शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

यह 24000 करोड़ किसका है सहारा श्री जी?

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हम काफी दिनों से यह सुनते आ रहे थे कि अपने देश में काले धन को सफेद धन में बदला जाता है। अभी तक तो हम सुनते ही थे अब अपनी आँखों से देख भी रहे हैं कि कैसे सहारा श्री अज्ञात सफेदपोश लोगों के धन को काला से उजला बना रहे हैं। वे बताते हैं कि उनकी कंपनी में लाखों निवेशकों ने 24000 करोड़ रुपये लगाए हैं लेकिन सेबी के पूछने पर वे यह नहीं बता पाते कि वे लाखों निवेशक हैं कौन? प्रश्न अब यह नहीं है कि 24000 करोड़ रुपये हैं भी या नहीं बल्कि उससे भी बड़ा सवाल अब यह पैदा हो गया है कि निवेशक हैं भी या नहीं? अगर हैं तो उनका नाम और पता क्या है? किसी निवेशक का पता सिर्फ एनएच 2 या 4 तो नहीं हो सकता।
मित्रों,तो क्या यह 24000 करोड़ रुपया नेताओं का है जिसको सुब्रत राय अवैध तरीके से सफेद धन में बदलने का असफल प्रयास कर रहे थे? देखना तो यह भी है कि सुब्रत राय को उनकी खुद की चहेती सरकार की पुलिस किस प्रकार से हिरासत में रखती है। उनको आम आदमी की तरह हिरासत में रखती है या फिर पाँच सितारा सुविधाएँ उपलब्ध करवाती है और कानून की नजर में सबके समान होने के सिद्धांत का खुलेआम मखौल उड़ाती है? जाहिर है कि सहारा श्री देश के बड़े रसूखदार लोगों में से हैं ऐसे में उनको सजा दिलवाना किसी भी तरह आसान नहीं रहनेवाला है क्योंकि आज कानून गांधी के जमाने से भी ज्यादा पैसेवालों की रखैल बन चुका है। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

भाजपा के लिए आत्मघाती होगा रामविलास से गठबंधन

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों, पिछले दो दिनों से ऐसी चर्चा बिहार में जोरों पर है कि भारतीय जनता पार्टी और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के बीच लोकसभा चुनावों के लिए चुनावी गठबंधन हो गया है। सूत्रों के अनुसार इस गठबंधन के लिए पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का ज्यादा जोर है। पता नहीं सुशील कुमार मोदी को ऐसा क्यों लगता है कि भाजपा बिहार में अकेली चुनावों में जा ही नहीं सकती है। यह वहीं मोदी हैं जिन्होंने बिहार में कभी भाजपा का गठबंधन उस पार्टी से करवाया था जिसको 1995 के चुनावों में मात्र 6 विधानसभा सीटें मिली थीं और वो भी बड़ा भाई बनाकर और अपनी पार्टी से ज्यादा सीटें देकर जबकि 1995 में भाजपा के पास 30 विधानसभा सीटें थीं। यह वही छोटे मोदी हैं जिनको अभी कुछ महीने पहले तक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पीएम पद के लिए योग्यतम व्यक्ति नजर आते थे।
मित्रों,छोटे मोदी ने एकबार फिर से भाजपा को बेमेल और आत्मघाती गठबंधन की आग में झोंकने की नापाक कोशिश की है। उपेंद्र कुशवाहा से गठबंधन किया कोई बात नहीं क्योंकि उनपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है लेकिन रामविलास पासवान से गठबंधन क्यों? ऊपर से छोटे मोदी रामविलास पासवान के खिलाफ सीबीआई जाँच के मामले में उनका खुलकर बचाव भी कर रहे हैं जबकि बोकारो स्टील कारखाने के प्रस्तावित बेतिया इकाई में बहाली में केंद्रीय मंत्री रहते उनके खिलाफ जमकर भ्रष्टाचार करने के सबूत सामने आ चुके हैं। ऊपर से रामविलास पासवान का बिहार में कोई खास वोट-बैंक भी नहीं है। पिछले लोकसभा चुनावों में तो हाजीपुर में उनको उनकी अपनी जाति ने भी एकजुट होकर वोट नहीं दिया था ऐसे में यह तो निश्चित है कि इस गठबंधन से भाजपा को मतों की दृष्टि से कोई लाभ नहीं होने जा रहा है। गठबंधन से जो भी लाभ होगा वह एकतरफा होगा और लोजपा को होगा।
मित्रों,हम सभी जानते हैं रामविलास पासवान राज्य के ही नहीं देश के भी महानतम अवसरवादी नेता है। वे सत्ता से दूर रह ही नहीं सकते। उनको केंद्र में मंत्री बनकर मलाई काटने की पुरानी बीमारी है। भूतकाल में अगर हम झाँककर देखें तो  1998 में रामविलास ने भाजपा के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा था और केंद्र सरकार में महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्री भी रहे थे। बाद में जब उनको संचार मंत्रालय से हटा दिया गया तो उन्होंने गुजरात दंगों का बहाना बनाकर मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। 1999 में लोकसभा में विश्वास-प्रस्ताव पर मतदान के दौरान उन्होंने राजग को धोखा दिया जिससे वाजपेयी जी की सरकार एक मत से गिर गई थी। फिर आज तो गुजरात दंगों के समय मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी भाजपा के पीएम उम्मीदवार हैं फिर रामविलास भाजपा के साथ कैसे गठबंधन कर सकते हैं और भाजपा भी ऐसे धोखेबाज के साथ कैसे गठबंधन बना सकती है? शायद रामविलास जी कांग्रेस पर ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाने के लिए भाजपा से गठबंधन का झूठा स्वांग कर रहे हैं या फिर कांग्रेस पर उनके खिलाफ सीबीआई जाँच रोकने के लिए बीजेपी से गठबंधन का नाटक कर रहे हैं। अगर वे भाजपा से सचमुच में गठबंधन करना चाहते हैं तो इसका एक कारण तो मोदी लहर हो सकती है और दूसरा कारण चुनावों के बाद बननेवाली एनडीए सरकार के समय सीबीआई के शिकंजे में आने से खुद को बचाना। श्री पासवान से गठबंधन करते समय भाजपा को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि रामविलास मूलतः लालू-मुलायम-येचुरी-सोनिया-ममता-जया आदि की तरह मुस्लिमपरस्त नेता हैं और स्वार्थवश अभी वे भले ही एनडीए की बारात में डांस करने को तैयार हो जाएँ लेकिन कभी भी बारात से भाग सकते हैं और पिटवा भी सकते हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

क्या केजरीवाल और अंबानी में साँठगाँठ है?

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। रविवार को रोहतक में रैली करने पहुंचे अरविन्द केजरीवाल ने क्या बातों ही बातों में अपनी ही पार्टी के प्रवक्ता आशुतोष की पोल खोल दी है? अगर घटनाओं को सही मानें तो शायद हां। रविवार को रोहतक में रैली करने पहुंचे अरविन्द केजरीवाल के साथ आईबीएन-7 के पूर्व एडीटर इन चीफ आशुतोष भी थे। उन्होंने वहां अरविन्द से पहले रैली को संबोधित भी किया। लेकिन जब खुद केजरीवाल संबोधित करने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने ऐसी बात कह दी जिससे शक हुआ कि कहीं वे यह बात अपनी ही पार्टी के नेता आशुतोष के बारे में तो नहीं कह गए?
असल में रोहतक की रैली में अरविन्द केजरीवाल ने मुकेश अंबानी और मोदी के साथ साथ मीडिया पर भी जमकर हमला बोला और कहा कि मीडिया का एक हिस्सा जानबूझकर उन्हें और उनकी पार्टी को बदनाम कर रहा है। केजरीवाल ने मीडिया पर सीधे आरोप लगाते हुए कहा कि यह सब मुकेश अंबानी के इशारे पर हो रहा है क्योंकि मीडिया में आज हर जगह मुकेश अंबानी का पैसा लगा हुआ है।
मुकेश और मीडिया के रिश्तों पर बोलते बोलते अरविन्द केजरीवाल बोल गये कि कैसे एक एडीटर इन चीफ उनके पास आया और कहने लगा कि उसके ऊपर दबाव बनाया जा रहा है कि वह मोदी के बारे में ही खबरें दिखाएं। उस एडीटर इन चीफ से यह बात बर्दाश्त नहीं हुई और उसने अरविन्द से कहा कि इसलिए उसने इस्तीफा दे दिया है।
अगर अरविन्द की बात को सही मानें और मीडिया में मुकेश अंबानी की मौजूदगी को देखें तो निश्चित रूप से यह एडीटर इन चीफ कोई और नहीं बल्कि खुद आशुतोष ही हो सकते हैं क्योंकि आशुतोष जिस आईबीएन-7 के संपादक थे वह नेटवर्क-18 का हिस्सा है जिसमें मुकेश अंबानी ने पैसा निवेश कर रखा है। तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आशुतोष के आम पार्टी ज्वाइन करने की पोल खुद केजरीवाल ने ही खोल दी?
हालांकि ऐसा पहली बार हुआ है जब अरविन्द केजरीवाल खुद मीडिया के एक हिस्से पर जमकर बरसे और अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि अगर कोई खबर ऐसी दिखे जिसे देखकर लगे कि यह जानबूझकर गलत खबर चलाई जा रही है तो पार्टी कार्यकर्ता टीवी चैनलों के दफ्तर में फोन करके अपना विरोध दर्ज करवाएं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर ये लोग गलत खबर दिखाना बंद नहीं करते हैं तो मीडियावालों को भी ठीक करना पड़ेगा।
हालाँकि अधिकतर टीवी दर्शकों का यह मानना है कि आईबीएन 7 आशुतोष के होते हुए तो केजरीवाल का समर्थक था ही उनके हटने के बाद तो और भी अंधसमर्थक ही हो गया है। दिन-रात नॉन स्टॉप सिर्फ केजरीवाल के पक्ष में ही समाचार और कार्यक्रम चलाता रहता है। तो क्या केजरीवाल और अंबानी में भी भीतर-ही-भीतर साँठगाँठ है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर आईबीएन 7 आज केजरीवाल का सबसे बड़ा समर्थक चैनल क्यों बना हुआ है? (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

फिर तो आईपीएल इंडियन फिक्सिंग लीग बन जाएगा?

22-2-14,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जैसा कि बीसीसीआई सूत्रों ने मीडिया को बताया है कि इस साल का आईपीएल यानि आईपीएल 7 दक्षिण अफ्रीका में होने जा रहा है तो अगर ऐसा हुआ तो इस साल का आईपीएल इंडियन प्रीमियर लीग के बदले इंडियन फिक्सिंग लीग बन जाएगा। ऐसा होना सिर्फ इसलिए ही तय नहीं माना जा रहा क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में सट्टेबाजी प्रतिबंधित नहीं है बल्कि इसलिए भी क्योंकि जस्टिस मुद्गल समिति ने आईपीएल सट्टेबाजी की जांच रिपोर्ट में बताया है कि सारी सट्टेबाजी के पीछे कुख्यात डॉन दाऊद इब्राहिम का हाथ है। रिपोर्ट में न सिर्फ मयप्पन को बल्कि भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान धोनी और रैना को भी संदेह के घेरे में रखा है। विदित हो कि अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में फिक्सिंग का गंदा खेल सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में ही उजागर हुआ था।
मित्रों,जिस तरह से दाऊद आसानी से आईपीएल सट्टेबाजी में भाग लेकर मैचों को फिक्स कर ले रहा है उससे आम जनता के मन में ऐसी आशंका भी उत्पन्न हो रही है कि न सिर्फ आईपीएल और बीसीसीआई में उसकी पैठ बनी हुई है बल्कि केंद्र सरकार के एक से ज्यादा मंत्री भी उसके ही इशारों पर नाचते रहे हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सामने आने लगे केजरीवाल के 'मृत-दल' के छिपे हुए उद्देश्य

22-2-14,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी सबसे प्रसिद्ध कविता 'अंधेरे में' में कहा है कि
'भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आये हैं,
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।'
चुनावी महासमर नजदीक आने के साथ ही अरविंद केजरीवाल के छिपे हुए उद्देश्य भी सामने आने लगे हैं। केजरीवाल ने अपनी रणनीति बदलते हुए अपने 'मृत-दल' के निशाने पर नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी से भी ऊपर कर लिया है। कांग्रेस को बचाने का उनका राक्षसी स्वार्थ अब साफतौर पर उभर आया है। भाजपा के पीएम प्रत्याशी की चौतरफा घेराबंदी के लिहाज से उन पर आरोपों की बौछार कर दी है। साथ ही उनके खिलाफ महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी के रूप में एक सशक्त उम्मीदवार उतारने की तैयारी भी कर ली है।
अरविंद केजरीवाल ने शुक्रवार को रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रमुख मुकेश अंबानी के साथ रिश्तों को लेकर मोदी पर सवाल खड़े कर दिए। साथ ही उन्होंने अपने और अपने दल के ऊपर लगनेवाले किसी भी आरोप का स्पष्टीकरण न देने की महान परंपरा की रक्षा भी की है। उन्होंने यह नहीं बताया है कि वो ली कौन थी और उसका उद्देश्य क्या था? मोदी को पत्र लिखकर केजरीवाल ने कहा है, ‘लोग कहते हैं कि संप्रग की सरकार मुकेश अंबानी चला रहे हैं। अगर आपके पीछे भी मुकेश ही हैं तो लोगों के साथ धोखा हो जाएगा। किसी तरह आप प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो क्या आपकी सरकार भी मुकेश ही चलाएंगे? चर्चा है कि आपकी एक-एक रैली पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि मुकेश अंबानी आपको फंड कर रहे हैं। क्या यह सच है?’ आप और राहुल गांधी देश-विदेश में घूमने के लिए हेलीकॉप्टर व निजी हवाई जहाजों का उपयोग करते हैं। खबरों के मुताबिक ये जहाज मुकेश अंबानी के हैं। ये फ्री में मिलते हैं या आप इनका किराया देते हैं? इस बीच परम प्रपंची और बुढ़ापे में नग्न नवयुवतियों के साथ शयन कर ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग करनेवाले मोहनदास करमचंद गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी ने शुक्रवार को आम आदमी पार्टी की सदस्यता ली। उन्होंने कहा कि पार्टी का जो आदेश होगा उसका पालन करेंगे। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

क्या अन्ना विश्वसनीय व्यक्ति हैं?

19-2-18,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कथित गांधीवादी अन्ना हजारे ने एक बार फिर से अपने विचार बदल लिए हैं। कदाचित यू-टर्न लेने की उनमें और उनके कथित चेले अरविन्द केजरीवाल में होड़-सी लगी हुई है। कभी अन्ना को नीतीश कुमार अच्छे लगने लगते हैं तो कभी अरविन्द केजरीवाल और कभी ममता बनर्जी। आजकल ममता बनर्जी की बारी आई हुई है। इतना ही नहीं कभी अन्ना को संसद द्वारा पारित लोकपाल अच्छा लगने लगता है तो कभी केजरीवाल का जनलोकपाल। समझ में नहीं आता कि अन्ना आखिर चाहते क्या हैं? क्या उनका चित्त स्थिर है? क्या उनके ऊपर विश्वास किया जा सकता है? अन्ना की कौन-सी बात सही है और कौन-सी गलत?
मित्रों,आपको याद होगा कि जब अरविन्द केजरीवाल ने राजनैतिक दल के गठन की घोषणा की थी तो अन्ना ने खुलकर उसका विरोध किया था। फिर कभी उन्होंने केजरीवाल का विरोध किया तो फिर अगले ही दिन समर्थन भी कर दिया। अभी कुछ दिन पहले कांग्रेस ने संसद से लोकपाल को पास करने की घोषणा की। यह जानने के बावजूद अन्ना अनशन पर बैठ गए। फिर राहुल गांधी ने लोकपाल की जरुरत पर बल दिया और सरकार ने बिल लाकर उसे पारित करवा लिया। जब अन्ना और पूरे देश को पता था कि उक्त सत्र में सरकार लोकपाल लाने जा रही है तो फिर समझ में नहीं आता कि अन्ना क्यों अनशन पर बैठे? क्या वे इसका श्रेय पूरी संसद के स्थान पर सिर्फ राहुल गांधी को दिलवाना चाहते थे?
मित्रों,अभी तक अन्ना का जो विचित्र व्यवहार रहा है उससे ऐसा प्रतिध्वनित होता है कि अन्ना कहीं-न-कहीं कांग्रेसी हैं और वे चाहते हैं कि केंद्र में किसी-न-किसी तरह से कांग्रेस की ही सरकार रहे। हम अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि चुनावों से पहले ये कथित धर्मनिरपेक्ष दल चाहे जितनी भी तू तू मैं मैं कर लें चुनावों के बाद सबके सब कांग्रेस से मिल जाते हैं। यहाँ तक कि सपा और बसपा जैसे धुर विरोधी दल भी कांग्रेसी घाट पर एकसाथ पानी पीने लगते हैं। फिर अन्ना की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे हमेशा इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों का ही समर्थन करते हैं? पहले केजरीवाल अच्छे लगे लेकिन जब देखा कि यह बंदा तो अब काफी बदनाम हो चुका है तो उन्होंने एक अन्य ऐसे दल का समर्थन कर दिया जिसके नाम में भी कांग्रेस लगा हुआ है और जिसका चाल,चरित्र और चेहरा तो कांग्रेसवाला है ही। अन्ना को कैसे ममता का शासन अच्छा लग रहा है जबकि पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में सरकारी भ्रष्टाचार के चलते जबसे ममता शासन में आई हैं मौत का तांडव चल रहा है।
मित्रों,मूलतः ममता और साम्यवादी दलों के शासन में कोई अंतर नहीं है। जो गुंडागर्दी और सामूहिक बलात्कार पहले साम्यवादी कार्यकर्ता कर रहे थे वही गुंडागर्दी और सामूहिक बलात्कार अब तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कर रहे हैं। आखिर वो कौन-सा चश्मा है जिससे देखने पर अन्ना को ममता बनर्जी दूध की धुली नजर आ रही हैं?
मित्रों,प्रश्न उठता है कि क्या अन्ना दिल से भारत का भला चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि भारत का तीव्रतर विकास हो और भारत से भ्रष्टाचार का समूल नाश हो जाए? अगर हाँ तो फिर उनको नरेंद्र मोदी और भाजपा से शत्रुता क्यों है? मुझे तो लगता है कि अन्ना उस दिलफेंक आशिक की तरह चलंतमति हैं जिसका दिल रह-रहकर कभी इस पर तो कभी उस पर आता रहता है। सिर्फ वंदे मातरम का नारा भर लगा देने से भारत महान नहीं हो जाएगा। ममता ने पश्चिम बंगाल में ऐसा क्या कर दिया है कि अन्ना उस पर मोहित हो गए? ममता का शासन तो इतना निर्मम है कि उसने एक बिहारी बेटी को जिसका कि बंगाल में सामूहिक बलात्कार हुआ था अपने हाल पर छोड़ दिया। यहाँ तक कि घटना के बाद लंबे समय तक बलात्कारियों को गिरफ्तार तक नहीं किया,ममता की पुलिस ने साक्ष्यों को नष्ट हो जाने दिया और जब बिहार सरकार ने उसकी मदद करनी चाही तो उसके एक मंत्री ने उसका भी विरोध किया।
मित्रों,हमें कोरे नारे नहीं चाहिए। नारे तो पिछले 65 सालों से लग रहे हैं। अब हमें मजबूर की जगह मजबूत सरकार चाहिए,अब हमें गठबंधन की जगह एकदलीय सरकार चाहिए,अब हमें नीति नहीं नीयत चाहिए, कोरे नारे नहीं धरातल पर काम चाहिए,योजनाएँ नहीं उनका सटीक और पारदर्शी क्रियान्वन चाहिए,ममता जैसी 10-20 सांसदों वाला कमजोर और पिलपिला प्रधानमंत्री नहीं 273 प्लस वाला सिंहनाद करनेवाला शेर चाहिए जिसकी गर्जना से चीन से लेकर अमेरिका तक काँपने लगे। वही अमेरिका जिसका एजेंट होने के आरोप इन दिनों यू टर्न गुरू अन्नाजी के चेले पर लग रहे हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

क्या केजरीवाल सीआईए के एजेंट हैं?

नई दिल्ली (एजेंसी)।  आज दिल्ली भाजपा नेता डॉ. हर्षवर्धन ने दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए से मिले होने के आरोप लगाए हैं और पूछा है कि उनका शिमिरित ली से किस तरह का संबंध रहा है? ऐसे में प्रश्न उठता है कि यह शिमिरित ली कौन है, शोधार्थी या सीआईए एजेंट? दस्तावेज बताते हैं कि वह बतौर शोधार्थी ‘कबीर’ संस्था से जुड़े थी। इस संस्था के गॉड-फादर अरविंद केजरीवाल रहे हैं। विदित हो कि अरविन्द केजरीवाल को जब रमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया था तो विस्तार से बताया नहीं गया था कि उन्होंने ऐसी कौन-सी महान उपलब्धि प्राप्त की है। वैसे मैग्सेसे पुरस्कार की फंडिंग भी अमेरिकी संस्था फोर्ड फाउंडेशन ही करती है जिससे भारी मात्रा में चंदा लेने के आरोप केजरीवाल की संस्था कबीर पर लग रहे हैं।
शिमरित ली को लेकर अटकलें लग रही हैं, क्योंकि शिमरित ली कबीर संस्था में रहकर न केवल भारत में आंदोलन का तानाबाना बुन रही थी, बल्कि लंदन से लेकर काहिरा और चाड से लेकर फिलिस्तीन तक संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त थी। शिमिरित ली दुनिया के अलग-अलग देशों में विभिन्न विषयों पर काम करती रही है। भारत आकर उसने नया काम किया। कबीर संस्था से जुड़ी। प्रजातंत्र के बारे में उसने एक बड़ी रिपोर्ट महज तीन-चार महीनों में तैयार की। फिर वापस चली गई। आखिर दिल्ली आने का उसका मकसद क्या था? इसे एक दस्तावेजी कहानी और अरविंद केजरीवाल के संदर्भ में समझा जा सकता है।
बहरहाल कहानी कुछ इस प्रकार है। जिस स्वराज के राग को केजरीवाल बार-बार छेड़ रहे हैं, वह आखिर क्या है? साथ ही सवाल यह भी उठता है कि अगर इस गीत के बोल ही केजरीवाल के हैं तो गीतकार और संगीतकार कौन है? यही नहीं, इसके पीछे का मकसद क्या है? इन सब सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें अमेरिका के न्यूयार्क शहर का रुख करना पड़ेगा। न्यूयार्क विश्वविद्यालय दुनिया भर में अपने शोध के लिए जाना जाता है। इस विश्वविद्यालय में ‘मध्यपूर्व एवं इस्लामिक अध्ययन’ विषय पर एक शोध हो रहा है। शोधार्थी का नाम है, शिमिरित ली। शिमिरित ली दुनिया के कई देशों में सक्रिय है। खासकर उन अरब देशों में जहां जनआंदोलन हुए हैं। वह चार महीने के लिए भारत भी आई थी। भारत आने के बाद वह शोध करने के नाम पर ‘कबीर’ संस्था से जुड़ गई। सवाल है कि क्या वह ‘कबीर’ संस्था से जुड़ने के लिए ही शिमिरित ली भारत आई थी? अभी यह रहस्य है। उसने चार महीने में एक रिपोर्ट तैयार की। यह भी अभी रहस्य है कि शिमरित ली की यह रिपोर्ट खुद उसने तैयार की या फिर अमेरिका में तैयार की गई थी।
बहरहाल, उस रिपोर्ट पर गौर करें तो उसमें भारत के लोकतंत्र की खामियों को उजागर किया गया है। रिपोर्ट का नाम है ‘पब्लिक पावर-इंडिया एंड अदर डेमोक्रेसी’। इसमें अमेरिका, स्विट्जरलैंड और ब्राजील का हवाला देते हुए ‘सेल्फ रूल’ की वकालत की गई है। अरविंद केजरीवाल की ‘मोहल्ला सभा’ भी इसी रिपोर्ट का एक सुझाव है। इसी रिपोर्ट के ‘सेल्फ रूल’ से ही प्रभावित है, अरविंद केजरीवाल का ‘स्वराज’। अरविंद केजरीवाल भी अपने स्वराज में जिन देशों की व्यवस्था की चर्चा करते हैं, उन्हीं तीनों अमेरिका, ब्राजील और स्विट्जरलैंड का ही जिक्र शिमिरित भी अपनी रिपोर्ट में करती हैं।
‘कबीर’ के कर्ताधर्ता अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया हैं। यहां शिमरित के भारत आने के समय पर भी गौर करने की जरूरत है। वह मई 2010 में भारत आई और कबीर से जुड़ी। वह अगस्त 2010 तक भारत में रही। इस दौरान ‘कबीर’ की जवाबदेही, पारदर्शिता और सहभागिता पर कार्यशालाओं का जिम्मा भी शिमरित ने ही ले लिया था। इन चार महीनों में ही शिमरित ली ने ‘कबीर’ और उनके लोगों के लिए आगे का एजेंडा तय कर दिया। उसके भारत आने का समय महत्वपूर्ण है।
यहूदी परिवार से ताल्लुक रखने वाली शिमिरित ली को 2007 में कविता और लेखन के लिए यंग आर्ट पुरस्कार मिला। उसे यह पुरस्कार अमेरिकी सरकार के सहयोग से चलने वाली संस्था ने नवाजा। यहीं वह सबसे पहले सीआईए अधिकारियों के संपर्क में आई। जब उसे पुरस्कार मिला तब वह जेक्शन स्कूल फॉर एडवांस स्टडीज में पढ़ रही थी। यहीं से वह दुनिया के कई देशों में सक्रिय हुई।
