साथ जाना ज्यादा पसंद करता है न कि भारत के साथ.दस्तावेजों से स्पष्ट है कि भारत अगर पाकिस्तान स्थित आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने के लिए हमले करता है तो भारत को निश्चित रूप से पाकिस्तान के परमाणु हमले का सामना करना पड़ेगा.इसलिए हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि हम मिसाईलों को हवा में ही नष्ट करने वाले प्रक्षेपास्त्रों का शीघ्रातिशीघ्र विकास करें.दस्तावेजों के अनुसार हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार चीन भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के मुद्दे पर भारत का ऊपर-ऊपर से तो समर्थन कर रहा है जबकि वास्तव में वह सुरक्षा परिषद् के विस्तार के ही पक्ष में नहीं है.अमेरिका यह भी मानता है कि पाकिस्तान दुनिया में व्यापक संहार वाले हथियार सबसे तेज गति से बनाने की क्षमता रखता है.उसे यह भी पता है कि पाकिस्तान चीन का भी निकट मित्र है और चीन अपने सभी बांकी पड़ोसियों के प्रति शत्रुता का भाव रखता है.साथ ही वह इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं है कि चीन पाकिस्तान का भारत के विरुद्ध इस्तेमाल करता रहा है.इन खुलासों के बाद भी अगर भारत सरकार अपनी विदेश नीति की समीक्षा नहीं करती है तो यह उसका शुतुरमुर्गी व्यवहार माना जाएगा जो संकट आने पर बालू में इस उम्मीद में मुंह छिपा लेता है कि ऐसा करने से संकट टल जाएगा.अमेरिका को पाकिस्तान के भारत विरोधी आतंकवाद को समर्थन देने से कोई ऐतराज नहीं है.उसे सिर्फ इस बात से मतलब है कि अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकी गुटों के खिलाफ कार्रवाई में पाकिस्तान सच्चे मन से मदद दे.जबकि सच्चाई तो यह है कि आतंकवादी एक हैं और उनके बीच अमेरिका विरोधी या भारत विरोधी होने के आधार पर विभाजन की रेखा नहीं खिंची जा सकती है.अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जब हाल ही में भारत से मदद मांगने आए तो हमने दिल खोलकर उनकी मदद की जबकि हम आज भी दुनिया के सबसे गरीब और कुपोषित देशों में से हैं.लेकिन यह उतना ही दुखद है कि अमेरिका हमें मूर्ख मानता है और हमारी मित्रतापूर्ण भावनाओं की उसे तनिक भी क़द्र नहीं है.विकिलीक्स के खुलासों ने दुनिया के कूटनीतिक इतिहास को विकिलीक्स से पहले और विकिलीक्स के बाद, दो भागों में बाँट दिया है.अब बदले हुए हालात में भारत को भी अपनी कूटनीति की समीक्षा करनी चाहिए जिससे कोई भी देश हमसे एकतरफा लाभ न उठा सके.साथ ही सरकार को यह समझ लेना होगा कि चाहे वह संयुक्त राष्ट्र में अधिकारों की लड़ाई हो या पाक समर्थित आतंकवाद से संघर्ष का मसला हो हमारी लड़ाई अमेरिका सहित कोई भी दूसरा देश नहीं लड़ने वाला.हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी.वर्तमान विश्व में अगर हमें अग्रणी भूमिका निभानी है तो हमें यथासंभव व्यावहारिक नीतियाँ अपनानी होगी.किसी को कुछ भी देने से पहले यह देखना होगा कि बदले में हमें क्या प्राप्त होने जा रहा है.कहीं मित्रता प्रदर्शित करने वाला राष्ट्राध्यक्ष मीठी-मीठी बातें बोलकर हमें धोखा तो नहीं दे रहा है.चीन के प्रति भी हमें सावधानी रखनी पड़ेगी क्योंकि संबंधों में कथित सुधार से उसे ही ज्यादा लाभ हुआ है.दूसरी ओर उसके साथ हमारे सिर्फ आर्थिक सम्बन्ध सुधरे हैं सीमा विवादों पर उसका रवैया आज भी उतना ही कठोर और शत्रुतापूर्ण है.जहाँ तक पाकिस्तान का प्रश्न है तो अब यह आईने की तरह हमारे सामने है कि वहां वास्तविक शासन आज भी सेना के हाथों में है इसलिए उसके साथ सम्बन्ध सुधरने की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है.हमें उसे दुनिया में अलग-थलग करने का प्रयास करना चाहिए और इसमें सबसे बड़ी बाधा बनेगा कोई और नहीं बल्कि हमारा नया और कथित मित्र अमेरिका.

