शनिवार, 29 सितंबर 2012

प्रेम का बदलता स्वरूप

मित्रों,एक जमाना था और क्या जमाना था!?तब मजनू लैला की एक झलक पानेभर के लिए कई-कई जन्म लेने को तैयार रहते थे। तब प्रेमी प्रेमिका को खुदा ही नहीं खुदा से भी बड़ा दर्जा देते थे। तब का प्रेम चाहे वो राम-सीता का हो या सावित्री-सत्यवान का या लैला-मजनू का हो या शीरी-फरहाद का या फिर हीर-रांझा का पूरी तरह से पवित्र और सात्विक था। उसमें वासना की दुर्गन्ध या सड़ांध का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं था। तब का प्रेम शरीरी नहीं होता था और पूरी तरह से अशरीरी होता था,दिव्य होता था और उच्चादर्शों पर आधारित होता था।
                  मित्रों,वक्त बदलता रहा और बदलता रहा प्रेम का स्वरूप भी और फिर आई 20वीं सदी और प्रेम फिल्मी हो गया। फिल्मों में जैसे ही हीरोईन यानि प्रेमिका की ईज्जत खतरे में पड़ती एक लिजलिजा,दुबला-पतला-सा युवक प्रकट होता और अकेले ही अपने से कई गुना ताकतवर गुण्डों की जमकर पिटाई कर देता। फिल्मों के प्रभाव के कारण इस काल के प्रेम में शरीर को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिला लेकिन वही सबकुछ नहीं था। इस कालखंड के प्रेम में भी त्याग की भावना निहित होती थी। प्रेमी प्रेमिका का प्यार पाने के लिए समाज और घर-परिवार का भी बेहिचक त्याग कर देता था। तब के प्रेम में व्यावहारिकता थी मगर पशुता नहीं थी।
                    मित्रों,फिर आया आज का उपभोक्तावादी युग। आज के प्रेमी और प्रेमिकाओं के लिए शारीरिक प्रेम ही सबकुछ हो गया है। आज के प्रेमियों और प्रेमिकाओं के लिए शारीरिक प्रेम ही सबकुछ हो गया है। मिले और मिलते ही बेड पर पहुँच गए। फिर दोनों ने अपने-अपने जिस्म की आग को ठंडा किया और अजनबियों की तरह अपने-अपने रास्ते पर चल दिए। इस तरह आज के प्रेम की शुरूआत मिलने से होती है और उसका अंत बेडरूम में होता है। कुछ प्रेमी-प्रेमिका तो एक ही कमरे में बिना विवाह किए सालों-साल रहते हैं और फिर आराम से,बिना किसी संकोच और दुःख के अलग भी हो जाते हैं। क्या यह प्रेम है तो फिर वासना क्या है?
                                            मित्रों, इन दिनों हमारे समाज में प्रेमियों की एक नई श्रेणी भी जन्म ले रही है या ले चुकी है। ये प्रेमी फोन करके अपनी सेक्स पार्टनर (प्रेमिका कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे प्रेम की तौहिनी होगी) को अपने घर पर बुलाता है और फिर अपने दो-चार दोस्तों के साथ मिलकर उसका सामूहिक बलात्कार कर डालता है। इतना ही नहीं,प्यार के इन भावपूर्ण क्षणों की यादगारी के लिए वीडियो रिकॉर्डिंग भी करता है और इससे भी ज्यादा संजिदा प्रेमी हुआ तो इंटरनेट पर भी डाल देता है। शायद आज के प्रेमी प्रेमिका का उपभोग मिल-बाँटकर करने में जबर्दस्त यकीन रखने लगे हैं। लाजवाब है उनकी सामूहिकता और उनका साम्यवादी प्रेम। कुल मिलाकर आज के प्रेमी हों या प्रेमिका उनके लिए भावनाओं का कोई मोल नहीं रह गया है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि आज का प्रेम भावना-शून्य और पशुवत हो गया है।
                        मित्रों,पहले जहाँ ऐसी घटनाएँ ईक्का-दुक्का हो रही थीं अब थोक के भाव में घट रही हैं। ऐसा क्यों हो रहा है क्या आपने कभी इस प्रश्न पर दो मिनट सोंचा? इस विकृति के लिए दोषी सिर्फ हमारे बच्चे नहीं हैं हम भी हैं। एक तरफ हम अपने बच्चों को इतना अधिक पैसा दे देते हैं कि हमारे बच्चों को लगता है कि उसके माता-पिता इतने धनवान हैं कि वे कुछ भी और किसी को भी खरीद सकते हैं। दूसरी तरफ कमी उनकी शिक्षा और संस्कार में है। स्कूली शिक्षा का मानव-जीवन में बेशक पर्याप्त महत्त्व है लेकिन उससे कहीं ज्यादा महत्त्व है संस्कारों का जो कि उन्हें परिवार से प्राप्त होता है। संस्कार नींव होता है और शिक्षा ईमारत। हम नींव को भूल गए हैं और फिर भी बुलन्द ईमारत की ईच्छा रखते हैं। फिर तो वही होगा जो हो रहा है और हमारे बच्चे वही करेंगे जो उन्हें नहीं करना चाहिए।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है


क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है,
सिर्फ आदमी ही नहीं उसके जज्बात भी,
सिर्फ उसका जमीर ही नहीं उसके ख़यालात भी;
बिकते हैं मानव के तन और मन भी,
जमीं ही नहीं बिकता है गगन भी;
बिकता है न्याय और मतदाता भी,
इंसां तो इंसां बिकता है विधाता भी;
क्या-क्या देखोगे यहाँ तो हर चीज दिखाऊ है;
क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है।

बरसों लग जाएंगे दफ्तर में काम होने में,
पेंशन बनने में घोषित परीक्षा परिणाम होने में;
खरीद लोगे जिस दिन तुम बाबुओं के ईमान को,
देखना पंख लग जाएंगे उसी दिन से तुम्हारे काम को;
जितनी ही मोटी रकम उनको तुम थमाओगे,
उतना ही निकट मंजिल से तुम अपने काम को पाओगे;
चल रहा है किसी तरह वतन सरकार भी काम चलाऊ है;
क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है।

बिकती है हर चीज दुनिया के बाजार में,
हर बात जायज है जगत के व्यापार में;
परिस्थितियों के आगे मानव हो जाता है लाचार,
मगर कुछ वीर-विभुतियों ने नहीं मानी है हार;
इन विभुतियों के कारनामों का गवाह है इतिहास,
जिन्होंने अपने बूते किया है संकटों का नाश;
उनका ही नाम अमर है उनकी ही कृति टिकाऊ है;
क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है।

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

मुख्यमंत्री आए रहे

दोस्त लोग,अपने शहर हाजीपुर में मुख्यमंत्री आए रहे। उड़नखटोला से नहीं रथ से। बड़ा भारी भाषण दिए रहे। प्रशासन के साथ खूब उठक-बैठक की। योजनाओं की समीक्षा की। वैशाली जिला के लिए 25 मेगावाट बिजली की व्यवस्था करने का आदेश भी दिया। हम तो जब यहै समाचार अखबार में पढ़े रहे तो बहुते खुश हुए। अब तो बिजली आवेगी तो जाने का नाम ही नहीं लेगी। चौबीसों घंटे भकाभक अंजोर। लेकिन ई का उधर मुख्यमंत्री ने पीठ फेरी और इधर बिजली भी गदहे की सींग की तरह गायब। दिन में तो आती ही नहीं और रात में भी सोए में ही आती है और हमें सोया हुआ छोड़कर ही चली भी जाती है। शायद उ बहुते लज्जालु हो गई है। हमरी आँखों के आगे पड़ना ही नहीं चाहती। भैया, ई तो श्यामनंदन बाबू की चायवाला हाल हो गया। अब आप कहिएगा कि ई श्यामनंदन बाबू कौन महापुरुष हैं?
                                       दोस्तलोग, ई श्यामनंदन बाबू यानि श्यामनंद सहाय महापुरुष हैं नहीं थे। बड़का जींमदार; बाघी स्टेट कहलाते थे। विधानसभा चुनाव भी लड़े रहे आजादी से पहले ही दीपनारायण बाबू के खिलाफ और दारू-पैसा बाँटै खातिर बदनाम भी भए रहे। अब तो ब्रेक लगावे के पड़ी काहे कि हमारी गाड़ी गलत ट्रैक पर जा रही है। तो हम कहत रहे कि जब कोई श्यामनंदन बाबू के ईहाँ जाए तो उ अपना नौकर के कहत रहे कि चाय लेई आओ। लेकिन साथ में हाथ भी हिलाबत रहे माने कि नहीं लाना। लोग सब जब बईठल-बईठल परेशान होई जात रहे तब अपने उठके चल देत रहे।
                        दोस्तलोग, मुख्यमंत्री जब प्रशासन के साथ समीक्षा बैठक किए रहे तब हम तो ऊहाँ थे नहीं। फिर हमको क्या पता कि 25 मेगावाट बिजली देबे का ऑर्डर देत समय ऊ सिर या हाथ नहीं-नहीं की मुद्रा में हिलाये रहे कि न। बाकिर एतना को निश्चित है कि मुख्यमंत्री अगर अधिकार-यात्रा पर हाजीपुर नहीं आते तबे हाजीपुर के लिए अच्छा रहता। जितनी भी बिजली 14-15 घंटा रहती थी उ तो रहती,साफे गायब त नहीं हो जाती। अब ऊ बाँकी योजना सबका क्या हाल होबेवाला है जेक्कर मुख्यमंत्री समीक्षा किये रहे इहो हम समझ गए हैं और आप तो समझिए गए होंगे। अब बताईये कि ई नेता-कथा से आपने क्या शिक्षा ग्रहण की? इहे न कि नेता के बात आ घोड़ी के पाद। माने कि जब नेता कुछ आश्वासन दे तो समझिए कि किसी घोड़ी ने वायु-विसर्जन किया है और भूल जाईये। काहे कि जब नेताजी ही भूल जानेवाले हैं तो आप यादे रखके क्या करिएगा?