जून 2008 में वह घाना में अमेरिकन ज्यूश वर्ल्ड सर्विस में काम करने पहुंचती। नवंबर 2008 में वह ह्यूमन राइट वॉच के अफ्रीकी शाखा में बतौर प्रशिक्षु शामिल हुई। वहां उसने एक साल बिताए। इस दौरान उसने चाड के शरणार्थी शिविरों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा संबंधी दस्तावेजों की समीक्षा और विश्लेषण का काम किया। जिन-जिन देशों में शिमिरित की सक्रियता दिखती है, वह संदेह के घेरे में है। हर एक देश में वह पांच महीने के करीब ही रहती है। उसके काम करने के विषय भी अलग-अलग होते हैं। उसके विषय और काम करने के तरीके से साफ जाहिर होता है कि उसकी डोर अमेरिकी अधिकारियों से जुड़ी है। दिसंबर 2009 में वह ईरान में सक्रिय हुई। 7 दिसंबर, 2009 को ईरान में छात्र दिवस के मौके पर एक कार्यक्रम में वह शिरकत करती है। वहां उसकी मौजूदगी भी सवालों के घेरे में है, क्योंकि इस कार्यक्रम में ईरान में प्रजातंत्र समर्थक अहमद बतेबी और हामिद दबाशी शामिल थे।
ईरान के बाद उसका अगल ठिकाना भारत था। यहां वह ‘कबीर’ से जुड़ी। चार महीने में ही उसने भारतीय लोकतंत्र पर एक रिपोर्ट संस्था के कर्ताधर्ता अरविंद केजरावाल और मनीष सिसोदिया को दी। अगस्त में फिर वह न्यूयार्क वापस चली गई। उसका अगला पड़ाव होता है ‘कायन महिला संगठन’। यहां वह फरवरी 2011 में पहुंचती। शिमिरित ने वहां “अरब में महिलाएं” विषय पर अध्ययन किया। कायन महिला संगठन में उसने वेबसाइट, ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग का प्रबंधन संभाला। यहां वह सात महीने रही। अगस्त 2011 तक। अभी वह न्यूयार्क विश्वविद्यालय में शोध के साथ ही ‘अर्जेंट एक्शन फंड’ से बतौर सलाहकार जुड़ी हैं। पूरी दुनिया में जो सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और स्त्री संबंधी मुद्दों पर जो प्रस्ताव आते हैं, उनकी समीक्षा और मूल्यांकन का काम शिमिरित के जिम्मे है। अगस्त 2011 से लेकर फरवरी 2013 के बीच शिमिरित दुनिया के कई ऐसे देशों में सक्रिय थी, जहां उसकी सक्रियता पर सवाल उठते हैं। इसमें अरब देश शामिल हैं। मिस्र में भी शिमिरित की मौजूदगी चौंकाने वाली है। यही वह समय है, जब अरब देशों में आंदोलन खड़ा हो रहा था।
शिमिरित ली 17वें अरब फिल्म महोत्सव में भी सक्रिय रहीं। इसका प्रीमियर स्क्रीनिंग सेन फ्रांसिस्को में हुआ। स्क्रीनिंग के समय शिमिरित ने लोगों को संबोधित भी किया। इस फिल्म महोत्सव में उन फिल्मों को प्रमुखता दी गई, जो हाल ही में जन आंदोलनों के ऊपर बनी थी।
शिमिरित ली के कबीर संस्था से जुड़ने के समय को उसके विदेशी वित्तीय सहयोग के नजरिए से भी देखने की जरुरत है। एक वेबसाइट ने ‘सूचना के अधिकार’ के तहत एक जानकारी मांगी। उस जानकारी के मुताबिक कबीर को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपए मिले। 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड ने कबीर की आर्थिक सहायता की। इस बीच केजरीवाल को वर्ष 2006 में रमन मैग्सेसे पुरस्कार के माध्यम से 50000 डॉलर देकर उपकृत किया जा चुका था। इससे पहले केजरीवाल सरकारी नौकरी छोड़ चुके थे। इसके बाद 2010 में अमेरिका से शिमिरित ली ‘कबीर’ में काम करने के लिए आती हैं। चार महीने में ही वह भारतीय प्रजातंत्र का अध्ययन कर उसे खोखला बताने वाली रिपोर्ट केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को देकर चली जाती है। शिमिरित ली के जाने के बाद ‘कबीर’ को फिर फोर्ड फाउंडेशन से दो लाख अमेरिकी डॉलर का अनुदान मिला। इसे भारत की खुफिया एंजेसी ‘रॉ’ के अपर सचिव रहे बी. रमन की इन बातों से समझा जा सकता है।
एक बार बी. रमन ने एनजीओ और उसकी फंडिंग पर आधारित एक किताब के विमोचन के समय कहा था कि “सीआईए सूचनाओं का खेल खेलती है। इसके लिए उसने ‘वॉयस ऑफ अमेरिका’ और ‘रेडियो फ्री यूरोप’ को बतौर हथियार इस्तेमाल करती है।” अपने भाषण में बी. रमन ने इस बात की भी चर्चा की थी कि विदेशी खुफिया एजेंसियां कैसे एनजीओ के जरिए अपने काम को अंजाम देती हैं। किसी भी देश में अपने अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए सीआईए उस देश में पहले से काम कर रही एनजीओ का इस्तेमाल करना ज्यादा सुलभ समझती है। उसे अपने रास्ते पर लाने के लिए वह फंडिंग का सहारा लेती है। जिस क्षेत्र में एनजीओ नहीं है, वहां एनजीओ बनवाया जाता है। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

यह अंतरिम बजट नहीं यह पार्टी का घोषणापत्र है

18-2-14,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों, किसी भी आम बजट में दो बातें प्रमुख होती हैं. पहला, बजट से सरकार और पार्टी की आर्थिक और राजनीतिक सोच का पता चलता है और दूसरा, देश की वित्तीय नीतियों के बारे में पता चलता है। बजट के प्रावधानों से पता चल जाता है कि केंद्र सरकार की आर्थिक नीति कैसी होगी। दुर्भाग्यवश चिदंबरम अपनी सरकार और पार्टी की सोंच और नीतियों की बात तब करने चले हैं जबकि इस सरकार के दिऩ पूरे हो गए हैं।
यह साफ है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम द्वारा पेश अंतरिम बजट सिर्फ लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है। इस बजट का न  तो देश के वर्तमान से ही कुछ लेना-देना है और न ही भविष्य से ही।  हमें ध्यान रखना चाहिए कि ‘वोट ऑन एकाउंट’ में करों से संबंधित विशेष प्रावधान नहीं किये जाते हैं। चुनाव से पहले सरकारी खर्च के लिए ही अंतरित बजट पेश किया जाता है।
2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार और 2009 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी अंतरिम बजट में करों का कोई नया प्रावधान नहीं किया था, लेकिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इस बार ऐसा कर दिया। पहली बात तो यह कि यह संसदीय परंपराओं के खिलाफ है।
कुछ महीने बाद आम चुनाव होनेवाले हैं और मई, 2014 तक नयी सरकार का गठन हो जायेगा। नयी सरकार अपना पूर्ण बजट पेश करेगी। अगर यूपीए की सरकार फिर से बनती है और पी चिदंबरम ही फिर से वित्त मंत्री बनते हैं, तब भी अंतरिम बजट में की गयी घोषणाओं को लागू करना मुश्किल होगा। नियमों के तहत चिदंबरम यूपीए सरकार की दस साल की उपलब्धियों के बारे में बखानभर कर सकते थे।
हालांकि इस बात के लिए भी उनकी आलोचना होती, लेकिन चुनावी साल में अमूमन सभी ऐसा करते हैं। अंतरिम बजट में चिदंबरम द्वारा की गयी कुछ घोषणाओं को वास्तविकता में लागू नहीं किया जा सकता है। अब देश की जनता जागरूक हो गयी है। चुनावी साल में लोक लुभावन घोषणाओं से उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। आर्थिक लिहाज से भी इन घोषणाओं का कोई मतलब नहीं है।
यह ध्यान देने की बात है कि 2008-09 तक आर्थिक मंदी का सामना करने में भारत इसलिए सफल हो पाया था, क्योंकि तब उसकी बुनियाद मजबूत थी। वर्ष 2008 के बाद घरेलू निवेश का हिस्सा 65 फीसदी, जबकि घरेलू बचत 35 फीसदी था। वर्ष 2014 में कमरतोड़ महंगाई के कारण निवेश 34 फीसदी रह गया है। आज भारत के बड़े-बड़े उद्योगपति ही देश में निवेश नहीं  कर रहे हैं। पिछले पांच साल में भारत की आर्थिक बुनियाद काफी कमजोर हो गयी है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कमजोर और संकटग्रस्त है। भारतीय अर्थव्यस्था संस्थागत चुनौती का सामना कर रही है।  राजकोषीय घाटे को जिस तरह से कम करके बताया जा रहा है वह सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी है क्योंकि चिदंबरम ने बड़ी धूर्तता से सब्सिडी के 35000 करोड़ रुपए को अगले साल पर डाल दिया है। इतना ही नहीं इसके लिए आधारभूत संरचना और सामाजिक क्षेत्र पर होनेवाले खर्च में भी 90 हजार करोड़ रुपए की कटौती की गई है। ईंधन के लिए जो 65000 करोड़ रुपए की सब्सिडी रखी गई उसको प्राप्त करना तभी संभव होगा जबकि या तो सब्सिडी में अभूतपूर्व कमी कर दी जाए या फिर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के मूल्य धराशायी हो जाएँ। जाहिर है कि सब्सिडी कम करने की महती जिम्मेदारियों से आनेवाली सरकार को जूझना होगा। यूपीए-2 सरकार ने इस चुनौती का ख्याल नहीं रखा। महंगाई को कम करने पर ध्यान नहीं दिया गया। सिर्फ महंगाई रिजर्व बैंक की नीतियों से नियंत्रित नहीं हो सकती है। रिजर्व बैंक सिर्फ रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को घटाने और बढ़ाने जैसे छोटे कदम उठा सकता है। महंगाई को कम करने के लिए सरकार को व्यापक कदम उठाने की जरुरत है। इसके लिए सरकार को पीडीएस व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन विभिन्न सेक्टरों में महंगाई को काबू में करने की कोशिश नहीं की गई। यह कोशिश न तो पिछले दस साल में दिखी, और न ही अंतरिम बजट में कोई प्रावधान किया गया। प्रणव दा द्वारा प्रस्तावित सब्सिडी को सीधे लाभार्थियों के खाते में डालने की योजना का अभी तक कहीं अता-पता नहीं है। आज देश के सामने आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने और महंगाई को कम करने की विकराल चुनौती है। यह आगे भी बनी रहेगी।
यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल में आधारभूत संरचना के विकास की गति काफी धीमी हो गयी। इससे रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं। बड़ी परियोजनाएं कानूनी अड़चनों के कारण परवान नहीं चढ़ पायी। घोटालों के कारण नीतिगत स्तर पर ठहराव आ गया। रक्षा क्षेत्र की जरुरतों की छोटी-छोटी सामग्री भी विदेशों से आयात किए जाने लगे। इस कारण दूसरे दौर की सुधार प्रक्रियाओं को लागू करने में सरकार विफल रही। सरकार की इस नाकामी के कारण निवेशकों का विश्वास डोल गया जिसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा और आर्थिक विकास दर सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। अंतरिम बजट में आर्थिक विकास दर को बढ़ाने की कोई ठोस घोषणा नहीं की गयी। कुल मिला कर यह यूपीए सरकार का अंतरिम बजट नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी का अंतरिम घोषणापत्र है। सरकार ने इस बजट में लोकलुभावन नीतियों द्वारा ज्यादा-से-ज्यादा जनता को अपने पक्ष में करने का प्रयासभर किया है जिनमें किसान,पूर्व सैनिक,छात्र,अल्पसंख्यक आदि शामिल हैं। यह आरोप इसलिए भी सच लगता है क्योंकि पूर्व सैनिकों के लिए समान रैंक के लिए समान पेंशन की पार्टी युवराज राहुल गांधी द्वारा की गई मांग को अभी 48 घंटे भी पूरे नहीं हुए थे और मांग को तमाम परंपराओं को ताक पर रखते हुए पूरा भी कर दिया गया। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

एक गांव सुशासन ने जिसकी रोशनी छीन ली

17-2-14,भिखनपुरा (कुबतपुर),ब्रजकिशोर सिंह। कैसी बिडंबना है कि एक तरफ तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जोर-शोर से घोषणा करते फिर रहे हैं कि 250 की आबादी तक के गांवों को भी बिजली से जोड़ा जाएगा वहीं वैशाली जिले का एक गांव भिखनपुरा (कुबतपुर) ऐसा भी है जिसकी रोशनी खुद सुशासन ने छीन ली। वर्ष 2006 तक हाजीपुर-महनार मुख्य सड़क पर बिलट चौक के पास स्थित यह गांव दिन ढलते ही बिजली की रोशनी में नहा उठता था। उसी साल दुर्भाग्यवश ट्रांसफार्मर जल गया और तभी से गांव के 700 लोग बिजली का इंतजार कर रहे हैं। बीच में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण परियोजना आई और चली भी गई लेकिन इस अभिशप्त गांव की किस्मत में मानो अंधेरा ही लिखा था। बगल के गांव खोरमपुर में इस परियोजना के अंतर्गत बिजली आ गई लेकिन कुबतपुर को इस परियोजना का लाभ नहीं मिल पाया।

