शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

अयथार्थवादी है काटजू का इतिहास-दर्शन

मित्रों,भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष श्री मार्कण्डेय काटजू इन दिनों बड़ी जल्दीबाजी में हैं। वे इसी एक जन्म में बहुत कुछ बन लेना चाहते हैं। कभी वे देश के सामने न्यायाधीश की भूमिका में आते हैं तो कभी कांग्रेस-विरोधी सरकारों के सबसे बड़े आलोचक के रूप में। आजकल श्रीमान् पर इतिहासकार बनने का भूत सवार हो गया है। शायद उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं रह गया है या फिर है भी तो इस बात को लेकर उनको पूरी तसल्ली नहीं है कि वे अगले जन्म में भी मानव ही रहेंगे। शायद इसलिए वे एक साथ मास्टर ऑफ ऑल ट्रेड्स बन जाना चाहते हैं लेकिन बन गए हैं मास्टर ऑफ नन।
             मित्रों,लगता है इतिहासकार काटजू साहब के चश्मे में एक ही शीशा काम का है तभी तो वे सिर्फ उदारवादी सुल्तानों और बादशाहों के कृत्यों को ही देख पा रहे हैं कट्टर मुस्लिम शासकों के अत्याचार उनकी दृष्टि से औझल रह जा रहे हैं। क्या काटजू साहब बताएंगे कि क्या श्रीराम जन्मभूमि स्थित मंदिर को तोड़कर वहाँ बाबरी मस्जिद राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने खड़ा कर दिया था? क्या काशी और मथुरा के मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें इतिहासकारों ने बनायी है? क्या बलबन,अलाउद्दीन खिलजी,फिरोजशाह तुगलक और औरंगजेब द्वारा हिन्दू बहुसंख्यक जनता के साथ किए गए अमानुषिक अत्याचारों को काटजू साहब झुठला सकते हैं? क्या यह सही नहीं है कि सच्चे मायनों में निरंतर धर्मनिरपेक्ष शासन सिर्फ प्राचीन भारत में ही संभव हो पाया था? क्या यह सत्य नहीं है कि बलबन के समय भारतीय हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए सेना में अधिकारी के रूप में कोई जगह नहीं थी? क्या यह सत्य नहीं है कि सिर्फ एक स्त्री पद्मिनी को भोगने की सनक में अलाउद्दीन ने पूरे चित्तौड़ को श्मशान में बदल दिया था और हिन्दू नरमुंडों को हिमालय खड़ा कर दिया था? क्या फिरोजशाह तुगलक ने हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए हिन्दुओं की लाशों के ढेर लगाते हुए हिमाचल प्रदेश में कई मंदिरों और जौनपुर (उ.प्र.) के बटाला देवी मंदिर को नहीं तोड़वा दिया था? हिन्दू जनमानस पर लगे ऐसे अगणित घावों को काटजू साहब कैसे झुठला सकते हैं या कैसे किसी मिटौने या ह्वाईटनर से इतिहास की किताबों से मिटा सकते हैं?
              मित्रों,हमें इतिहास को संपूर्णता में लेना होगा न कि अपनी सुविधानुसार सिर्फ चुनिंदा प्रसंगों को ही। तभी इतिहास सच्चे मायने में इतिहास रह पाएगा या इतिहास कहलाने का अधिकारी भी हो पाएगा। हमें इस सत्य को जहर के घूँट पीकर भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं के साथ अकथनीय अमानुषिक अत्याचार किए। मोहम्मद बिन कासिम,महमूद गजनवी,मोहम्मद गोरी,तैमूरलंग,नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने जगह-जगह हिन्दू नरमुंडों के पहाड़ खड़े किए थे,हिन्दू बच्चों को भालों की नोक पर उछाल-उछाल कर अपना मनोरंजन किया था और हिन्दू महिलाओं को क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया था और उनपर बेईन्तहा जुल्म किए जिसमें बलात्कार तो बहुत छोटी-सी चीज थी। आज भी पाकिस्तान में रोजाना हिन्दुओं पर हो रहे जुल्मों को देखकर हम आसानी से यह अनुमान लगा सकते हैं कि इस्लामिक या शरीयत पर आधारित सल्तनत या मुगलकालीन बादशाही में कुछेक वर्षों के छोड़कर आम हिन्दुओं की क्या स्थिति रही होगी। काटजू साहब क्या पाकिस्तान में इस समय हिन्दुओं के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे भी भारतीय इतिहासकार हैं? मैं यह कदापि जबर्दस्ती साबित करना नहीं चाहता हूँ कि मोहम्मद तुगलक या अकबर महान या टीपू सुल्तान भी बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए बुरे थे लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि औरंगजेब द्वारा इस्लाम नहीं स्वीकार करने पर गुरू तेगबहादुर का सिर कटवाया जाना भी एक निहायत धर्मनिरपेक्ष कदम था। तुगलक वंश ने अगर बिन तुगलक जैसा उदारवादी शासक दिया तो हम इस तथ्य को भी नहीं झुठला सकते हैं कि उसी बिन तुगलक का उत्तराधिकारी फिरोजशाह हिन्दुओं के प्रति सर्वथा असहिष्णु रवैया रखता था। मुगलिया वंश ने अगर भारत को अकबर जैसा सार्वकालिक महान शासक दिया है तो उसी मुगलिया वंश ने औरंगजेब जैसा कट्टर शासक भी दिया है जो हिन्दुस्तान को दारूल हर्ब से दारूल इस्लाम में बदलना चाहता था।
                  मित्रों,काटजू साहब के साथ-साथ पूरे भारत को यह समझना होगा कि अगर हमें अपने भारत और धर्मनिरपेक्षता के वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित रखना है तो इतिहास का अध्ययन संपूर्णता में करना ही होगा तभी इतिहास से वर्तमान और भविष्य के लिए हम कुछ सार्थक सीख पाएंगे। इस इतिहास में कुछ अच्छी बातें होंगी तो कुछ मन को चुभनेवाली बातें भी। इसके साथ ही हमें 20वीं सदी की शुरूआत में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के उभार का भी गहराई से अध्ययन करना पड़ेगा। हमें इस तथ्य को भी कभी नहीं भूलना होगा कि तब मुस्लिम लीग मुसलमानों के बीच जितना स्वीकार्य था हिन्दू महासभा को हिन्दुओं के बीच कभी उस तरह की लोकप्रियता नहीं मिल पाई और कांग्रेस ही हमेशा हिन्दुओं की एकमात्र पसंदीदा पार्टी बनी रही जो पूरी तरह से धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती थी। यह सत्य है कि हिन्दू भी विभाजन के समय होनेवाले दंगों में शामिल हुए थे लेकिन गोधरा कांड की तरह ही तब भी 16 अगस्त,1946 को कोलकाता में महान कत्लेआम से मारकाट की शुरूआत मुसलमानों ने ही की थी। यह सत्य है कि अंग्रेजों ने भारत में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया था क्योंकि वे हमारे वर्तमान नेताओं की तरह जानते थे कि अगर हम एक हो गए तो उनको भागना पड़ेगा। काटजू साहब का यह कहना निश्चित रूप से सत्य है कि भारत की 90% जनता मूर्ख है तभी तो हमारे वर्तमान राजनेता चाहे वे दक्षिणपंथी हों या मध्यमार्गी या वामपंथी या फिर आरक्षणवादी ही क्यों न हों अंग्रेजों की तरह ही बाँटने की राजनीति सफलतापूर्वक कर रहे हैं? इस परिप्रेक्ष्य में निश्चित रूप से अंग्रेजी नीतियों के नवीन अध्ययन की आवश्यकता है? अंत में हमें या काटजू साहब को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत तभी तक धर्मनिरपेक्ष है जब तक वह हिन्दू-बहुल है हमरी न मानो तो पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित सभी मुसलमान देशों और बर्मा और श्रीलंका जैसे बौद्ध-बहुल देशों को देख लो। देख तो आप इस समय हैदराबाद में चल रही औबैसी जैसे मुस्लिम नेताओं की गतिविधियों को भी देख सकते हैं जिनको मंदिर में घंटा के बजने पर भी या मंदिर के होने पर ही ऐतराज है। काटजू साहब कृपया अपने चश्मे के दूसरे शीशे को भी साफ कर लीजिए और भूत और वर्तमान भारत की इन सच्चाइयों से आँखे बंद नहीं करिए क्योंकि ऐसा करने से देश को कोई फायदा नहीं मिलेगा बल्कि इससे सिर्फ-और-सिर्फ नुकसान ही होगा क्योंकि सच्चाई तो देश,काल और परिस्थिति से सर्वथा निरपेक्ष होती है। उसे न तो आप ही बदल सकते हैं, न तो हम और न तो इतिहासकार ही।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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