रविवार, 23 सितंबर 2012

राजनीति,वेश्या और धोखा

मित्रों,वेश्याओं के बारे में कहा जाता है कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। वे कभी किसी की गोद में जा बैठती हैं तो कभी किसी और की गोद में। परन्तु हम अपने उन नेताओं के लिए सही विशेषण कहाँ से लाएँ जो इन वेश्याओं से भी गए बीते हैं? शायद संसार की किसी भी भाषा में इनके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। कभी भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालक राम के चेहरे की तुलना के लिए भाषा और साहित्य की सारी उपमाओं को कमतर मानते हुए उनके चेहरे की तुलना उनके चेहरे से ही की थी। हमारे समक्ष भी फिर से वही स्थिति है लेकिन इस बार उसका स्वरूप दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल हमारे कई नेताओं के चरित्र की तुलना दुनिया में सिर्फ हमारे नेताओं के चरित्र से ही की जा सकती है। वेश्या का चरित्र एक विकल्प हो सकता था परन्तु यहाँ तो वह भी अपर्याप्त है। हमारे नेताओं के बोल बच्चन की कोई गारंटी नहीं है। अब अपने नेताजी सुभाष बाबू की नहीं भैया मैं मुलायम सिंह यादव की बात कर रहा हूँ,को ही लीजिए। अब जिसकी तुलना वेश्या से हो सकती है उसकी तुलना सुभाष चन्द्र बोस से थोड़े ही हो सकती है। तो मैं कह रहा था कि श्रीमान् एक दिन तो केंद्र सरकार के खिलाफ रहते हैं तो दूसरे दिन ही उसके साथ खड़े नजर आते हैं। वे ईधर भी हैं और उधर भी। जो जनता भारत बंद में उनके आह्वान पर एक दिन पहले रेल-सड़क जाम करती है अगले ही दिन खुद को ठगाया हुआ पाती है जब नेताजी अपने उसी मुख से कहते हैं कि वे तो केंद्र सरकार के साथ ही हैं मगर वे अब भी पेट्रो उत्पादों की मूल्य-वृद्धि और खुदरा-व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करते रहेंगे। ऐसा कैसे संभव हो सकता है? क्या कोई एकसाथ गाल फुला सकता है और हँस सकता है परन्तु अपने नेताजी न केवल ऐसा कर सकते हैं बल्कि कर भी रहे हैं। वे एक साथ केंद्र सरकार से खुश भी हैं और नाराज भी। एक क्षण में कुछ और कहते हैं तो दूसरे ही पल में पहले से एकदम विपरीत कुछ और। पता ही नहीं चलता कि उनके कई-कई मुँह हैं या कई-कई जुबानें। उनके बार-बार और रोज-रोज पाला बदलने के पीछे का रहस्य तो वही जानें मगर उनके बार-बार इस तरह गुलाटी खाने और गोद बदलने को जनता के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है और इससे जनता के मन में राजनीतिज्ञों के प्रति संदेह और घृणा के भाव में बढ़ोतरी ही हो रही है। इस तरह किसी से एक साथ खुश और नाराज तो शायद अतिअभिनयकुशल वेश्या भी नहीं हो सकती। धन्य हैं हमारे हमारे उत्तर प्रदेश के उत्तम नेताजी!
                                                 मित्रों,मुलायम सिंह यादव जी वाली चरित्र-स्खलन वाली बीमारी बिल्कुल भी असंक्रामक नहीं है बल्कि इसने कई अन्य नेता बंधुओं को भी ऑलरेडी अपनी चपेट में ले लिया है तो कुछ को अपने लपेटे में लेने की ताक में है। लालू-रामविलास-करुणानिधि-शरद पवार आदि (इस आदि में आदि से अंत तक लगभग सारे नेता समाहित हैं) पहले से ही वारांगनाओं की तरह निष्ठा-परिवर्तन में माहिर हैं तो अब इन सबकी अपेक्षा स्थिरमति माने जानेवाले नीतीश कुमार का मन भी चंचल होने लगा है। जनाब कभी कांग्रेसी पाले में जाने की बात करते हैं तो कभी कहते हैं कि अभी तो मैं जवान हूँ और जो मेरे मन की मानेगा मैं तो उसी का साथ दूंगा। जनाब यह भूल गए हैं कि बिहार में उनकी भाजपा के साथ बहुप्रशंसित साझा सरकार है और भाजपा ने भूतकाल में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए क्या-क्या पाप किए हैं। यह भाजपा ही थी जिसकी केंद्र सरकार ने उन्हें वर्ष 2000 ई. में 3 मार्च से 10 मार्च तक 7 दिनों के लिए जबर्दस्ती मुख्यमंत्री बनवा दिया था जबकि वाजपेया सरकार को यह अच्छी तरह से पता था कि नीतीश कुमार के पास बहुमत नहीं है। उस समय तत्कालीन केंद्र सरकार की इसके लिए कितनी किरकिरी हुई थी इसके गवाह आज भी उस समय की पत्र-पत्रिकाएँ हैं जिनका अवलोकन किसी भी पुस्तकालय में आकर आसानी से किया जा सकता है। नीतीश कुमार यह भी भूल गए हैं कि पिछले विधानसभी चुनावों में भाजपा उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत उनकी पार्टी के उम्मीदवारों से कहीं ज्यादा था। पिछले 7 सालों में बिहार का जो भी थोड़ा-बहुत विकास हुआ है वह अकेले नीतीश कुमार या जदयू की उपलब्धि नहीं है बल्कि भाजपा के कोटे के मंत्री अपेक्षाकृत ज्यादा कुशल,साहसी और ईमानदार हैं। फिर नीतीश कुमार इस तथ्य को भूलकर कैसे भूल से भी ऐसी भूल कर सकते हैं? यह आरोप तो हम आम जनता पर लगता रहा है कि हम बहुत जल्दी सबकुछ भूल जाते हैं और भ्रष्टों को दोबारा जिता देते हैं परन्तु यहाँ तो नेताजी ही सबकुछ भूल रहे हैं।
                   मित्रों,अभी कुछ दिनों पहले ही बिहार के एक अन्य दिग्गज नेता जिनका जिक्र हम इस आलेख में पहले भी अलग संदर्भ में कर चुके हैं,.रामविलास पासवान जी ने अपनी जि़न्दगी के पुराने काले पन्नों को पलटते हुए कहा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए तैयार थे परन्तु तब इन्हीं नीतीश कुमार ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था क्योंकि उनको लगता था कि अगर ऐसा हुआ तो इसका सारा फायदा और श्रेय लालू प्रसाद यादव ले उड़ेंगे। नीतीश जी ने अभी तक भी इसका खंडन नहीं किया है जिससे ऐसा लगता है कि रामविलास जी इस बार सच में सच बोल रहे हैं। क्या नाटक है कि जब विशेष राज्य का दर्जा स्वतः मिल रहा था तब तो उन्होंने इसे लिया ही नहीं और अब जब यह सिर फोड़ लेने पर भी नहीं मिलनेवाला है तो इसके लिए वे अधिकार-यात्रा पर निकले हुए हैं और इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी पार्टी या गठबंधन की गोद में बैठने को तैयार होने की बात करते हैं। और हद तो यह है कि जब कांग्रेस की ओर से फिर भी कोई आश्वासन नहीं मिलता है तो मन मसोसकर कहते हैं कि उन्होंने तो यह बात 2014 के चुनाव के संदर्भ में कही थी। तो क्या उन्हें अभी विशेष राज्य का दर्जा नहीं चाहिए फिर इतना ड्रामा क्यों? अगर सचमुच में वर्तमान केंद्र सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देती है तो क्या नीतीश सचमुच एनडीए को छोड़कर यूपीए में शामिल हो जाएंगे और तब उनके नेतृत्ववाली बिहार सरकार का क्या होगा? कांग्रेस तो बिहार में है ही नहीं फिर क्या नीतीश या उनके दल में इतनी ताकत है कि वह अकेले अपने बलबूते पर चुनाव जीत सके?
                मित्रों,नेताजी के ध्यान में अगर 2014 का चुनाव ही था तो फिर उनको तब तक मन-बेमन से गठबंधन-धर्म का पालन करते हुए इंतजार करना चाहिए था खुद अपने मुखचंद्र पर अपने ही करकमलों से कृतघ्नता की कालिख पोतने की जरूरत ही क्या थी?  हो सकता है कि चुनावों के बाद उनके गठबंधन की ही केंद्र में सरकार बन जाए और वे याचक से दाता बन जाएँ। जाहिर है कि नीतीश जी सफेद झूठ बोल रहे हैं। दरअसल उनका मन भाजपा से भर गया है और अब वे उससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं लेकिन उनको इसका कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। शायद वे मुलायम की तरह ही अपनी छवि कथित विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष नेता की बनानी चाहते हैं भले ही इसके लिए उनको खुद को शून्य से शिखर तर पहुँचानेवाली सहयोगी पार्टी को धोखा ही क्यों न देना पड़े या फिर वे भाजपा से नाराज होने का झूठा नाटक करके खुद को भी धोखा दे रहे हैं।
                   मित्रों,वैसे अपने प्रेमियों को धोखा तो वेश्याएँ भी खूब देती हैं लेकिन उनकी संख्या तो फिर भी सीमित होती है हमारे नेता तो एकसाथ करोड़ों दिलों से खेलते और तोड़ते हैं और इस तरह इस मामले में भी उनका चरित्र अद्वितीय है। कुल मिलाकर इस पूरे ब्रह्माण्ड में अभी तक ऐसी कोई दूसरी वस्तु या ऐसा कोई दूसरा मानव-दानव-देव-गन्धर्व जीवित नहीं नहीं है जिसके चरित्र की तुलना हमारे भारत के नेताओं के चरित्र से की जा सके। आईए नेता-चरित्र अतिघिनौनी चर्चा के बाद अंत में प्रभु के पतित-पावन चरित्र का स्मरण करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि-तुलसीदास अति अनंद देखी के मुखारविंद,रघुबर छबि के समान रघुबर छबि बनिया; ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया, ठुमक चलत रामचंद्र.............।

बुधवार, 19 सितंबर 2012

आर्थिक उदारीकरण से फायदे कम नुकसान ज्यादा

मित्रों,कहते हैं कि सावन के अंधे को चारों तरफ सिर्फ हरियाली-ही-हरियाली नजर आती है लेकिन वैसे आँखवाले को क्या कहा जाए जिसको पतझड़ में भी चारों ओर सिर्फ हरियाली ही दिखाई दे रही है? कोई भी परिवर्तन,किसी भी तरह के बदलाव का एकमात्र पहलू नहीं होता। उसके कुछ अच्छे प्रभाव होते हैं तो आवश्यक रूप से कुछ बुरे परिणाम भी। सन् 1990 ई. में नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार द्वारा मनमोहन सिंह की अगुवाई में शुरू की गई कथित आर्थिक-क्रांति का भी हमारी अर्थव्यवस्था पर मिला-जुला असर ही पड़ा है। लेकिन मनमोहन जी को सिर्फ अच्छाइयाँ ही नजर आ रही हैं दुष्परिणाम मोटा चश्मा पहनने के बावजूद नजर ही नहीं आ रहे हैं। तभी तो पिछले कई दिनों से उनका कार्यालय ट्वीटर पर आर्थिक सुधारों के फायदे गिनाने में लगा है। गूढ़ और उलझाऊ आंकड़ों की बाजीगरी के माध्यम से जनता को गिनती सिखाई और बताई जा रही है। बताया जा रहा है कि पिछले सालों में कितने घरों में बिजली लगी और फोन लगे। कितने लोगों के बैंकों में खाते खुले और कितने लोगों के पास आज मोबाईल या बाईक या कार है। परन्तु मनमोहन जी ने यह नहीं बताया है जबकि बताना चाहिए था कि पिछले सालों में कितनी फैक्टरियाँ या नौकरियाँ चीन को स्थानान्तरित हो गईं। उन्होंने यह भी नहीं बताया है कि आजकल भारत का औद्योगिक विकास-दर शून्य प्रतिशत या उससे भी नीचे पहुँच गया है। उन्होंने यह जानकारी भी नहीं दी कि निजी कंपनियों पर नजर रखने के लिए स्थापित ट्राई जैसी रेग्यूलेटिंग एजेंसियों के अस्तित्व में होते हुए भी 2-जी घोटाले में पौने दो लाख करोड़ रुपये की राजस्व-क्षति कैसे संभव हो गई। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि 1990 के बाद हमारे सामाजिक मूल्यों में तेज गिरावट क्यों आई है और पैसा ही भगवान कैसे बन गया है।
                         मित्रों,आर्थिक-क्रांति या संचार-क्रांति के आरंभ में ऐसे दावे किए जा रहे थे कि इससे शासन-प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ेगी। कहाँ है आज वह पारदर्शिता? इसी प्रकार यह दावा भी किया जा रहा था कि सबकुछ बाजार के हाथों में सौंप देने से गरीबी समाप्त हो जाएगी और सबकुछ सही हो जाएगा। क्यों नहीं हुआ ऐसा जबकि सबकुछ तो नहीं पर बहुत कुछ का नियामक आज बाजार है ? साथ ही सरकारी कामकाज के संचार-क्रांति के कारण त्वरित होने के दावे भी किए जा रहे थे फिर लेटलतीफी पिछले दशकों में घटने के बजाए बढ़ती ही क्यों गई है? क्यों आज के कम्प्यूटर-युग में भी न्यायतंत्र विलंबकारी ही बना हुआ है? मैं मानता हूँ कि लोगों को फोन मिले और बिजली मिली। परन्तु दूरसंचार-कंपनियों ने लोगों को लूटा भी कम नहीं है। गाहे-बेगाहे बिना उपभोक्ता की जानकारी के ही विभिन्न सेवाएँ उसके नंबर पर सक्रिय कर दी जाती हैं और मनमाने पैसे काट लिए जाते हैं। इसी प्रकार क्यों आज बिजली-कंपनियों को कोयला-घोटाला के द्वारा मुफ्त में कोयला मिलने के बावजूद बिजली काफी महंगी है और गुणवत्ताहीन ही है।
                              मित्रों,पिछले बीस सालों में हमारी धरती के गर्भ से बड़ी भारी मात्रा में अवैध खुदाई कर खनिज-अयस्क निकाले गए हैं। कर्नाटक,आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड तक में देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने हमारे प्राकृतिक-संसाधनों की अंधाधुंध लूट की है। विदेशी पूंजी-निवेश भी हुआ है लेकिन उद्योग अथवा विनिर्माण के क्षेत्र में कम और आधारभूत-संरचना के क्षेत्र में तो बिल्कुल भी नहीं। शायद यही कारण है कि आधारभूत-संरचना के क्षेत्र में और कुल जीडीपी के मामले में भी हम पड़ोसी चीन से काफी पीछे छूट गए हैं। हमारे यहाँ ज्यादातर विदेशी पैसा सेवा-क्षेत्र में आया है जबकि इस क्षेत्र में रोजगार-सृजन के अवसर विनिर्माण की तुलना में काफी कम और न के बराबर होते हैं। मनमोहन जी यह भी नहीं बता रहे हैं कि विदेशी-पूंजी से कितने लोगों को रोजगार मिला। मैं बताता हूं कि वे क्यों नहीं बता रहे हैं क्योंकि हमारा पूरा विकास और जीडीपी की सरपट दौड़ पिछले 20 सालों में लगभग रोजगार-रहित हुई है।
                          मित्रों,विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय 1995 ई. में दावा किया गया था कि भविष्य में पूंजी के अबाध वैश्विक प्रवाह के साथ-साथ श्रम का भी दुनिया में निर्बाध रूप से प्रवाह होगा। क्यों ऐसा संभव नहीं हुआ? विदेशी पूंजी तो भारत में आई और भारी कमाई भी कर ली लेकिन क्या हमारे श्रमिक अमेरिका और यूरोप उतनी ही उन्मुक्तता के साथ जा सके? नहीं कदापि नहीं!! आज भी सारे विकसित देशों में हमारे श्रमिकों के कोटा निर्धारित है जबकि हमने तो कोकाकोला और पेप्सी कोला जैसी कंपनियों के पूंजी-निवेश और लाभ कमाने की कोई सीमा निर्धारित नहीं की है। ऐसा क्यों हुआ और क्यों हो रहा है? क्या यह हमारा आर्थिक औपनिवेशीकरण नहीं है? हम पहले भी उपभोक्ता थे और आज भी उपभोक्ता हैं। हम पहले भी बाजार थे और आज भी बाजार हैं। आज भी हमारा आयात काफी ज्यादा है और निर्यात काफी कम। फिर यह किस तरह की आर्थिक-क्रांति है और किस तरह से आर्थिक-क्रांति है? जब हमारी अर्थव्यवस्था के मौलिक चरित्र पर,स्वरूप पर और संरचना पर आर्थिक-सुधारों का कोई सद्प्रभाव नहीं पड़ा तब फिर ऐसे आर्थिक-सुधारों का क्या लाभ? क्या लगातार बढ़ती गरीबी,बेरोजगारी और प्राणघातक मुद्रा-स्फीति को हम किसी भी प्रकार से अपनी उपलब्धि मान सकते हैं? क्या इस तथ्य को हम अपनी उपलब्धि के रूप में गिना सकते हैं कि आज भी हमारी जनसंख्या का 80 प्रतिशत भाग मात्र 20 रू. प्रतिदिन या उससे भी कम में अपने दिन काटने के लिए मजबूर है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा जैसी योजनाएँ गरीबी भगाने का होमियोपैथिक इलाज नहीं हैं बल्कि एलोपैथिक इलाज हैं,तात्कालिक या अल्पकालिक या अस्थायी उपाय। यह इलाज भी किंचित असर तभी करेगा जब इसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। लेकिन हमने अपने खुद के पंचायत गोरीगामा (महनार प्रखंड) में ही पाया है कि मनरेगा के लाभार्थियों की सूची में दर्जनों ऐसे लोगों के नाम दर्ज हैं जो सरकारी नौकरियों में हैं। साथ ही मनरेगा के अंतर्गत कहीं भी ऐसा कार्य नहीं करवाया जा रहा है जिससे स्थानीय मजदूरों के लिए गांवों में स्थायी आमदनी का रास्ता बनता हो या खुलता हो।
                        मित्रों,विनिर्माण के साथ-साथ कृषि की स्थिति भी पिछले 2 दशकों में बिगड़ी ही है,खराब ही हुई है। लाखों किसानों ने इस दौरान हानि उठाकर आत्महत्या की है और कृषि विकास-दर 2 प्रतिशत के आसपास रेंगता रहा है। आज खेती घाटे का व्यवसाय बन चुका है और इसे घाटे का सौदा बनाया है हमारी नई आर्थिक नीतियों ने। हमने खाद पर सब्सिडी कम कर दी है या फिर समाप्त ही कर दिया है और रासायनिक-उर्वरकों की कीमतों को बाजार के हवाले कर दिया है। इतना ही नहीं कभी सेज के नाम पर तो कभी दिल्ली-आगरा यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर किसानों से जमीन अंग्रेजों के जमाने के काले कानूनों की सहायता से जबर्दस्ती कौड़ी के भाव में छीनी जा रही है। अब यमुना एक्सप्रेस वे को ही लीजिए कितना भद्दा मजाक है यह हम गरीब भारतीयों के साथ!? इस सड़क से गुजरने पर गाड़ी-मालिकों को जेपी कंपनी को 300 रु. की मोटी रकम अदा करनी पड़ेगी जितने में ट्रेन से कोई चाहे तो हजार किलोमीटर की यात्रा कर सकता है। फायदा सिर्फ निजी कंपनियों और नेताओं-अफसरों को और नुकसान सिर्फ किसानों और श्रमिकों को। किसी साल ज्यादा अच्छी फसल हो गई तो एक तरफ जहाँ भारतीय खाद्य निगम के सामने उसके भंडारण की समस्या खड़ी हो जाती है वहीं दूसरी तरफ लाखों टन अनाज सालोंसाल गोदामों में ही सड़ जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट जब इसको गरीबों में बांटने को कहता है तो सरकार सीधे मना कर देती है और वही अनाज वो शराब-कंपनियों के हाथों औने-पौने दाम पर बेच देती है। भारतीय श्रमिकों की स्थिति पर हम अपने पिछले आलेखों में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं।
                         मित्रों,कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि नई आर्थिक नीतियों से हमें जितना लाभ होना चाहिए था,नहीं हुआ और नुकसान थोक में हुआ। लाभ अगर 4 आना हुआ तो नुकसान 12 आने का हुआ। अगर हमने अपने पड़ोसी चीन की तरह सतर्कता बरती होती और लूट को रोका होता तो आज हम जरूर उसके हमकदम या बगलगीर होते। दरअसल हमारे (अर्थ)व्यवस्थारूपी बर्तन में शुरू से ही इतने छिद्र थे और हैं कि सारा लाभ उनमें से बहकर घोटालेबाजों के बैंक-खातों में पहुँच गया और बर्बाद हो गया। हमारी सरकार ने अर्थव्यवस्थारूपी दूध की सारी मलाई तो अपने बीच और अपनों के बीच जिसमें पूंजीपति भी शामिल हैं,बाँट दिया और जनता को या तो सिर्फ खुरचन थमा दी या फिर अंगूठा दिखा दिया। उदाहरण के लिए आम आदमी को मिलनेवाली सब्सिडी में विगत वर्षों में लगातार कमी की गई है और अब वह समाप्त होने के कगार पर आ गई है जबकि पूंजीपतियों को अभी भी हजारों करोड़ रुपयों की करछूट दी जा रही है। दरअसल पिछले 2 दशकों में भारतीय लोकतंत्र विकृत होकर भ्रष्टतंत्र और धनिक तंत्र में बदल गया है। नई आर्थिक नीतियाँ सैद्धांतिक रूप से गलत नहीं थीं। गलत होतीं तो चीन आज दुनिया की दूसरी आर्थिक महाशक्ति नहीं होता लेकिन उनके क्रियान्वयन में सिर्फ दोष-ही-दोष थे और वे गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से उत्तरोत्तर बढ़ते ही चले गए और बढ़ते ही चले जा रहे हैं।

रविवार, 16 सितंबर 2012

किससे लड़ते हुए कहाँ जाना चाहते हैं मनमोहन?

मित्रों,हमारे कथित सौभाग्य से और देशहित में हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी की नस-नस में इन दिनों अचानक ठंडे खून के बदले वीरतावाले गरम रक्त का संचार होने लगा है। वीर कुँअर सिंह की तरह बुढ़ापे में उनकी जवानी भी अंगड़ाइयाँ लेने लगी हैं। सरदार अब कुंभकर्णी निद्रा से जाग चुका है और लड़ने-मरने के मूड में है। उसने सिंहगर्जना करते हुए सीधे-सीधे ऐलाने जंग करते हुए कहा है कि अगर उसे जाना ही है तो वह लड़ता हुआ जाएगा।
                       मित्रों,पूरी दुनिया हैरान है और भारतीय परेशान हैं कि यह धमत्कार आखिर हुआ कैसे? अपने भाई लोग मनमोहन के पुनर्जागरण और उनके वीर रस से ओतप्रोत शब्दों का अर्थ ढूंढ़ने में लग गए हैं। यह तो निश्चित है कि इस दुनिया में कहीं कोई ऐसी जगह है मनमोहन सिंह जी जहाँ जाना चाहते हैं या फिर जहाँ जाने से अब नहीं डरते हैं। क्या वे पाकिस्तान जाने की बात कर रहे हैं या आगरा या फिर तिहाड़? पता नहीं सरदार जी कहाँ जाना चाहते हैं? पास में होते तो ऊंगली पकड़वाकर जानने की कोशिश करता। वैसे उनको ऊंगली पकड़वाना भी मेरे लिए कम खतरनाक नहीं होता। हम भारतीयों ने उनको राजनीति में नौसिखिया जानकर अपनी ऊंगली ही तो पकड़वाई थी और अब उन्होंने हमारी गर्दनों को न केवल जकड़ ही लिया है बल्कि दबा देने पर भी तुल गए हैं। हम समझे थे कि सरदार जी राजनीतिज्ञ तो हैं नहीं कि हमारे साथ राजनीतिज्ञों जैसी बेशर्मी और धोखेबाजी दिखाएंगे। सचमुच हमने उनको यह जानते हुए भी कितना अण्डरस्टिमेट किया कि उनको आजकल अण्डरयुक्त शब्द बिल्कुल भी पसन्द नहीं है! तो मैं कह रहा था कि नवंबर-दिसंबर में मनमोहन जी की पाकिस्तान जाने की योजना तो है मगर साथ में लौटकर भारत आने की भी योजना है। वहाँ घर-बार तो रहा नहीं कहाँ रहेंगे? साथ ही उन्होंने भारत में रहते हुए पिछले 8 सालों में भारत की जिस तरह से दुर्गति की है उसे देखते हुए पाकिस्तान शायद ही उन्हें अपने देश में बसाने या शरण देने का जोखिम ले। सरदारजी आगरा भी जा सकते हैं। उनकी मानसिक स्थिति को देखते हुए वहाँ उन्हें सीधा प्रवेश भी मिल जाएगा। जनाब डीजल और गैस का दाम बढ़ाकर महंगाई को नियंत्रित कर रहे हैं और 22 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी छीनकर रोजगार के नए अवसर पैदा कर रहे हैं। पता नहीं क्या देकर और किस शिक्षक से श्रीमान् ने अर्थशास्त्र पढ़ा था? शायद वे अपने बदले पूरे भारत को पागल समझ रहे हैं जैसा कि हरेक पागल समझता है।
                            मित्रों,सरकार और प्रधानमंत्री यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि देश में सुधार का मतलब सिर्फ आर्थिक सुधार नहीं होता। आर्थिक सुधार बहुत हो चुका और उसका फल भी जनता बहुत भुगत चुकी। उनके लिए इस समय करणीय यह है कि उनको तंत्र को दुरूस्त करने के प्रयास करने चाहिए। तंत्र को भ्रष्टाचार-मुक्त और पारदर्शी बनाना चाहिए,न्याय-तंत्र को तीव्रगामी,जिम्मेदार,पारदर्शी और सस्ता बनाना चाहिए। ऐसा करने से भ्रष्टाचार और घोटालों पर रोक लगेगी और देश को लाखों करोड़ों रुपए की राजस्व-हानि भी नहीं होगी। खजाना लबालब भरा रहेगा तो पेट्रोलियम-पदार्थों के दाम बढ़ाकर जनता को लूटना भी नहीं पड़ेगा। मनमोहन जी को देश की आधारभूत-संरचना के विकास के लिए एक लाख या कुछेक लाख रुपए ही चाहिए न अगर वे तंत्र के छिद्रों को बंद कर देते हैं तो उनको दसियों लाख करोड़ रुपए स्वतः ही प्राप्त हो जाएंगे। जहाँ तक विदेशी खुदरा-व्यापार को अनुमति देने से होनेवाले लाभ का प्रश्न है तो दूसरे देशों के अनुभव के आधार पर हम गारंटी के साथ कह सकते हैं कि इससे भारतीय किसानों को कोई लाभ नहीं होनेवाला है। वाल्मार्ट आदि कंपनियाँ घोर पूंजीवादी हैं और उनका उद्देश्य सिर्फ अधिक-से-अधिक लाभ कमाना है न कि किसानों को लाभ पहुँचाना या खैरात बांटना। सुजुकी (मारुति) को ही देखिए कि कैसे मजदूरों का शोषण करके अपना खजाना भर रही है। सरकार के इस कदम से हमारी अर्थव्यवस्था में बदलाव बस इतना आएगा कि किसानों और उपभोक्ताओं के बीच से करोड़ों परंपरागत भारतीय बिचौलिये धीरे-धीरे समाप्त हो जाएंगे और उनकी जगह ले लेंगे ऊंगलियों पर गिने जाने लायक चंद विदेशी,पूंजीवादी अरबपति। लेकिन मनमोहन तंत्र को दुरूस्त हरगिज नहीं करेंगे क्योंकि अब वे खुद भी घोटाले कर रहे हैं और साथ ही वे वर्तमान विश्व में पूंजीवाद के अग्रणी झंडाबरदार भी हैं। श्रीमान् ने पहले अपनों से देश को लुटवाया और अब अपने विदेशी मित्रों को भी महाभोज में शामिल होने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।
                    मित्रों,अब तो बस एक ही जगह ऐसी बचती है जहाँ जाने के बारे में शायद मनमोहन जी ने सोंच रखा हो और वो है तिहाड़ जेल। दिल्ली स्थित इस महान् व नवीन कांग्रेसी तीर्थस्थल की तीर्थयात्रा उनसे पहले उनके अनन्य सहयोगी ए. राजा और कलमाड़ी आदि कर चुके हैं। मनमोहन जी ने चूँकि राजा और कलमाड़ी द्वारा स्थापित घोटालों के पुराने विश्व-रिकार्डों को ध्वस्त कर दिया है इसलिए उनका तो और भी ज्यादा अधिकार बनता है तिहाड़-जेल जाने का। उनके ऐसा करने से महान् भारतवर्ष में एक नई और महान् परम्परा का जन्म भी होगा।
                  मित्रों,अब प्रश्न यह शेष बचता है कि मनमोहन किससे लड़ने की बात कर रहे हैं? पाकिस्तान से तो लड़ेंगे नहीं,उसके प्रति तो श्रीमान् मुस्लिम वोट-बैंक के लालच में इन दिनों प्रेमानुराग से रसासिक्त हो रहे हैं,चीन से लड़ने की तो सोंचना भी उनकी ईच्छा-शक्ति के बूते के बाहर है। तो क्या वे हम आम भारतीयों की परेशानियों से लड़ेंगे? शायद यह भी नहीं! क्योंकि ऐसा तो उन्होंने कभी किया ही नहीं। बल्कि उनका तो अखण्ड विश्वास हमारे समक्ष परेशानियों का अंबार लगा देने में है। अगर ऐसा नहीं होता तो उनकी सरकार घोटाले-पर-घोटाले करके देश के राजस्व को लाखों करोड़ रुपए की भारी क्षति नहीं पहुँचाती और बदले में महंगाई के अब तक के सबसे बुरे दौर में हम जनता की जेबों से पैसे निकालकर उसकी भरपाई नहीं करती। एक अध्ययन के अनुसार अगर सिर्फ 2जी और कोलगेट से हुई राजस्व-हानि की भरपाई कर दी जाए तो गैस का सिलेण्डर कल से ही 100 रु. प्रति नग और डीजल 10 रु. प्रति लीटर हो जाए और सरकारी खजाने पर 1 पैसे का बोझ भी नहीं पड़े। लेकिन कभी ऐसा होगा भी क्या? शायद कभी नहीं। तो क्या मनमोहन सिंह जी हम आम भारतीयों की खुशियों से लड़ते हुए तो कहीं नहीं जाना चाहते हैं? शायद! उनके (कु)कृत्यों से तो ऐसा ही जान पड़ता है कि अब तक उनकी जो बुरी नजर हमारे पेट पर थी उनकी वही नजर अब हमारी जान पर गड़ गई है। हमारे पेटों पर तो सरदार जी पहले ही भरपूर पद-प्रहार कर ही चुके हैं अब तो हमारे शरीर में सिर्फ जान ही शेष बची है। या खुदा रहम कर,रक्षमाम प्रभो। हे प्रभो,तुमने भूतकाल में हम भारतीयों को और मानवता को रावणादि से बचाया था अब हमें मनमोहनादि से बचाओ रघुनंदन।           

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

रंगदारी का लाइसेंस बाँट रही बिहार सरकार

मित्रों,वर्ष 1995-96 की बात है। मैं महनार (वैशाली) से मोहिउद्दीननगर (समस्तीपुर) अपनी मौसी के घर जा रहा था। रास्ते में लावापुर चौक पर एक क्षीणकाय वृद्ध बस में सवार हुआ। कंडक्टर ने आदतन उससे पैसा मांगा तो उसने अकड़ते हुए उत्तर दिया कि जानते नहीं हो कि मैं राजगीर राय का बाप हूँ। राजगीर राय को उन दिनों महनार-समस्तीपुर का आतंक माना जाता था। कंडक्टर सहम गया और चुपचाप एक खाली सीट पर जाकर बैठ गया। उन दिनों पूरे बिहार में रंगदारों का ही शासन था। कहीं साधु यादव डीएम की कार्यालय में घुसकर पिटाई कर रहे थे तो कहीं पप्पू यादव दारोगा की मूँछे उखाड़ रहे थे। दुकानदार तो रंगदारी भरने को बाध्य थे ही गाड़ी-संचालकों की भी जान और जेब पर बन आई थी। यहाँ तक कि कॉलेजों में भी छात्र-छात्राओं को रंगदारी कर देना पड़ता था। मैं खुद भी उन दिनों पूर्णिया पॉलिटेक्निक में इसका भुक्तभोगी रह चुका हूँ।
                   मित्रों, फिर आया 2005 का साल। निजाम बदला,इंतजाम बदला। नई सरकार ने आमदनी के नए-नए क्षेत्रों और श्रोतों के ऊपर ध्यान देना शुरू किया। सारे टेम्पो स्टैण्डों की विधिवत निलामी शुरू हुई। अब तक जो रंगदार बिना सरकारी अनुमति के गाड़ी-चालकों से रंगदारी वसूल रहे थे उन्होंने अविलंब निलामी खरीद ली और लाइसेंसी रंगदार बन बैठे। जिनको सरकार या स्थानीय-निकायों ने 2 रू. प्रति खेप वसूलने की अनुमति दी वे 20 रू. प्रति खेप तक वसूलने लगे। कुछ उदाहरण पेशे खिदमत है-हाजीपुर (वैशाली) के जिलाधिकारी निवास से कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित गांधी चौक स्थित टेम्पो स्टैण्ड का ठेकेदार राजू राय प्रति खेप 5 रू. के बदले 15 रू. वसूलता है और विरोध करने पर पीटता भी है। अभी 7 सितम्बर को उसके लोगों ने एक टेम्पो चालक की कुछ ज्यादा ही पिटाई कर दी। विरोधस्वरूप 8 सितंबर को टेम्पो-चालकों ने हड़ताल कर दी लेकिन अभी तक उनको इसका कोई लाभ होता दिख नहीं रहा। अभी भी 15 रू. प्रति खेप बदस्तूर कर रहे हैं। नुकसान जनता को भी है। टेम्पो-चालक अवैध-वसूली की भरपाई यात्रियों से बेहिसाब भाड़ा वसूलकर जो करते हैं। उदाहरण के लिए चौहट्टा से गांधी चौक का भाड़ा 3 रू. है मगर जनता को 5 रू. देना पड़ रहा है। हाजीपुर के ही जढ़ुआ स्थित टेम्पो स्टैण्ड का ठेकेदार श्रवण राय तो और भी अत्याचारी है। उसने तो रंगदारी-कर की कोई निश्चित दर ही नहीं रखी है। वह टेम्पो चालकों से कभी प्रति खेप 5 की जगह 25 रू. वसूलता है तो कभी 50 रू.। इसी प्रकार हाजीपुर जंक्शन टेम्पो स्टैण्ड में 20 रू. प्रति खेप की जगह 50 रू. प्रति खेप की जबरन वसूली की जाती है तो करबिगहिया,पटना जंक्शन टेम्पो स्टैण्ड में भी 20 रू. प्रति खेप के स्थान पर 50 रू. प्रति खेप की अवैध वसूली की जा रही है जिसका खामियाजा अंततः आम जनता को ही भुगतना पड़ रहा है।
                        मित्रों,मैं पूरे बिहार के प्रत्येक टेम्पो और बस स्टैण्डों में तो जा नहीं सकता मगर मेरा पूरा विश्वास है कि आज की तारीख में कुछेक को छोड़कर बिहार के सभी टेम्पो और बस स्टैण्डों में टेम्पो और बस चालकों से अवैध वसूली की जा रही है। सरकार और स्थानीय निकाय अपनी आमदनी बढ़ाए,बेशक बढ़ाए लेकिन यह कौन देखेगा कि उसके द्वारा दिए गए कर-वसूली के अधिकार का कोई ठेकेदार दुरूपयोग तो नहीं कर रहा है? मुझे यह भी मालूम है कि जब यही कर-वसूली सरकारी मुलाजिम कर रहे थे तब सरकारी खजाने में कम उनकी अपनी जेबों में ज्यादा राशि जमा हो रही थी इसलिए सरकार के समक्ष यह विकल्प भी अनुपलब्ध है। परन्तु क्या यह देखना भी सरकार,स्थानीय निकायों और प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है कि कोई उसके द्वारा दिए गए कर-वसूली के लाइसेंस का दुरूपयोग तो नहीं कर रहा है? अगर अवैध वसूली अब भी जारी है और वसूले जानेवाले धन की आनुपातिक मात्रा पहले से भी कहीं ज्यादा हो गई है तो फिर सरकार या निजाम को बदलने से क्या फायदा? तब वर्तमान सरकार को ऐसा दावा भी नहीं करना चाहिए कि उसके राज में रंगदारी बंद या कम हो गई है। सच्चाई तो यह है कि बिहार सरकार ने उल्टे पुराने रंगदारों को रंगदारी-वसूलने का सरकारी लाइसेंस दे दिया है और जनता को उनके रहमोकरम पर छोड़ दिया है।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

प्रधानमंत्री कमजोर ही निकले

मुँह खोला तो मुँहजोर ही निकले,
आखिर तुम भी चोर ही निकले।

ईमानदार समझा था तुमको,
सच्चा सरदार समझा था तुमको;
घाघ तुम भी घनघोर ही निकले;
आखिर तुम भी चोर ही निकले।

एक के बाद एक घोटाला,
एक से बढ़कर एक घोटाला,
भ्रष्टाचार में बेजोड़ ही निकले;
आखिर तुम भी चोर ही निकले।

जनादेश का अपमान किया है,
विश्वासघात महान किया है;
समझा बहुत था थोड़ ही निकले;
आखिर तुम भी चोर ही निकले।

ईमान को तुमने बेच दिया है,
मजबूरी का ढोंग किया है;
प्रधानमंत्री कमजोर ही निकले;
आखिर तुम भी चोर ही निकले।

कोयले से तेरा मुँह जब है काला,
क्यों नहीं कुर्सी छोड़ते लाला;
फेविकोल का जोड़ ही निकले;
आखिर तुम भी चोर ही निकले,
मुँह खोला तो मुँहजोर ही निकले,
आखिर तुम भी चोर ही निकले।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

गांधी की हत्या कांग्रेसियों ने की

मित्रों,अगर आप गांधी की मृत्यु से जुड़े प्रश्नों के उत्तर किताबों में या गूगल पर ढूंढ़ेगे तो आपको यही बताया जाएगा कि 30 जनवरी,1948 को शाम के 5 बजकर 03 मिनट पर नाथूराम गोडसे नामक एक हिन्दू उन्मादी ने गांधी की हत्या गोली मारकर कर दी थी। झूठ है यह सफेद झूठ और शायद इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ भी। गांधी की हत्या एक बार नहीं अनगिनत बार में की गई है। उनकी पहली बार हत्या तो 1934 में ही उनके चेलों ने कर दी थी। तब गांधी अपने राजनैतिक शिष्यों के रवैये से इस कदर क्षुब्ध हो गए थे कि उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता का हमेशा के लिए परित्याग ही कर दिया था। सन् 1942 में भी नेहरूनीत कांग्रेस आरंभ में भारत छोड़ो आंदोलन के लिए तैयार नहीं थी और तब गांधी ने उसे धमकाते हुए कहा था कि मैं साबरमती के मुट्ठीभर बालू से कांग्रेस से भी बड़ा संगठन खड़ा कर सकता हूँ।
          मित्रों,30 जनवरी,1948 को भले ही उनकी जैववैज्ञानिक हत्या हुई हो परन्तु वह उनकी वास्तविक हत्या नहीं थी। उनकी वास्तविक हत्या तो की गई स्वयं उनके चेलों द्वारा और उनके संगठन द्वारा जिसको हम आज भी कांग्रेस के नाम से जानते हैं उनके जीवित रहते भी और उनके मरने के बाद भी,वो भी धीरे-धीरे उनकी विचारधारा को खूंटी पर टांगकर। सबसे पहले तो गांधी के विचारों को उनकी शारीरिक मृत्यु के तत्काल बाद भारतीय संविधान में कोना दिखा दिया गया और उनके कई विचारों को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में (अँचार) डालकर छोड़ दिया गया। उदाहरण के लिए गांधी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में गोहत्या पर पूरी तरह से प्रतिबंध हो। उनका मानना था कि गोमाता जन्म देनेवाली माँ से कहीं बढ़कर है। माँ तो साल दो साल दूध पिलाकर हमसे फिर जीवन-भर सेवा की आशा रखती है। पर गोमाता को तो सिवा दाने और घास के कोई आवश्यकता ही नहीं। (हरिजन सेवक,21-9-1940) इस संबंध में उनका यहाँ तक मानना था कि हिन्दुओं की परीक्षा तिलक करने,स्वरशुद्ध मंत्र पढ़ने,तीर्थयात्रा करने या जात-बिरादरी के छोटे-छोटे नियमों का कट्टरता से पालन करने से नहीं होगी,बल्कि गाय को बचाने की उनकी शक्ति से होगी। (यंग इंडिया,6-1-1921) संविधान-निर्माताओं ने जिनमें से लगभग सारे-के-सारे गांधीजी के शिष्य थे ने गोवध निषेध को संविधान में स्थान जरूर दिया लेकिन कबाड़ अर्थात् नीति निर्देशक तत्वों में (अनुच्छेद 48) और अब तो वर्तमान सरकार का एक मंत्री आनंद शर्मा उल्टे गोहत्या को देशहित में बता रहा है। वाह री गांधी की कांग्रेस और उसकी सरकार खूब सम्मान दिया तुमलोगों ने गांधी को!
                                         मित्रों,ऐसा नहीं है कि गांधी जी को कांग्रेसियों द्वारा भविष्य में की जा सकने वाली करतूतों का पूर्वाभास नहीं था। वे समझ गए थे कि भविष्य में कांग्रेस चरित्रहीनों की पार्टी हो जाएगी। तभी तो उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि अगर कांग्रेस को लोकसेवा की ही संस्था रहना है,तो मंत्री 'साहब लोगों' की तरह नहीं रह सकते और न सरकारी साधनों का उपयोग निजी कामों के लिए ही कर सकते हैं। (हरिजन,29-9-1946) परन्तु हमारे नेता आज सरकारी पैसे पर जमकर विदेश-यात्रा करते हैं और वह भी सपरिवार देसी यात्रा की तो बात ही छोड़िए। उनका सबकुछ फ्री होता है बिजली,पानी,यात्रा,भोजन और टेलीफोन। ऊपर से उनको मनमाफिक घोटाले करने की भी छूट होती है। यहाँ तक कि भूतपूर्व हो जाने के बाद जब वो सरकारी आवास खाली करते हैं तो फर्निचर तक उठा ले जाते हैं चाहे वे राष्ट्रपति के गरिमामय पद पर ही क्यों न हों। राजनीति में भाई-भतीजावाद की आशंका भी गांधीजी की दूरदर्शी और तीक्ष्ण निगाहों से बच नहीं पाई थी। उनका कहना था कि पद-ग्रहण से यदि पद का सदुपयोग किया जाए तो कांग्रेस की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और यदि पद का दुरूपयोग होगा तो वह अपनी पुरानी प्रतिष्ठा भी खो देगी। यदि दूसरे परिणाम से बचना हो तो मंत्रियों और विधानसभा के सदस्यों को अपने वैयक्तिक और सार्वजनिक आचरण की जाँच करते रहना होगा। उन्हें, जैसा अंग्रेजी लोकोक्ति में कहा गया है,सीजर की पत्नी की तरह अपने प्रत्येक व्यवहार में संदेह से परे होना चाहिए। वे अपने पद का उपयोग अपने या अपने रिश्तेदारों अथवा मित्रों के लाभ के लिए नहीं कर सकते। अगर रिश्तेदारों या मित्रों की नियुक्ति किसी पद पर होती है,तो उसका कारण यही होना चाहिए कि उस पद के तमाम उम्मीदवारों में वे सबसे ज्यादा योग्य हैं और बाजार में उनका मूल्य उस सरकारी पद से उन्हें जो कुछ मिलेगा उससे कहीं ज्यादा है। (हरिजन,23-4-1938) मेरा पूरा विश्वास है कि और किसी ने गांधीजी की इन पंक्तियों को भले ही नहीं पढ़ा हो सुबोधकांत सहाय जैसे कांग्रेसियों ने जरूर पढ़ा होगा तभी तो वे इसके ठीक विपरीत आचरण कर रहे हैं। अपने इसी आलेख में गांधीजी आगे फरमाते हैं कि मंत्रियों और कांग्रेस के टिकट पर चुने गए विधान-सभा के सदस्यों को अपने कर्त्तव्य के पालन में निर्भय होना चाहिए। उन्हें हमेशा अपना स्थान या पद खोने के लिए तैयार रहना चाहिए। विधान-सभाओं की सदस्यता या उसके आधार पर मिलनेवाले पद का एकमात्र मूल्य यही है कि वह सम्बन्धित व्यक्तियों को कांग्रेस की प्रतिष्ठा और ताकत बढ़ाने की योग्यता प्रदान करता है;इससे अधिक मूल्य उसका नहीं है। (हरिजन,23-4-1938) लेकिन हमारे वर्तमान नेताओं खासकर कांग्रेस के नेताओं का मानना है जैसा उनके क्रियाकलापों से जाहिर होता है कि जनता ने उनको शासन करने का जनादेश दिया है यानि 5 सालों तक देश और प्रदेश को निर्बाध रूप से लूटने का लाइसेंस दे दिया है इसलिए समय से पहले इस्तीफा देने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? अपने वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को लीजिए श्रीमान् इतने और इतने बड़े-बड़े घोटाले कर चुकने के बाद भी धृष्टतापूर्वक-निर्लज्जतापूर्वक कहते हैं कि अगले चुनाव से पहले वे किसी भी कीमत पर इस्तीफा देंगे ही नहीं। देश की कीमत पर भी नहीं। भारतीय नेताओं (गवर्नर) के बारे में उन्होंने एक आचार संहिता भी बनाई थी हम चाहें तो अपने नेताओं इस कसौटी पर घिस कर देख सकते हैं-
1.हिन्दुस्तानी गवर्नर को चाहिए कि वह खुद पूरे संयम का पालन करे और अपने आसपास संयम का वातावरण खड़ा करे। इसके बिना शराबबंदी के बारे में सोंचा भी नहीं जा सकता।
2.उसे अपने में और आसपास हाथ-कताई और हाथ-बुनाई का वातावरण पैदा करना चाहिए,जो हिन्दुस्तान के करोड़ों गूंगों के साथ उसकी एकता की प्रकट निशानी हो, 'मेहनत की रोटी कमाने' की जरुरत का और संगठित हिंसा के खिलाफ-जिस पर आज का समाज टिका हुआ मालूम होता है-संगठित अहिंसा का जीता-जागता प्रतीक हो।
3.अगर गवर्नर को अच्छी तरह काम करना है,तो उसे लोगों की निगाहों से बचे हुए,फिर भी सबकी पहुँच के लायक,छोटे के मकान में रहना चाहिए। ब्रिटिश गवर्नर स्वभाव से ही ब्रिटिश ताकत को दिखाता था। उसके लिए और उसके लोगों के लिए सुरक्षित महल बनाया गया था-ऐसा महल जिसमें वह और उसके साम्राज्य को टिकाये रखनेवाले उसके सेवक रह सकें। हिन्दुस्तानी गवर्नर राजा-नवाबों और दुनिया के राजदूतों का स्वागत करने के लिए थोड़ी शान-शौकतवाली इमारतें रख सकते हैं। गवर्नर के मेहमान बननेवाले लोगों को उसके व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण से 'ईवन अण्टु दिस लास्ट' (सर्वोदय)-सबके लिए समान बरताव-की सच्ची शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके लिए देसी या विदेशी महंगे फर्नीचर की जरुरत नहीं। 'सादा जीवन और ऊँचे विचार' उसका आदर्श होना चाहिए। यह आदर्श सिर्फ उसके दरवाजे की ही शोभा न बढ़ाये,बल्कि उसके रोज के जीवन में भी दिखाई दे।
4.उसके लिए न तो किसी रूप में छुआछूत हो सकती है और न जाति,धर्म या रंग का भेद। हिन्दुस्तान का नागरिक होने के नाते उसे सारी दुनिया का नागरिक होना चाहिए। हम पढ़ते हैं कि खलीफा उमर इसी तरह सादगी से रहते थे,हालाँकि उनके कदमों पर लाखों-करोड़ों की दौलत लोटती रहती थी। उसी तरह पुराने जमाने में राजा जनक रहते थे। इसी सादगी से ईटन के मुख्याधिकारी,जैसा कि मैंने उन्हें देखा था,अपने भवन में ब्रिटिश द्वीपों के लॉर्ड और नवाबों के बीच रहा करते थे। तब क्या करोड़ों भूखों के देश हिन्दुस्तान के गवर्नर इतनी सादगी से नहीं रहेंगे?
5.वह जिस प्रान्त का गवर्नर होगा,उसकी भाषा और हिन्दुस्तानी बोलेगा,जो हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा है और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है। वह न तो संस्कृत शब्दों से भरी हुई हिन्दी है और न फारसी शब्दों से लदी हुई उर्दू। हिन्दुस्तानी दरअसल वह भाषा है,जिसे विन्ध्याचल के उत्तर में करोड़ों लोग बोलते हैं।
हिन्दुस्तानी गवर्नर में जो गुण होने चाहिए,उनकी यह पूरी सूची नहीं है। यह तो सिर्फ मिसाल के तौर पर दी गई है। (हरिजन सेवक,24-8-1947)
                         मित्रों,जहाँ तक भाषा का प्रश्न है तो इस बारे में गांधीजी का साफ-साफ मानना था कि इस पद की एकमात्र अधिकारिणी हिंदी ही हो सकती है। वे कहते हैं-अगर हमें एक राष्ट्र होने का अपना दावा सिद्ध करना है,तो हमारी अनेक बातें एकसी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक सूत्र में बांधनेवाली हमारी एक सामान्य संस्कृति है। हमारी त्रुटियाँ और बाधाएँ भी एकसी हैं। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारी पोशाक के लिए एक ही तरह का कपड़ा न केवल वांछनीय है,बल्कि आवश्यक भी है। हमें एक सामान्य भाषा की भी जरुरत है-देसी भाषाओं की जगह पर नहीं परन्तु उनके सिवा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए। हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देसी भाषाओं की कई लिपियाँ हैं। अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रान्तीय लिपि के साथ-साथ मैं सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देसी भाषाओं की मुख्य-मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दशः हिन्दुस्तानी अनुवाद के साथ देवनागरी में छपवा दूँ। (यंग इंडिया,27-8-1925) उन्होंने राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर अंग्रेजी और हिन्दी का विस्तार से तुलनात्मक विश्लेषण किया था और यह साबित कर दिया था कि हिन्दी पहले से ही राष्ट्रभाषा है-हमारे पढ़े-लिखे लोगों की दशा को देखते हुए ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के बिना हमारा कारबार बन्द हो जाएगा।ऐसा होने पर भी जरा गहरे में जाकर देखेंगे,तो पता चलेगा कि अंग्रेजी राष्ट्रभाषा न तो हो सकती है और न होनी चाहिए। तब फिर हम यह देखें कि राष्ट्रभाषा के क्या लक्षण होने चाहिएः
1.वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
2.उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक कामकाज हो सकना चाहिए।
3.उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4.वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो।
