रविवार, 31 जुलाई 2011

समलैंगिकता एक अक्षम्य अपराध

homosexual


मित्रों,मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है यह आपको भी पता है.हम लोग बडभागी हैं जो हमें मानव-शरीर मिला है.शास्त्रों में कहा गया है कि शरीरमाद्यं धर्म खलुसाधनं यानि शरीर ही सभी धर्मों को करने का माध्यम है.
           मित्रों,मानव-शरीर ईश्वर की अतुलनीय कृति है.ईश्वर ने हमारे शरीर के सभी अंगों को अलग-अलग काम सौंपा हुआ है.उसने मुँह को खाने-पीने का,नाक को साँस लेने और सूंघने का,कानों को सुनने का,गुदा को मलत्याग का,योनि और शिश्न को प्रजनन का और यौनानन्द लेने का काम दिया है.
           मित्रों,प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में मृत्यु के भयानक तांडव को देखकर पश्चिम के लोग यह सोंचकर भोगवादी हो गए कि जब जीवन का कोई ठिकाना ही नहीं है तब फिर नैतिकता को ताक पर रखकर क्यों नहीं जीवन का आनंद लिया जाए?बड़ी तेजी से वहां के समाज में यौन-स्वच्छंदता को मान्यता मिलने लगी और इसी सोंच से जन्म हुआ सार्वजनिक-समलैंगिकता के इस विषवृक्ष का.बेशक समलैंगिक व्यवहार पहले भी समाज में प्रचलित था लेकिन ढके-छिपे रूप में.
             मित्रों,इन दिनों भारत में भी पश्चिम की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के चलते समलैंगिकों की एक नई जमात खड़ी हो गयी है.ये लोग गुदा से मलत्याग के साथ-साथ यौनाचार का काम भी लेने लगे हैं.उनमें से कईयों ने तो आपस में शादी भी कर ली है.हद तो यह है कि भारत की केंद्र सरकार भी इन सिरफिरों के कुकृत्यों को मान्यता देने की समर्थक बन बैठी है.
             मित्रों,यह एक तथ्य है कि वर्तमान काल की सबसे भयानक बीमारी एड्स की शुरुआत और फैलाव में सबसे बड़ी भूमिका इन समलैंगिकों की ही रही है.गुदा-मैथुन से ई-कोलाई नाम जीवाणु जो आँतों में पाया जाता है के मूत्र-मार्ग में पहुँचने और गुर्दों के संक्रमित होने का खतरा भी रहता है.सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह बिलकुल ही अनुत्पादक और वासनाजन्य कार्य है.इससे सिर्फ काम-सुख मिलता है प्रजनन नहीं होता.
                मित्रों,जब हम मुंह से मलत्याग नहीं कर सकते,गुदा से भोजन ग्रहण नहीं कर सकते,नाक से सुन नहीं सकते,कान से बोल नहीं सकते,हाथ पर चल नहीं सकते तो फिर गुदा से मैथुन की जिद क्यों?यहाँ मैं आपको यह भी बताता चलूँ कि हिन्दू शास्त्रों में गुदा-मैथुन में संलिप्त रहनेवाले लोगों को सूअर की संज्ञा दी गयी है जो मेरे हिसाब से बिलकुल सही है.
              मित्रों,मानव ही वह जैविक प्रजाति है जिसको दुनिया में सबसे लम्बे समय तक प्रजनन-काल ईश्वर ने प्रदान किया है.यही कारण है कि हम अपनी जनसंख्या में पर्याप्त वृद्धि कर सके और धरती पर आज हमारा राज है.यह प्रजनन-शक्ति हमें संतानोत्पत्ति के लिए दी गयी है न कि निरा भोग के लिए.जो भारत सहस्राब्दियों से विश्व को संयम और ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाता रहा है और इसलिए विश्वगुरु भी कहलाता रहा है;उसी हिंदुस्तान के कुछ लोग पश्चिम का अन्धानुकरण करने के चक्कर में समलैंगिकता का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन कर रहे हैं.जरा सोंचिये,इनके परिवारवालों पर क्या गुजरती होगी जब उन्हें यह पता चलता होगा कि उनका बेटा समलैंगिक हो गया है.उनके सारे सपनों पर तो अकस्मात् तुषारापात हो जाता होगा न!
                मित्रों,कुल मिलाकर मेरे कहने का लब्बोलुआब यह है कि समलैंगिकता व्यक्ति,परिवार,समाज और राष्ट्र सबके लिए हानिकारक है;सबके प्रति अपराध है.यह नितांत भोगवादी प्रवृत्ति है जैसे कि अफीम का सेवन.इसका परिणाम हमेशा बुरा ही होनेवाला है इसलिए ऐसे समाज-विरोधी लोगों के प्रति सरकार को अत्यंत कठोरता के साथ पेश आना चाहिए और यदि ऐसा करने के लिए वर्तमान कानून पर्याप्त नहीं हों तो बिना देरी किए ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए.