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

और हमने कुछ नहीं सीखा

३ दिसंबर जो १९८३ तक जाना जाता था,
केवल देशरत्न राजेंद्र प्रसाद के जन्मदिन के रूप में;
१९८४ से बन गया रातोंरात हजारों निर्दोषों की पुण्यतिथि भी.
गलतियाँ घूसखोर नेताओं और अफसरों की थी,
और खामियाजा भुगतना पड़ा बेवजह उनलोगों को;
जिनका इस मसले से नहीं था कुछ भी लेना-देना.
हमेशा न जाने क्यों भारत में खेत गदहे खाते हैं और 
मार पड़ती है गरीब जुलाहों को;
क्यों जबरन चरितार्थ होती रहती है यह बदनाम कहावत?
दुर्घटना के बाद भी हमारे नेताओं ने नहीं छोड़ा अपना कमीनापन,
और भगा दिया हत्यारे एंडरसन को;
न जाने क्या ले-देकर गरीबों के कफ़न के सौदागरों ने.
पीड़ितों के परिवारों को है आज भी,
दोषियों को सजा दिए जाने का ईन्तजार;
उम्मीदें बुझने लगी हैं और आशाएं तोड़ने लगी हैं दम.
पीड़ित हो चुके हैं किशोर से जवान,
और जवान से बूढ़े भी,
और न जाने कितने बूढ़े कर गए हैं;
बिना न्याय पाए ही दुनिया से प्रयाण.
आज जबकि नेता और अफसर पहले से भी ज्यादा हैं भ्रष्ट,
और भी आसान हो गया है खरीदना उनके ईमान को;
ऐसे में कभी भी,कहीं भी हो सकती है;
फ़िर से भोपाल जैसी दुर्घटना.
आज भी उद्योग नहीं कर रहे सुरक्षा नियमों का पालन,
आज भी मंत्री-अफसर पैसे लेकर दे रहे हैं;
असुरक्षित औद्योगिक इकाईयों को नो ऑब्जेक्शन का सर्टिफिकेट.
आज भी हम नहीं सुधरे हैं और न ही सुधरनेवाले हैं,
हमारी यह आदत अब बन चुकी है लाईलाज बीमारी;
चाहे एक की जगह हजारों भोपाल क्यों न हो जाए,
हम उनसे कोई सीख नहीं लेनेवाले,क्योंकि हम भारतीय हैं.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