5.उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहनेवाली स्थिति पर जोर न दिया जाए।
अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है।
तो फिर कौन-सी भाषा इन पाँचों लक्षणोंवाली है? यह माने बिना काम नहीं चल सकता कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। ये पाँच लक्षण रखने में हिन्दी की होड़ करनेवाली और कोई भाषा नहीं है। हिन्दी के बाद दूसरा दर्जा बंगला का है। फिर भी बंगाली लोग बंगाल के बाहर हिन्दी का ही उपयोग करते हैं। हिन्दी बोलनेवाले जहाँ जाते हैं वहाँ हिन्दी का ही उपयोग करते हैं और इससे किसी को अचम्भा नहीं होता। हिन्दी के धर्मोपदेशक और उर्दू के मौलवी सारे भारत में अपने भाषण हिन्दी में ही देते हैं और अपढ़ जनता उन्हें समझ लेती है। जहाँ अपढ़ गुजराती भी उत्तर में जाकर थोड़ी-बहुत हिन्दी का उपयोग कर लेता है,वहाँ उत्तर का 'भैया' बम्बई के सेठ की नौकरी करते हुए भी गुजराती बोलने से इनकार करता है और सेठ 'भैया' के साथ टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता है। मैंने देखा है कि ठेठ द्राविड़ प्रान्त में भी हिन्दी की आवाज सुनाई देती है। यह कहना ठीक नहीं कि मद्रास प्रान्त में तो अंग्रेजी से ही काम चलता है। वहाँ भी मैंने अपना सारा काम हिन्दी से चलाया है। सैकड़ों मद्रासी मुसाफिरों को मैंने दूसरे लोगों के साथ हिन्दी में बोलते सुना है। इसके सिवा,मद्रास के मुसलमान भाई तो अच्छी तरह हिन्दी बोलना जानते हैं। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि सारे भारत के मुसलमान उर्दू बोलते हैं और उनकी संख्या सारे प्रांतों में कुछ कम नहीं है।
इस तरह हिन्दी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है। हमने वर्षों पहले से उसका राष्ट्रभाषा के रूप में उपयोग किया है। उर्दू भी हिन्दी की इस शक्ति से ही पैदा हुई है। (20 अक्तूबर,1917 को भड़ौच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा-परिषद के अध्यक्ष पद से दिए गए भाषण से।)
(सच्ची शिक्षा,पृ. 19-21, 22-23; 1959)
उनका यह भी मानना था कि अहिंदीभाषी भारतीय जो समय अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं उन्हें उसे हिन्दी सीखने में लगाना चाहिए। उन्होंने अनुरोध भरे स्वर में कहा है कि जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं,उतने महीने भी अगर हम हिन्दुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठाएँ, तो सचमुच कहना होगा कि जन-साधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगे हम हांका करते हैं वे निरी डिंगे ही हैं। (रचनात्मक कार्यक्रम,पृ. 39)
                                                 मित्रों,गांधीजी के मरने के बाद कांग्रेस की बहुमतवाली संविधान-सभा ने हिन्दी के साथ क्या किया यह आप सब भी जानते हैं। संविधान के अनुच्छेद 343 में कह दिया गया कि हिन्दी भारत की राजभाषा होगी मगर कब से आज तक भी पता नहीं है। हिन्दी के विकास के लिए अनुच्छेद 344 में आयोग के गठन का प्रावधान कर दिया गया और अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए केंद्र सरकार को प्रयास करने के निर्देश भी दे दिए गए लेकिन इस सारी कवायद का परिणाम क्या हुआ,कुछ भी नहीं। उल्टे हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा,सिविल सेवा परीक्षा आदि की प्रक्रिया में इस तरह के बदलाव करती जा रही है और कर चुकी है जिससे कि हिन्दीभाषी उम्मीदवार कम-से-कम संख्या में सफल हो सकें। वाह रे गांधी के चेले और उनकी गांधी-भक्ति।
                                           मित्रों,गांधीजी जीवनपर्यन्त किसी भी तरह के नशे के खिलाफ रहे। उनका साफ तौर पर मानना था कि शराब पर पूरी पाबंदी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आपको ऊपर से ठीक दिखाई देनेवाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिए कि शराबबंदी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन्हें उसकी सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए। राज्य का यह कोई कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी प्रजा के कुटेवों के लिए अपनी ओर से सुविधाएँ दे। हम वेश्यालयों को अपना व्यापार चलाने के लिए अनुमति-पत्र नहीं देते। इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रवृत्ति पूरी करने की सुविधाएँ नहीं देते। मैं शराब को चोरी और व्यभिचार, दोनों से ज्यादा निन्द्य मानता हूँ। क्या वह अक्सर इन दोनों बुराइयों की जननी नहीं होती? (यंग इंडिया,8-6-1921) उनका यहाँ तक मानना था कि शराब पीना मलेरिया आदि बीमारियों से कहीं ज्यादा हानिकर है। उनको गरीब भारत तो स्वीकार था परन्तु शराबखोर भारत नहीं। उन्होंने कहा था कि शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होनेवाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों से होनेवाली हानि की अपेक्षा असंख्य गुनी ज्यादा है। कारण,बीमारियों से तो केवल शरीर की ही हानि पहुँचती है,जबकि शराब आदि से शरीर और आत्मा,दोनों का नाश हो जाता है। (यंग इंडिया,3-3-27) मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा,लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बन्द करना पड़े तो कोई परवाह नहीं;मैं यह कीमत चुकाकर भी शराबखोरी को बंद करूंगा। (यंग इंडिया,15-9-1927) गांधीजी ने बुलंद स्वर में घोषणा की थी कि यदि मुझे एक घंटे के लिए भारत का डिक्टेटर बना दिया जाए,तो मेरा पहला काम यह होगा कि शराब की दुकानों को बिना मुआवजा दिए बंद करा दिया जाए और कारखानों के मालिकों को अपने मजदूरों के लिए मनुष्योचित परिस्थितियाँ निर्माण करने तथा उनके हित में ऐसे उपहार-गृह और मनोरंजन-गृह खोलने के लिए मजबूर किया जाए,जहाँ मजदूरों को ताजगी देनेवाले निर्दोष पेय और उतने ही निर्दोष मनोरंजन प्राप्त हो सके। (यंग इंडिया,25-6-1931)  बीड़ी-सिगरेट को गांधीजी शराब से भी बड़ी बुराई मानते थे। उन्होंने 4 फरवरी 1926 के यंग इंडिया में लिखा था कि एक दृष्टि से बीड़ी और सिगरेठ पीना शराब से भी ज्यादा बड़ी बुराई है,क्योंकि इस व्यसन का शिकार उससे होनेवाली हानि को समय रहते अनुभव नहीं करता। वह जंगलीपन का चिन्ह नहीं मानी जाती,बल्कि लोग तो उसका गुणगान भी करते हैं। मैं इतना कहूँगा कि जो लोग छोड़ सकते हैं वे छोड़ दें और दूसरों के लिए उदाहरण पेश करें। (यंग इंडिया,4-2-1926) अब अगर हम आज की केंद्र सरकार और प्रदेश सरकारों की शराब और तंबाकू नीति पर दृष्टिपात करें तो हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगेगी। कांग्रेससहित लगभग सारी पार्टियों की सरकारें एक तरफ तो गांव-गांव में शराब की दुकानें खोल रही हैं वही दूसरी ओर उन्होंने मद्य-निषेध विभाग भी खोल रखा है। जब शराब की बिक्री को प्रोत्साहित ही करना है तो फिर मद्य-निषेध विभाग का ढोंग क्यों? क्या जरुरत है मद्य-निषेध विभाग की? किसको धोखा दे रहे हैं हमारे नेता गांधीजी की आत्मा को,खुद को या जनता को या एक साथ तीनों को? हद तो यहाँ तक हो गई है कि भारत की सबसे बड़ी शराब कंपनी का मालिक ऐय्याशी का मसीहा विजय माल्या इन दिनों पैसे के बल पर प्रतिष्ठित राज्यसभा का सम्मानित सदस्य बन बैठा है। सिगरेट पर प्रत्येक बजट में लगातार कर बढ़ा कर सरकार अपने तंबाकू-विरोधी होने का दिखावा कर रही है जैसे उसे पता ही नहीं है कि नशेड़ी चाहे नशे की वस्तु कितनी भी महंगी क्यों न हो जाए खरीदेगा ही। अगर सरकार धूम्रपान को रोकने को लेकर सचमुच गंभीर है तो उसे इस बुराई पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए,इससे कम कुछ भी नहीं।
                                           मित्रों,गांधीजी इस बात से भलीभांति अवगत थे कि किसी बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता। बल्कि उनका तो यह भी मानना था कि जबरदस्ती करने से दूसरी अनेक ऐसी बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं जो मूल बुराई से भी ज्यादा हानिकारक होती है। इस बारे में उनका कहना था कि लोग ऐसा सोचते हैं कि किसी बुराई के खिलाफ कानून बना दिया जाए,तो वह अपने-आप निर्मूल हो जाती है। उस सम्बन्ध में और अधिक कुछ करने की जरुरत नहीं रहती। लेकिन इससे ज्यादा बड़ी कोई आत्म-वंचना नहीं हो सकती। कानून तो अज्ञान में फँसे हुए या बुरी वृत्तिवाले अल्पसंख्यक लोगों को ध्यान में रखकर यानि उनसे उनकी बुराई छुड़वाने के उद्देश्य से बनाया जाता है और उसी स्थिति में वह कारगर भी होता है। मेरी राय में आजतक जबरदस्ती के द्वारा कोई भी महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं कराया जा सका है। कारण यह है कि जबरदस्ती के द्वारा ऊपरी सफलता होती दिखाई दे यह तो संभव है,किंतु उससे दूसरी अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं,जो मूल बुराई से ज्यादा हानिकारक सिद्ध होती है। (यंग इंडिया,8-12-1927) मगर इसी छोटी मगर मोटी बात को हमारी सरकारें समझने का प्रयास ही नहीं कर रही है। उनको लगता है कि एक कानून बना दो और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लो। यह देखने की कतई जरुरत नहीं है कि उस कानून का पालन हो भी रहा है या नहीं। आजादी के बाद से ही इस लापरवाही की वजह से हमारे लगभग सारे कानून बेकार सिद्ध हुए हैं चाहे वह दहेज-विरोधी कानून हो या फिर लड़कियों को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा देने संबंधी कानून हो। कमोबेश हमारी सारी योजनाएँ भी सिर्फ कागजों पर ही अंकित होकर रह गई हैं।
                          मित्रों,गांधीजी तत्कालीन न्याय-व्यवस्था से बिल्कुल भी खुश नहीं थे। इसके बारे में उन्होंने काफी बेबाकी से कहा हैः-यदि हमारे मन पर वकीलों और न्यायालयों का मोह न छाया होता और यदि हमें लुभाकर अदालतों के दलदल में ले जानेवाले तथा हमारी नीच वृत्तियों को उत्साहित करनेवाले दलाल न होते, तो हमारा जीवन आज जैसा है उसकी अपेक्षा ज्यादा सुखी होता। जो लोग अदालतों में ज्यादा आते-जाते हैं उनकी यानि उनमें से अच्छे आदमियों की गवाही लीजिए,तो वे इस बात की पुष्टि करेंगे कि अदालतों का वायुमण्डल बिल्कुल सड़ा हुआ होता है। दोनों पक्षों की ओर से सौगन्ध खाकर झूठ बोलनेवाले गवाह खड़े किए जाते हैं,जो धन या मित्रता के खातिर अपनी आत्मा को बेच डालते हैं। (यंग इंडिया,6-10-1926) आज तो न्यायालयों और न्याय की स्थिति 1926 के मुकाबले काफी खराब हो चुकी है। परदादा मुकदमा करता है और परपोते को भी न्याय नहीं मिल पाता। दीवानी मामलों में तो ऐसा भी होता है कि निर्णय प्राप्त हो जाने के दशकों बाद तक भी निर्णय लागू ही नहीं हो पाता है। कभी जज छुट्टी पर चला जाता है तो कभी पुलिस बल या मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं हो पाता। शायद यह भी एक कारण है कि देश में नक्सलवाद को विस्तार मिल रहा है। इतना ही नहीं अगर मैं यह कहूँ कि आज हमारी न्याय-व्यवस्था अमीरों की रखैल बनकर रह गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज के भारत में न्याय बिकता है,न्यायाधीश बिकते हैं और न्याय विलंबकारी तो है ही। हालाँकि न्यायिक सुधार विधेयक आनेवाला है परन्तु कब तक आएगा और कब तक कानून का रूप अख्तियार करेगा कोई नहीं जानता। हो सकता है तब तक कई-कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा कर ले।
                            मित्रों,गांधीजी जुआ को भी एक खतरनाक सामाजिक बुराई मानते थे। उनका मानना था कि अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँ ऐसी व्यवस्था की जाती है। कोई कंगाल नहीं होता और मजदूरी करना चाहनेवाले को काम अवश्य मिल जाता है। ऐसी शासन-व्यवस्था में जुआ,शराबखोरी और दुराचार को या वर्ग-विद्वेष को कोई स्थान नहीं होता। (हरिजन,25-3-1939)परन्तु आज हो क्या रहा है? गांधी की विरासत संभालने का दावा कर रही कांग्रेस पार्टी की हरियाणा सरकार में कुछ दिन पहले तक गोपाल कांडा नामक एक मंत्री हुआ करता था। उसका गोवा में बहुत बड़ा अत्याधुनिक जुआघर है। कुछ साल पहले तक जूते की दुकान चलानेवाले मंत्रीजी को नित नई-नई लड़कियों के साथ सेक्स करने की बुरी लत भी थी सो आजकल श्रीमान् जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। मगर देखना यह भी है कि उनको कब तक जेल में रखा जाता है और कब बा(बे)ईज्जत बरी होकर वे बाहर आ जाते हैं और दोबारा मंत्री पद की शोभा बढ़ाते हैं।