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

पिट्ठी के गहिर और कान से बहिर

manmohan

मित्रों,आप मेरे शीर्षकों को देखकर सोंच रहे होंगे कि मुझे आजकल क्या हो गया है.अगर आप ऐसा नहीं सोंच रहे हैं तो यह आपकी भलमनसाहत ही है.खैर,मेरे हिसाब से शीर्षक पूरी तरह सही है और जो मैं कहना चाहता हूँ उसकी पूरी व्यंजना भी करता है.
          मित्रों,अगर आपने कभी बिहार में बसयात्रा की होगी तो निश्चित रूप से आपका पाला बस के ड्राइवरों,कंडक्टरों और खलासियों से पड़ा होगा.जैसे ही आप उसकी गाड़ी के इर्द-गिर्द पहुंचे होंगे उसने आपसे कहा होगा कि बैठिए न सर अब गाड़ी बस खुलने ही वाली है;अब आपके बैठने की ही देरी है.उसके बाद आपके कई बार टोंकने के बाद ऊपर-नीचे पूरी तरह से भर जाने के बाद गाड़ी हिली होगी.चढ़ने से पहले आपने अगर भाड़ा फाइनल नहीं किया होगा तो फिर आपसे मनमाना भाड़ा मांगा गया होगा.आपका बना-बनाया मूड ख़राब हो गया होगा और बस से जब आप उतरे होंगे तो आपकी साफ़ जुबान पर इन ड्राइवरों-कंडक्टरों-खलासियों के लिए सिवाय गन्दी गालियों के कुछ भी नहीं रहा होगा.अगर आप दबंग होंगे तो गाड़ी रूकवाकर इन्हें पीता भी होगा.हो सकता है कि तब उसने डर के मारे आपसे लिया गया अतिरिक्त पैसा वापस भी कर दिया होगा.फिर बस सरकी होगी और ड्राइवर-कंडक्टर-खलासी सारे अपमानों को गीतोक्त स्थितप्रज्ञ की तरह भूलकर दूसरे यात्रियों से हिल-हुज्जत में लग गए होंगे.बिल्कुल इसलिए ड्राइवरी लाइन से जुड़े लोगों को हमारे बिहार में पिट्ठी (पीठ) के (का) गहिर (गहरा) और कान से बहिर (बहरा) कहा जाता है.
           मित्रों,इन दिनों दुर्भाग्यवश इसी कैटेगरी का एक आदमी भारतरूपी बस की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा है.रफ गाड़ी चलाने में उसका जवाब नहीं.देशवासी लाख गालियाँ देते रहें यह सुनता ही नहीं.इस निर्लज्ज के कार्यकाल में घोटालों का नया वर्ल्ड रिकार्ड बन चुका है.घोटालों का असर देश में होनेवाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर भी पड़ने लगा है और २०१०-११ में पिछले वित्तीय वर्ष के मुकाबले १० अरब डॉलर कम निवेश हुआ है.अब तो इनका एक पूर्व मंत्री इन पर कुकृत्य में साथ देने का आरोप लगा रहा है लेकिन श्रीमान हैं कि या तो कुछ भी नहीं देखने-सुनने का नाटक कर रहे हैं या फिर देख-सुन कर भी अनदेखा-अनसुना कर रहे हैं.आखिर मैं पूछता हूँ कि किसी प्रधानमंत्री के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक और कोई स्थिति हो भी सकती है क्या कि उसका ही पूर्व सहयोगी जेल में रहते हुए उस पर घोटालों में सहयोग करने का आरोप लगाए?फिर मनमोहन सिंह किस बात का इंतजार कर रहे हैं?वे क्यों नहीं दे रहे इस्तीफा जिससे कि जनता को उनसे और उनको जनता से छुटकारा मिल सके?
           मित्रों,मैं जानता हूँ और आप भी जानते हैं कि ईमानदार को वास्तविक परिभाषा क्या है लेकिन भारत के तमाम राजनीतिक दलों ने इसकी अपनी-अपनी परिभाषा बना रखी है.कांग्रेस के अनुसार और कुछ हद तक भाजपा के अनुसार भी बेशर्मी ही ईमानदारी है.कौआ टरटराता रहे धान की फसल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.जनता जिए या मरे,देश रसातल में चला जाए तो जाए  ड्राइवर की कुर्सी बरक़रार रहनी चाहिए.तो क्या हम इस बेशर्म पिट्ठी के गहिर और कान से बहिर ड्राइवर को चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे?क्या हम सब मिलकर इसे ड्राइविंग सीट पर से हटा नहीं सकते?पर हम एकजुट हो पाएँगे क्या?होना तो पड़ेगा नहीं तो ये बेशर्म-सनकी ड्राइवर-कंडक्टर और खलासी हमारे देश को दुर्घटनाग्रस्त करा देंगे.हो सकता है और निश्चित रूप से हो सकता है कि ये बस को गहरी खाई में ही गिरा दें.आप कहीं अवश्यम्भावी दुर्घटना का इंतजार तो नहीं कर रहे हैं?          

