शनिवार, 22 मई 2010

चिड़िया की जान जाए बच्चों का खिलौना

बिहार को अगर हम मुहावरों और कहावतों की भूमि कहें तो गलत नहीं होगा.भारत की हृदयस्थली बिहार में यह कहावत न जाने कितने सालों से प्रचलित है.हालांकि यह अलग सन्दर्भ में कही गई है लेकिन यह हमारे देश में लगातार बढती महंगाई से पीड़ित जनता की हालत पर एकदम सटीक बैठती है.अमीर वर्ग को तो महंगाई से कोई फर्क पड़ता नहीं क्योंकि अमीर तो और भी अमीर होते जा रहे हैं लेकिन महंगाई ने निश्चित रूप से मध्यम और गरीब वर्ग का जीना मुहाल कर रखा है.गरीब तो जैसे दाल और सब्जी का स्वाद ही भूलते जा रहे हैं.मध्यम वर्ग की हालत भी कोई कम पतली नहीं है.बच्चों की फ़ीस से लेकर ट्रांसपोर्टेशन तक हर चीज का खर्च बढ़ता जा रहा है और वेतन है कि जस-का-तस है.बच्चों पर व्यय में कटौती तो की नहीं जा सकती इसलिए समझौता बड़े लोगों को ही करना पड़ रहा है.जी.डी.पी. में अप्रत्याशित वृद्धि के प्रयास में लगी पिछले २० सालों में देश पर शासन करनेवाली सभी सरकारें यह भूल गईं कि खाद्य-सुरक्षा को बनाये रखने के लिए कृषि-उत्पादन में वृद्धि को जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में बनाई रखनी जरूरी है.मैं सेवा-क्षेत्र का विरोधी नहीं हूँ लेकिन सेवा क्षेत्र रूपया दे सकता है डालर दे सकता है जी.डी.पी. में तेज बढ़ोतरी दे सकता है अनाज नहीं दे सकता; उसके लिए तो खेती की ही जरूरत होगी.एक तरफ तो सरकार इस बात पर गर्व का अनुभव कर रही है कि वैश्विक मंदी के बुरे दौर में भी उसने विकास दर में कमी नहीं आने दी वहीँ दूसरी तरफ वित्त मंत्री अच्छी उपज के लिए इन्द्र भगवान का मुंह ताक रहे हैं.जिस तरह आज नदियों और नहरों में पानी नहीं है और जिस तरह नलकूपों के द्वारा बेतहाशा दोहन के चलते भूमिगत जल में खतरनाक स्तर तक कमी आ गई है उससे साफ तौर पर कहा जा सकता है कि पिछले ६०-७० सालों में हमने जो सिंचाई नीति अपनाई थी और खेतों को सिंचित करने में जो बेशुमार धन खर्च किया था सब बेकार था.अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है सरकार को चाहिए कि मनरेगा के तहत दी जानेवाली राशि में से कुछ को वह नए तालाबों, आहरों और कुओं को खोदने और पुराने का पुनरुद्धार करने पर खर्च करे.इस साल भी अभी तक मानसून की हालत अच्छी नहीं है और तापमान रोज नए-नए रिकार्ड बनाने में लगा हुआ है.ऐसे में बहुत से इलाकों में तो पीने के पानी का भी संकट पैदा हो गया है.सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि बजट और राजस्व घाटा को कम करने के लिए यह वक़्त मुफीद नहीं है.ऐसे प्रयासों से महंगाई और भी बढ़ेगी और जनता कम व्यय करने को बाध्य होगी जिससे पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ेगा.पिछले साल के मुकाबले इस साल गेहूं की सरकारी खरीद में २ प्रतिशत की कमी आई है यानी गेंहूँ की खरीद में निजी हिस्सेदारी बढ़ गई है.ऐसे में जबकि देश की खाद्य सुरक्षा को खतरा बढ़ता जा रहा है सरकारी खरीद में कमी आना कोई अच्छा संकेत नहीं है.क्या सरकार देश में अकाल की कृत्रिम स्थिति को बढ़ावा देना चाहती है जैसा कि पिछली सदी में चालीस के दशक में बंगाल में देखने को मिला था?दुर्भाग्यवश हमारे नेता भी अमीर वर्ग में शामिल हो चुके हैं भले ही पहले वे गरीब रहे हों इसलिए तो सरकार धड़ल्ले से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ा रही और कृषि सब्सिडी में कमी ला रही है.लेकिन जनता जब तक शांत है तभी तक उसके पेट के साथ सरकार खिलवाड़ कर सकती है जैसे ही उसके सब्र का पैमाना छलकने लगेगा सरकार का कहीं अता-पता तक नहीं होगा.सिर्फ चुनाव आने की देरी है.

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