बुधवार, 31 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास का प्रस्थान विन्दु था 2014

31 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कुछ वक्त ऐसे होते हैं जो बिना कोई हलचल मचाए ही इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं जबकि कुछ लम्हे ऐसे भी होते हैं जो इतिहास को ही बदल देते हैं। साल 2014 भी ऐसा ही साल था जिसमें न केवल भारत के इतिहास को बल्कि पूरी दुनिया के वर्तमान और भविष्य को बदलकर रख देने की क्षमता थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले पूरे भारत में निराशा-ही-निराशा का माहौल था और ऐसा लग रहा था जैसे भारत एशिया का नया मरीज बनने जा रहा है। केंद्र सरकार में रोज-रोज नए-नए घोटाले सामने आ रहे थे जो नित नए-नए रिकॉर्ड बना रहे थे। छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों ने हुआँ-हुआँ करके ऐसा माहौल बना दिया था जैसे कि हिन्दू धर्म में जन्म लेना ही अपराध हो। रजिया और डायना के लिए तो सरकार के पास एक-से-एक योजना थी लेकिन कहीं ज्यादा अभावों में जी रही राधा के लिए कुछ भी नहीं था।
मित्रों,फिर आया लोकसभा चुनाव,2014। लगभग पूरे भारत के हिन्दू एकजुट हो गए और पहली बार भारत में किसी हिन्दुवादी दल को लोकसभा में अपने बल पर बहुमत प्राप्त हुआ। भारत में रक्तहीन क्रांति हो गई जो बारास्ता ईवीएम संपन्न हुई। आज हम विलियम वर्ड्सवर्थ की तरह जिसने कभी फ्रांस की क्रांति के बारे में कहा था कि उस काल में जीवित होना ही बहुत बड़ी बात थी और युवा होना तो स्वर्गिक अनुभव था, की तरह कह सकते हैं कि उस चुनाव के समय भारत में होना ही बहुत बड़ी बात थी और मतदान करना तो स्वर्गिक अनुभव था। वर्ष 2014 की यह इकलौती यादगार घटना हो ऐसा भी नहीं है। भारत की जनता ने इस चुनाव के बाद भी विभिन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा को शानदार जीत देकर राज्यसभा में पार्टी के बहुमत की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया है।
मित्रों,यद्यपि अभी केंद्र सरकार को सत्ता में आए ज्यादा दिन नहीं हुए हैं लेकिन इस अल्पकाल में भी आज पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है। एक बार फिर से स्वदेशी का जोर बढ़ने लगा है,भारत को दुनिया की फैक्ट्री बना डालने की दिशा में जोर-शोर से कोशिश हो रही है,सरकार में कहीं कोई घोटाला नहीं है,कानून का बोझ कम किया जा रहा है,देश के गणमान्य लोगों ने झाड़ू उठा लिए हैं,भारत दुनिया के सारे देशों के साथ आँखों में आँखें डालकर बात कर रहा है,पूंजी निवेश को आसान बनाया जा रहा है,नए उद्यमों की स्थापना को आसान बनाने के प्रयास काफी तेजी से और शिद्दत से किए जा रहे हैं,युवाओं को भिक्षा के स्थान पर शिक्षा और रोजगार देने के इंतजामों में सरकार लग गई है।
मित्रों,किसी भी एक साल में भारत की दशा और दिशा में इतना बदलाव नहीं आया जितना कि वर्ष 2014 में। इस मामले में यह साल निश्चित रूप से सन् 1947 और 1974 से भी ज्यादा क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी रहा। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि इस क्रांति को अंजाम तक पहुँचाया स्वयं भारत की सवा सौ करोड़ जनता ने। अगर जनता जागरुक नहीं हुई होती तो एक तो क्या एक हजार नरेंद्र मोदी भी व्यवस्था तो क्या सत्ता तक को भी नहीं बदल पाते और आज भी देश में देशविरोधी,हिन्दूविरोधी तत्त्वों का शासन होता।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 28 दिसंबर 2014