सोमवार, 25 जुलाई 2011

सचिन का नंबर तो बहुत बाद में है

dhyanchand

मित्रों,सचिन तेंदुलकर यानि छोटे कद वाला क्रिकेट का सबसे बड़ा खिलाडी.सचिन तेंदुलकर रिकार्डों के एवेरेस्ट पर चढ़कर भी रेस्ट लेने को तैयार नहीं हैं.निस्संदेह क्रिकेट की दुनिया में सचिन की उपलब्धियां बेमिसाल हैं लेकिन सचिन ने देश को रिकार्डों के अलावा ऐसा क्या दिया है कि वे भारत के सर्वोच्च सम्मान के हक़दार हो गए?भारत के सामाजिक क्षेत्र में उनका क्या योगदान है?क्या सचिन अभावों के बीच से उभरे हैं?अगर नहीं तो फिर क्यों भारत की सबसे निकम्मी केंद्र सरकार उन्हें भारत रत्न घोषित करने के लिए बेताब हुई जा रही है?
          मित्रों,प्रश्न और भी हो सकते हैं और हैं भी?जैसे भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी क्यों है और अगर हॉकी को ही उसकी तमाम दुर्दशाओं के बाबजूद भी राष्ट्रीय खेल होना चाहिए तो तमाम अभावों के बाद भी दुनिया भर में भारतीय हॉकी का परचम लहराने वाले हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद को उनके जीवित रहते या घुट-घुट कर मरने के ३ दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने बाद भी भारत रत्न क्यों नहीं दिया गया?क्या भारत का माथा परतंत्रावस्था में ऊंचा करनेवाले भारतीय सेना के ब्राह्मण रेजिमेंट में बहुत छोटे पद पर (सूबेदार) रहे ध्यानचंद का भारत रत्न पाने का सबसे पहला अधिकार नहीं बनता है?
           मित्रों,इस सन्दर्भ में मुझे एक प्रसंग महाभारत से याद आ रहा है.एक बार महाभारत के युद्ध में अर्जुन-कर्ण के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था.अर्जुन ने वाण चलाकर कर्ण के रथ को कई योजन पीछे धकेल दिया.जवाब में कर्ण ने भी वाण चलाया और अर्जुन के रथ को कुछेक अंगुल पीछे कर दिया.ऐसा होते ही पार्थसारथी श्रीकृष्ण के मुख से शाबासी के शब्द फूट पड़े.देखकर अर्जुन को आश्चर्य हुआ कि जब मैंने कर्ण के रथ को कई योजन पीछे कर दिया तब तो देवकीनंदन चुपचाप रहे और कर्ण ने उसके रथ को कुछेक अंगुल पीछे क्या खिसका दिया वे वाह-वाह किए जा रहे हैं.अर्जुन के पूछने पर मधुसूदन ने कारन स्पष्ट किया कि हे पार्थ मैं तो तीनों लोकों का भार लेकर तुम्हारे रथ पर आरुढ़ हूँ हीं अतुलित बल के स्वामी हनुमान भी तुम्हारे रथ की ध्वजा पर विराजमान हैं.फिर भी कर्ण ने रथ को कुछेक अंगुल ही सही पीछे कर दिया;इसलिए प्रशंसा का पात्र तो वही हुआ न!
      मित्रों,ठीक यही बात दद्दा और सचिन पर लागू होती है.दद्दा गुलाम भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.कई बार तो उन्हें और टीम के बाँकी खिलाडियों को खाली पांव भी खेलना पड़ता था.दद्दा के प्रति यह उपेक्षा-भाव आजाद भारत में भी बना रहा.वे हॉकी और हॉकी खिलाडियों की दुर्दशा से इतने आहत थे कि बेटे अशोक को उनसे छिपकर हॉकी खेलना पड़ता था.ऐसी कोई समस्या सचिन के साथ कभी नहीं रही.वे अच्छे खाते-पीते परिवार से तो थे ही आज उन पर धन की मूसलाधार बरसात हो रही है.दद्दा की तरह ही उड़नसिख मिल्खा सिंह,शिवनाथ सिंह,उड़नपरी पी.टी.उषा,महामल्ल सुशील कुमार,तीरंदाज लिम्बा राम,टेनिस खिलाडी साईना नेहवाल,मुक्केबाज निखिल कुमार,विजेंद्र सिंह,क्रिकेटर विनोद काम्बली,गोल्फर मुकेश कुमार जैसे अनेक ऐसे खिलाडी रहे हैं दुःख और अभाव ही जिनके जीवन की कथा रही.असली भारत रत्न तो वे हैं और उनका इस नाते भारत रत्न पर सचिन से कहीं ज्यादा,बहुत ज्यादा अधिकार बनता है.इसी तरह शतरंज में भारत के वन मैन आर्मी विश्वनाथन आनंद का हक़ भी इस सम्मान पर सचिन से कहीं ज्यादा बनता है.
                मित्रों,आज अगर सचिन तेंदुलकर चाहें तो उनके पास इतना पैसा है कि वे कई दर्जन स्कूल,अस्पताल और अनाथालय बनवा और चलवा सकते हैं;लेकिन उन्होंने ऐसा किया क्या?बल्कि कई बार तो वे ऐसे कृत्या भी कर जाते हैं जो उनकी धनलोलुपता को ही जगजाहिर करता है.कभी वे विदेश से आयातित कार पर टैक्स चोरी का प्रयास करते हैं तो कभी आयकर में छूट प्राप्त करने की कोशिश करते हैं.आखिर जब वे सक्षम हैं तो फिर क्यों उनसे पूरा टैक्स नहीं लिया जाना चाहिए?इस बारे में भी एक प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत है.एक बार भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद का शरीर बीमार पड़ गया और उन्हें डॉक्टर के पास जाना पड़ा.जब उनकी प्रसिद्धि से प्रभावित होकर डॉक्टर ने उनसे फीस लेने से मना कर दिया तो देशरत्न ने प्यारभरी नाराजगी दिखाते हुए डॉक्टर से कहा कि जो मरीज फ़ीस देने में सक्षम नहीं हों उनसे फ़ीस नहीं लीजिएगा परन्तु मुझ पर मेहरबानी नहीं करिए जबकि मैं पूरी तरह फ़ीस चुकाने की स्थिति में हूँ.
      मित्रों,राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर जेल जाते ही अपना नाम और पता भूल जाने का स्वांग करनेवाले कलमाड़ी को आगे करके अरबों रूपये का घोटाला करनेवाली निकम्मी केंद्र सरकार को अचानक खिलाडियों का योगदान कैसे याद आ गया अंत में मैं उन परिस्थितियों पर विचार करना चाहूँगा.इस समय केंद्र सरकार चारों ओर से संकटों और आरोपों से घिरी हुई है और उसके समक्ष सफाई देने तक का कोई रास्ता नहीं बचा है.ऐसे में उसने जनता का ध्यान जनहित से जुड़े मुद्दों से भटकाने के लिए काफी सुविचारित तरीके से यह सचिन को भारत रत्न वाली चाल चली है.बड़े शातिर लोगों को हमने सत्ता सौंपी हैं.सावधान मित्रों,____ से सावधान.उम्मीद करता हूँ कि आप खुद ही रिक्त स्थान को भर लेंगे.