                            मित्रों,गांधीजी के अनुसार सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं,बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में,स्वराज्य जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें है। (हिन्दी नवजीवन,29-1-1925) स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना,फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की पर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें,तो वह स्वराज्य-सरकार किसी काम की नहीं होगी। (यंग इंडिया,6-8-1925) स्वराज्य की रक्षा केवल वहीं हो सकती है,जहाँ देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे देशभक्तों की हो,जिनके लिए दूसरी सब चीजों से-अपने निजी लाभ से भी-देश की भलाई का ज्यादा महत्त्व हो। स्वराज्य का अर्थ है देश की बहुसंख्यक जनता का शासन। जाहिर है कि जहाँ बहुसंख्यक जनता नीतिभ्रष्ट हो या स्वार्थी हो,वहाँ उसकी सरकार अराजकता की स्थिति पैदा कर सकती है,दूसरा कुछ नहीं। (यंग इंडिया,28-7-1921) इस प्रकार गांधीजी भावी भारतीय लोकतंत्र के बारे में स्पष्ट विचार रखते थे और उनका यथा प्रजा तथा राजा में अटूट विश्वास था। गांधीजी का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य था। उन्होंने कहा था कि मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं,वही तुम्हें भी सुलभ होनी चाहिए,इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। (यंग इंडिया,26-3-1931) अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे,अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपव्यय नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं हो सकता,होना नहीं चाहिए,कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहें और लाखों-करोड़ों ऐसी मनहूस झोपड़ियों में,जिनमें हवा और प्रकाश का प्रवेश न हो। (हरिजन,25-3-1939) परन्तु आज सच्चाई यह है कि एक तरफ तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी 80% आबादी 20 रु. प्रतिदिन से कम में गुजारा करता है तो वहीं दूसरी ओर हमारा एक अमीर प्रतिमाह 70 लाख रु. का सिर्फ बिजली बिल भरता है और 4000 करोड़ रु. की लागत से अपने रहने के लिए महामहल बनाता है। गांधीजी भारत में लोकतंत्र के दुरुपयोग के प्रति भी कम सशंकित नहीं थे तभी तो उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है जिसमें खतरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी,उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ भी उतनी ही बड़ी होगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है,इसलिए उसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं,बल्कि दुरुपयोग की संभावना को कम-से-कम करना है। (यंग इंडिया,7-5-1931) जनता की राय के अनुसार चलनेवाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यदि वह जनमत के खिलाफ जाए तो नष्ट हो जाए। अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है। लेकिन राग-द्वेष,अज्ञान और अन्ध-विश्वास आदि दुर्गुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकता के गड्ढे में गिरता है और अपना नाश खुद कर डालता है। (यंग इंडिया,30-7-1931) मैंने अक्सर यह कहा है कि अमुक विचार रखनेवाला कोई भी पक्ष यह दावा नहीं कर सकता कि प्रस्तुत प्रश्नों के सही निर्णय केवल वही कर सकता है। हम सबसे भूलें होती हैं और हमें अक्सर अपने निर्णयों में परिवर्तन करने पड़ते हैं। (यंग इंडिया,17-4-1924) कहना न होगा कि हमारा लोकतंत्र गांधीजी की आशंकाओं पर पूरी तरह से खरी उतरी है। आज हमारा लोकतंत्र विकृत होकर भ्रष्टतंत्र और धनिकतंत्र में परिवर्तित हो गया है लोकतंत्र रहा ही नहीं। यह एक गहरी अंधेरी सुरंग में फँस चुकी है और इससे निकलने का कोई मार्ग सूझ भी नहीं रहा है।
                                                  मित्रों,गांधीजी समाज और व्यक्ति दोनों को अपनी-अपनी जगह महत्त्वपूर्ण मानते थे। एक तरफ जहाँ उनका विचार था कि अबाध व्यक्तिवाद वन्य पशुओं का नियम है। हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक संयम के बीज समन्वय करना सीखना है। समस्त समाज के हित के खातिर सामाजिक संयम के आगे स्वेच्छापूर्वक सिर झुकाने से व्यक्ति और समाज,जिसका कि वह एक सदस्य है,दोनों का ही कल्याण होता है। (हरिजन, 27-5-1939) वहीं दूसरी ओर उनका यह भी मानना था कि जब राज्यसत्ता जनता के हाथ में आती है,तब प्रजा की आजादी में होनेवाले हस्तक्षेप की मात्रा कम-से-कम हो जाती है। (हरिजन,11-1-1936) अगर व्यक्ति का महत्त्व न रहे,तो समाज में भी क्या सत्त्व रह जाएगा?वैयक्तिक स्वतंत्रता ही मनुष्य को समाज की सेवा के लिए स्वेच्छापूर्वक अपना सब-कुछ अर्पण करने की प्रेरणा दे सकती है। यदि उससे यह स्वतंत्रता छीन ली जाए,तो वह एक जड़ यंत्र जैसा हो जाता है और समाज की बरबादी होती है। वैयक्तिक स्वतंत्रता को अस्वीकार करके कोई सभ्य समाज नहीं बनाया जा सकता। (हरिजन,1-2-1942)  परन्तु हमारी वर्तमान केंद्र सरकार,समाज और व्यक्ति के बीच अजीबोगरीब-पागलपन से भरा असंतुलन स्थापित करना चाहती है। वह एक तरफ तो भारतीय समाज को एकबारगी सेक्स फ्री समाज में बदल देना चाहती है जैसा कि उसके समलैंगिकता और वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने के कुप्रयासों से जाहिर है वहीं दूसरी तरफ वह सोशल मीडिया वेबसाईटों को नियंत्रित कर अपने स्वस्थ आलोचकों का मुँह बंद कर देना चाहती है। क्या इस तरह जो भारत बनेगा गांधी वैसा ही भारत बनाना चाहते थे? बल्कि गांधी तो वेश्यावृत्ति को अभिशाप के समान मानते थे। उन्होंने कहा था-वेश्यावृत्ति दुनिया में हमेशा रही है यह सही है। लेकिन आज की तरह वह कभी शहरी जीवन का अभिन्न अंग भी रही होगी,इसमें मुझे शंका है। जो भी हो,एक समय ऐसा जरूर आना चाहिए और आएगा जब कि मानव-जाति इस अभिशाप के खिलाफ उठ खड़ी होगी,और जिस तरह उसने दूसरे अनेक बुरे रिवाजों को,भले वे कितने भी पुराने रहे हों,मिटा दिया है,उसी तरह वेश्यावृत्ति को भी वह भूतकाल की चीज बना देगी। (यंग इंडिया,28-5-25)
                       मित्रों,ऐसा भी नहीं है कि गांधीजी सेक्स के विरोधी थे। उन्होंने तो बच्चों को काम-शिक्षा का भी समर्थन किया था परन्तु तब इसका लक्ष्य इस शिक्षा के द्वारा इस मनोविकार पर विजय प्राप्त करना होता। 21 नवंबर,1936 को हरिजन समाचार-पत्र में उन्होंने कहा था कि जिस काम-विज्ञान की शिक्षा के पक्ष में मैं हूँ,उसका लक्ष्य यही होना चाहिए कि इस विकार पर विजय प्राप्त की जाए और उसका सदुपयोग हो। यह सच्चा काम-विज्ञान कौन सिखाए? स्पष्ट है कि वही सिखाए जिसने अपने विकारों पर प्रभुत्व पा लिया है। (हरिजन,21-11-1936)  गांधीजी पश्चिम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के भी विरोधी नहीं थे परन्तु उसी सीमा तक जिस सीमा तक भारतीय संस्कृति की मौलिकता अक्षुण्ण बनी रहे। गांधीजी के शब्दों में मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दी जाएँ। मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे। पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ और मैं औंधे मुँह गिर पडूँ। (यंग इंडिया,1-6-1921)
                       मित्रों,गांधीजी धर्म-परिवर्तन के सख्त खिलाफ थे। इस संबंध में उन्होंने कहा था कि मैं धर्म-परिवर्तन की आधुनिक पद्धति के खिलाफ हूँ। दक्षिण अफ्रीका में और भारत में लोगों का धर्म-परिवर्तन जिस तरह किया जाता है,उसके अनेक वर्षों के अनुभव से मुझे इस बात का निश्चय हो गया है कि उससे नए ईसाइयों की नैतिक भावना में कोई सुधार नहीं होता,वे यूरोपीय सभ्यता की नकल करने लगते हैं,किन्तु ईसा की मूल शिक्षा से अछूते ही रहते हैं। (यंग इंडिया,17-12-1925) मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना कम-से-कम अहितकर तो है ही। (यंग इंडिया,23-4-1931) कोई ईसाई किसी हिन्दू को ईसाई धर्म में लाने की या कोई हिन्दू किसी ईसाई को हिन्दू धर्म में लाने की इच्छा क्यों रखे? वह हिन्दू यदि सज्जन है या भगवद्-भक्त है,तो उक्त ईसाई को इसी बात से सन्तोष क्यों नहीं हो जाना चाहिए?(हरिजन,30-1-1937)
                          मित्रों,गांधीजी ऐसी अर्थव्यवस्था के समर्थक नहीं थे जिसमें मजदूरों का शोषण करके उद्योगपति अपनी तिजोरियाँ भरें। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं अर्थविद्या और नीतिविद्या न सिर्फ कोई स्पष्ट भेद नहीं करता,बल्कि भेद ही नहीं करता। जिस अर्थविद्या से व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुँचती हो,उसे मैं अनीतिमय और इसलिए पापपूर्ण कहूंगा। उदाहरण के लिए,जो अर्थ-विद्या किसी देश को किसा दूसरे देश का शोषण करने की अनुमति देती है वह अनैतिक है। जो मजदूरों को योग्य मेहनताना नहीं देते और उनके परिश्रम का शोषण करते हैं,उनसे वस्तुएँ खरीदना या उन वस्तुओं का उपयोग करना पापपूर्ण है। (यंग इंडिया,13-10-21) जो अर्थशास्त्र धन की पूजा करना सिखाता है और बलवानों को निर्बलों का शोषण करके धन का संग्रह करने की सुविधा देता है,उसे शास्त्र का नाम नहीं दिया जा सकता। सच्चा अर्थशास्त्र तो सामाजिक न्याय की हिमायत करता है,वह समान भाव से सबकी भलाई का-जिनमें कमजोर भी शामिल हैं-प्रयत्न करता है। (हरिजन,9-10-1937) साथ ही गांधीजी पूंजी के संकेंद्रण के भी सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि भारत की जरुरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाए। पूंजी का ऐसा वितरण होना चाहिए कि वह इस 1900 मील लम्बे और 1500 मील चौड़े विशाल देश को बनानेवाले साढ़े-सात लाख गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। (यंग इंडिया,23-3-1921) परन्तु आज हम देश में क्या होता देख रहे हैं? हमारी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें येन केन प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा पूंजी को आकर्षित करना चाहती हैं जिसके चलते देश के समक्ष कई प्रकार की जटिलताएँ पैदा हो रही हैं। कभी नंदीग्राम सामने आ जाता है तो कभी हमें भट्ठा पारसौल को देखना पड़ता है। आज के भारत में पैसा ही भगवान हो गया है और सत्य और ईमानदारी मुँह छिपाए फिरते हैं।
                          मित्रों,आज देश बर्बाद होने के कगार पर है। यह वह भारत तो हरगिज नहीं है जिस भारत का सपना कभी हमारे राष्ट्रपिता ने देखा था। अंत में फिर से वही प्रश्न हमारे सामने आता है कि गांधी को किसने मारा? हमने अपने वृहद विश्लेषण में पाया कि गांधी को नाथूराम गोडसे ने अकेले नहीं बल्कि हम सबने मिलकर मारा और इसके लिए सबसे बड़ी दोषी है उनकी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस। चूँकि गांधीजी कांग्रेसी थे और उन्होंने ही कांग्रेस के मृतप्राय संगठन में नई जान डाली थी इसलिए उनके बताए मार्ग पर चलने और देश को चलाने की पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी कांग्रेस की ही थी। मुझे लगता नहीं कि इस कांग्रेस को अब गांधी याद भी हैं जिसका इस हद तक नैतिक पतन हो चुका है कि उसका नाम सुनते ही उबकाई-सी आने लगती है। फिर हम कैसे और क्यों उम्मीद रखें कि कांग्रेस फिर से गांधीजी के आदर्शों और विचारों को अपनाएगी? बांकी राजनीतिक दलों का तो वही हाल है कि बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभानल्लाह। खैर जिसे नहीं अपनाना है नहीं अपनाए हम तो अपने राष्ट्रपिता के आदर्शों पर चलने का प्रण ले ही सकते हैं तो आईए हम सब प्रतिज्ञा करें और अपनों के द्वारा ही मार दिए गए गांधीजी को फिर से जीवन प्रदान करें। यही उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि भी होगी।

