बुधवार, 1 अगस्त 2012

बिहार में सुशासन-मिथक या यथार्थ

मित्रों,आपकी नजर में सुशासन का मतलब क्या है,शायद अच्छा शासन लेकिन बिहार सरकार की दृष्टि में सुशासन का यह मतलब कतई नहीं है.इस महान व ऐतिहासिक प्रदेश की सरकार दुनिया के सारे शब्दकोशों से विलग मानती है कि सुशासन का अर्थ है भ्रष्टाचार को छिपा लेना जिससे जनता और खासकर प्रदेश के बाहर की जनता की निगाहों में शासकीय कालीन के नीचे दबी गंदगी न आने पाए.
           मित्रों,राज्य सरकार द्वारा अपने पक्ष में जोरदार प्रचार-प्रसार करने के कारण शायद आपको यकीन नहीं आ रहा होगा परन्तु मेरा सच सोलहो आने सच है.जबसे प्रदेश में नीतीश सरकार का पदार्पण हुआ है "ऊपर से फिट फाट भीतर से सिमरिया घाट" वाला खेल चल रहा है.शासकीय पारदर्शिता की लौ को मद्धिम करने के प्रयास वर्ष २००५ से ही लगातार यत्नपूर्वक किए जा रहे हैं.इस दिशा में सरकार ने पहली कोशिश की सूचना के अधिकार के तहत अपील को मुश्किल बनाकर.संसद द्वारा पारित मूल अधिनियम के तहत जहाँ अपील करने पर कोई फीस नहीं देनी पड़ती है वहीं नीतीश सरकार ने देश के इस सबसे गरीब राज्य की जनता के लिए यह प्रावधान बिहार सूचना का अधिकार नियमावली २००६ के अंतर्गत कर दिया कि उसे अपील में जाने पर ५० रूपये की अतिरिक्त मोटी फीस अदा करनी पड़ेगी.जाहिर है कि सरकार सूचना प्राप्त करने की कोशिशों को हतोत्साहित करना चाहती थी.इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने लगातार दूसरी बार मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर आई.ए.एस. अधिकारी की नियुक्ति कर दी है.अब शायद राज्य में यह रवायत ही बन जाए कि राज्य का पूर्व मुख्य सचिव मुख्य सूचना आयुक्त होगा.ये पूर्व आई.ए.एस. अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाने से ज्यादा अपीलों को ख़ारिज (निरस्त) करने में ज्यादा यकीन रखते हैं.राज्य के पिछले सी.आई.सी. ए.के. चौधरी ने करीब ३०००० अपीलों को बिना किसी ठोस आधार के निरस्त कर दिया.यह स्वाभाविक है कि अगर किसी प्रबुद्ध नागरिक की अपील बेवजह ठुकरा दी जाती है तो वह शायद ही अपने समय,धन और श्रम की बर्बादी करके दोबारा सूचना मांगने का साहस कर पाएगा.
                मित्रों,दिखावे के लिए सरकार ने जानकारी नामक सेवा भी चला रखी है जिसके तहत फोन पर ही सूचना के अधिकार के तहत आवेदन स्वीकार किए जाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस प्रक्रिया के तहत कभी कोई भी जानकारी प्रार्थी को नहीं प्राप्त हो पाती क्योंकि तत्संबंधी तंत्र को विकसित ही नहीं किया गया है.वैसे मैंने तो सैंकड़ों बार इस नंबर १५५३११ पर फोन लगाने का प्रयास किया परन्तु फोन कभी लगा ही नहीं.जाने वे कौन लोग हैं और कैसे लोग हैं जिनका फोन मिल जाया करता है?
                मित्रों,अगर आप बिहार में रहते हैं तो रोजाना राज्य के प्रमुख अख़बारों में पढ़ते होंगे कि आज अमुक अधिकारी पर सूचना के अधिकार के तहत निर्धारित समय में सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के कारण इतने रूपये का जुर्माना किया गया.परन्तु क्या वह जुर्माना उनसे सचमुच में वसूल भी किया जाता है?यक़ीनन नहीं किया जाता.जुर्माना आदि सब दिखावा है.उदाहरण के लिए वित्तीय वर्ष २०११-१२ में राज्य के विभिन्न अधिकारियों पर इस अधिनियम के तहत ८.३१ लाख रूपये का जुर्माना किया गया मगर वसूली की गयी सिर्फ ३२००० रूपये की.इसके लिए जिम्मेदार कौन है निश्चित रूप से राज्य सूचना आयोग जिसका मुखिया स्वयं एक पूर्व अधिकारी होने के नाते अपने मौसेरे भाइयों के खिलाफ (नया मुहावरा अफसर अफसर मौसेरे भाई) सख्त कदम नहीं उठाता और जुर्मानेवाली बात सिर्फ अख़बारों की सुर्खियाँ बनकर रह जाती हैं.प्रार्थी भी पढ़कर खुश हो लेता है कि जुर्माना तो हुआ.दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.
                  मित्रों,सूचना के अधिकार को कौनहारा घाट पहुँचाने के बाद अब राज्य सरकार ने एक अनोखी पहल करते हुए आदेश जारी किया है कि सरकारी व्यय से सम्बंधित एसी-डीसी बिल की जाँच महालेखाकार (ए.जी.) नहीं करेगा बल्कि खुद राज्य सरकार के कर्मचारी यानि कोषागार के अधिकारी करेंगे.यह तो वही बात हुई कि परीक्षार्थी खुद ही अपनी काँपियाँ जाँचें.इसे कहते हैं वास्तविक सुशासन.अद्भुत,चमत्कारिक आइडिया.न भविष्य में कहीं कोई आर्थिक अनियमितता पकड़ में आएगी और न ही सरकार को शर्मिंदगी ही उठानी पड़ेगी.परन्तु क्या इससे या ऐसा करने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा?क्या इससे उसे और भी बढ़ावा नहीं मिलेगा?जिस तरह शुतुरमुर्ग के बालू में सिर छिपा लेने से आसन्न खतरा टल नहीं जाता अथवा जैसे कबूतरी द्वारा आँखें बंद कर लेने से बिल्ला उसे छोड़ नहीं देता उसी प्रकार सरकार द्वारा ऑंखें बंद कर लेने से भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की सेहत पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता उलटे उनका मनोबल बढ़ता है.सरकार के इस कदम से हम यह सोंचने के लिए भी बाध्य होते हैं कि क्या यह उसी नीतीश कुमार की सरकार द्वारा उठाया गया कदम है जिन्होंने कभी खुलकर अन्ना आन्दोलन का समर्थन किया था?
                    मित्रों,इस आलेख को पढने के बाद आप यह समझ गए होंगे कि बिहार में सुशासन एक मिथक था और है और आगे भी मिथक ही बना रहेगा.सिर्फ सुशासन-सुशासन का शोर मचाने से या रट्टा लगाने से आज तक दुनिया में न तो कहीं सुशासन आया है और न ही भविष्य में कभी आनेवाला ही है.आज तक बिहार की किसी सरकार में न तो वास्तविक सुशासन लाने की ईच्छाशक्ति थी और न वर्तमान सरकार में ही है.           

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