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

बाबा भरोसे फौजदारी


मित्रों,अभी भारत के नवीनतम मित्र और दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आई हुई थीं.वो भी ऐसे समय में जब भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई पर आतंकवादी हमला हुआ है.ऐसे में हरेक भारतवासी की तरह मुझे भी ऐसी उम्मीद थी कि चूंकि वे भारत को अपना स्वाभाविक मित्र कहते नहीं अघातीं इसलिए वे आतंक के केंद्र पाकिस्तान को कड़क संकेत देकर भारत के जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास करेंगी या फिर लगाते हुए दिखना चाहेंगी.लेकिन हुआ इसका उल्टा.कहाँ तो हम कह रहे थे कि वे आए हमारे घर खुदा की कुदरत;कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं और कहाँ उनके जाने के बाद अपने रिसते हुए जख्मों को अपने जख्मी हाथों से सहलाते हुए कहे जा रहे हैं कि तुम आए हमारे घर खुदा की कुदरत;हमने अपने घर को देखा एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद.
          मित्रों,हिलेरी क्लिंटन के आने-जाने के बाद अगर हम यात्रा से होने वाले हानि-लाभ पर नजर डालें तो नतीजा सिफ़र पाएँगे.यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि १३ जुलाई के तार पाकिस्तान से जुड़े होने के स्पष्ट संकेत मिलने के बावजूद भारत सरकार अगर उसका नाम खुलकर नहीं ले पा रही थी तो या तो वह ऐसा हिलेरी को खुश करने के लिए कर रही थी या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे दगाबाज लोगों के दबाव में आकर.लेकिन हाय रे नसीब!गोरी मेम ने तो कुछ ऐसा दिल तोड़ा कि अब कूटनीति के जीरो कृष्णा साहब सिर्फ यही कह सकते हैं कि न जी भरके देखा न कुछ बात की,बड़ी आरजू थी मुलाकात की.
          मित्रों,यह बात,यह तथ्य आईने पर लिखी ईबारत की तरह कल भी साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी और आज भी पढ़ी जा सकती है कि भारत को आतंकवाद के खिलाफ अपनी लडाई खुद ही लड़नी होगी.इस लड़ाई में ट्रिगर पर टिकी ऊंगली भी हमारी होगी,कुंदे से लगा कन्धा भी हमारा होगा और गोली खानेवाला सीना तो हमारा होगा ही.नहीं आनेवाला बाहर से कोई देश हमारा उद्धारक बनकर.लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार अंधी हो रही है या दीवानी कि इतनी-सी बात उसके भेजे में नहीं आ रही?क्यों वह सबकुछ लुटाकर भी होश में नहीं आ रही?क्या उसका देशहित से कुछ भी लेना-देना रह गया है और अगर ऐसा नहीं है तो इसके लिए क्या हम मतदाता भी समान रूप से या राजनेताओं से भी कहीं बढ़कर दोषी नहीं हैं?
           मित्रों,भारत में इस समय समस्त अव्यवस्था और अराजकता के बावजूद जिस तरह की मरघट की शांति छाई हुई है उससे तो यही लगता है कि अतीत में यह भले ही वीरों का देश रहा हो आज यह नपुंसकों का देश बनकर रह गया है.हम भारतवासियों की हड्डियों में खून के बदले पानी भर गया है.हम नितांत कायर बन गए हैं और अपनी कायरता को ढंकने के लिए कभी चीन तो कभी पाकिस्तान के प्रति उलटे-सीधे बयान देते रहते हैं,अनाप-शनाप तर्क खोजते रहते हैं.सीमापार से भारत हजार साल पहले भी सुरक्षित नहीं था और आज आजादी के ६३ सालों के बाद भी नहीं है.
             मित्रों,जिस तरह से भारत सरकार आतंकवाद से लड़ रही है उस तरह से तो इसे रोकने की हजारों सालों में भी फुलप्रूफ व्यवस्था नहीं की जा सकती.जब राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को मुम्बई पुलिस जाँच ही नहीं करने देगी तो फिर इससे लड़ने की फुलप्रूफ एकीकृत व्यवस्था हो पाने की सोंची भी नहीं जा सकती.हद तो यह है कि ऐसा तब हो रहा है जब प्रदेश में व केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार है.हमले के एक सप्ताह बाद भी बदमिजाज मुम्बई पुलिस और भारत सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इन हमलों के पीछे किन संगठनों का हाथ था और इनसे पाकिस्तान कहाँ तक सम्बंधित है.आखिर क्यों?कब रूकेगा इस तरह आतंकी कृत्यों की जाँच में असफलताओं का सिलसिला?जो पुलिस और एजंसियां हमले के बाद हमलावरों का पता तक नहीं लगा सकती उस पर किस आधार पर हमले को होने से पूर्व ही रोक लेने का ऐतबार किया जाए?पुलिस और सुरक्षा पर करोड़ों रूपये खर्च करने के क्या कोई मतलब भी है?क्यों नहीं जन-उत्पीड़क पुलिस व ख़ुफ़िया संगठनों को भंग कर दिया जाए?क्यों बर्बाद किया जाए इनके वेतन और पेंशन पर करोड़ों रूपये और क्यों इनको घूस खा-खाकर तोंद फुलाने का कुअवसर दिया जाए?क्यों???

सोमवार, 18 जुलाई 2011

मूर्खिस्तान के केंदीय मंत्रिमंडल का पुनर्गठन

ass1

पिछले कई महीनों से दुनिया में सबसे तेजी से उभरते देश मूर्खिस्तान की केंद्र सरकार पर मंत्रिमंडल में बदलाव करने का भारी दबाव था.विशेषज्ञों का मानना था कि चूंकि परिवर्तन संसार का नियम है इसलिए अब केंद्रीय मंत्रिमंडल में बेवजह के फेरबदल में ज्यादा विलम्ब नहीं करना चाहिए.अचानक कल रात १२ बजकर ६५ मिनट पर देश की राजधानी गर्दभपुर के मूर्खराज सभागार में सभी गणमान्य महानुभावों को बुलाया गया.आपको बता दूं कि इस अनूठे देश में दिमाग का प्रयोग एक दंडनीय अपराध है.वैसे आप पढ़ते समय चाहें तो दिमाग का प्रयोग कर सकते हैं अगर आपके पास हो तो.मूर्खिस्तान के सत्तारूढ़ दल के महासचिव,अध्यक्ष और युवराज चूंकि देश के सबसे बड़े सिरफिरे हैं इसलिए उनके दल को कभी चुनाव जीतने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई.ऐसे में भला प्रधानमंत्री कैसे विवेकपूर्ण तरीके से मंत्रियों का चयन करते?अतः सबसे पहले म्यूजिकल चेयर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया.एक गोल घेरे में १० सोने की कुर्सियां रखी गईं जिन पर अलग-अलग मंत्रालयों के नाम चिपके हुए थे.जब तक मादक संगीत बजता रहा मंत्री पद के उम्मीदवार कुर्सियों की परिक्रमा करते रहे और जैसे ही बंद हुआ लोगों ने अपने-अपने सामनेवाली कुर्सी पकड़ ली.
      मित्रों,इस तरह इस निर्विशेष देश के विशेष प्रधानमंत्री मूर्खमोहन सिंह ने जो जनता के बीच बिना दिमागवाले के रूप में लोकप्रिय रहे हैं;ने मंत्रियों का चयन किया.यहाँ मैं आपको यह बताता चलूँ कि प्रतियोगिता शुरू होने से पहले ही दो कुर्सियों को हटा दिया गया था.उनमें से एक तो काजल की कोठरी उर्फ़ जेल का दरवाजा बन चुकी संचार मंत्री की थी और दूसरी कपड़ा मंत्री की.दरअसल मूर्खिस्तान में अब प्रधानमंत्री का पद पहले की तरह शक्तिशाली नहीं रह गया है.पहले इस देश में भी हिंदुस्तान की तरह ही एकदलीय सरकारें बनती थीं और तब मूर्खिस्तान का प्रधानमंत्री ही देश का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी हुआ करता था.अभी यहाँ की पिछली सरकार भी हालाँकि गठबंधन सरकार थी लेकिन प्रधानमंत्री तब इस कदर कमजोर नहीं था.लेकिन अब वो बात कहाँ?आजकल जो व्यक्ति प्रधानमंत्री है पहले नौकरशाह था और अब नौकर है गधा पार्टी की अध्यक्षा का.जो भी अध्यक्षा जी का हुक्म हुआ मूर्खमोहन जी उस पर अमल कर डालते हैं चाहे उससे देश का भला हो या बुरा;उसकी बला से.हमारा देश इन दिनों फिर से सामंतवाद की चपेट में है.आज की तारीख में मूर्खिस्तान के प्रादेशिक क्षत्रप इतने शक्तिशाली हो चुके हैं कि दिल्ली की गद्दी का फैसला भी करने लगे हैं.अब संचार और कपडा मंत्रालय कौन संभालेगा का फैसला एक शक्तिशाली क्षत्रप की ईच्छा पर छोड़ दिया गया है.वो चाहें तो कुर्सी को यूं हीं खाली-खाली सडा दे या फिर से किसी किसी महाभ्रष्ट परिजन के हवाले कर दे.
       मित्रों,इन दिनों हमारा देश एक कथित ईमानदार व्यक्ति की संदिग्ध गतिविधियों से काफी परेशान है.यह गांधीवादी पूरे देश की जनता को भ्रष्टाचार के नाम पर गुमराह कर रहा है.वह कह रहा है कि वह भ्रष्टाचार से लडेगा.अब आप ही बताईए कि भला भ्रष्टाचार लड़ने की चीज है.वो तो करने की चीज है न.इसलिए तो मुझे लगता है कि यह बूढा झूठ-मूठ का अपना बुढ़ापा ख़राब कर रहा है.शादी नहीं करके अपनी जवानी तो पहले ही बर्बाद कर चुका है खूसट.बड़ा चला है गाँधी बनने.जब हिन्दुस्तानवालों ने गाँधी को गाँधी नहीं बनने दिया तो मूर्खिस्तान क्या खाकर इस बुड्ढ़े को गाँधी बनने देगा?
                मित्रों,हमारे देश पर बराबर आतंकी हमला होता रहता है.जब किसी देश में दुनिया की सबसे नकारा सरकार सत्ता में हो तो फिर डर किसको,किससे और क्यों?हमारे प्रधानमंत्री और उनके दल का मानना है कि हमें अथिति देवो भव की सदियों पुरानी परंपरा का पालन करते रहना चाहिए;आतंकवादियों के साथ भी.हमारे देश में आतंकियों को फांसी नहीं दी जाती बल्कि उन्हें दामाद बनाकर रखा जाता है.
मित्रों,इस बार भी हर बार की तरह मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद प्रधानमंत्री ने गैरइरादतन कहा कि उन्होंने युवराज बबुआजी से मंत्रिमंडल में शामिल होने का दंडवत अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने सिरे से मना कर दिया.कितना बड़ा झूठ है ये?असलियत तो यह है कि युवराज इस डर से मंत्री बनना नहीं चाहते कि कहीं मंत्री बनने के बाद उनके बिना भेजे वाले दिमाग से कोई ऐसी गलती न हो जाए जिससे वे मंत्री से प्रधानमंत्री बन ही नहीं पाएं.अंत में प्रधानमंत्री जी ने अपने मुखबंदर से यह भी कह डाला कि यह उनकी सरकार के इस कार्यकाल का आखिरी फेरबदल है और आगे वोटों की अगले बंदरबांट तक मंत्रिमंडल में कोई बदलाव नहीं होगा.कितने बड़े गपोरी हैं श्रीमान!कोई उनके बाप का राज है क्या?वे आदेशपाल हैं केवल आदेशपाल और इससे अधिक कुछ भी नहीं.असली सत्ता है राजमाता जी के पास और उनकी जब मर्जी होगी मंत्रिमंडल में बदलाव होगा.वे चाहें तो ऐसा रोज-रोज भी करें.अंत में लेख पढने के लिए आप सभी मित्रों को मैं धन्यवाद नहीं देता हूँ.गुड बाय.फिर मिलेंगे.

