सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

समय के साथ बदलता एक गाँव-भाग एक


मेरा जन्म ७० के दशक के उत्तरार्द्ध में बिहार के वैशाली जिले के एक मध्यमवर्गीय राजपूत परिवार में हुआ.मेरा परिवार उस समय मेरे ननिहाल में रहता था.पिताजी पास के ही गाँव में एक प्राईवेट कॉलेज में अवैतनिक व्याख्याता थे.हमारी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब थी कि मेरे जन्म से समय माँ को एक ग्राम भी दूध के दर्शन नहीं हुए.काफी समय तक,जब तक मैं ६-७ साल का नहीं हो गया मुझे यह पता नहीं था कि हमारा समाज जातियों में विभाजित है.तब तक मेरी गतिविधियाँ ज्यादातर अपनी ही जाति के  बच्चों तक ही सीमित थी.बीच-बीच में जब बगल के गाँव से डोमिन सूप-टोकरी लेकर आती तब जरूर मुझे उसके स्पर्श से बचने के लिए सचेत किया जाता.मैंने उस अस्पृश्य वृद्धा को अपने छोटे नाना के श्राद्ध में जूठे पत्तलों में से खाद्य-सामग्री इकठ्ठा करते भी देखा और दुखी हुआ.कितनी विचित्र प्रथा थी यह वह महिला अन्य लोगों के साथ बैठकर भोजन भी नहीं कर सकती थी और उसे भोज-भात में जब अच्छे भोजन के मौके आते थे बांकी जातियों की जूठन खानी पड़ती थी.बाद में मुझे बताया गया कि जब मैं नवजात था तो ग्रह-दोष-निवारण के लिए उसे मुझे स्तनपान कराने का अवसर भी दिया गया था.गाँव में राजपूतों के अलावा ब्राह्मण,चमार,मल्लाह,हज्जाम,दुसाध,धोबी,कानू,कहार और कुम्हार थे.मेरी नानी राजपूतों के बीच बड़की माई के नाम से जानी जाती थी.मेरे नाना भाइयों में सबसे बड़े थे.उनका देहांत मेरे जन्म से पहले ही हो गया था.मामा नहीं थे और चचेरे मामा नानी को वक़्त-वेवक्त पीटते रहते इसलिए हमें यहीं रह जाना पड़ा.आज भी मैं इसे ही अपना गाँव कहता हूँ.नानी लगभग रोज चूहेदानी में रोटी लगाती और जगह बदल-बदल रख देती.कभी-कभी चूहे फंस भी जाते.रोजाना एक बार कुम्हार पंडित की वृद्धा पत्नी नानी से मिलने आती.नानी उसे कभी रोटी तो कभी भात खाने और घर ले जाने के लिए देती और जब चूहे पकड़े जाते तो चूहे भी दे देती.मैंने जब नानी से पूछा कि ये लोग चूहे का क्या करेंगे तो उसने बताया कि पका कर खा जाएँगे.साथ ही यह भी बताया कि मेरे एक चचेरे नाना भी चूहा खाते हैं.मेरा मन घृणा से भर गया था छिः चूहे भी कोई खाने की चीज हैं.मेरी नानी के रैयतों में एक की दृष्टि युवावस्था में ही चली गई थी.अब उनकी उम्र यही कोई ७० की होगी .वे जाति के चमार थे.रोज हमारे दरवाजे पर आते.उनका दोपहर का भोजन हमारे यहाँ ही होता.नानी कहती रैयत-प्रजा है यहाँ नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा?भोजन के बाद सूरदास निर्गुण सुनाते.बड़ा ही मीठा स्वर था उनका.वे  कभी 'सिया ओढले चदरिया राम नाम के' तो कभी 'चलु-चलु सखिया यशोदा जी के बगिया,बगिया में झुलुआ लगवले बानी' गाते तो सारा वातावरण भक्तिमय हो गाता.हम अक्सर उनकी लाठी पकड़ उन्हें घर छोड़ आते.नानी उन्हें प्यार से फूल (कांसे) के बर्तन में घर ले जाने के लिए खाना देती जैसे कोई माँ बेटे को देता है.जब बरतन वापस आता तो उसका शुद्धिकरण संस्कार भी करती आग में तपाकर,उपले की लाल आग में और मान लेती कि बरतन से सारा स्पर्श दोष निकाल गया है और वह शुद्ध है पहले की तरह.

कोई टिप्पणी नहीं: