रविवार, 28 अगस्त 2011

मैं अन्ना हूँ और रहूँगा

मित्रों,जबसे होश संभाला प्रत्येक चुनाव के बाद यह सुनते-सुनते मेरे कान पक गए कि यह मेरी या हमारी नहीं बल्कि जनता की जीत है लेकिन वास्तविकता हमेशा कुछ और ही रही.नेता जीतते-हारते रहे और जनता सिर्फ हारती रही.बार-बार उसने व्यवस्थापक को बदला परन्तु व्यवस्था को नहीं बदल सकी.भ्रष्टाचार सर्वव्यापी बना रहा और न सिर्फ बना रहा वरन उसकी मात्रा और घनत्व में उत्तरोत्तर तीव्र वृद्धि भी होती रही.कहते हैं कि हर पाप का एक न एक दिन अंत होता है.आम जनता भ्रष्टाचार से उब चुकी थी परन्तु कोई निदान नजर नहीं आ रहा था.
      मित्रों,ऐसे में एक ७४ साल का बूढा राष्ट्रीय मंच पर आया.उसके पास भौतिकता के नाम पर तो कुछ भी नहीं था;था तो अंतिम दम तक लड़ने का अद्भुत जीवट.उसने भ्रष्टाचार की समस्या के खिलाफ कोरी आवाज ही नहीं उठाई बल्कि उसका समाधान भी प्रस्तुत किया और केंद्र सरकार से मांग की कि वो उसकी टीम द्वारा तैयार किए गए जनलोकपाल कानून को लागू करे.जाहिर है कोई भी ऐसी सरकार जिसे अब तक की सबसे भ्रष्ट और निकम्मी केंद्र सरकार का गैरसरकारी ख़िताब मिल चुका हो,क्यों कर मानने जाती?उसे तो लग रहा था कि बुड्ढा सठिया गया है,जब जनता साथ नहीं देगी तो झक मारकर खुद ही बैठ जाएगा.लेकिन ऐसा हुआ नहीं.राजनेताओं की फूट डालने की तमाम कोशिशों को नाकाफी सिद्ध करते हुए जब जनता सड़क पर उतरी तो बस इतिहास ही बन गया.
          मित्रों,कभी चर्चिल ने हमारे राष्ट्रपिता को अधनंगा फकीर मात्र समझने की भूल की थी.कुछ उसी तरह की गलती वर्तमान केंद्र सरकार भी कर गयी.उसे आम जनता के मन में भ्रष्टाचार के प्रति पल रहे असंतोष का अनुमान नहीं था.तभी तो उसने भीतर-ही-भीतर जन-जन के ह्रदय-सम्राट बन चुके अन्ना को गिरफ्तार करने और गरियाने की हिमाकत कर दी.खैर,अब जो हुआ सो हुआ;जीत तो आखिर आम आदमी की ही हुई.लेकिन क्या हमारी लड़ाई पूरी हो गयी है?क्या हमने मुकम्मल जीत हासिल कर ली है?नहीं,बिल्कुल भी नहीं.मैं मानता हूँ कि यह जीत कोई छोटी जीत नहीं है.अब तक नेता जीतते और जनता हारती आ रही थी,पहली बार जनता जीती है और नेता हारे हैं.फिर भी अगर हम भारत के सम्पूर्ण परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि इस जीत के द्वारा हमने कुछ ज्यादा हासिल नहीं किया है.अभी हमें देखना है कि संसद कहाँ तक हमारे जनलोकपाल को लागू करती है.साथ ही अभी तो हमें बहुत सारे परिवर्तनों में सक्रिय योगदान देना है.हमें न्यायपालिका की लेटलतीफी को ख़त्म करना है,समाप्त करनी है अमीरी और गरीबी के बीच लगातार बढती जा रही है खाई को.कोई हक़ नहीं है किसी को ऐसे मुल्क में ४०० करोड़ या ४००० करोड़ रूपये का एक अदद घर बनाने का जिस मुल्क के ८०% लोग अधनंगे और अधपेट हों.अभी हमें बचानी है भ्रष्ट सत्ताधीशों से अपने किसानों की जमीनें,निबटना है गिरती कृषि-उत्पादकता से और रोकना है वायु,ध्वनि और जल-प्रदूषण के फैलते जहरीले पंजों को.इसके लिए हमें जीत को अपना स्वभाव तो बनाना ही पड़ेगा.साथ ही हार से उपजनेवाली अवसादमयी निराशा से भी बचना होगा.तो आईये मित्रों हम अपनी आगे की लडाई के लिए तैयारी शुरू  करें,अपनी अगली प्रस्थान-यात्रा पर अग्रसर होवें.यह जरुरी नहीं है कि हर बार और हमारी हर लडाई का अन्ना ही नेतृत्व करें.मुझे यकीन ही नहीं विश्वास भी है कि हमने अपनी टोपियों और टी-शर्ट्स पर जो मैं अन्ना हूँ का नारा लिखवाया है वह महज दिखावे के लिए नहीं है;बल्कि हम सभी सचमुच अन्ना हैं और अन्ना रहेंगे और---------तभी हमारा भारत सही मायनों में अतुल्य भारत बन पाएगा.

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