रविवार, 7 मार्च 2010

भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डे राष्ट्रीयकृत बैंक

करीब तीस साल पहले दो चरणों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था.आज भी उनके इस कदम को भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है.लेकिन क्या उन्होंने तब सोंचा भी होगा कि ये बैंक एक दिन भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डे बन जायेंगे.उनकी सोंच तो बहुत पवित्र थी.उन्होंने कल्पना की थी कि बैंक किसानों-उद्यमियों को सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध कराएँगे और इस तरह उन्हें सूदखोर महाजनों के कुचक्र से छुटकारा मिल जायेगा.लेकिन वर्तमान भारत में बैंकों की कम-से-कम बिहार में जो स्थिति है उससे तो लगता है कि इनसे बेहतर तो कहीं वे सूदखोर महाजन ही थे.चाहे आप इंदिरा आवास के लाभार्थी हों या आपको कृषि ऋण चाहिए या फ़िर शिक्षित बेरोजगार हों और कोई उद्यम खड़ा करना चाहते हों या फ़िर किसी भी अन्य सरकारी योजना के अन्तर्गत आपको बैंक के माध्यम से पैसा चाहिए बिना घूस (परिष्कृत भाषा में कमीशन) दिए आपको राशि नहीं मिलने वाली.हर तरह के ऋण या योजना राशि के लिए कमीशन की दरें निर्धारित हैं.एक हाथ से दीजिये और दूसरे हाथ से लीजिये.सरकार ऋणों पर सब्सिडी भी दे रही है लेकिन सब्सिडी की पूरी राशि बैंक वाले ही हड़प कर जा रहे हैं और सरकार यह समझ रही है कि लाभार्थियों को सब्सिडी का पूरा लाभ मिल रहा है.बिहार में कार्यरत सभी बैंक मैनेजरों की इन दिनों चांदी-ही-चांदी है.वे इस मंदी में भी कार-पर-कार और घर-पर-घर खरीद रहे हैं.अगर इन मैनेजरों की संपत्तियों की जाँच किसी निष्पक्ष एजेंसी से कराई जाए तो लगभग सारे मैनेजर सलाखों के पीछे होंगे.यह बड़ी ही ख़ुशी की बात है कि जहानाबाद से सांसद जगदीश शर्मा ने पिछले सप्ताह लोकसभा में बिहार के बैंकों में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर वित्त मंत्री का ध्यान दिलाया है.देखना है कि केंद्र सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है.अगर कोई कदम नहीं उठाया गया तो यही समझा जायेगा कि इंदिरा जी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया था बल्कि भ्रष्टाचारीकरण किया था.

1 टिप्पणी:

navprabhat ने कहा…

मुझे नहीं लगता कि इन दिनों सरकारी बैंकों में जो कुछ हो रहा है उससे सरकार अनजान होगी.सोये हुए को तो जगाया भी जा सकता है लेकिन जो जगे होकर भी सोने का ढोंग कर रहा हो उसे भला कैसे जगाया जाये?