समय के साथ कदमताल में असफल सोनपुर मेला

मैं जब नन्हा-मुन्ना था तो मेरी दीदी मुझे सुलाने के लिए रोजाना एक लोरी गाती-' रे निंदिया निन्दरवन से,बौआ अलई नानी घर से,नानी घर बौआ कथी-कथी खाए,साठी के चूड़ा,पुरहिया गाय के दूध;खा ले रे बौआ जयबे बड़ी दूर'.लेकिन अब हमारे घर में न तो साठी धान का चूड़ा ही है ही पूरहिया गाय का दूध.सरकार की गलत कृषि नीति ने हमें परपरागत बीजों के साथ-साथ शुद्ध दूध-दही से भी महरूम कर दिया है.ज्ञातव्य हो कि वेदों में मगध में उपजने वाले जिस उत्तम कोटि के ब्रीहि धान का जिक्र है वह कोई और नहीं यही साठी धान था.एक समय था कि खुद मेरे दरवाजे पर ही जोड़ा बैलों के साथ-साथ कई-कई गायें और भैंसें बंधी होती थीं.लेकिन हमारी सरकार ने सर्वविनाशक वैज्ञानिक कृषि का ढिंढोरा पीट कर हमारी कृषि से पशुओं को अलग कर दिया.इसी कथित विकास का खामियाजा भुगत रहा है कभी दुनिया का सबसे बड़ा पशु मेला रहा सोनपुर पशु मेला.सोनपुर और हाजीपुर को नारायणी गंडक नदी अलग करती है.कल जब मैं मेले में गया तो पाया कि वहां पशुओं के नाम पर मात्र ४०-५० जर्सी गायें और २०-२५ घोड़े मौजूद हैं.लोगों से पता चला कि कुछ हाथी भी मेले में आए तो थे लेकिन अब जा चुके हैं क्योंकि अब मेला क्षेत्र में बरगद और पीपल के पेड़ रहे नहीं.इसलिए मालिकों के लिए उनका भोजन खरीदना काफी महंगा पड़ता है.कभी इस मेले में कितने पशु खरीद-बिक्री के लिए आते थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि १८५६ में बाबू कुंअर सिंह ने इसी सोनपुर मेले से एक साथ कई हजार घोड़े अपनी विद्रोही सेना के लिए ख़रीदे थे.आज तो स्थिति यह है कि नाम पशु मेला और भीड़ बिना पूंछ वाले दोपाया जानवरों यानी मानवों की.सारी भीड़ सिर्फ सड़कों पर और दुकानें खाली.शायद यह बाजार के पसरने और महंगाई का सम्मिलित प्रभाव है.पहले मेलों का ग्रामीण जनता के आर्थिक क्रियाकलापों में महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था.लोग साल में एक बार थका देनेवाले कृषि कार्यों से फ़ुरसत पाकर मेले में आते.मन भी बहल जाता और जरूरत की चीजों की खरीदारी भी हो जाती.खुद मेरे दरवाजे पर बिछी दरी,घर में मौजूद कम्बल,ऊनी कपडे सब के सब इसी मेले की देन होते थे.मेरे गाँव में जो भी बरतन सामूहिक भोज-भात में प्रयुक्त होते वे भी इसी सोनपुर मेले में ख़रीदे हुए होते थे.तब प्रत्येक ग्रामीण एक बार जरूर सोनपुर मेले में आता.तब यह मेला सगे-सम्बन्धियों से मिलने का भी सुनहरा अवसर हुआ करता था.अब तो मेले का क्षेत्रफल भी सिकुड़ता जा रहा है.तब मेले का क्षेत्रफल आज से कम-से-कम दस गुना हुआ करता था.मैं बात ज्यादा दिन पहले की नहीं,यही कोई ३० साल पहले तक की कर रहा हूँ.तब लोगों की भीड़ भी कई गुनी होती थी और उनमें से ज्यादा संख्या स्वाभाविक रूप से किसानों की हुआ करती थी.शायद इसलिए इस मेले को १९२९ में अखिल भारतीय किसान सभा की नीव पड़ते देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.तब स्थानीय बाजारों में न तो इतनी दुकाने होती थीं और न ही दुकानों में इतना सामान.तब नदियाँ आने-जाने का सबसे प्रमुख साधन हुआ करती थीं.सड़कों का महत्त्व कम था.इसलिए सारे मेले नदी किनारे लगा करते थे.आज तो पूरा देश ही एक बाज़ार का रूप ले चुका है और इस बाज़ार में हर कोई कुछ न कुछ खरीद और बेच रहा है.सबसे ज्यादा इस बाज़ार में जो चीज बिक रही है वह है ईमान.मेला घूमते समय सौभाग्यवश मुझे घुडबाजार में एक घोड़े का सौदा होते हुए देखने का अवसर भी मिला.चूंकि सारी बातचीत कूटभाषा में हो रही थी इसलिए मैं सब कुछ समझकर भी कुछ भी नहीं समझ पाया.आगे बढ़ा तो लाउडस्पीकरों के शोर से साबका हुआ.सड़कों पर पैरों में लाठी बांध कर १०-१० फीट लम्बे हो गए बच्चे घूमते नजर आए.लोगों की कौतुहलप्रियता पर गुस्सा भी आया जिसे शांत करने के लिए ये बच्चे हाथ-पैर टूटने का जोखिम उठा रहे थे.मेले में सबसे ज्यादा भीड़ दिखी कृषि प्रदर्शनी में.मैंने भी यहाँ भारतीय कृषि के विनाश के लिए दोषी यंत्रों को देखा.अब तो सरकार खुद भी मान रही है कि कृषि का हमारा परंपरागत तरीका ही सही था.वैज्ञानिक कृषि ने पेयजल को भी जहरीला कर दिया है,अनाज और सब्जियां तो जहरीली हुई ही है.पशु न सिर्फ हमारे सहायक थे बल्कि परिवार के सदस्य भी थे.मैंने बचपन में कई बार बिक चुके पशुओं को नए मालिकों के साथ जाने से इनकार करते देखा है.कई गुस्सैल पशुओं को मालिक के आगे सीधा-सपाटा होते देखा है.मैंने मेरे मित्र राजकुमार पासवान के परिवार को भैंस बेचने के बाद फूट-फूट कर रोते हुए देखा है.खुद अपने चचेरे मामा रामजी मामा के परिवार का बैल बेचने के बाद रोते-रोते हुए बुरा हाल होते देखा है.अब हमारी नकलची सरकार एक बार फ़िर पश्चिम की नक़ल करते हुए बेमन से ही सही जैविक और परंपरागत कृषि को फ़िर से प्रोत्साहित करना चाहती है.बेमन से इसलिए क्योंकि कृषि यंत्रो और उत्पादों के निर्माताओं के पास कुछ भी खरीदने के लिए जितना ज्यादा पैसा है,हमारे मंत्रियों-अफसरों के पास बेचने के लिए ईमान उतना ही सस्ता लेकिन मात्रा में कम.फ़िर भी अगर ऐसा हो ही गया तो क्या लोग फ़िर से वापस पशुआधारित कृषि को अपनाएँगे?मुझे तो इसकी सम्भावना कम ही लगती है.अब कौन एक बात आदत छूट जाने के बाद गोबर से हाथ गन्दा करेगा जब रासायनिक खाद का विकल्प उपलब्ध है.सरकार को पता होना चाहिए कि विकास की गाड़ी में सिर्फ आगे बढ़ाने वाले गियर होते हैं,रिवर्स गियर नहीं होता.इसलिए यह उम्मीद करना भी बेमानी होगी कि सोनपुर पशु मेले में फ़िर से पहले की तरह भारी संख्या में पशुओं का आना शुरू होगा और यह मेला फ़िर से दुनिया का सबसे बड़ा पशु मेला कहलाने का गौरव प्राप्त कर लेगा.काश मेरी बात गलत साबित हो जाए और मुझे वर्षों बाद अपनी गलती पर पछताना पड़े.

