सोमवार, 31 दिसंबर 2012

राम सिंह राम नहीं रावण है

मित्रों,जबसे मैंने पढ़ा है कि 16 दिसंबर की जघन्य घटना के मुख्य आरोपी का नाम राम सिंह है तबसे मेरी रातों की नींद गायब हो गई है। कोई कैसे मेरे राम का नाम बदनाम कर सकता है? इस कलयुगी राम ने जिस तरह से सामूहिक बलात्कार किया वैसा तो पशु भी नहीं करते हैं। इस कलयुगी राम ने जिस तरह डीएनए संबंधी सबूत मिटाने के लिए दामिनी की अस्मत को लूटने के बाद जिस तरह से उसकी अंतड़ियों को पेट फाड़कर अपने हाथों से बाहर निकाल दिया वैसे तो कदाचित् कसाई भी बकरों की नहीं निकालता। फिर किसने रख दिया इस पापी का नाम मेरे राम के नाम पर? इतनी क्रूरता तो त्रेता के राक्षसराज रावण ने भी सीता के साथ नहीं की थी फिर कोई रामनामधारी मानव ऐसा कैसे कर सकता है? अभी कुछ साल पहले नोएडा के निठारी में एक कोली रहता था जो छोटे-छोटे बच्चों को मारकर उनको पकाकर खा जाता था। क्या उसे हमें मानव कहकर पुकारना चाहिए? क्यों मरती जा रही हैं हमारी संवेदनाएँ? और अब मुझे इस राम का दर्शन/श्रवण करना पड़ रहा है! क्यों हमारे भारत के औसत मानव में मानवता नहीं रह गई है और मौका मिलते ही वो हैवान बन जा रहा है? अब इस राम सिंह को ही लें जो आर्थिक रूप से नितांत गरीब की श्रेणी में आता है। क्या यह राम सिंह इन्सान कहलाने के लायक है,क्या प्राचीन काल में राक्षस अन्य इन्सानों से अलग होते थे? या फिर वे भी शक्लोसूरत से मानव ही थे लेकिन वह उनके बुरे कर्म थे जो उनको राक्षस बनाते थे।
             मित्रों,कहाँ मेरे राम मर्यादापुरूषोत्तम और कहाँ यह राम सिंह? यह मेरे राम का अपमान है,घोर अपमान और मैं इसे कदापि सहन नहीं कर सकता। इस नीच का जिसने भी नामकरण किया था उसने मेरे राम को अपमानित करने की धृष्टता का अक्ष्म्य अपराध किया है। क्या मेरे राम ने कभी किसी पर-स्त्री की तरफ बुरी नजरों से निमिष मात्र के लिए देखा था? बल्कि मेरे राम ने तो बलात्कार-पीड़िता अहिल्या को जो लोक-लाज के मारे पत्थर सी,निर्जीव-सी हो गई थी समाज में पुनर्प्रवेश दिलाया था और ऐसा करके भारतीय समाज को संदेश दिया था कि नफरत बलात्कारी से करो न कि उससे जिसने इस अमानुषिक अत्याचार को भोगा है। मेरे राम ने तो अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए जान की बाजी लगा दी थी और सीता-मुक्ति के माध्यम से समाज में फिर से स्थापित किया था स्त्रियों की गरिमा और अस्मिता को। उन्होंने तो कभी दूसरा विवाह नहीं करने की भीष्म-प्रतिज्ञा की थी और फिर उसे मन,वचन और कर्म से निभाया भी था। और आज उसी राम के नाम को धारण करने लगे हैं राम सिंह जैसे नरपिशाच ड्रैकुला! नाम से राम और काम से रावण! नहीं मैं नहीं होने दूंगा ऐसा। मेरे राम का नाम तो पवित्र है दुनिया के सारे नामों से भी ज्यादा फिर कैसे कोई इसको बदनाम करने की मूढ़ता कर सकता है? नहीं हरगिज नहीं होने दूंगा मैं ऐसा! बेहतर हो कि आगे से कोई हिन्दू अपने बच्चे का नाम राम रखे ही नहीं और अगर रखे भी तो हर क्षण इस बात का खयाल रखे कहीं उसका रामनामधारी बच्चा कुमार्ग पर तो नहीं जा रहा है। अगर उसे कभी ऐसा खतरा महसूस हो तो उसको तत्क्षण उसका नाम बदल देना चाहिए। वह स्वतंत्र है इसके लिए कि अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख ले बस सिर्फ राम या उनका पर्यायवाची न रखे क्योंकि इससे मेरे,आपके और सबके राम का नाम बदनाम होता है।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