मुंशी प्रेमचंद,डॉ. धर्मवीर और नीतीश कुमार

28 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आप जानते हैं कि हिंदी साहित्य में एक धारा चलती है दलित साहित्य। इस धारा के कई लोगों का मानना है कि दलितों के दर्द को बयान करने का अनन्य अधिकार सिर्फ दलितों को ही है। इनमें से एक डॉ. धर्मवीर ने तो दलितों के दर्द को सबसे ज्यादा जुबान देनेवाले व हिन्दी के महानतम कथाकार मुंशी प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी तक कह दिया। कदाचित इस धारा के समर्थकों के अनुसार दलितों पर दलित अत्याचार करे,दबंग दलित दलित अबला के साथ बलात्कार करे फिर भी दलितों के बारे में लिखेगा सिर्फ वही। वह व्यक्ति जो दलितों के साथ सहानुभूति रखता है,उनके सामाजिक,आर्थिक व शैक्षिक उत्थान के लिए अपने श्रम,धन व समय का व्यय करता है अगर वह दलित नहीं है तो फिर उसको दलितों के दर्द को बाँटने का अधिकार ही नहीं है। शायद वे यह भी मानते हैं कि कोई दलित अगर सड़क-दुर्घटना का शिकार हो जाए तो किसी गैरदलित को उसकी मदद नहीं करनी चाहिए भले ही उसके ऐसा करने से दुर्घटना-पीड़ित की मौत ही क्यों न हो जाए। वह व्यक्ति अगर ऐसा कुछ करता है तो शायद सीधे तौर पर वो अनाधिकार चेष्टा कर रहा है और ऐसा करने से उसको बलपूर्वक रोका जाना चाहिए।
मित्रों,कुछ इसी तरह की धारा राजनीति में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बहाना चाहते हैं और बहा भी रहे हैं। श्री कुमार भारतीय जनता पार्टी से इस बात को लेकर काफी नाराज हैं कि भाजपा ने आदिवासीबहुल झारखंड में किसी गैर आदिवासी को कैसे मुख्यमंत्री बना दिया। नीतीश जी की निगाह में भाजपा ने ऐसा करके एक गलत परंपरा की शुरुआत की है। शायद इसलिए उन्होंने महाअयोग्य जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर महान परंपरा की रक्षा की क्योंकि उनको लगता है कि श्री मांझी के सीएम बनते ही तत्क्षण सारे महादलितों के दिन बहुर गए। शायद नीतीश आँखवाले अंधे हैं। वे यह नहीं देख पाए कि पिछले 14 सालों में राज्य के शासन की बागडोर संभालनेवाले आदिवासी मुख्यमंत्रियों ने राज्य की और राज्य के आदिवासियों की क्या हालत कर दी है। जनता (मुसहर) शासक (मांझी) की जाति लेकर क्या उसका अँचार डालेगी? जनता को तो सुशासन से मतलब है फिर चाहे वो रघुवर दास लाएँ या नीतीश कुमार या कोई भी और। क्या कोई सड़क-दुर्घटना पीड़ित सहायता प्राप्त करने से पहले मदद करनेवाले की जाति या धर्म पूछता है या उसको सिर्फ मदद पाने से मतलब रहता है? पिछले 14 सालों में जिन आदिवासी नेताओं ने झारखंड को लूट लिया उनको क्या उनके ऐसे कृत्य के लिए नीतीश कुमार सम्मानित करना पसंद करेंगे? क्या नीतीश कुमार सहित सारे समाजवादियों के लिए जाति ही सबकुछ होती है या धर्म ही सर्वस्व होता है? लोगों के कर्मों और चरित्र की कोई कीमत नहीं? क्या नीतीश कुमार जी किसी मूर्ख स्वजातीय या दलित चिकित्सक से ऑपरेशन या ईलाज करवाना पसंद करेंगे बजाए किसी सवर्ण योग्य डॉक्टर से? क्या पिछड़ी जाति होने के चलते लालू जी के तमाम काले कारनामे अचानक उजले हो गए? छि,घिन्न आती है मुझे ऐसे नेताओं से और इस बात को लेकर शर्म आती है कि ऐसे नेता ने हमारे राज्य बिहार में जन्म लिया!!!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