रविवार, 2 सितंबर 2012

सीरिया संकट और संयुक्त राष्ट्र संघ

मित्रों,सीरिया में इन दिनों जो कुछ हो रहा है वह किसी भी तरह न तो सीरिया के हित में है और न ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के हित में। दुर्भाग्यवश सीरिया इन दिनों विश्व की विभिन्न महाशक्तियों के लिए शक्ति-प्रदर्शन की प्रयोग-भूमि बन गया है। एक पक्ष जिसमें अमेरिकादि पश्चिमी देश हैं किसी भी कीमत पर सीरिया के तानाशाह राष्ट्रपति बशर अल असद को उखाड़ फेंकना चाहते हैं वहीं दूसरा पक्ष जिसका नेतृत्व चीन और रूस कर रहे हैं चाहे कितने भी मानव जीवन की कीमत पर असद को सत्ता में बनाए रखना चाहते हैं। रोजाना पक्ष और विपक्ष दोनों की सेनाएँ थोक में मानव-हत्याएँ कर रही हैं। एक-एक ईमारत से 200-250 तक लाशों का बरामद होना हमें एक बार फिर हिटलर के यंत्रणा-शिविरों की याद दिला रहा है। ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसका मन इस तरह की खबरों से व्यथित न हो जाए,निराशा से न भर जाए। क्या ईन्सान की कीमत अब टिड्डों से भी कम है? यह निराशा तब और भी घनीभूत हो जाती है जब हम देखते हैं कि वैश्विक व्यवस्था बनाए रखने के लिए गठित संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ के पास इस कत्लेआम को चुपचाप देखते रहने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है। तो क्या यह संगठन अब पूरी तरह से अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुँच चुका है? अगर नहीं तो फिर क्यों वह अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पा रहा है? क्यों अपने गठन के बाद से ही संयुक्त राष्ट्र संघ वियतनाम,कोरिया,चीन,ईरान-ईराक,भारत-पाक,अफगानिस्तान और अब सीरिया में खून की नदियों को देखकर भी मूकदर्शक बने रहने को बाध्य है?
                      मित्रों,वास्तविकता तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अब तक सही मायनों में एक वैश्विक संस्था बन ही नहीं पाई है बल्कि यह तो सुरक्षा-परिषद के 5 स्थाई सदस्यों का बंधक है। महासभा हालाँकि किसी भी मुद्दे पर प्रस्ताव पारित कर सकता है जैसा कि उसने सीरिया के मामले में भी किया लेकिन दुर्भाग्यवश उसके प्रस्ताव संबद्ध राष्ट्रों के लिए बाध्यकारी नहीं होते इसलिए उनका कोई वास्तविक मूल्य या महत्त्व नहीं होता। सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थायी सदस्य जब तक एकमत नहीं होते तब तक संयुक्त राष्ट्र कुछ कर ही नहीं सकता। परिणामतः हमारी दुनिया में फिर से वैसी ही अराजकता और अव्यवस्था कायम होती जा रही है जैसी कभी प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले कायम हो गई थी। हालाँकि भारत सहित कई देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के विस्तार को इस समस्या का हल मानते हैं परन्तु मुझे नहीं लगता कि इससे कोई खास लाभ होगा। अच्छा तो होता कि सुरक्षा परिषद को ही समाप्त कर दिया जाता और संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी सेना गठित कर दी जाती। साथ ही सारे कार्यकारी अधिकार महासभा को ही दे दिए जाते लेकिन इसमें भी एक बाधा है कि ऐसा होने पर वोटों की खरीद-बिक्री शुरू हो जाएगी जो एक नई समस्या होगी।
                        मित्रों,इस तरह दुनिया के सामने बड़ी विकट समस्या है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में किस तरह के परिवर्तन किए जाएँ जिससे इसकी प्रासंगिकता बचे ही नहीं बल्कि बढ़ सके। बात सिर्फ एक सीरिया या उत्तर कोरिया की नहीं है बल्कि प्रश्न यह है कि कैसे पूरे भूपटल पर मानवाधिकारों की रक्षा हो,मानव-जीवन को कैसे उच्चस्तरीय बनाया जाए और यह महती कार्य तब तक संभव ही नहीं है जब तक संयुक्त राष्ट्र संघ को हर तरह से सक्षम नहीं बना दिया जाए। इस दिशा में एक उपाय यह भी हो सकता है कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों का निषेधाधिकार समाप्त कर दिया जाए और इसमें सारे फैसले स्थायी और अस्थायी सदस्यों के मतों को मिलाकर बहुमत से हो। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी सेना होनी चाहिए या नहीं का प्रश्न भी कम जटिल नहीं है। इसकी अपनी सेना नहीं होने से तो नुकसान है ही परन्तु कुछ परिस्थितियों में ऐसा भी संभव है कि इसकी अपनी सेना का होना भी नुकसानदेह हो जाए। फिर यह सेना बनेगी तो सदस्य राष्ट्रों के लोगों से ही और उन्होंने योगदान देने से मना कर दिया तो?
                              मित्रों,समस्या जटिल है और वैश्विक स्थिति चीन के क्रमशः उभार के साथ काफी विस्फोटक होती जा रही है। अभी तक तो हमलोगों के सौभाग्यवश या फिर संयोगवश दुनिया की परमाणु हथियारयुक्त महाशक्तियों के बीच सीधा टकराव नहीं हुआ है लेकिन जिस तरह के आसार बन रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि बहुत दिनों तक इसे टाला जा सकेगा। अगर ऐसा हुआ तो तीसरा विश्वयुद्ध हुआ ही समझिए और तब संयुक्त राष्ट्र संघ तो समाप्त हो ही जाएगा शायद मानवता भी धरती पर बीते दिनों की बात हो जाए सलिए अब हाथ-पर-हाथ ऱखकर बैठने का समय नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ को अधिक शक्तिशाली बनाने का मार्ग खोजना ही पड़ेगा और नहीं मिले तो नया रास्ता बनाना पड़ेगा।