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

कठोर दंड के भागी हैं स्वामी नित्यानंद जैसे भ्रष्ट संन्यासी

हमारा सनातन धर्म जीवों के संसार में आवागमन में विश्वास करता है और हम सभी सनातनी इस आवागमन के चक्कर से मुक्ति चाहते हैं.इस मुक्ति को ही शास्त्रों में मोक्ष कहा गया है.विदेशों में चर्चों ने पैसे लेकर स्वर्ग के टिकट बेचे.लेकिन वहां तो यह मध्यकाल में हुआ.हमारे देश में प्राचीन काल में ही सबसे पहले बोधिसत्वों ने धन लेकर निर्वाण प्राप्त कराने का धंधा शुरू किया जबकि मोक्ष के लिए प्रयास करना नितांत वैयक्तिक कर्म है.कालांतर में यह धंधा इतना गन्दा हो गया कि लोगों का बौद्ध धर्म से विश्वास ही उठ गया और भारत की धरती यानी बौद्ध धर्म की जन्मभूमि पर ही इसका कोई नामलेवा नहीं रहा.बाद में अद्वैत और फ़िर भक्ति आन्दोलन दोनों में ही ज्ञानी और ज्ञेय तथा भक्त और भगवान के बीच मध्यस्थ की भूमिका समाप्त हो गई.फ़िर इस २१वीं सदी में लोग कैसे स्वामी नित्यानंद जैसे मक्कारों की बातों में आ जा रहे है,आश्चर्य है.इसका सीधा मतलब है कि इस आधुनिक युग में भी मूर्खों की कोई कमी नहीं है.जहाँ तक नैतिकता का प्रश्न है तो इस दिशा में यह युग तुलसीदास द्वारा वर्णित कलिकाल से भी दो कदम आगे निकल चुका है और गोपी फिल्म के प्रसिद्ध भजन 'रामचंद्र कह गए सिया से' को चरितार्थ करने लगा है.संन्यास तो सब कुछ को सब कुछ के चरणों में अर्पित कर देने का नाम है,निरा त्याग का मार्ग है.किसी भी भगवा वस्त्रधारी को धन,संपत्ति या स्त्री यानी किसी भी प्रकार की माया की ईच्छा रखने या प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है.वैसे संन्यासियों का वर्जित कर्मों में लिप्त होना कोई नई बात नहीं है.हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार अमृत लाल नागर ने अपने उपन्यास मानस का हंस जो संत तुलसीदास की जीवनी है,में मध्यकाल में मठों-मंदिरों में व्याप्त अवैध यौनाचार का विस्तार से वर्णन किया है.कबीर ने भी माया को महाठगनी बताते हुए संन्यासियों को भी इससे मुक्त नहीं बताया है-माया महाठगनी हम जानी,तिरगुन कास लिए कर तोले बोले मधुरी बानी.इससे और पहले के काल में जाएँ तो बौद्ध संघों में भी स्त्रियों को प्रवेश बुद्ध ने यह कहते हुए दिया था कि अब संघ ज्यादा समय तक नहीं चल पाएगा.मैं यह नहीं कह रहा कि स्त्रियम नरकस्य द्वारं.उन्हें तो किसी भी तरह से दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता क्योंकि समाज का निर्णयन,नियमन और संचालन हमेशा पुरुषों ने ही किया है.बल्कि मेरी नजर में दोषी कामेच्छा रखने वाले स्वामी नित्यानंद जैसे संन्यासी हैं.मोक्ष और काम का ३६ का सम्बन्ध है और यह व्यभिचारी काम द्वारा मोक्ष प्राप्ति की बातें करता है.मिट्टी तेल डालकर आग को बुझाने की बात कर रहा है यह,हद हो गई.उस पर हद यह है कई महिलाऐं उसके बहकावे में आ गईं और अपना सर्वस्व गँवा बैठीं.दक्षिण भारत में पहले से भी मंदिरों में देवदासी प्रथा के नाम पर यौनाचार की परोक्ष रूप से स्वीकृति रही है.शायद इसलिए नित्यानंद ने दक्षिण भारत को अपना कुकर्म क्षेत्र बनाया.धर्म समाज का अहम् हिस्सा है,नियामक है.इसलिए धार्मिक क्रियाकलापों में लगे लोगों का स्वच्छ चरित्र का होना अतिआवश्यक है.विवेकानंद का तो सीधा फार्मूला था कि जो कर्म हमें ईश्वर के निकट ले जाए वे कर्त्तव्य कर्म हैं और जो दूर ले जाए वे अकर्तव्य.अगर सम्भोगेच्छा इतनी ही प्रबल है तो गृहस्थाश्रम अपना लो और खूब भोग करो.दो नावों की सवारी का परिणाम सर्वविदित है.पहले भी ऐसे उदाहरण रहे हैं जब लोगों ने संन्यास लेने के बाद फ़िर से गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया है.महान संत ज्ञानेश्वर के पिता ने भी ऐसा किया था.संन्यासी जाति के लोगों के पूर्वज भी कभी संन्यासी थे.इसलिए ऐसा करना पाप कर्म नहीं होगा बल्कि पाप तो पवित्र गेरुआ वस्त्र को कलंकित करना है.मेरा मानना है कि जो भी संन्यासी इस प्रकार के वर्जित क्रियाकलापों में लिप्त पाए जाते हैं उन्हें निश्चित रूप से कठोर से कठोर दंड दिया जाना चाहिए और यही उनका प्रायश्चित भी होगा.यह आधुनिक युग विज्ञान और तर्क का युग है और इस युग में किसी को भी अंधविश्वासों द्वारा जनता को बरगलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.इसलिए मैं पूरे भारत के मंदिरों से देवदासी या उस तरह की किसी भी प्रचलित प्रथा की समाप्ति का आह्वान करता हूँ क्योंकि यह कुछ और नहीं निरी मूर्खता है.ईश्वर या देवताओं के साथ कन्याओं के विवाह की कल्पना करना भी इस युग में पागलपन है.क्या इसके समर्थक जनसमुदाय को देवता या ईश्वर का साक्षात्कार करा सकते हैं?नहीं!!!तब फ़िर इस अमानवीय प्रथा का अंत क्यों न कर दिया जाए जिससे सैंकड़ों ललनाओं का जीवन सुगम और पवित्र बन सके और वे अपनी अन्य हमउम्र लड़कियों की तरह सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें?