बुधवार, 6 जुलाई 2011

कृपालु,दीनदयाल,गरीबनवाज राहुल बबुआ

rahul

मित्रों,भारत की सुपर प्राइम मिनिस्टर इटली से आयातित राजमाता सोनिया गाँधी की आखों के तारे राहुल बबुआ जबसे राजनीति में आए हैं तभी से कृपालु,दीनदयाल,गरीबनवाज बने हुए हैं.जहाँ कहीं भी किसानों,दलितों और मुसलमानों पर प्रदेश सरकार डंडा-गोली चलवाती है राहुल बबुआ तुरंत वहां पहुँच जाते हैं.इस दौरान कुछ देर झोपडिया में आराम करते हैं चटाई बिछाकर.अगर चटाई नहीं मिले तो खटिया से भी काम चला लेते हैं.कभी-कभी तो रातभर के लिए खटिया खाली नहीं करते हैं चाहे घरवालों को जमीन पर ही क्यों न सोना पड़े.
          मित्रों,राहुल बबुआ की संवेदना का जवाब नहीं.बड़े ही जागरूक इन्सान हैं.जिस प्रदेश में उनकी खुद की सरकार होती है वहां लाख पुलिसिया अत्याचार,अनाचार,बलात्कार हो जाए वे नहीं फटकते.फटे में पांव वे तभी डालते हैं जब प्रदेश में विपक्षी दल की सरकार हो.हाँ,वे पीड़ितों-गरीबों पर कृपा करते समय एक और बात का भी ख्याल रखते हैं कि उक्त प्रदेश में चुनाव नजदीक है या नहीं.चुनाव अगर निकट होता है तब हो सकता है कि राहुल बबुआ पीड़ितों पर दोबारा भी कृपा करें  अन्यथा एक बार के दौरे से ही बबुआजी की संवेदना तृप्त हो जाती है.
              मित्रों,अभी उत्तर प्रदेश में चुनाव निकट है और ऐसे में हिटलरी मिजाज वाली मायावती की सरकार ने भट्ठा परसौल में अत्याचार की सारी हदें पर कर दीं.ऐसे में लाजिमी था कि राहुल बबुआ उपरोक्त गाँव का दौरा करें और एक बार नहीं दो या दो से ज्यादा दफा करें.इसी बीच बबुआजी ने बिहार के फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग में मारे गए मुसलमानों के परिजनों का दर्द भी बांटा.लेकिन चूंकि बिहार में अभी चुनाव दूर है इसलिए मुझे नहीं लगता कि वे दोबारा वहां की जनता पर निकट-भविष्य में कृपावृष्टि करनेवाले हैं.आप सभी जानते हैं कि इस समय बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों प्रदेशों में विपक्षी दल की सरकार है.इसी तरह की घटनाएँ महाराष्ट्र में लगातार नियमित अन्तराल पर होती रहती हैं लेकिन चूंकि क्योंकि वहां राहुल बबुआ की पार्टी सत्ता में है वे नहीं जाते पीड़ितों का दर्द बाँटने.अपने आदमी द्वारा किया गया अत्याचार अत्याचार थोड़े ही होता है.वैदिक हिंसा हिंसा न भवति;वह तो दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन अपरिहार्य होता है.उनकी माताजी द्वारा रिमोट संचालित केंद्र सरकार की पुलिस ने रामलीला मैदान में आधी रात में सोये हुए वृद्ध-बीमार लोगों पर लाठियों-गोलियों-अश्रुगैस की बरसात कर दी;लोकतंत्र की शवयात्रा निकाल दी लेकिन राहुल बबुआ का मन थोडा-सा भी नहीं पसीजा.नहीं गए अंग-भंग हुए लोगों को अस्पताल में देखने,उनका दुःख-दर्द बाँटने.जाते भी कैसे,यह अपने लोगों की शरारत जो थी.लोकतंत्र की हत्या तो तभी होती है जब हत्यारी विपक्षी दल की सरकार हो.अपने लोगों पर तो राहुल बबुआ बड़े कृपालु हैं.कुछ भी गलत कर जाए तो बचपना समझकर आँखें मूँद लेते हैं.
               मित्रों,तो ये है अपने कृपालु,दीनदयाल,गरीबनवाज ४१ वर्षीया राहुल बबुआ की संवेदनशीलता की हकीकत.आप समझ गए होंगे कि उनकी संवेदनशीलता सिर्फ वोट के लिए है उसका गरीबों व पीड़ितों के आंसुओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है.अगर लेना-देना होता तो वे न तो पीड़ितों के प्रति भेद का भाव रखते और न ही पीड़कों को लेकर.करें भी तो क्या बेचारे अपने नायाब दिमाग से तो कुछ करते नहीं हैं जैसी सलाह उनके खानदानी चाटुकारों ने दी बबुआ ने वैसा ही कर दिया.राजनीति तो उनके खून में होना चाहिए फिर न जाने क्यों वे पिछले कई वर्षों से राजनीति का ककहरा ही सीखने में लगे हैं.ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन भी जल्दी ही आएगा जब जनता उनके ककहरा सीखने का इंतजार करते-करते थक जाएगी और फिर से कांग्रेस पार्टी विपक्ष की अँधेरी सुरंग में चली जाएगी.जल्दी सीखिए कांग्रेसी युवराज-क का कि की कु कू बादाम,के कै को कौ कं कः राम.क का कि की.............

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

भगवान की मौत

doctor

मित्रों,जब भी हमारा शरीर बीमार होता है तो हमें दो शख्स याद आता है एक ऊपरवाला भगवान और दूसरा नीचेवाला भगवान यानि डॉक्टर.ऊपरवाले भगवान का किसी को स्वस्थ करने में कहाँ तक योगदान होता है मुझे तो नहीं पता लेकिन नीचेवाले भगवान का पूरा योगदान होता है यह पता है.परन्तु हमारे राज्य बिहार में चिकित्सा की जो स्थिति है उससे तो यही लगता है कि नीचेवाले भगवान की मौत हो गयी है या फिर वह अपने महान पद से नीचे गिर गया है.मानवता का यह पुजारी उपभोक्तावाद की गन्दी हवा से प्रभावित होकर पैसों का हवसी बन चुका है.हिप्पोक्रेतिज की शपथ को तो वह भुला ही चुका है वह यह भी भूल गया है कि वह ईन्सान है;कोई पैसा कमाने की मशीन नहीं.