पिछले साल गांव के लोगों में तब उम्मीद जगी जब गांव में बिजली लाने के लिए किसी को ठेका दे दिया गया। पोल गाड़े गए और टूटे हुए तारों को ठीक भी कर दिया गया मगर मामला फिर ट्रांसफार्मर पर आकर अँटक गया। ठेकेदार का मुंशी रंजन कुमार ट्रांसफार्मर लगाने के ऐवज में 20 हजार रुपए की रिश्वत मांग रहा है जिससे बाँकी के सारे काम पूरे हो जाने के बावजूद पिछले 6 महीने से गांव दिन ढलते ही अंधेरे में डूब जाता है। इस संबंध में जब जिले के कार्यपालक अभियंता रामेश्वर सिंह को जानकारी दी गई तो उन्होंने बताया कि वहाँ पर विद्युतीकरण का काम पावर ग्रिड कारपोरेशन ऑफ इंडिया कर रहा है इसलिए वे इस मामले में कुछ नहीं कर सकते। जब पावर ग्रिड कारपोरेशन ऑफ इंडिया के नंबर-0124-2571845 पर फोन किया गया तो कहा गया कि कंपनी के डीएमएस विभाग में 0124-2571929 पर फोन किया जाए कोई झा जी फोन उठाएंगे। हमने इस नंबर पर भी कई बार फोन किया मगर किसी ने फोन नहीं उठाया। हमने हाजीपुर के सांसद रामसुंदर दास और राजापाकर के विधायक श्री दास के पुत्र संजय कुमार के नंबर पर भी कई बार बात करने का प्रयास किया लेकिन हर बार मोबाईल बंद मिला।

इसके बाद हमने बिजली मंत्री,बिहार विजेंद्र प्रसाद यादव को फोन मिलाया तो कहा गया कि मंत्री जी इस समय हाउस में हैं इसलिए हम चाहें तो समस्या को फैक्स कर सकते हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

मोदी,केजरीवाल और अंबानी

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,लोकसभा चुनाव के लिए चल रहा चुनाव प्रचार अब निर्णायक दौर में प्रवेश करने जा रहा है। भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी अभी भी प्रधानमंत्री पद के अपने निकटतम अघोषित उम्मीदवार कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी से काफी आगे चल रहे हैं। तीसरे स्थान के लिए काफी जद्दोजहद है और इस स्थान पर आने के लिए इन दिनों जो व्यक्ति सबसे ज्यादा व्याकुल हो रहा है उसका नाम है रणछोड़ अरविन्द केजरीवाल।
मित्रों,श्री केजरीवाल ने 40000 रुपए मासिक की पेंशन और दिल्ली में ताउम्र एक बंगले पर अपने कब्जे को सुनिश्चित करते हुए मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया है। श्रीमान का झूठा और आधारहीन आरोप है कि भारत के सबसे धनवान व्यक्ति मुकेश अंबानी ने कांग्रेस और भाजपा को एक कर दिया है। यह तो नीरा राडिया प्रकरण में ही साबित हो गया था कि भारत की वर्तमान केंद्र सरकार को वास्तव में मुकेश अंबानी चला रहे हैं। यह तो स्थापित तथ्य है फिर नए सिरे से कांग्रेस पर आरोप लगाकर केजरीवाल क्या साबित करना चाहते हैं और क्या प्राप्त करना चाहते हैं? इससे पहले जब भाजपा की सरकार केंद्र में थी तब तो अंबानी परिवार की नहीं चलती थी और उसको बाँकी उद्योगपतियों से इतर कोई विशेष लाभ नहीं पहुँचाया गया था। फिर इस मामले में भाजपा को घसीटने का केजरीवाल का क्या औचित्य है? क्या यह आरोप भी आप विधायक मदनलाल के माध्यम से लगाए गए आरोपों की तरह मात्र पब्लिसिटी स्टंट नहीं है?
मित्रों,श्री केजरीवाल ने मोदी से अंबानी के बारे में राय मांगी है। क्या उन्होंने ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं किया है क्योंकि अंबानी भी मूल रूप से गुजराती है? मोदी ने तो टाटा,बिरला सहित सारे बड़े उद्योगपतियों के कारखाने गुजरात में स्थापित करवाए हैं और खुद पहल करके करवाए हैं फिर सिर्फ अंबानी पर ही मोदी से क्यों राय मांगी जा रही है? अगर मोदी ने बाँकी उद्योगपतियों की उपेक्षा करके अंबानी को कोई लाभ पहुँचाया है और इस तरह का कोई सबूत झूठ शिरोमणि श्री श्री केजरीवाल के पास है तो हम मीडिया के लोग उसका स्वागत करेंगे उसे अविलंब मीडिया के सामने प्रस्तुत किया जाए। वरना केजरीवाल जी बेबुनियाद बातें करना बंद करें क्योंकि उनकी कलई दिल्ली के 49 दिन के उनके कुशासन ने खोलकर रख दी है। श्री केजरीवाल न तो देश को सुशासन दे सकते हैं,न ही भ्रष्टाचार ही दूर कर सकते हैं वे तो बस अराजकता पैदा कर सकते हैं और जनता को दिन-रात झूठ बोलकर गुमराह कर सकते हैं,धोखा दे सकते हैं। देश-विदेश की भारतविरोधी ताकतों से अरबों-खरबों का बेहिसाब चंदा इकट्ठा कर सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि केजरीवाल ने पिछले 49 दिनों में यह साबित कर दिया है कि वे सिर्फ हंगामा कर सकते हैं सूरत को बदलना उनके बूते का रोग है ही नहीं। हम उन चंद भाग्यशाली व्यक्तियों में से हैं जिसने केजरीवाल की असलियत को तभी समझ लिया था जब वे दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार कर रहे थे।
मित्रों,इन दिनों कांग्रेस पार्टी जोर-शोर से प्रचार कर रही है कि मोदी के चाचा ने कैंटिन का ठेका ले रखा था। मैं उन कांग्रेस के झूठे,लफ्फाज अहमकों से पूछना चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री तो श्री वरूण गांधी के चाचा भी थे फिर युवराज का दर्जा सिर्फ राहुल जी को ही क्यों प्राप्त है? क्यों कांग्रेस ने राजीव के छोटे भाई संजय को भुला दिया है? क्यों आज भी उनकी विधवा श्रीमती मेनका गांधी को गांधी परिवार में सदस्य का दर्जा प्राप्त नहीं है? जब वरूण के लिए पिता और चाचा में इतना बड़ा अंतर है तो फिर मोदी के लिए चाचा और पिता एकसमान कैसे हो गए? हो सकता है कि मोदी के चाचा धनवान हों मगर पिता गरीब हों जैसे कि राहुल कांग्रेस के युवराज है और वरूण कुछ भी नहीं हैं।
मित्रों,कांग्रेस ने किसी चायवाले के संगठन से यह प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिया है। मैंने तो बिहार में कहीं भी चायवालों का संगठन नहीं देखा फिर गुजरात में उनका कौन-सा संगठन इस चुनावी मौसम में पैदा हो गया और अगर ऐसा कोई संगठन है भी तो क्या वह 40-45 साल पुराना है और क्या श्री मोदी के पिता दामोदर मोदी उसके सदस्य थे? वास्तव में कांग्रेस के ये अहमक नेता मोदी पर चाय संबंधी बयान देकर फँस गए हैं और इसलिए इन्होंने चायवालों का झूठा संगठन खड़ा करके और उसको प्रलोभन देकर ऐसा बयान दिलवाया है। अभी तो कांग्रेस पार्टी ने यह साबित करने की कोशिश ही की है कि मोदी की चाय की दुकान नहीं थी हमें तो उस दिन का भी इंतजार है जब वह यह कहेगी कि चाय पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और ऐसा वो चायपत्ती के पैकेटों पर भी छपवाएगी।
मित्रों,यह कोई संयोग नहीं है कि कांग्रेस ने मोदी के बारे झूठ की यह खेती तब नए सिरे से शुरू की है जबकि केजरीवाल सरकार ने खुदकुशी कर ली है और लोकसभा के चुनाव में हाथ आजमाने के लिए ताल ठोंकना शुरू कर दिया है। जाहिर है कि पहले भी कांग्रेस और केजरीवाल में मिलीभगत थी और आज भी है। अंत में एक शेर कलियुगी रणछोड़,हर बार अपनी जिम्मेदारियों को छोड़कर पलायन कर जानेवाले केजरीवाल सर के नाम-
झूठ और मक्कारी है यह इसे ईबादत का नाम न दो,
तुमने खुदकुशी की है इसे शहादत का नाम न दो।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