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

मुझे मस्त माहौल में जीने दो

पूरा भारत इस कालखंड में मस्त है.कोई गांजा पीकर तो कोई अफीम खाकर तो कोई बिना कुछ खाए-पिए.चारों तरफ मस्ती है.मेरी पड़ोसन भी इन दिनों अपने तीनों सयाने हो चुके बेटों के साथ 'मुन्नी बदनाम हुई' गाना सुन-सुनकर मस्त हुई जा रही है.नेताओं,अफसरों और जजों की मस्ती तो हम-आप कई बार टेलीविजन पर देख चुके हैं.जनता भी कम मस्त नहीं.मस्ती की बहती गंगा में वो क्यों न डुबकी लगाए?देश की मस्त हालत को देखकर यदि बाबू रघुवीर नारायण आज जीवित होते तो मस्ती में फ़िर से गुनगुनाने लगते लेकिन कुछ परिवर्तन के साथ:-सुन्दर मस्त देसवा से भारत के देसवा से मोरे प्राण बसे दारू के बोतल में रे बटोहिया.महनार में जब मैं रहता था तो मेरे एक पड़ोसी के तीन बेटे थे.पड़ोसी भी राजपूत जाति से ही था.तीनों बेटे माता-पिता की तरह ही मस्त थे.न तो नैतिकता की चिंता और न ही किसी भगवान-तगवान का डर.पड़ोसी के बेटी नहीं थी. जिस पर मेरे एक मित्र का मानना था कि भगवान ने कितना अच्छा किया कि इन्हें बहन नहीं दिया वरना ये उससे ही शादी कर लेते.खैर भगवान को जो गलती करनी थी की.लेकिन इन्होंने उनकी गलती में जरूर सुधार कर दिया.बड़े लड़के ने अपनी सगी फूफी की लड़की से शादी कर ली.अब तो उसके कई बच्चे अवतरित भी हो चुके हैं जो दिन में मेरे पड़ोसी को दादा कहते हैं और रात को नाना.आज का पिता पुत्र को शराब पीने से रोकता नहीं है बल्कि उसके साथ में बैठकर पीता है और पिता का कर्त्तव्य बखूबी निभाता है.वो संस्कृत में कहा भी तो गया है कि प्राप्तेषु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं समाचरेत.मैं अपनी दादी के श्राद्ध में जब वर्ष २००८ में गाँव गया तो सगे चाचाओं को मस्ती में लीन पाया.भोज समाप्त हो चुकने के बाद रोजाना लाउदस्पिकर पर अश्लील भोजपुरी गीत बजाकर नाच-गाने का कार्यक्रम होता.शराब की बोतलें खोली जातीं और घर के बच्चों को भी इस असली ब्रम्ह्भोज में सम्मिलित किया जाता.कबीर ने ६०० साल पहले मृत्यु को महामहोत्सव कहा था और चाचा लोग अब जाकर इसे चरितार्थ कर रहे थे.गाँव-शहर जहाँ भी मैं देखता हूँ लोग मस्त हैं.स्कूल-कॉलेज के बच्चों से तो मैंने बोलना ही छोड़ दिया है.न जाने कौन,कब मस्त गालियाँ देने लगे या शारीरिक क्षति पहुँचाने को उद्धत हो जाए.एक नया प्रचलन भी इन दिनों बिहार में देखने को मिल रहा है.अधेड़ या कुछ बूढ़े भी इतना मस्त हो जा रहे हैं कि पुत्र जब विवाह कर घर में पुत्रवधू लाता है तो उस पर कब्ज़ा जमा ले रहे हैं.ऐसे महान पिता का पुत्र भी कम महान नहीं होता.वह भी जहाँ नौकरी कर रहा होता है वहीँ अपनी मस्ती का इंतजाम कर लेता है.मैं सोंचता हूँ कि इस मस्त माहौल में जब मेरे लिए साँस लेना भी दूभर हो रहा है कैसे जीवित रह पाऊँगा या फ़िर जब मेरे बच्चे होंगे तो उन्हें कैसे मस्त होने से बचा पाऊँगा?मैं मस्त तो नहीं हो सकता (पुराने संस्कारों वाला जो ठहरा) और न ही संन्यास ही ले सकता हूँ (मैं अपने माता-पिता का ईकलौता पुत्र हूँ).तो फ़िर क्या करुँ समझ में नहीं आ रहा.चलिए एक लाईफलाईन का ही प्रयोग कर लेता हूँ.तो औडिएंस आप बताईये मुझे इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए.राय देने के लिए आपका समय शुरू होता है अब.

