शनिवार, 2 अगस्त 2014

आरटीआई के दायरे में आने से भय क्यों है भाजपा को?

02 अगस्त,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,चुनावों से पहले ही कई ऐसे भारतीय थे जिनका मानना था कि भाजपा और कांग्रेस दोनों आपस में मौसेरे भाई हैं। लड़ाई-झगड़े तो अब पति-पत्नी और अपने सहोदर भाइयों में होने लगे हैं फिर भाजपा और कांग्रेस चुनावों के दौरान लड़ पड़े तो आश्चर्य कैसा? खैर,चाहे दोनों पार्टियों के बीच कोई रक्त-संबंध हो या नहीं हो लेकिन एक गुण तो जरूर ऐसा है जो दोनों में ही समान है और वह गुण यह है कि दोनों ही पार्टियाँ खुद को आरटीआई के दायरे में नहीं लाना चाहतीं?
मित्रों,इससे पहले भी मैं 10 अक्तूबर 2012 को अपने ब्लॉग ब्रज की दुनिया पर भारतीय लोकतंत्र की इस समस्या और विडंबना के बारे में अपने आलेख राजनीतिक पार्टी संबंधी कानूनों में हो सुधार में विस्तार से चर्चा कर चुका हूँ। दुर्भाग्यवश उस समय भी भाजपा राजनैतिक दलों के आरटीआई के दायरे में लाने के पक्ष में नहीं थी और अब जब वो सत्ता में आ चुकी है तब भी इसके विरोध में है। अब आप यह कह सकते हैं कि अगर ऐसा था तो आपने लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी का समर्थन क्यों किया?
मित्रों,देश के करोड़ों देशवासियों की तरह मेरे सामने भी कोई विकल्प नहीं था। हमने सोंचा कि जहाँ कांग्रेस के सारे कदम देशविरोधी हैं वहाँ भाजपा के 50% कदम तो देशहित में होंगे? हमें उम्मीद थी कि पारदर्शिता के परम व चरम समर्थक नरेंद्र मोदी जी के हाथों में जब भाजपा की बागडोर होगी तो वे जरूर पारदर्शिता का शुभारंभ अपनी पार्टी,अपने घर से करेंगे और अपनी पार्टी के साथ-साथ सारे राजनैतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाकर करेंगे।
मित्रों,मगर ऐसा हो नहीं रहा है और निकट भविष्य होने भी नहीं जा रहा है क्योंकि भारत सरकार ने संसद में कहा है कि ऐसा कर पाना संभव नहीं है क्योंकि इससे कई तरह की समस्याएँ खड़ी होंगी। कौन-सी समस्याएँ खड़ी होंगी? क्या वे समस्याएँ उन समस्याओं से ज्यादा गंभीर और घातक होंगी जो ऐसा नहीं किए जाने से देश के समक्ष खड़ी हो चुकी हैं? क्या राजनैतिक दलों द्वारा आय का स्रोत नहीं बताने से देश का भला होगा या हो रहा है? जब कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर पूरे तंत्र को जो किसी-न-किसी प्रकार से किसी-न-किसी राजनैतिक दल के द्वारा संचालित है सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जा चुका है तो फिर राजनैतिक दल क्यों इससे बाहर रहें? आज हमारा लोकतंत्र जिस तरह से धनिकतंत्र में बदल गया है जहाँ कोई गरीब चुनाव में खड़े होने की सोंच भी नहीं सकता तो क्या इसके लिए राजनैतिक दलों को हो रही बेतहाशा आमदनी जिम्मेदार नहीं है? आखिर हमारे राजनैतिक दलों में भीतरखाने ऐसा क्या हो रहा है जिसको कि वे जनता से छिपाना चाहते हैं? क्या अमीरों के चंदों पर चलनेवाली पार्टी की सरकार कभी गरीबों की सरकार हो सकती है? अगर भाजपा बिरला-टाटा-अंबानी-अडाणी से अरबों-करोड़ों चंदा नहीं लेती है तो फिर वह खुद को सीधे-सीधे आरटीआई के दायरे में लाना क्यों नहीं चाहती? अगर सबकुछ ठीकठाक है तो छिपाने की आवश्यकता ही क्या है और अगर ठीकठाक नहीं है तो जनता के लिए उसको जानना और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि जनता अब और ज्यादा दिनों तक लोकतंत्र के साथ मजाक या खिलवाड़ को बर्दाश्त नहीं करने जा रही है। सिर्फ नारे लगा देनेभर से न तो कोई पार्टी पार्टी विथ डिफरेंस हो जाती है और न तो कोई सरकार ही। बाँकी इतिहास का हिस्सा हो चुकी सरकारों से अलग इसके लिए अलग तरह के कदम उठाने पड़ते हैं और मैं समझता हूँ कि पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने के प्रयास तक नहीं करके भाजपा ने वही सुनहरा अवसर खो दिया है। माना कि बिल संसद के किसी सदन में गिर जाता और सरकार की हार होती लेकिन उस हार में ही जीत के अंकुर छिपे होते मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस की तरह।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं: