बुधवार, 2 जून 2010

लालू-मुलायम चाहते हैं राजनीतिक पुनर्वास

लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद  कुर्सी का खिसक जाना कुछ वैसा ही दर्द देता है जैसे अमीरी के कब्र पर उग आई गरीबी की घास.लेकिन कालचक्र की मार से कौन बचा है?यहाँ तक कि कभी बिहार पर बीस सालों तक राज करने का दावा करनेवाले लालू को भी एक दिन अचानक पता चला कि वे सत्ता पक्ष से सीधे विपक्ष में पहुँच चुके हैं.मुलायम के साथ स्थितियां अलग रहीं.उत्तर प्रदेश पर उनका एकछत्र राज कभी नहीं रहा.सत्ता उनके हाथों में आती-जाती रही.लालू के पास विधानसभा का चुनाव हार जाने के बाद संतोष देने के लिए फ़िर भी रेल मंत्री की कुर्सी थी.लेकिन विपदा जब आती है तो चारों तरफ से आती है.पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव ने उनसे बड़ी बेरहमी से रेल मंत्री की कुर्सी भी छीन ली.अब लालू पूरी तरह सड़क पर थे.कहते हैं कि दुःख में दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं सो उन्हें मिल गया आंसू पोछने के लिए दूसरे दुखी और लोकसभा चुनाव में अपना पूरा सूपड़ा साफ़ करा चुके पाला बदल-बदल कर लगातार केंद्र में मंत्री रहनेवाले कथित दलित नेता रामविलास पासवान का.कथित इसलिए क्योंकि अब उनके और उनके भाइयों के पास करोड़ों की संपत्ति है और वे किसी भी दृष्टिकोण से दलित (जिनका दमन किया जा रहा हो या दबाया जा रहा हो) नहीं हैं.तभी संयोगवश जनगणना का समय आ गया.सत्ता से दूर दुःख से विगलित हो रहे इन दोनों यादव बंधुओं को बिल्ली के भाग से छींका टूटता नजर आया.ठीक इसी समय केंद्र सरकार भी लोकसभा में मुश्किल में थी और उसे लालू-मुलायम की सहायता की जरूरत थी.अँधा क्या चाहे दो आँख.लालू और मुलायम ने जोर-शोर से लोकसभा में जाति-आधारित जनगणना की मांग कर डाली.अब तक के भारतीय इतिहास के सबसे मजबूर मगर विद्वान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने झटपट उनकी मांग मान लेने की घोषणा कर डाली.वैसे भी इस सरकार को सोंच-समझकर काम करने की आदत तो रही नहीं है.लालू-मुलायम चाहे कुछ भी कहें वे चाहते हैं कि किसी तरह फ़िर से उसी तरह देश में आग लग जाए जैसी आग १९९० में आरक्षण के विरोध और समर्थन में लगी थी.तब अगड़ी और पिछड़ी जातियां एक-दूसरे के खून की प्यासी हो गई थी और प्रधानमंत्री राजर्षि क्षत्रिय शिरोमणि विश्वनाथ प्रताप सिंह बार-बार बयान दे रहे थे कि जब कोई छात्र जलता है तो उनका दिल जलता है.अब यह तो वही जानें कि उनके पास कोई दिल था भी या नहीं या दिलवाला होने का अभिनय कर रहे थे पर अनुभवी लोग तो यही बताते हैं कि वेश्याओं और नेताओं के पास दिल होता ही नहीं है.एक अपने प्रेमियों को ठगती हैं और दूसरा उन्हें सत्ता सौंपनेवाली जनता को आजीवन धोखा देता है.भला हो ध्रुव सत्य मृत्यु का जो जनता को उनकी ठगी के अनंतकालिक होने से बचा लेती है.लालू-मुलायम जानते हैं एक बार जिस जनता ने उन्हें नकार दिया है वह उन्हें तभी वोट देगी जब वे भावनात्मक मुद्दा उठाएंगे.विकास को वे मुद्दा बना नहीं सकते क्योंकि उनके शासन काल में यू.पी. और बिहार दोनों ही राज्यों का सिर्फ विनाश ही हुआ है.इन दोनों नेताओं को भाजपा से सीख लेनी चाहिए जो प्रत्येक चुनाव से पहले राम मंदिर को भावनात्मक मुद्दा बनने का असफल प्रयास करती है और मुंह की खाती है.वहीँ केंद्र को डर है कि अगर इस फिसलन भरे मार्ग पर वह कदम बढाती है तो कही इसका श्रेय ये दोनों नेता न ले उड़ें और साथ ही उसे सवर्ण जातियों कि नाराजगी भी न झेलनी पड़े यानी चौबे गए छौबे बनने और दूबे बनकर लौटे.इसलिए वह विचार करने में इतना समय लगा रही है.लेकिन एक और नेता भी है जो सब छौड़ी झुम्मर पारे तो लुल्ही कहे हमहूँ की तर्ज पर इस मुद्दे पर हवा में लाठी घुमा रहा है और वह हैं  जदयू. के अध्यक्ष शरद यादव.उनकी पार्टी बिहार में सत्ता में है फ़िर भी वे दुखी हैं और उनके दुःख का कारण है कि उन्हें जीवन की सांध्य बेला में अपने से काफी जूनियर नीतीश कुमार का पिछलग्गू बनकर राजनीति करनी पड़ रही है.लेकिन शरद जी उम्र हो जाने के कारण भूल जाते हैं कि वे राजग के संयोजक भी हैं और राजग में उनकी साझीदार भाजपा पूरी तरह से सवर्णों के समर्थन पर निर्भर है जिसको इसी साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उनके बयानों का खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है.मैं जाति या संप्रदाय आधारित राजनीति को किसी भी दृष्टि से देशहित में नहीं मानता क्योंकि यह हमारी एकता को बढाती नहीं है बल्कि तोड़ती है.देश इस समय नक्सलवाद से परेशान है और ऐसे समय में जब देश को एकता प्रदर्शित करनी चाहिए,देश को जातीय या सांप्रदायिक संघर्ष की आग में झोंककर रोटी सेंकने की कोशिश देशद्रोह ही मानी जायेगी.वैसे भी इन दोनों का शासन भारत के इतिहास में घोटालों के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा.बिहार की जनता ने लालू को तीन-तीन बार सत्ता में बिठाया लेकिन बदले में लालू ने उन्हें लूटने के अलावा और कुछ नहीं किया.ऐसे में उन्हें जनता फ़िर से राज्य की सत्ता सौंपे भी तो क्यों?क्या पिछले चार सालों में जो भी राज्य की स्थिति थोड़ी सुधरी है पर पानी फेरने के लिए?यही बात यू.पी. के भूमिपुत्र मुलायम पर भी लागू होती है.

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