सोमवार, 29 नवंबर 2010

लोकतंत्र को लूटते लोकतंत्र के प्रहरी

हजारों साल पहले की बात है.किसी राज्य का राजा बड़ा जालिम था.उसके शासन में चारों तरफ लूटमार का वातावरण कायम हो गया.कुछ लोगों ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराने की कोशिश भी की.लेकिन उन सबको अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.उसी राज्य में एक वृद्ध और बुद्धिमान व्यक्ति रहता था.एक दिन जा पहुंचा राजा के दरबार में और कहा कि मैं एक सच्ची कहानी आपको सुनना चाहता हूँ.राजा को कहानियां बहुत पसंद थी.बूढ़े ने कहना शुरू किया कि महाराज जब आपके दादाजी का राज था तब मैं नौजवान हुआ करता था और बैलगाड़ी चलाता था.एक दिन जब शहर से लौट रहा था तब जंगल में ऊपर से नीचे तक सोने के गहनों से लदी नवयौवना मिली.डाकुओं ने उसके कारवां को लूट लिया था और पति और पति के परिवार के लोगों की हत्या कर दी थी.वह किसी तरह बच निकली थी.उसका दुखड़ा सुनकर मुझे दया आई और मैंने उसे गाड़ी में बिठाकर सही-सलामत उसके पिता के घर पहुंचा दिया.बाद में जब आपके पिता का राज आया तब मेरे मन में ख्याल आया कि अच्छा होता कि मैं उसे घर पहुँचाने के ऐवज में उसके गहने ले लेता.अब आपका राज है तो सोंचता हूँ कि अगर जबरन उसे पत्नी बनाकर अपने घर में रख लेता तो कितना अच्छा होता.राजा ने वृद्ध की कहानी में छिपे हुए सन्देश को समझा और पूरी मेहनत से स्थिति को सुधारने में जुट गया.मैं जब भी इस कहानी के बारे में सोंचता था तो मुझे लगता कि भला ऐसा कैसे संभव है कि कोई ईमानदार व्यक्ति समय बदलने पर बेईमान हो जाए.खुद मेरे पिताजी का उदाहरण मेरे सामने था जो सारे सामाजिक प्रतिमानों के बदल जाने पर भी सच्चाई के पथ पर अटल रहे.लेकिन जब प्रसिद्ध पत्रकार और कारगिल फेम बरखा दत्ता को दलाली करते देखा-सुना तो यकीन हो गया कि यह कहानी सिर्फ एक कहानी नहीं है बल्कि हकीकत भी है.ज्यादातर लोग समय के दबाव को नहीं झेल पाते और समयानुसार बदलते रहते हैं.कारगिल युद्ध के समय हिमालय की सबकुछ जमा देनेवाली ठण्ड में अग्रिम और दुर्गम मोर्चों पर जाकर रिपोर्टिंग कर पूरे देश में देशभक्ति का ज्वार पैदा कर देने वाली बरखा कैसे भ्रष्ट हो सकती है?लेकिन सच्चाई चाहे कितनी कडवी क्यों न हो सच्चाई तो सच्चाई है.नीचे ग्रामीण और कस्बाई पत्रकारों ने पैसे लेकर खबरें छापकर और दलाली करके पहले से ही लोकतंत्र के कथित प्रहरी इस कौम को इतना बदनाम कर रखा है कि मैं कहीं भी शर्म के मारे खुद को पत्रकार बताने में हिचकता हूँ.अब ऊपर के पत्रकार भी जब भ्रष्ट होने लगे हैं तो नीचे के तो और भी ज्यादा हो जाएँगे.वो कहते हैं न कि महाजनो येन गतः स पन्थाः.यानी समाज के जानेमाने लोग जिस मार्ग पर चलें वही अनुकरणीय है.मैंने नोएडा में देखा है कि वहां की हरेक गली के एक अख़बार है जिनका उद्देश्य किसी भी तरह समाज या देश की सेवा या उद्धार करना नहीं है.बल्कि इनके मालिक प्रेस के बल पर शासन-प्रशासन पर दबाव बनाते हैं और उसके बल पर दलाली करते हैं,ठेके प्राप्त करते हैं.दुर्भाग्यवश बड़े अख़बारों और चैनलों का भी यही हाल है.दिवंगत प्रभाष जोशी ने पेड न्यूज के खिलाफ अभियान भी चलाया था.लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु के चलते यह अभियान अधूरा ही रह गया.कई बार अख़बार या चैनल के मालिक लोभवश सत्ता के हाथों का खिलौना बन जाते हैं और पत्रकारिता की हत्या हो जाती है.अभी दो दिन पहले ही पटना के एक प्रमुख अख़बार दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख का तबादला राज्य सरकार के कहने पर लखनऊ कर दिया गया है.खबर आप भड़ास ४ मीडिया पर देख सकते हैं.वैसे भी हम इन बनियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?जो अख़बार मालिक जन्मना बनिया नहीं है वह भी कर्मणा बनिया है.व्यवसायी तो पहले भी होते थे लेकिन उनमें भी नैतिकता होती थे.जब चारों ओर हवा में नैतिक पतन की दुर्गन्ध तैर रही हो तो पत्रकारिता का क्षेत्र कैसे इससे निरपेक्ष रह सकता है?क्या ऐसा युग या समय के भ्रष्ट हो जाने से हो रहा है.मैं ऐसा नहीं मानता.समय तो निरपेक्ष है.समय का ख़राब या अच्छा होना हमारे नैतिक स्तर पर निर्भर करता है.जब अच्छे लोग ज्यादा होंगे तो समय अच्छा (सतयुग) होगा और जब बुरे लोग ज्यादा संख्या में होंगे तो समय बुरा (कलियुग) होता है.मैं या मेरा परिवार तो आज भी ईमानदार है.परेशानियाँ हैं-हमें किराये के मकान में रहना पड़ता है,कोई गाड़ी हमारे पास नहीं है,हम अच्छा खा या पहन नहीं पाते लेकिन हमें इसका कोई गम नहीं है.इन दिनों टी.वी चैनलों में टी.आर.पी. के चक्कर में अश्लील कार्यक्रम परोसने की होड़ लगी हुई है.समाज और देश गया बूंट लादने इन्हें तो बस पैसा चाहिए.कहाँ तो संविधान में अभिव्यक्ति का अधिकार देकर उम्मीद की गई थी कि प्रेस लोकतंत्र का प्रहरी सिद्ध होगा और कहाँ प्रेस पहरेदारी करने के बजाय खुद ही दलाली और घूसखोरी में लिप्त हो गया है.नीरा राडिया जैसे जनसंपर्क व्यवसायी अब खुलेआम पत्रकारों को निर्देश देने लगे हैं कि आपको क्या और किस तरह लिखना है और क्या नहीं लिखना है,क्या प्रसारित करना है और क्या नहीं करना है.शीर्ष पर बैठे पत्रकार जिन पर सभी पत्रकारों को गर्व हो सकता है पैसे के लिए व्यापारिक घरानों के लिए लिखने और दलाली करने में लगे हैं.जब पहरेदार ही चोरी करने लगे और डाका डालने लगे तो घर को कौन बचाएगा?उसे तो लुटना है ही.कुछ ऐसा ही हाल आज भारतीय लोकतंत्र का हो रहा है.