गुजरात गरीबी रेखा मामले में गलती किसकी?

ब्रजकिशोर सिंह,हाजीपुर। पिछले कई दिनों से मीडिया में गुजरात सरकार के खाद्य आपूर्ति विभाग द्वारा गरीबी रेखा के बारे में दिए गए निर्देश काफी चर्चा में हैं। इस बात को मद्देनजर रखते हुए गुजरात सरकार द्वारा इस संबंध में जो स्पष्टीकरण दिया गया है उसके अनुसार गरीबी रेखा का निर्धारण वह नहीं करती बल्कि भारत सरकार का योजना आयोग करता है। योजना आयोग ने वर्ष 2004 में इस संबंध में गुजरात सरकार को पत्र लिखा था और उसके बाद उसने कोई पत्र नहीं लिखा। गुजरात सरकार ने गरीबी रेखा के संबंधित जो भी दिशा-निर्देश 2004 के बाद से जारी किए हैं वे सभी उसी पत्र के आधार पर जारी किए गए हैं।
भारत सरकार के योजना आयोग ने गुजरात के बारे में वर्ष 2004 में इन मानदंडों के आधार पर अनुमान लगाया था कि उस समय गुजरात में 21 लाख परिवार गरीब थे। हालांकि गुजरात सरकार ने 11 लाख अतिरिक्त परिवारों को भी गरीबी रेखा के नीचे माना है। इन 11 लाख परिवारों में वे परिवार भी शामिल हैं जो गुजरात में अन्य राज्यों से आए हैं। इस तरह गुजरात में 32 लाख परिवारों को सब्सिडी वाले अनाज दिए जा रहे हैं। माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी गुजरात की जन वितरण प्रणाली की छत्तीसगढ़ के साथ ही प्रशंसा भी की है। सरकार ने यह स्पष्ट भी किया है कि 324 और 501 रुपये प्रति माह आयवाला यह मापदंड सिर्फ उन्हीं परिवारों के लिए है जिनका नाम अच्छी सम्पत्ति के कारण इस सूची में नहीं है। गुजरात सरकार ने भारत सरकार से बीपीएल संबंधी मापदंडों को बदलने की और राज्य सरकार को इससे संबंधित पत्र लिखने की गुजारिश भी की है जिससे वर्ष 2004 वाला पुराना मापदंड स्वतः निरस्त हो जाए। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

क्या केजरीवाल सचमुच जनलोकपाल को दिल्ली में लागू करना चाहते हैं?

ब्रजकिशोर सिंह,हाजीपुर। दिल्ली जन लोकपाल बिल 2014 को दिल्ली कैबिनेट द्वारा पास कर दिया गया है। परन्तु कैबिनेट इस बिल को सीधे दिल्ली विधानसभा में पेश करेगी, इसे केंद्र सरकार के सामने पेश नहीं किया जाएगा। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला हुआ है ऐसे में केंद्र सरकार को बाईपास करके कोई बिल दिल्ली विधानसभा में सीधा पेश करना सीधे संविधान के ही खिलाफ है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या केजरीवाल दिल्ली में सचमुच इस कानून को लागू करना चाहते हैं? या फिर वे कानून पारित तो करना चाहते हैं लेकिन लागू करना नहीं चाहते यानि सांप भी मर जाए और लाठी चलानी भी नहीं पड़े।
हो सकता है कि केजरीवाल इसको असंवैधानिक तरीके से लागू करवाने पर भविष्य में अड़ जाएं और फिर से धरने पर बैठ जाएं कि हम तो इस संविधान को नहीं मानते बल्कि हम जैसे चाहते हैं वैसे ही पारित होने को संवैधानिक मान लिया जाए। अगर यह कानून दिल्ली विधानसभा से पारित हो भी गया तो वह असंवैधानिक हो जाएगा बस किसी के कोर्ट जाने भर की देरी है फिर केजरीवाल इस विधेयक को विधानसभा में पेश करने से पहले राष्ट्रपति के पास उसी तरह क्यों नहीं भेजना चाहते जैसे कि उन्होंने शीला दीक्षित पर मुकदमा चलाने के मामले में प्रस्ताव भेजा है। इतना ही नहीं इस विधेयक में दिल्ली पुलिस और दिल्ली विकास प्राधिकरण को भी लपेट लिया गया है जो दिल्ली सरकार के दायरे में आते ही नहीं हैं। क्या ऐसा करके केजरीवाल यह नहीं चाहते कि वे कानून बनाने का श्रेय भी ले लें और कानून  लागू भी न होने पाए? (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)