भटके हुए समाजवाद के प्रतीक थे मुंशीलाल राय

28 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कल वैशाली जिले के महान समाजवादी नेता मुंशीलाल राय का निधन हो गया। आज बहुत से लोग उनको याद कर रहे हैं। मैं ठहरा एक छोटा और आम आदमी सो मैं उनको इसी रूप में याद करूंगा। मुंशीलाल जी का नाम मैंने पहली बार 80 के दशक में सुना मेरे ननिहाल जगन्नाथपुर जो कि बासुदेवपुर चंदेल और महनार रोड रेलवे स्टेशन के पास है में। तब अक्सर उनके बारे में लोग बातें करते। उनकी शिकायत रहती कि बगल के गोरीगामा गांव में तो मुंशीलाल जी जो तब महनार के विधायक थे गली-गली में सड़कें बनवा रहे हैं लेकिन जगन्नाथपुर जो कि राजपूतों का गांव था में वोट मांगने भी नहीं आते।
मित्रों,इसके बाद आया 1985 का चुनाव। चूँकि कांग्रेस प्रत्याशी प्रो. मिथिलेश्वर प्रसाद सिंह मेरे पिताजी के स्नेहिल थे इसलिए अक्सर हमारे दरवाजे पर जमे रहते। मगर जब मतदान शुरू हुआ तो मेरे मामा शोकहरण प्रसाद सिंह के दबाव में गांववालों ने मुनीश्वर प्रसाद सिंह को वोट दे दिया जो वोटकटवा की भूमिका में थे। परिणाम यह हुआ कि मुंशीलाल जी 2-ढाई हजार मतों से जीतकर फिर से विधायक बन गए। मगर इस बार भी उनका रवैय्या वही था कि वे सिर्फ अवर्णों के पास मत मांगने गए और सवर्णों से दूरी बनाए रखी।
मित्रों,फिर 1990 के चुनाव में उनको महनार से टिकट ही नहीं मिला। पार्टी की अंदरूनी राजनीति के चलते हाजीपुर से मिला था मगर वे चौथे स्थान पर रहे। कहा जाता है कि लालू जी मुंशीलाल जी से डरते थे कि कहीं मुंशीलाल जी चुनावों के बाद मुख्यमंत्री न बन जाएँ। 1990 के बाद बिहार में जातीय युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए जिससे महनार भी अछूता नहीं रहा। महनार बाजार में 1992 में मुक्तियारपुर के मुखिया प्रह्लाद सिंह की हत्या हो गई जिसमें महनार के बनियों का भी नाम आया। तब बनिए आरक्षण के नाम पर पिछड़ी जातियों के साथ एकजुट थे। मगर जल्दी ही हालत बदल गई। यादव जाति के दो अपराधियों देशराजपुर के नागेश्वर राय और चकेसो के राजगीर राय ने महनार में अपहरण को उद्योग का रूप दे दिया और धीरे-धीरे स्थिति इतनी खराब हो गई कि दिन ढलते-ढलते बाजार बंद हो जाता। जब भी महनार से हाजीपुर आने-जानेवाली बसों को चकौसन,चेचर या खिलवत में रोका जाता तो लोग समझ जाते कि महनार के किसी तेली-कलवार या बढ़ई का अपहरण हो गया। रात में राजगीर राय घोड़े पर सवार होकर महनार बाजार में निकलता तो महनार के तेली-कलवार और सुनार कथित रूप से रास्तों पर थालियों में रुपये और सोना-चांदी लेकर खड़े रहते। अब तक मुंशीलाल जी समाजवाद भूलकर अन्य यादव नेताओें की तरह जातिवादी हो चुके थे और महनार के लोगों का मानना था कि अपहर्ताओं को मुंशीलाल का वरदहस्त प्राप्त था।
मित्रों,इसी माहौल में 1995 का विधानसभा चुनाव हुआ। इस बार मुंशीलाल जी महनार से जनता दल के उम्मीदवार थे। बक्से से जिन्न निकला और वे जीत गए। जीतने के बाद उन्होंने अपने संरक्षक शरद यादव जी के यहां लॉबिंग की कि उनको नई सरकार में मंत्री बनाया जाना चाहिए। शरद यादव जी जब मुंशीलाल जी को साथ में लेकर लालू जी के यहाँ पहुँचे तो उनके साथ महनार के उनके कई समर्थक भी थे जिनमें से किसी ने हमें बताया था कि लालू जी ने शरद जी से तब कहा था कि हमने 13 को 39 कर दिया अब मंत्री भी बना दें? यानि 13 हजार मत को 39 हजार कर दिया अब मंत्री कैसे बना दें? लेकिन बाद में जब जनता दल का विभाजन हुआ तो मजबूरन लालू जी को मुंशीलाल जी को मंत्री बनाना ही पड़ा। अभी भी महनार में नागेश्वर राय और राजगीर राय का आतंकराज जारी था।