रविवार, 28 नवंबर 2010

हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी

भ्रष्टाचार के खिलाफ इस समय संसद में विपक्ष की एकजुटता देखते ही बनती है.विपक्ष अब भी जे.पी.सी. से कम पर मानने को तैयार नहीं है.लेकिन क्या विपक्ष वास्तव में भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करना चाहता है?नहीं,हरगिज नहीं.उसका मकसद इस मुद्दे पर सिर्फ हल्ला मचाना है.अगर ऐसा नहीं होता तो फ़िर मुख्य विपक्षी दल भाजपा भ्रष्टाचार के दर्जनों आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा को अभयदान नहीं दे देती.भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह उसका कैसा जेहाद है कि तुम्हारा भ्रष्टाचार गलत और मेरा सही.भाजपा के इस पक्षपात ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रहे अभियान के रथ को किसी परिणति तक पहुँचने से पहले ही रोक दिया है.अब यह निश्चित हो गया है कि देश को निगल रहे इस महादानव के खिलाफ तत्काल कुछ भी नहीं होने जा रहा.पिछले १५-२० दिनों से विपक्ष ने जिस प्रकार से संसद में गतिरोध पैदा कर रखा है उससे जनता में इस लड़ाई के किसी सार्थक परिणाम तक पहुँचने की उम्मीद बंध गई थी.उम्मीद बंधाने में सबसे बड़ा हाथ रहा है मीडिया का.हालांकि मैं इसमें मीडिया की कोई गलती नहीं मानता.विपक्ष इस मुद्दे पर कुछ इस प्रकार से आक्रामक हो ही रहा था कि कोई भी भ्रम में आ जाए.लेकिन अब भाजपा ने कर्नाटक में येदुरप्पा को अपदस्थ नहीं करने का निर्णय लेकर मोर्चे को ही कमजोर कर दिया है.जाहिर है हम इस लड़ाई में किसी भी राजनैतिक पार्टी पर भरोसा नहीं कर सकते.ये दल खुद ही भ्रष्ट हैं,फ़िर क्यों ये हमारी लड़ाई लड़ने लगे?जिस तरह अमेरिका भारत के लिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ सकता उसी तरह ये राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे लिए नहीं लड़ने वाले.यह लड़ाई हमारी लड़ाई है और हमें खुद ही लड़नी पड़ेगी.उधार के कन्धों से लड़ाई जीती नहीं जाती बल्कि हारी जाती है.अब यह हम पर निर्भर करता है कि इस लड़ाई को हम कब शुरू करते हैं.अलग-अलग होकर लड़ते हैं या एकजुट होकर.अलग-अलग होकर हमारी केवल और केवल हार ही संभव है.एकसाथ होकर लड़ेंगे तो निश्चित रूप से जीत हमारी होगी और भ्रष्टाचार की हार होगी.देश में वर्तमान किसी भी राजनैतिक दल या राजनेता में वह नैतिक बल नहीं कि वह देश के लिए आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद से भी बड़ा खतरा बन चुके देश के सबसे बड़े दुश्मन भ्रष्टाचार के विरुद्ध होने वाली इस अवश्यम्भावी और अपरिहार्य बन चुकी लड़ाई में जनमत का नेतृत्व कर सकें.इसके लिए हमें नया और पूरी तरह से नया नेतृत्व तलाशना होगा.लेकिन यह भी कडवी सच्चाई है कि सिर्फ नेतृत्व के बल पर आन्दोलन खड़ा नहीं किया जा सकता.इसके अलावा लाखों की संख्या में तृणमूल स्तर पर जनता को प्रेरित करने वाले कार्यकर्ताओं की भी आवश्यकता होगी.कब उठेगा गाँव-गाँव और शहर-शहर के जर्रे-जर्रे से भ्रष्टाचार के खिलाफ गुब्बार मैं नहीं जानता.कैसे संभव होगा यह यह भी मैं नहीं जानता.मैं तो बस इतना जानता हूँ कि ऐसा गुब्बार बहुत जल्द ही दूर रक्तिम क्षितिज से उठेगा और देखते ही देखते पूरे देश को अपनी जद में ले लेगा.फ़िर भारत के राजनैतिक आसमान पर जो सूरज उगेगा वह निर्दोष और निर्मल होगा,ईमानदार होगा और अमीर-गरीब सब पर बराबर की रोशनी डालने वाला होगा.