                मित्रों,पिछले दिनों मेरा डेढ़ वर्षीया भांजा जो इन दिनों हमारे पास हाजीपुर में आया हुआ है बीमार पड़ गया.सुबह के ८ बजते-बजते वह नीचे और ऊपर दोनों तरफ से पानी उगलने लगा.हमारा पूरा परिवार घबरा गया और हम बच्चे को कंधे से चिपकाए हाजीपुर के मशहूर शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर राम वचन ठाकुर के घर सह क्लिनिक की तरफ भागे.वहां का नजारा बड़ा भयावह था.सैकड़ों माएँ अपने बीमार बच्चे को गोद में लिए अपनी बारी आने या नंबर लगने का इंतज़ार कर रही थीं.मेरा भांजा अब भी मेरे कंधे पर था और मुझे यह पता नहीं था वह होश में है या बेहोश है.मैंने कंपाउंडर से तत्काल डॉक्टर से मिलवाने की विनती की तब वह कहने लगा कि २ बजे से पहले ऐसा संभव नहीं है;आप बच्चों को इलेक्ट्राल पिलाईये.मेरे यह कहने पर कि बच्चा मुंह से कुछ भी नहीं ले रहा है तो उसने नाराज होते हुए कहा कि बच्चा अपने मन से थोड़े ही पिएगा आप जबरदस्ती पिलाईये.मैं सुनकर सन्न रह गया.तभी हम भीड़ में जहाँ खड़े थे वहां करीब साल भर के एक बच्चे ने माँ की गोद में ही ईलाज की प्रतीक्षा करते-करते दम तोड़ दिया.माँ के चित्कार से पूरा माहौल गमगीन हो उठा.मेरा मन भी खट्टा हो गया और मैंने वहां से खिसक लेने में ही अपने भांजे की भलाई समझी.
               मित्रों,ठाकुर जी के घर के पास ही एक मशहूर होमियोपैथी डॉक्टर का घर था.हताश-निराश हमने उन डॉक्टर बिजली सिंह के घर का दरवाजा खटखटाया.बिजली बाबू जो लगभग ८५ साल के होंगे खुद ही बीमार मिले.हालाँकि उन्होंने हमें हिम्मत बधाई और पत्नी को चाय बनाने के लिए कहा.साथ ही सदर अस्पताल के पास जाकर अपने बेटे से ईलाज कराने की सलाह दी.चाय को न तो आना था और न आई.इसी बीच एक अच्छी बात यह हुई कि मेरा भांजा वहीं बैठे-बैठे इलेक्ट्राल पीने लगा.हालाँकि मैं भी यही चाहता था कि उसे बिजली बाबू के बेटे से ही दिखाया जाए लेकिन पिताजी की राय थी कि सरकारी अस्पताल में दिखाना चाहिए.हम सरकारी अस्पताल में गए भी और पर्ची कटवाई लेकिन जैसे ही डॉक्टर से कहा कि मामला इमरजेंसी का है इसलिए जल्दी देख लीजिए;वह हड़क गया और देखने से ही मना कर दिया.नीतीश सरकार का एक नंगा सच मेरी आँखों के आगे था.मुझे सरकारी अस्पताल और सरकारी डॉक्टरों पर कितना गुस्सा आ रहा था मैं शब्दों में कह नहीं सकता.जी में आ रहा था कि सबकुछ नेस्तनाबूत कर दूं.
         मित्रों,वहां से हम जौहरी बाजार भागे जहाँ एक पंक्ति में कई निजी नर्सिंग होम हैं.वहां एक दलाल पीछे पड़ गया.हमने दोगुना फ़ीस देकर नंबर भी लगवा लिया लेकिन जब पूछा कि डॉक्टर राजेश कितनी देर में देखेंगे तो बताया गया कि कम-से-कम आधा घंटा लगेगा.मैं ईन्तजार नहीं कर सकता था,हालात भी ऐसे नहीं थे;इसलिए पैसा वापस ले लिया और डॉक्टर गौरव की क्लिनिक में आकर उसका इंतजार करने लगा.गौरव हमसे पूर्व-परिचित है और उसका ननिहाल मेरे भांजे के गाँव में ही है.उसको पटना से आने में दो घंटे लग गए.तब तक मैं बच्चे को इलेक्ट्राल पिलाता रहा.गौरव आया और आते ही स्लाइन चढाने की जिद करने लगा.मैंने कहा कि जब बच्चा मुंह से इलेक्ट्राल पी ही रहा है तो फिर नस से ग्लूकोज चढाने की जरुरत क्या है.मेरे काफी जिद करने पर उसने निराश मन से दवा लिखी.अब तक तो मैं सिर्फ सुनता आ रहा था कि हाजीपुर के डॉक्टर सर्दी-खांसी में भी स्लाइन चढ़ा देते हैं आज देखा भी.आखिर हम समकालीनों ने पैसे को ही सब-कुछ जो बना दिया है.इसलिए तो वह धरती के इस भगवान का भी भगवान बन गया है.
             मित्रों,यह युग पैसे के साथ-साथ मशीनों का युग भी है.भगवान तो भगवान नहीं ही रहा ईन्सान भी अब ईन्सान नहीं रह गया है.आप किसी से भी मिलिए तो ऐसा लगेगा जैसे किसी मशीन से मिल रहे हैं.ओढ़ी हुई मुस्कान होठों से चिपकी हुई होती ही है और होठ कुछ रटे-रटाए शब्द उगलते रहते हैं किसी ऑटोमैटिक आंसरिंग मशीन की तरह.आज की दुनिया में ऐसे व्यवहार को प्रोफेशनलिज्म कहा जाता है.मुझे इस प्रोफेशनलिज्म का कटु अनुभव तब हुआ जब मैं अपनी मामी जो पटना में डॉक्टर हैं से मिला.वही मामी जो एक समय मेरे बीमार पड़ने पर कई दिनों तक मेरे सिरहाने में खड़ी रह गयी थीं मुझे जैसे किसी औपचारिकता का निर्वहन करती हुई सी लगीं.अब उनकी प्रैक्टिस अच्छी-खासी चलने लगी है.शायद सफलता ने उनकी संवेदना को मार दिया है और इसलिए अब वे भी एक मशीन बनकर रह गयी हैं और हमेशा इसी प्रयास में रहती हैं कि सारी गर्भवतियों का सिजेरियन कर दिया जाए जिससे उन्हें कमाने का भरपूर अवसर मिले.ऊपरवाले भगवान की मौत की घोषणा तो फ्रेडरिक नित्स्चे ने कई दशक पहले १८८२ में ही कर दी थी अब बाजारीकरण के इस दौर में नीचेवाला भगवान भी जीवित नहीं रहा.यानि भगवान की मुकम्मल तौर पर मृत्यु हो चुकी है.अब हम सिवाय नवसृष्टि के इन्तजार करने के कुछ भी नहीं कर सकते.एक अंतहीन प्रतीक्षा!
    

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

कभी-कभी बोलनेवाला रोबोट है मनमोहन सिंह

manmohan singh

मित्रों,पिछले कुछ महीने भारत के लिए काफी घटनापूर्ण रहे हैं.अप्रैल से ही भारत का प्रबुद्ध वर्ग समय-समय पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलित रहा है.कभी अन्ना हजारे के अनशन और बयानों के कारण तो कभी योगगुरु बाबा रामदेव के भ्रष्टाचारियों को शीर्षासन कराने की जिद के चलते.इस बीच सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह और केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल सरकार की तरफ से लगातार बयान देते रहे हैं लेकिन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस कदर चुप्पी साधे रहे हैं कि हम भारतवासियों को गुमां हो रहा था कि कहीं मिस्टर ऑनेस्ट की आवाज तो नहीं चली गयी है.
              मित्रों,मनमोहन जी के राजनैतिक गुरु पी.वी.नरसिंह राव भी बहुत कम बोलते थे लेकिन उन्हें कभी यह स्पष्ट नहीं करना पड़ा कि वे मजबूत प्रधानमंत्री हैं.उनके भ्रष्टाचारपूर्ण कार्यकाल में सत्ता का सिर्फ और सिर्फ एक ही केंद्र था और वह थे स्वयं पी.वी.नरसिंह राव.इसलिए राव साहब ने जो कुछ भी भला-बुरा किया उसकी एकमात्र जिम्मेदारी उनकी खुद की थी.लेकिन इस सरकार में तो सत्ता के बहुत-से केंद्र हैं और अगर कोई केंद्र नहीं है तो वह हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह.
              मित्रों,कम बोलना अच्छा गुण माना जाता है परन्तु उस शासक के लिए जिस पर पूरे भारत का वर्तमान और भविष्य निर्भर करता है,का पूरी तरह से गूंगा बन जाना और देश में जान-बूझकर भ्रांतिपूर्ण वातावरण बन जाने देना गुण नहीं वरन अवगुण होता है.आखिर सरकार का नेतृत्व मनमोहन सिंह कर रहे हैं न कि कपिल सिब्बल या दिग्विजय सिंह.फिर मनमोहन सिंह ने क्यों नहीं खुद ही इस बात की घोषणा की कि अब सरकार सिविल सोसाईटी को भाव नहीं देगी और मसौदा कमिटी में नहीं रखेगी?क्यों नहीं मनमोहन सिंह ने आगे आकार स्पष्ट किया कि अप्रैल में उनकी सरकार अन्ना के आगे क्यों झुक गयी थी और अब ऐसी कौन-सी गंभीर गलती सिविल सोसाईटी वालों ने कर दी है कि उन्हें मसौदा कमिटी से अलग रखने की बात उनके मंत्री कर रहे हैं?
              मित्रों,मनमोहन सिंह को जब-जब कुछ कहना होता है वे साल में एक-दो बार मीडियाकर्मियों से बात कर लेते हैं.उन्हें रोजाना मीडिया से बात करने में क्या परेशानी है?अगर वे पूरी तरह से स्वतंत्र और मजबूत हैं जैसा कि वे बार-बार बेवजह स्पष्ट भी कर रहे हैं तो फिर कंप्यूटरचालित आंसरिंग मशीन की तरह क्यों जवाब देते हैं?उनकी जुबान पर हमेशा रटा-रटाया जवाब क्यों रहता है?ऐसा क्यों होता है कि उनकी शारीरिक भाषा कुछ और कह रही होती है और जुबान कुछ और?
           मित्रों,भाषण करना एक कला है,विज्ञान भी है.नेताओं को यह कला आनी ही चाहिए.द ग्रेट नेपोलियन की जीत के पीछे कोई चमत्कार का हाथ नहीं होता था बल्कि उसका पत्थर को भी जागृत कर देनेवाला भाषण होता था.प्रसाद,नेहरु और शास्त्री के भाषणों में भी काफी दम होता था.मनमोहन जी के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनी भाषण-कला के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते थे और भाषण द्वारा वातावरण को पूरी तरह से बदल डालने का माद्दा रखते थे.परन्तु हमारे मनमोहन सिंह साल में एक या दो दिन जब भी जनता को सीधे संबोधित करते हैं टाटा अग्नि चाय पिए हुए लोगों को भी जम्हाई आने लगती है.बोलते समय उनका चेहरा कभी कैमरा-फ्रेंडली नहीं होता.लगता है जैसे कोई ईन्सान नहीं रोबोट बोल रहा है और आप तो जानते हैं कि रोबोट को अपना दिल-दिमाग नहीं होता.जो आदमी अपनी मर्जी से दो-चार बातें तक नहीं बोल सकता उससे हम इस संक्रमण काल में जब देश ड्रैगन के जागने समेत अनगिनत बाह्य और आन्तरिक खतरों से घिरा है;कैसे देश को सफल और सक्षम नेतृत्व देने की उम्मीद कर सकते हैं?
                          मित्रों,श्रीमान मनमोहन जी से हमारा विनम्र निवेदन है कि आगे से वे प्रेस कांफेरेंस या एडिटर्स मीट का आयोजन करने की कृपा बिलकुल न करें.वे क्या बोलने वाले हैं यह सबको पहले से पता होता है.अगली बार जब कुछ अपने दिलो-दिमाग से बोलना हो तब जरुर वे ऐसी अहैतुकी कृपा कर सकते हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस जन्म में वे अपने मन से बिना रिमोट कण्ट्रोल के आदेश के कुछ बोलने वाले हैं.