मित्रों,मुंशीलाल जी को इस बार कुछ नए चेले मिल गए थे। उनमें से सबसे बड़ा नाम था महनार के इशहाकपुर के बंधुद्वय बच्चू राय और शंभू राय का। दोनों भाई ठेकेदार थे और छँटे हुए बदमाश भी। मुंशीलाल जी के कथित इशारे पर उनके चेलों ने पहले लावापुर के चंद्रशेखर राय की और बाद में महनार बाजार के ही रामपुकार सिंह की हत्या कर दी। उस कालखंड का एक वाकया मुझे आज भी याद है। एक बार डीएम साहब महनार में नाली-निर्माण का निरीक्षण कर रहे थे। महनार के महान समाजवादी और कर्पूरी ठाकुर के मित्र रहे सत्यनारायण दिवाकर जी भी साथ में थे। दिवाकर जी ने कहा कि अगर मैं जोर से पेशाब कर दूँ तो यह नाली बह जाएगी। डीएम साहब ने ठेका रद्द कर दिया। बाद में बच्चू और शंभू राय ने सत्यनारायण दिवाकर जी को उनकी उम्र का ख्याल किए बिना न सिर्फ अपमानित किया बल्कि जमकर पीटा भी। मुझे आज भी चलचित्र की तरह याद है कि रामपुकार सिंह की प्रतिमा का अनावरण हो रहा था और अनावरण करने के लिए बिहार सरकार में पीएचडी मंत्री मुंशीलाल राय जी मंच पर मौजूद थे। तभी सत्यनारायण दिवाकर जी ने माईक संभाली और कहा कि मंत्रीजी बड़े ही दयालु हैं। पहले तो हत्या करवाते हैं,फिर अपने फंड से मूर्ति बनवाते हैं और अपने हाथों से अनावरण भी करते हैं। फिर तो मुंशीलाल जी को जनता के इतने तीखे विरोध का सामना करना पड़ा कि उन्होंने निकल भागने में ही अपनी भलाई समझी। यह बात अलग है कि इसके बाद दिवाकर जी कई दिनों तक घर से बाहर ही नहीं निकले।
मित्रों,इसी बीच पहले नागेश्वर राय और फिर बाद में राजगीर राय की हत्या हो गई। मौके की नजाकत को समझते हुए अब मुंशीलाल जी सवर्णों के गांवों में भी आने-जाने लगे। जगन्नाथपुर में भी उन्होंने स्टेट बोरिंग की स्थापना करवाई। यह बात अलग है कि आज तक बोरिंग ने पानी देना शुरू नहीं किया है। फिर आया साल 2000 का चुनाव और इस बार मुंशीलाल जी रामा सिंह से 40000 मतों के भारी अंतर से पराजित हो गए। इसी के साथ उनके राजनैतिक जीवन का लगभग अंत हो गया और इसके बाद वे लगातार चुनावों में हारते रहे।
मित्रों,मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ कि मैं एक आम आदमी था और आज भी हूँ इसलिए मैं उसी रूप में मुंशीलाल जी याद करूंगा। खास रहता तो उनके बारे में खास बातें बताता। दरअसल मेरी नजर में मुंशीलाल जी समाजवादी कम जातिवादी ज्यादा थे। लालू युग से पहले भी वे सवर्णों से दूरी रखते थे। शायद उनकी दृष्टि में ऐसा करना ही समाजवाद था। बाद में उन्होंने अपराधियों को जमकर संरक्षण दिया। कथित रूप से दो-चार हत्याएँ भी करवाईं शायद यह भी उनका समाजवाद ही था। अगर हम दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि आज लालू-मुलायम-नीतीश-शरद आदि का समाजवाद भी तो वही समाजवाद है जो मुंशीलाल जी का समाजवाद था। वैसे आप क्या समझते हैं कि मुंशीलाल जी का भटकाव समाजवादियों का भटकाव था या स्वयं समाजवाद का?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