शनिवार, 27 नवंबर 2010

अल्प विराम,पूर्ण विराम

पिछले दो दिनों से मैं कम्प्यूटर से दूर था.मेरे जीवन में अल्पविराम आ गया था.वजह यह थी कि विधाता ने मेरे सबसे छोटे चाचा की जिंदगी में पूर्णविराम लगा दिया.यूं तो भाषा और व्याकरण में पूर्णविराम के बाद भी वास्तविक पूर्णविराम नहीं होता और फ़िर से नया वाक्य शुरू हो जाता है.लेकिन जिंदगी में पूर्णविराम लग गया हो तो!दुनिया के सारे धर्म इस रहस्य का पता लगाने का प्रयास करते रहे हैं.बहुत-सी अटकलें लगाई गई हैं दार्शनिकों द्वारा.लेकिन चूंकि सिद्ध कुछ भी नहीं किया जा सकता है इसलिए नहीं किया जा सका है.ईसाई और इस्लाम इसे पूर्णविराम मानते हैं तो सनातन धर्म का मानना है कि मृत्यु के बाद फ़िर से नया जीवन शुरू हो जाता है और यह सिलसिला लगातार चलता रहता है.जिंदगी में हम कदम-कदम पर किन्तु-परन्तु का प्रयोग करते हैं लेकिन मृत्यु कोई किन्तु-परन्तु नहीं जानती.कब,किसे और कहाँ से उठाना है को लेकर उसके दिमाग में कभी कोई संशय नहीं होता.वह यह नहीं जानती कि मरनेवाला १०० साल का है या ५० का या फ़िर १ साल का.जिंदगी का वाक्य अभी अधूरा ही होता है और वह पूर्ण विराम लगा देती है.उसका निर्णय अंतिम होता है.ऑर्डर इज ऑर्डर.मेरे चाचा की उम्र अभी मात्र ४५ साल थी.बेटी की शादी करनी थी.तिलकोत्सव भी संपन्न हो चुका था.लेकिन अचानक जिंदगी समाप्त हो गई,बिना कोई पूर्व सूचना दिए जिंदगी के नाटक से भूमिका समाप्त.मुट्ठी से सारा का सारा रेत फिसल गया.चचेरा भाई अभी ६ठी जमात में पढ़ रहा है.उसे अभी मौत के मायने भी पता नहीं हैं.दाह संस्कार के दौरान भी वह निरपेक्ष बना रहा.हमने जो भी करने को कहा करता गया.नाजुक और नासमझ कन्धों पर परिवार का बोझ.गाँव की गन्दी राजनीति से संघर्ष.उसे असमय बड़ा बनना पड़ेगा.मुझसे भी बड़ा.हालांकि वह मुझसे २२-२३ साल छोटा है फ़िर भी.इस पूर्णविराम ने उसके मार्ग में न जाने कितने अल्पविराम खड़े कर दिए हैं.वैसे अंधाधुध विक्रय के बावजूद इतनी पैतृक संपत्ति अभी शेष है कि खाने-पीने की दिक्कत नहीं आनेवाली.लेकिन ऊपरी व्यय?बहन की शादी तो सिर पर ही है.खेती की गांवों में जो हालत है उसमें तो बड़े-बड़े जमींदारों की माली हालत ठीक नहीं.वैसे मैं भी मदद करूँगा जब भी वह मेरे पास आएगा.लेकिन गाँव के लोग क्या उसे मेरे पास आने से रोकेंगे नहीं?बैठे-निठल्ले लोगों के पास सिवाय पेंच लड़ाने के और कोई काम भी तो नहीं होता.मेरे अन्य जीवित चाचा लोग जिनके वे मुझसे ज्यादा नजदीकी थे,ने उनके परिवार से किनारा करना भी शुरू कर दिया है.मैंने अनगिनत लोगों के दाह-संस्कार में भाग लिया है.लेकिन हर बार प्रत्येक मरनेवाले के परिवार के साथ सहानुभूति रही है,स्वानुभूति नहीं.पहली बार दिल में किसी के मरने के बाद दर्द हो रहा है.आखिर मरनेवाला मेरे घर का जो था.अनगिनत अच्छी बुरी यादें हैं उनसे जुड़ी हुई.लोग जब मृतक-दहन चल रहा था तब चुनाव परिणाम का विश्लेषण करने में लगे थे.कुछ लोग अभद्र मजाक में मशगूल थे.परन्तु मैं वहीँ पर सबसे अलग बैठा गंगा किनारे की रेतीली मिट्टी में चाचा के पदचिन्ह तलाश रहा था.अंतिम यात्रा के पदचिन्ह!!!