गांधीजी की लाठी और दिल्ली पुलिस

मित्रों,कहते हैं कि जब हमारे कथित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मरे तो उनके पास से सिर्फ तीन चीजें बरामद हुईं-सत्य,अहिंसा और लाठी। सत्य जो दुनिया के सत्यानुरागियों को दिलासा देता था कि अंत में जीत तुम्हारी ही होगी भले ही तुझे रोज मर-मर कर जीना पड़े। अहिंसा दूसरों पर अत्याचार न करने की शिक्षा देती थी और लाठी इन दोनों के लड़खड़ाते हुए पावों को सहारा देती थी। सत्य और अहिंसा चूँकि उनके राजनैतिक उत्तराधिकारियों के किसी काम के नहीं थे इसलिए उन्हें उन्होंने तत्काल कूड़ा समझकर दूसरे देशों के आंगन में फेंक दिया जिसे उनमें से कई देशों के कई लोगों ने गले से लगा लिया और इस तरह दुनिया में कई मार्टिन लूथर किंग,नेल्सन मंडेला और सू की का जन्म हुआ। बच गई लाठी सो उसके तीन टुकड़े किए गए। पहले टुकड़े को लूट लिया नेताओं ने,दूसरे टुकड़े पर कब्जा जमाया प्रशासन ने और तीसरा टुकड़ा हाथ आया आम जनता के।
           मित्रों,तभी से महान भारतवर्ष की महान जनता ने धर्म-अधर्म संबंधी पूर्वजों के विचारों पर विचार करना छोड़ दिया और देश में जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत ने व्यावहारिक रूप से जन्म लिया। इसी लाठी की सहायता से हमारे नेता पिछले 65 सालों से जनता को भड़का और हड़का रहे हैं कुल मिलाकर हाँक रहे हैं और जनता भी आज्ञाकारी भेंड़ की तरह उनकी बातों में आती रही है। इस लाठी के गुणों से हमारे मध्यकालीन पूर्वज भी भलीभाँति परिचित थे तभी तो गिरिधर कवि ने इस महान अस्त्र-शस्त्र के सम्मान में कुछ यूँ कसीदे गढ़े थे-
लाठी में बहुत गुण है सदा राखिये संग,
सदा राखिये संग झपटी कुत्ते को मारे;
दुश्मन दावागीर मिले तिनहुँ को झारे,
कहे गिरिधर कविराय सुनो हे धुर के बाटी,
सब हथियारन को छोड़ के हाथ में लीजै लाठी।
आजकल सोनपुर मेले में भी सबसे ज्यादा बिक रही है यही लाठी। इससे यही सत्य भलीभाँति स्थापित हो रहा है कि बिहार के लोग बातों के या पैसों के धनी भले ही नहीं हों लाठी के धनी जरूर हैं। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हमारे यहाँ लालूजी जैसे पूजनीय महापुरूष हुए हैं जिन्होंने लाठी को 15 सालों तक खूब तेल पिलाया है भले ही जनता को उनके शासन-काल में पेट की आग बुझाने के लिए दूसरे राज्यों का रूख करना पड़ा हो। जनता की कड़ाही और सिर में भले ही तेल की एक बूंद भी न हो लालूजी की टूट चुकी लाठी में आज भी खूब तेल मालिश हो रही है।
              मित्रों,परन्तु लाठी का सर्वाधिक मोहक स्वरूप तो तब उभरकर दुनिया के सामने आया जब वह भारतीय पुलिस के हाथों की शोभी बनी। आजकल लोग बेवजह दिल्ली पुलिस को भला-बुरा कह रहे हैं क्योंकि वे यह भूल गए हें कि इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस पूरी तरह से निर्दोष है दोषी है तो गांधीजी की प्यारी लाठी। अन्य राज्यों की पुलिस की तरह दिल्ली पुलिस भी पूरी तरह से निरपेक्ष भाव से काम करती है। उसको क्या पता कौन पीड़क है और कौन पीड़ित। वह बेचारी तो निष्काम भाव से बल-प्रयोग करती है यह देखना तो इस निगोड़ी लाठी का काम है न कि वह सिर्फ दोषियों पर ही प्रहार करे। यह लाठी ही है जिसने पोस्टमार्टम करनेवाले डॉक्टर से विवादास्पद रिपोर्ट तैयार करवाया। वो कहते हैं न कि लाठी के डर से तो भूत भी काँपता है फिर डॉक्टर तो बहुत मामूली शह है। उसको अपने ऊपर आईपीसी की सारी धाराएँ एकसाथ थोड़े ही ठोकवानी थी सो बेचारे ने जैसा भी पुलिसिया लाठी ने कहा लिख दिया। न तो एक हर्फ कम और न तो एक हर्फ ज्यादा। बुरा किया या भला किया जिन्दा और सही-सलामत रहेंगे तभी न कभी फुरसत में सोंच सकेंगे। हमारी पुलिस अगर सलीम अल्वी जैसे पूर्वप्रमाणित विवादास्पद झूठे गवाहों को पालती है तो इसमें भी उसका क्या दोष? गांधी के सत्य को क्या पुलिस ने दूसरे के आंगन में इस तरह से भँजाकर फेंका था कि वह फिर से वापस भारत में आ ही न सके? अब तो उसने सुभाषचंद्र तोमर को अस्पताल पहुँचानेवाले योगेन्द्र तथा पाउलिन की राजनैतिक पृष्टभूमि की झूठी जाँच भी शुरू कर दी है। हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर दोनों का संबंध बहुत जल्दी माननीय शिंदे साहब के संदेहानुसार नक्सलियों से स्थापित कर दिया जाए और वे दोनों कैमरे के सामने खुद ही अपने टूटे-फूटे मुँह से इसे कबूल भी कर लें। यहीं पर तो लाठी की नंगई वाला असली गुण आप अपनी नंगी आँखों से देख सकते हैं। यह लाठी ही तो है जो सच को सफेद झूठ और झूठ को सफेद सच में बदल देती है। निर्दोषों को सजा दिलवा देती है और दोषियों को लाल बत्ती।
             मित्रों,मेरे पास इस समय आपके लिए भी मुफ्त की एक नायाब सलाह उपलब्ध है-हो सके तो आपलोग कुछ महीनों के लिए दिल्ली की यात्रा न करें। अगर आप दिल्ली में ही रहते हैं तो नए साल का स्वागत घर में ही कर लें हरगिज इंडिया गेट की ओर न जाएँ क्योंकि ऐसा करने पर संभव है कि आपको सरे राह चलते दिल्ली पुलिस मिल जाए और आपपर सीधे देशद्रोह का मुकदमा चला दिया जाए। हो सकता है आपको इस दुस्साहस के लिए बालपन के बाद पहली बार ब्रह्मसोंटा उर्फ दुःखहरण बाबू का अलौकिक स्वाद भी चखना पड़े। दोस्त जब एक जिंदा लाश प्रधानमंत्री,एक पागल गृहमंत्री और एक महामूर्ख पुलिस चीफ हो तो आपके साथ कभी भी,दिल्ली में कहीं भी,कुछ भी हो सकता है। एक बार दिल्ली पुलिस के चंगुल में फँसे तो मानवाधिकार तो क्या आप शर्तिया यह भी भूल जाएंगे कि आपका नाम क्या है और आपको सिर्फ वही याद रह जाएगा जो आपको लाठी याद करवाएगी,गांधीजी की अहिंसक लाठी।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

क्या भगवान भी रिश्वतखोर हो गया है?

मित्रों,कुछ ही दिन पहले 19 दिसंबर को उद्योगपति विजय माल्या का जन्मदिन था। विजय माल्या ठहरे धनाभिमानी और उन्होंने इसे साबित किया भी। उन्होंने अपना 58वाँ जन्मदिन मनाया भगवान वेंकटेश्वर तिरूपति को तीन किलो सोना दान करके। ऐसा उन भगवद्भक्त ने तब किया जबकि उनकी किंगफिशर एयरलाइन्स के कर्मचारियों व अधिकारियों को पिछले कई महीनों से वे वेतन नहीं दे सके हैं और इसके चलते वे बेचारे भूखे-प्यासे हड़ताल पर भी हैं। यह कैसी भक्ति-भावना है विजय माल्या जी की जो ईश्वर की सर्वश्रेष्ट अनुकृति को तो उन्होंने महीनों से भूखा-सूखा रखा है और भगवान वेंकटेश्वर की प्रस्तर-प्रतिमा पर चढ़ा रहे हैं तीन किलो सोना! प्रश्न उठता है कि क्या इन मंदिरों में या मूर्तियों में सचमुच भगवान रहते हैं? मैं समझता हूँ कि भगवान मंदिरों में या मूर्तियों में नहीं बल्कि विश्वास में निवास करते हैं,वे विश्वास की पवित्रता में रहते हैं। यह सोंचने की बात है कि जो भगवान सबका पालनहार है उसको क्या जरूरत है सोने,हीरे और पैसे की? वह तो ब्रह्मांड के कण-कण में निवास करता है। पूरी दुनिया उसका ही ऐश्वर्य़ है फिर धनी लोग क्यों चढ़ाते हैं उसकी मूर्ति पर सोना-हीरा? क्या ऐसा करते समय उनके मन में श्रद्धा या भक्ति होती भी है या वे ऐसा अभिमानवश अपने धन-प्रदर्शन के लिए करते हैं? या वे समझते हैं कि भगवान भी रिश्वतखोर हो गया है और धन देने से खुश हो जाएगा? क्या वह सोना-चांदी भगवान तक पहुँचता भी है या फिर वह पुजारियों के काम आता है या यूँ ही अनुपयोगी पड़ा रहता है? शास्त्र कहते हैं कि समस्त जड़-चेतन ईश्वर से,ईश्वर द्वारा और ईश्वर में निर्मित है। ईश्वर जड़ से ज्यादा प्रकट रूप में चेतन में और उससे भी ज्यादा प्रकट रूप में इन्सानों में दृष्टिगोचर होता है। इन्सान ही ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि या प्रतिकृति है। मूर्तियों में भगवान है लेकिन जड़ रूप में। जैसे हमारी तस्वीरों में हम होते हैं फिर भी हम तस्वीर नहीं हो जाते वैसे ही मूर्तियाँ ईश्वर का प्रतीक मात्र हैं वे भगवान नहीं हैं। फिर इन्सानों को भूखा रखकर जड़ मूर्तियों पर धन न्योछावर करने की मूर्खता क्यों? क्या वह धन ईश्वर तक पहुँचेगा या कहीं किसी तिजोरी की शोभा बनकर अनुपयोगी रह जाएगा? अगर अनुपयोगी धन कालाधन होता है तो ये प्रस्तर-मूर्तियों को दान में दिए गए हीरे-मोती कैसे कालाधन नहीं हुए? जो धन चेतन-ईश्वर की जरुरतों को पूरा करने में खर्च होना चाहिए उसको जड़-प्रतिमा या मंदिर के खजाने में कैद करने से क्या लाभ? मैं नहीं समझता कि ऐसे धन से वह दयासागर/सर्वकारण थोड़ा भी खुश होता होगा क्योंकि वह तो अपने बंदों के दुःख से दुःखी और अपने बंदों के सुख से ही सुखी होता है।
                मित्रों,इसलिए सरकार को चाहिए कि चाहे भारत का कोई भी मंदिर हो उसमें जमा धन-संपत्ति को जब्त कर ले और इसको गरीब हिन्दुओं के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने पर खर्च करे लेकिन खर्च पूरी पारदर्शिता के साथ होना चाहिए। इसमें बिल्कुल भी घोटाला नहीं होना चाहिए।
                  मित्रों,ये तो हुई मंदिरों के खजाने की बात अब कुछ बात कर लेते हैं मंदिरों में रहनेवाले बिचौलियों यानि पुजारियों की। हम गरीब भक्त जो भी छोटा-मोटा चढ़ावा चढ़ाते हैं या दान करते हैं उनका ज्यादा बड़ा हिस्सा इनकी ही भेंट चढ़ते हैं। मैंने ऐसे कई महंतों को देखा है जिन्होंने अपने घरवालों को करोड़पति तक बना दिया। ये श्री-श्री 1008 से युक्त या रहित कथित भगवद्भक्तों का जीवन काफी ऐश्वर्यपूर्ण होता है। इनमें से कुछ तो हमारे दान के बल पर सोने की पालकियों तक की सवारी गाँठते हैं। हम दान करते हैं कथित भगवान को और उससे गुलछर्रे उड़ाते हैं ये पाखंडी भूदेव या तथाकथित संन्यासी। संन्यास तो सर्वस्व-त्याग सिखाता है फिर ये कैसे संन्यासी या भक्त हैं जिनको हम गृहस्थों से भी कहीं ज्यादा शारीरिक सुख चाहिए?  कई मंदिरों में तो विधिवत देवदासियाँ रखने की भी प्रथा है। ये देवदासियाँ पुजारियों की यौन-जरुरतों को पूरा करती हैं,एकसाथ उनको कई-कई पुजारियों की हवस को शांत करना पड़ता है और वो भी धर्म और ईश्वर के नाम पर। छिः,क्या इसी को भगवद्भक्ति कहते हैं? इससे तो अच्छा रहता कि ये लोग संन्यासी के बदले गृहस्थ ही बने रहते। तब दोनों आश्रमों की प्रतिष्ठा बनी और बची रहती। जब ये बिचौलिये हम गृहस्थों से भी ज्यादा माया “कामिनी और कंचन” के प्रति आसक्त हैं तो फिर इनकी विलासिता की पूर्ति में या पाप में समाज क्यों भागीदार बने? क्या आवश्यकता है इनकी हिन्दू समाज को? मैं यह नहीं कहता कि इनमें से सारे-के-सारे इसी तरह के हैं लेकिन कम-से-कम 80-90%  तो ऐसे हैं ही।
              मित्रों,कुल मिलाकर हमारे हिन्दू धर्म का संस्थागत हिस्सा लगभग पूरी तरह से भ्रष्ट और बर्बाद हो चुका है और इसमें तत्काल बृहत् सुधार की आवश्यकता है। परन्तु लाख टके का प्रश्न तो यह उठता है कि ऐसा होगा कैसे? इसके लिए भगवान तो अवतार लेने से रहे इसलिए जो कुछ भी करना है हमें ही करना है,हम हिन्दुओं को ही करना है। हमें करना बस इतना ही है कि हम दान देते समय सावधानी बरतें और यथासंभव अपने विवेकानुसार केवल सत्पात्र को ही दान करें। चाहे वह राशि 5 रूपए की हो या 5000 रूपए की। इसके साथ ही अगर हमारे इलाके में कहीं देवदासी प्रथा किसी भी रूप में चलन में हो तो उसका विरोध करें और उस संन्यासी को बिल्कुल भी दान न करें। दान करना बहुत अच्छी बात है इसलिए दान देना बंद न करें लेकिन दान करें तो भगवान के साक्षात चेतन स्वरूप जरुरतमंद मानवों की मदद करके करें। इसमें न तो संकोच ही करें और न ही लज्जा। इति शुभम्। 

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

बलात्कारी संस्कृति के लिए दोषी कौन?


मित्रों,जब मैं बच्चा था तब अक्सर देखा करता था कि बकरी का नर बच्चा अक्सर अपनी सहोदर बहनों और जन्मदात्री माँ के साथ सेक्स संबंध बनाने को उतावला हो उठता था। तब मैं सोंचता था कि क्या भविष्य में हम भारतीयों की भी यही स्थिति होनेवाली है? भारतीयों की इसलिए क्योंकि तब तक पश्चिम के समाज के बारे में मैं सुन-पढ़कर जान चुका था वहाँ इहलोकवाद का तूफान काफी समय से चल रहा है और वहाँ का समाज जानवरों के समाज की तरह काफी हद तक सेक्स-फ्री हो चुका है। मैं सोंचता था कि क्या भविष्य में विश्वगुरू भारत में भी शरीर और सेक्स-संतुष्टि का महत्त्व इतना ज्यादा हो जाएगा कि सारे रिश्तों की गरिमा तार-तार कर दी जाएंगी? दुर्भाग्यवश वह समय बहुत जल्दी और मेरे अनुमान के विपरीत मेरी जिन्दगी में ही आ गया है। आज जब भी मैं समाचार-पत्रों में पढ़ता हूँ कि गुरू ने शिष्या का यौन-शोषण या बलात्कार किया,आज जब भी किसी पिता की खुद अपनी ही बेटी के प्रति हैवानियत की खबरें देखता या पढ़ता हूँ तो मुझे वह बचपनवाला बकरी का बच्चा याद आ जाता है। आखिर क्यों हुआ ऐसा और हुआ भी तो इतनी तेजी से क्यों हुआ? क्यों इतनी जल्दी हम भारतीयों की ईन्सानियत मर गई? ज्यादा नहीं पचास साल पहले का भारत तो बिल्कुल भी ऐसा नहीं था।
              मित्रों,दरअसल पिछले पचास सालों में हमारा समाज काफी कुछ बदला है। हमारे समाज ने इन पचास सालों में पहले थियेटरों/सिनेमाघरों में फिल्मों को देखा,फिर रेडियो पर मादक फिल्मी गीतों को सुना,फिर टेलीवीजन ने हमारे घरों को ही सिनेमाघर बना दिया और उल्टे-सीधे धारावाहिक दिखाए और अंत में आया इन्टरनेट जिसने अश्लील वीडियो-फिल्मों को पहले घर-घर और फिर मोबाईल-मोबाईल तक पहुँचा दिया। पिछले पचास सालों में वैज्ञानिकता के नाम पर सरकारी प्रचार-माध्यमों और सरकारी पाठ्यक्रमों ने हमारी धार्मिक मान्यताओं पर मरणान्तक प्रहार किया और लोगों की धार्मिक-आस्थाओं की ऐसी की तैसी कर दी। हम भूल गए आईन्सटीन की चेतावनी को कि बिना धर्म के विज्ञान अंधा होता है। हम भूल गए कि विज्ञान हमारे जीवन को आसान बना सकता है लेकिन नैतिक-मूल्यों के प्रति हमारे मन में आस्था उत्पन्न नहीं कर सकता। आज का औसत भारतीय परलोक की बिल्कुल भी चिन्ता नहीं करता और उसके लिए अगर पैसा ही भगवान हो गया है,तो क्यों? क्यों आज का भारतीय न तो ईश्वर को मानता है और न ही उससे डरता है? क्योंकि पहले तो हमने भारतीय-विश्वास और अध्यात्म की धज्जियाँ उसको विज्ञान की कसौटी पर कसकर उड़ा दीं (जबकि आस्था विश्वास करने की चीज है न कि तर्क या विज्ञान की कसौटी पर कसने की) और जब हमारे देशवासियों के दिमाग से परलोकवाद और ईश्वर निकल गया या उसका प्रभाव कमजोर पड़ गया तब हमने उसमें अश्लीलता भर दी। इतना ही नहीं हमारी सरकारों ने कथित रूप से खाली खजानों को भरने के लिए जनता के हाथों में शैतान का पर्याय शराब की बोतलें भी पकड़ा दीं। पीयो और खुद को भी भूल जाओ। भूल जाओ सारे रिश्तों की अहमियत को,भूल जाओ कि तुम एक ईन्सान हो।
             मित्रों,आज जबकि रह-रहकर बलात्कार की दिलो-दिमाग को हिला देनेवाली घटनाएँ सामने आने लगी हैं तो हम अपने दिमाग के कार्बुरेटर में आ गए कचरे को साफ करने की बात नहीं कर रहे और सतही या बाहरी उपाय करने में लगे हैं। हम बसों के शीशों का रंग बदलने की बात कर रहे हैं और बसों से पर्दा हटाने का आदेश दे रहे हैं। हम अति हास्यास्पद तरीके से कभी बलात्कारियों को फाँसी देने की मांग कर रहे हैं तो कभी रात में चलनेवाले बसों में बल्ब जलाए रखने का निर्देश दे रहे हैं। मैं पूछता हूँ कि ऐसे तुगलकी आदेशों का अक्षरशः पालन करवाएगा कौन? मैं पूछता हूँ कि क्या वर्तमान भारत में सिर्फ बसों में ही बलात्कार किए जा रहे हैं? अगर कोई बाप अपनी बेटी या कोई भाई अपने बहन की अस्मत पर खुद ही हाथ डालता है तो क्या उसे हमारी कोई भी सरकार या कानून रोक सकता है? क्यों आज हमारी बहनों को सबसे ज्यादा खतरा खुद के घर में ही है? क्यों जनता की जान-माल और अस्मत की रक्षा के लिए बनाए गए थानों में ही सबसे ज्यादा बलात्कार की घटनाएँ होती हैं? क्या इन सवाल पर कभी हमारे सिरफिरे राजनेताओं और नीति-नियंताओं ने विचार किया है? क्या उन्होंने कभी गंभीरतापूर्वक विचार किया है कि क्यों आज का औसत भारतीय ईन्सान से जानवर बनता जा रहा है और इस नैतिक गिरावट को कैसे रोका जा सकता है? क्या उनके दिमाग ने कभी इस बात पर चिन्तन किया है कि ऐसे क्या उपाय किए जाने चाहिए जिससे ईन्सान के बच्चे और बकरी के बच्चे के बीच का अंतर पुनर्स्थापित हो सके?
              मित्रों,यदि वे लोग ऐसा नहीं सोंच रहे हैं तो फिर मुझे बड़े दुःख के साथ स्वीकार करना पड़ेगा कि निकट-भविष्य में बलात्कार की घटनाएँ रूकना तो दूर कम भी नहीं होनेवाली हैं। अगर हम शिक्षा-प्रणाली सहित हर बात में पश्चिम का अंधानुकरण करेंगे तो हम भारत को ऐसा विचित्र भारत बनाकर रख देंगे जिसे भारत का कोमल हृदय कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। कहना न होगा कि अगर हम एक आम भारतीय को फिर से जानवर से ईन्सान बनाना चाहते हैं तो हमें अपने बच्चों को एक बार फिर से वेदों और उपनिषदों की शिक्षा देनी पड़ेगी। एक बार फिर से यम,नियम,योग और ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाना पड़ेगा। उनको शंकर के मायावाद,अद्वैतवाद और रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद की शिक्षा देना होगी। हमें उनके दिलो-दिमाग में फिर से अपनी महान संस्कृति और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था पैदा करनी पड़ेगी। अगर सरकारी स्कूलों में ऐसा पाठ्यक्रम लागू करने में हमारे नेताओं की कथित धर्मनिरपेक्षता बाधा बनती है तो उतार फेंकना होगा ऐसी भारतीयता व मानवता-विनाशक कथित धर्मनिरपेक्षता को तभी हम फिर से एक आम भारतीय को पशु से मानव और मानव से देवता बना पाएंगे और कविवर आरसी प्रसाद सिंह की तरह सिर उठाकर गा सकेंगे कि-हमारा देश भारत है नदी गोदावरी गंगा,लिखा भूगोल ने जिस पर हमारा चित्र बहुरंगा। जहाँ हर बाग है नंदन,जहाँ हर पेड़ है चंदन;जहाँ देवत्त्व भी करता मनुज के पुत्र का वंदन,मनुज के पुत्र का वंदन,मनुज के पुत्र का वंदन।।।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

मोदी होंगे भारत के अगले प्रधानमंत्री?



मित्रों,गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों का परिणाम आ चुका है। जहाँ गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने जीत की हैट्रिक पूरी कर ली है वहीं हिमाचल प्रदेश की जनता ने एक बार फिर प्रत्येक चुनाव में सत्ता बदलने की परंपरा बनाए रखी है। हिमाचल की जनता ने वीरभद्र सिंह पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को भी दरकिनार कर दिया है और यह सिद्ध कर दिया है कि सिर्फ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारत में चुनाव नहीं जीता जा सकता। यद्यपि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल पर भी थे। हालाँकि हिमाचल के चुनावों का भी कम महत्त्व नहीं था मगर पूरा भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व इस समय गुजरात चुनाव पर निगाहें टिकाए हुए था। वास्तव में उनकी जीत पहले से ही सुनिश्चित मानी जा रही थी और सबकी अभिरूचि सिर्फ इस बात को लेकर थी क्या मोदी गुजरात में फिर से 117 सीटें जीतने का रिकार्ड कायम रख पाते हैं अथवा उनकी लोकप्रियता घटती है। मोदी के लिए परीक्षा इसलिए भी इस बार ज्यादा कठिन थी क्योंकि इस बार भाजपा के कद्दावर नेता केशुभाई पटेल उनकी राह में रोड़ा बनकर खड़े थे। कांग्रेस ने भी इस बार कुछ ज्यादा ही संगठित और आक्रामक प्रचार किया था और उसको भी केशुभाई पटेल द्वारा वोट काटने की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही थीं। फिर भी सारी बाधाओं को पार करते हुए मोदी इस बाधा दौड़ को शानदार तरीके से जीतने में सफल रहे हैं जिससे निश्चित रूप से उनका मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ा होगा।
          मित्रों,अभी लोकसभा चुनावों में एक साल से थोड़ा ही ज्यादा का समय बचा है इसलिए अब यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि क्या भारतीय जनता पार्टी उनको प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बनाती है या नहीं। वैसे जिस तरह के संकेत भाजपा की ओर से प्राप्त हो रहे हैं उससे तो ऐसा ही लग रहा है कि अब ऐसा होना निश्चित है और इसकी घोषणा की सिर्फ औपचारिकता ही शेष है। भाजपा के सामने और कोई विकल्प इस समय दिख भी नहीं रहा है। अगर भाजपा को चुनाव जीतना है तो नरेन्द्र मोदी को आगे लाना ही होगा। निश्चित रूप से मोदी के काम करने के तरीके में कुछ कमियाँ हैं लेकिन उन पर अब तक भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं है जबकि उनको गुजरात की सत्ता पर काबिज हुए एक दशक से भी ज्यादा समय गुजर चुका है। नरेन्द्र मोदी की बातों में जादू है उनकी भाषण-कला लाजवाब है। यहाँ तक कि कांग्रेसी नेता भी गुजरात में यही कहते देखे गए कि मोदी नेता कम जादूगर ज्यादा दिखते हैं। माना कि भाजपा में सामूहिक नेतृत्व की परंपरा रही है लेकिन यह भी कटु सत्य है कि भाजपा को सत्ता की दहलीज तक अगर 1998 और 1999 में पहुँचाया था तो अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्माई व्यक्तित्व ने पहुँचाया था पार्टी सिर्फ अपने बल-बूते पर सत्ता तक नहीं पहुँची थी। जहाँ तक मोदी को इस चुनाव में मिले वोटों का सवाल है तो इसमें सभी वर्गों और जातियों के वोट शामिल हैं। यहाँ तक कि उनको कुछ-न-कुछ मुसलमानों का भी वोट मिला है अन्यथा इस तरह की अविस्मरणीय जीत संभव नहीं होती। इससे यह भी साबित हो रहा है कि गुजरात के अल्पसंख्यकों के जख्म अब भरने लगे हैं और उनको भी अन्य गुजरातियों की तरह भ्रष्टाचाररहित विकास का नारा रास आने लगा है।
               मित्रों,क्या मोदी भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे और क्या वे ऐसा होने पर पार्टी को जिता पाएंगे यह तो अभी समय के गर्भ में है लेकिन इतना तो निश्चित है कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे मनमोहन सिंह या राहुल गांधी से ज्यादा सक्षम और कुशल नेतृत्व देश को दे पाएंगे। इतना ही नहीं इससे देश को कांग्रेस के अभूतपूर्व भ्रष्टाचार से युक्त शासन से भी मुक्ति मिल सकेगी। अब तक देश के काफी सारे संसाधनों को कांग्रेस बेच चुकी है और अगर वह फिर से लोकसभा चुनाव जीत जाती है तो शायद भारत फिर से गुलाम ही हो जाए आर्थिक रूप से भी और राजनीतिक रूप से भी। अरविन्द केजरीवाल रह-रहकर सनसनी जरूर पैदा कर रहे हैं और शायद आगे भी करते रहनेवाले हैं लेकिन उनके पास न तो पार्टी संगठन है और न ही वे एक साल में देशभर में स्वीकार्य हो सकनेवाले जननेता ही बन सकते हैं। फिर उनके साथ दिख रहे लोगों का दामन भी भ्रष्टाचार से पूरी तरह से पाक-साफ नहीं है। इस स्थिति में जनता उन पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं कर सकती। उन पर विश्वास तो उनके पूर्व सहयोगी अन्ना हजारे को भी नहीं है।
           मित्रों,भारत जैसे विविधतावाले देश में क्षेत्रीय शक्तियों का क्रमशः मजबूत होते जाना भारत की एकता और भारत के लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है जिस पर कदाचित् मोदी के राष्ट्रीय पटल पर आने से रोक लग सकेगी। मोदी पर गुजरात के दंगों से निपटने में नाकाम रहने के आरोप हैं और हमेशा रहेंगे लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उसके बाद गुजरात में कभी साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए जबकि उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी के पिछले 10 महीने के छोटे-से शासनकाल में ही एक दर्जन से ज्यादा साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेताओं को भी वक्त की नजाकत को समझते हुए मोदी के प्रति स्नेह-वात्सल्य और सदाशयता का परिचय देना चाहिए क्योंकि यही देशहित में भी है और पार्टी के हित में तो है ही।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

अयथार्थवादी है काटजू का इतिहास-दर्शन

मित्रों,भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष श्री मार्कण्डेय काटजू इन दिनों बड़ी जल्दीबाजी में हैं। वे इसी एक जन्म में बहुत कुछ बन लेना चाहते हैं। कभी वे देश के सामने न्यायाधीश की भूमिका में आते हैं तो कभी कांग्रेस-विरोधी सरकारों के सबसे बड़े आलोचक के रूप में। आजकल श्रीमान् पर इतिहासकार बनने का भूत सवार हो गया है। शायद उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं रह गया है या फिर है भी तो इस बात को लेकर उनको पूरी तसल्ली नहीं है कि वे अगले जन्म में भी मानव ही रहेंगे। शायद इसलिए वे एक साथ मास्टर ऑफ ऑल ट्रेड्स बन जाना चाहते हैं लेकिन बन गए हैं मास्टर ऑफ नन।
             मित्रों,लगता है इतिहासकार काटजू साहब के चश्मे में एक ही शीशा काम का है तभी तो वे सिर्फ उदारवादी सुल्तानों और बादशाहों के कृत्यों को ही देख पा रहे हैं कट्टर मुस्लिम शासकों के अत्याचार उनकी दृष्टि से औझल रह जा रहे हैं। क्या काटजू साहब बताएंगे कि क्या श्रीराम जन्मभूमि स्थित मंदिर को तोड़कर वहाँ बाबरी मस्जिद राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने खड़ा कर दिया था? क्या काशी और मथुरा के मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें इतिहासकारों ने बनायी है? क्या बलबन,अलाउद्दीन खिलजी,फिरोजशाह तुगलक और औरंगजेब द्वारा हिन्दू बहुसंख्यक जनता के साथ किए गए अमानुषिक अत्याचारों को काटजू साहब झुठला सकते हैं? क्या यह सही नहीं है कि सच्चे मायनों में निरंतर धर्मनिरपेक्ष शासन सिर्फ प्राचीन भारत में ही संभव हो पाया था? क्या यह सत्य नहीं है कि बलबन के समय भारतीय हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए सेना में अधिकारी के रूप में कोई जगह नहीं थी? क्या यह सत्य नहीं है कि सिर्फ एक स्त्री पद्मिनी को भोगने की सनक में अलाउद्दीन ने पूरे चित्तौड़ को श्मशान में बदल दिया था और हिन्दू नरमुंडों को हिमालय खड़ा कर दिया था? क्या फिरोजशाह तुगलक ने हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए हिन्दुओं की लाशों के ढेर लगाते हुए हिमाचल प्रदेश में कई मंदिरों और जौनपुर (उ.प्र.) के बटाला देवी मंदिर को नहीं तोड़वा दिया था? हिन्दू जनमानस पर लगे ऐसे अगणित घावों को काटजू साहब कैसे झुठला सकते हैं या कैसे किसी मिटौने या ह्वाईटनर से इतिहास की किताबों से मिटा सकते हैं?
              मित्रों,हमें इतिहास को संपूर्णता में लेना होगा न कि अपनी सुविधानुसार सिर्फ चुनिंदा प्रसंगों को ही। तभी इतिहास सच्चे मायने में इतिहास रह पाएगा या इतिहास कहलाने का अधिकारी भी हो पाएगा। हमें इस सत्य को जहर के घूँट पीकर भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं के साथ अकथनीय अमानुषिक अत्याचार किए। मोहम्मद बिन कासिम,महमूद गजनवी,मोहम्मद गोरी,तैमूरलंग,नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने जगह-जगह हिन्दू नरमुंडों के पहाड़ खड़े किए थे,हिन्दू बच्चों को भालों की नोक पर उछाल-उछाल कर अपना मनोरंजन किया था और हिन्दू महिलाओं को क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया था और उनपर बेईन्तहा जुल्म किए जिसमें बलात्कार तो बहुत छोटी-सी चीज थी। आज भी पाकिस्तान में रोजाना हिन्दुओं पर हो रहे जुल्मों को देखकर हम आसानी से यह अनुमान लगा सकते हैं कि इस्लामिक या शरीयत पर आधारित सल्तनत या मुगलकालीन बादशाही में कुछेक वर्षों के छोड़कर आम हिन्दुओं की क्या स्थिति रही होगी। काटजू साहब क्या पाकिस्तान में इस समय हिन्दुओं के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे भी भारतीय इतिहासकार हैं? मैं यह कदापि जबर्दस्ती साबित करना नहीं चाहता हूँ कि मोहम्मद तुगलक या अकबर महान या टीपू सुल्तान भी बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए बुरे थे लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि औरंगजेब द्वारा इस्लाम नहीं स्वीकार करने पर गुरू तेगबहादुर का सिर कटवाया जाना भी एक निहायत धर्मनिरपेक्ष कदम था। तुगलक वंश ने अगर बिन तुगलक जैसा उदारवादी शासक दिया तो हम इस तथ्य को भी नहीं झुठला सकते हैं कि उसी बिन तुगलक का उत्तराधिकारी फिरोजशाह हिन्दुओं के प्रति सर्वथा असहिष्णु रवैया रखता था। मुगलिया वंश ने अगर भारत को अकबर जैसा सार्वकालिक महान शासक दिया है तो उसी मुगलिया वंश ने औरंगजेब जैसा कट्टर शासक भी दिया है जो हिन्दुस्तान को दारूल हर्ब से दारूल इस्लाम में बदलना चाहता था।
                  मित्रों,काटजू साहब के साथ-साथ पूरे भारत को यह समझना होगा कि अगर हमें अपने भारत और धर्मनिरपेक्षता के वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित रखना है तो इतिहास का अध्ययन संपूर्णता में करना ही होगा तभी इतिहास से वर्तमान और भविष्य के लिए हम कुछ सार्थक सीख पाएंगे। इस इतिहास में कुछ अच्छी बातें होंगी तो कुछ मन को चुभनेवाली बातें भी। इसके साथ ही हमें 20वीं सदी की शुरूआत में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के उभार का भी गहराई से अध्ययन करना पड़ेगा। हमें इस तथ्य को भी कभी नहीं भूलना होगा कि तब मुस्लिम लीग मुसलमानों के बीच जितना स्वीकार्य था हिन्दू महासभा को हिन्दुओं के बीच कभी उस तरह की लोकप्रियता नहीं मिल पाई और कांग्रेस ही हमेशा हिन्दुओं की एकमात्र पसंदीदा पार्टी बनी रही जो पूरी तरह से धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती थी। यह सत्य है कि हिन्दू भी विभाजन के समय होनेवाले दंगों में शामिल हुए थे लेकिन गोधरा कांड की तरह ही तब भी 16 अगस्त,1946 को कोलकाता में महान कत्लेआम से मारकाट की शुरूआत मुसलमानों ने ही की थी। यह सत्य है कि अंग्रेजों ने भारत में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया था क्योंकि वे हमारे वर्तमान नेताओं की तरह जानते थे कि अगर हम एक हो गए तो उनको भागना पड़ेगा। काटजू साहब का यह कहना निश्चित रूप से सत्य है कि भारत की 90% जनता मूर्ख है तभी तो हमारे वर्तमान राजनेता चाहे वे दक्षिणपंथी हों या मध्यमार्गी या वामपंथी या फिर आरक्षणवादी ही क्यों न हों अंग्रेजों की तरह ही बाँटने की राजनीति सफलतापूर्वक कर रहे हैं? इस परिप्रेक्ष्य में निश्चित रूप से अंग्रेजी नीतियों के नवीन अध्ययन की आवश्यकता है? अंत में हमें या काटजू साहब को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत तभी तक धर्मनिरपेक्ष है जब तक वह हिन्दू-बहुल है हमरी न मानो तो पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित सभी मुसलमान देशों और बर्मा और श्रीलंका जैसे बौद्ध-बहुल देशों को देख लो। देख तो आप इस समय हैदराबाद में चल रही औबैसी जैसे मुस्लिम नेताओं की गतिविधियों को भी देख सकते हैं जिनको मंदिर में घंटा के बजने पर भी या मंदिर के होने पर ही ऐतराज है। काटजू साहब कृपया अपने चश्मे के दूसरे शीशे को भी साफ कर लीजिए और भूत और वर्तमान भारत की इन सच्चाइयों से आँखे बंद नहीं करिए क्योंकि ऐसा करने से देश को कोई फायदा नहीं मिलेगा बल्कि इससे सिर्फ-और-सिर्फ नुकसान ही होगा क्योंकि सच्चाई तो देश,काल और परिस्थिति से सर्वथा निरपेक्ष होती है। उसे न तो आप ही बदल सकते हैं, न तो हम और न तो इतिहासकार ही।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

बक्सर सेंट्रल जेल वाया आरटीआई

मित्रों,बिहार के शासन-प्रशासन की नजर में इन दिनों सूचना मांगने से बड़ा कोई अपराध नहीं है। आप अगर बिहार में सूचना का अधिकार का प्रयोग करने जा रहे हैं तो मेरी सलाह है कि ऐसा तभी करिए जब आप फुरसत में हों यानि जबकि आपको घर का कोई जरूरी काम निकट-भविष्य में नहीं करना हो। अगर सूचना देनेवाला अधिकारी/कर्मचारी दलित हुआ तब तो आपका जेल जाना लगभग निश्चित ही हो जाता है। तब आप सीधे भारतीय दंड संहिता की धारा 448/353/504/34 यथा अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत बिना पूर्व सूचना के कभी भी जेल भेजे जा सकते हैं। चरित्रवन,बक्सर के प्रतिभावान अधिवक्ता और भावी न्यायाधीश अनिल दूबे जी को ही कहाँ पता था कि सूचना मांगने के अपराध (बिहार सरकार इसे जनता को बरगलाने के लिए अधिकार कहती है) में जेल जाना पड़ सकता है। उन्होंने राजपुर (बक्सर) के अनुसूचित जाति से आने वाले अंचलाधिकारी रामभजन राम से सूचना मांगने की हिमाकत की थी और बेचारे पिछले कई दिनों से बक्सर केंद्रीय कारागार (बिहार सरकार के अनुसार नया नाम सुधार-गृह) की शोभा बढ़ा रहे हैं। उन सूचना का अधिकार के मारे पर भी अनुसूचित जाति के अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार करने के आरोप हैं।
                  मित्रों,सूचना देने से बचने के कई तरीके अप्रतिम प्रतिभा के धनी बिहार में प्रचलन में आ चुके हैं जिनमें से हमारे सौभाग्य से 1 को छोड़कर सभी अहिंसक हैं। अर्थात् जब भी उनका उपयोग किया जाएगा सूचनार्थी को वांछित सूचना तो नहीं प्राप्त हो पाएगी लेकिन उनको कोई व्यक्तिगत क्षति या परेशानी भी नहीं होगी। इनके अंतर्गत हो सकता है कि उससे सूचना के ऐवज में भारी फीस की मांग की जाए। यह फीस करोड़ों में भी हो सकती है या फिर कोई जवाब ही नहीं दिया जाए। परन्तु एक फार्मूला जरूर ऐसा भी है जो आपको भारी और अप्रत्याशित परेशानी में डाल सकता है और आपको जेल भी भेजवा सकता है। इस ब्रह्मास्त्र के अंतर्गत आप पर अधिकारी/कर्मचारी झूठा मुकदमा कर या करवा सकता है। ऊपर आपने देखा कि कैसे हमारे एक भाई अनिल दूबे जी कई दिनों से जेल की चक्की पीस रहे हैं। बेचारे ने न तो खून किया, न तो रंगदारी ही मांगी और न तो अपहरण ही किया। करते तो शायद कानून उनको परेशान करने के बदले उनकी मदद ही करता। लेकिन भाई ने मुख्यमंत्री की आदमकद तस्वीरों वाले सूचना का अधिकार के इश्तेहारों पर विश्वास कर लिया और ऐसा अपराध कर दिया जिसे इन दिनों अघोषित रूप से बिहार में दुर्लभतम में भी दुर्लभ माना जाता है। पीसिए अब शौक से जेल में चक्की और आनंद लीजिए बक्सर जेल में स्थापित बिहार की पहली खुली जेल का।