भाजपा की कम मोदी की जीत अधिक

25 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आपलोग इस शीर्षक को देखकर जरूर चौंक सकते हैं लेकिन हकीकत तो जो है सो है। जम्मू-कश्मीर और झारखंड दोनों ही राज्यों के चुनाव-परिणाम स्पष्ट तौर पर यही दर्शाते हैं कि भारत की जनता का अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में विश्वास बना हुआ है लेकिन साथ-ही चुनावों के नतीजों से यह भी पता चलता है कि पार्टी के तौर पर जनता के लिए भारतीय जनता पार्टी बेतहर विकल्प तो है लेकिन एकमात्र विकल्प नहीं।
मित्रों,अगर हम प्रचुरता में निर्धनता के दुनिया में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण झारखंड को देखें तो वहाँ की जनता ने न सिर्फ सारे पूर्व मुख्यमंत्रियों को नकार दिया बल्कि पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो को भी विधानसभा का मुँह नहीं देखने दिया। जाहिर है कि जनता राज्य को लूटने के लिए जिम्मेदार चेहरों को दंडित करना चाहती थी। जनता ने भाजपा को बहुमत तो दे दिया लेकिन संभावित मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को हरा दिया। विदित हो कि झारखंड के निर्माण के बाद के 14 वर्षों में भाजपा 9 सालों तक सत्ता में रही है और राज्य में सबसे ज्यादा समय तक अर्जुन मुंडा ही मुख्यमंत्री रहे हैं। जाहिर है कि जनता चाहती थी कि भाजपा की ओर से इस बार ऩया व ताजा चेहरा राज्य का मुख्यमंत्री बने। झारखंड के चुनाव-परिणामों से यह भी पता चलता है कि राज्य की एक तिहाई आबादी आदिवासियों का विश्वास अभी भी झारखंड मुक्ति मोर्चा में बना हुआ है। इसके साथ ही झारखंड की जनता ने कांग्रेस,लालू और नीतीश के महागठबंधन को सिरे से नकार दिया है। लालू और नीतीश की पार्टियों का तो राज्य में पहली बार खाता भी नहीं खुला।
 मित्रों,इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर के चुनाव-परिणाम भी यही दर्शाते हैं कि जनता का मोदी में विश्वास अभी भी बना हुआ है। कश्मीर में भाजपा ने 44+ का जो लक्ष्य रखा था वह कहीं से भी यथार्थवादी था ही नहीं। मुसलमानों ने इस बार भी  भाजपा को वोट नहीं दिया है जबकि जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों का ही बहुमत है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में भाजपा को 25 सीटें ही मिल सकती थीं 44 तो कभी भी नहीं।  भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर में सबसे बड़ा झटका लद्दाख में कोई सीट नहीं मिलना है जबकि प्रधानमंत्री ने पीएम बनने के बाद भी कई-कई बार इस क्षेत्र का दौरा किया है।
मित्रों,चाहे चुनावों में कोई जीता हो,कोई हारा हो सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन दोनों ही राज्यों में जनता ने अलगाववाद और प्रतिक्रियावाद को नकार दिया और भारी मतदान करके लोकतंत्र में अपनी आस्था पर मुहर तो लगा ही दी है। इसके साथ ही दोनों राज्यों की जनता ने चुनाव-परिणामों के माध्यम से नेताओं को यह चेतावनी भी दी है कि जनता अब लूट और कुशासन के प्रतीकों को बनाए रखने में नहीं बल्कि ढहा देने में यकीन रखती है। चूँकि भाजपा के पास जनता को सुशासन की उम्मीद बंधाने के लिए नरेंद्र मोदी नामक चेहरा मौजूद था इसलिए सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ वैसे फायदे में तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और झारखंड में झामुमो भी रहा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

कुछ ऐसी ही कसमें अनिल कुमार की शहादत पर भी खाई गई थीं

24 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आपको याद होगा कि वर्ष 2014 के पहले ही दिन वैशाली जिले के जुड़ावनपुर थाने के प्रभारी अनिल कुमार की अपराधियों ने थाने में घुसकर कर दी थी। इतना ही नहीं उन्होंने एक स्थानीय ग्रामीण की भी हत्या कर दी थी और पैदल ही आराम से भाग निकले थे। तब अनिल कुमार के शव के सामने वैशाली के पुलिस अधीक्षक सुरेश प्रसाद चौधरी ने हत्यारों को सजा दिलाने की कसमें खाई थीं। मगर हुआ इसका उल्टा। न जाने किस दबाव में और किसके दबाव में वैशाली पुलिस ने सिर्फ एक ही अभियुक्त को गिरफ्तार किया और उसको भी बाद में हाईकोर्ट से जमानत ले लेने दिया। इस प्रकार शहीद अनिल कुमार को मरने के बाद भी खुद उनके सहयोगी ही न्याय नहीं दिला सके या जानबूझकर इसके लिए प्रयास ही नहीं किया। न तो कोई गवाह ही जुटाया गया और न ही हत्या में इस्तेमाल हथियार को ही बरामद किया गया। इतना ही नहीं वैशाली पुलिस एक साल में अपने ही जवानों से लूटे गए हथियारों को ही बरामद कर पाई। जाहिर है कि पुलिस के ऐसे रवैये से पुलिस के जवानों का नहीं बल्कि अपराधियों का मनोबल बढ़ा।

मित्रों,कुछ ऐसे ही वादे कल सूबे के अपर पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे ने बिहार की जनता और शहीद के परिजनों से किए। मेरी मानिए तो इस बार भी बिहार पुलिस अपने के शहीद सहकर्मी को मरणोपरांत न्याय नहीं दिला सकेगी। फिर से वही पैरवी का खेल चलेगा और अपराधी पकड़े जाने के बाद भी बाईज्जत बरी हो जाएंगे। जिस तरह से वर्ष 2014 में जुड़ावनपुर थाने के थानेदार की हत्या के मुख्य नामजद अभियुक्त श्रीकांत राय का बैंड बाजे के साथ जमानत पर रिहा होने के बाद गांव में स्वागत किया गया फिर से संजय कुमार तिवारी के हत्यारों का भी नए साल में भी स्वागत किया जाएगा।

मित्रों,सवाल उठता है कि जो बिहार पुलिस अपने ही सहकर्मियों के हत्यारों को सजा नहीं दिलवा पा रही है उस पर कैसे यकीन किया जाए कि वो बिहार के आम गरीब-दबे-कुचले नागरिकों को इंसाफ दिलवाएगी? मैं कई बार अपने पूर्व के आलेखों पुलिस वाला लुटेरा अथवा वर्दी वाला गुंडा,दरिंदा बनता सिस्टम,क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?,दुश्शासनों के भरोसे सुशासन में निवेदन कर चुका हूँ कि या तो पुलिस के रवैये को बदलिए नहीं तो इस संगठन को समाप्त ही कर दीजिए क्योंकि यह अपराधियों की रक्षक और शरीफ लोगों की भक्षक बन गई है। ऐ भाई,ऐ भाई,नरेंद्र मोदी जी ! सुन रहे हो क्या? बिहार सरकार तो बहरी है भाई!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

इस्लाम,आतंकवाद और पाकिस्तान

19 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,पिछले दिनों पेशावर के मिलिट्री स्कूल में जो कुछ भी हुआ उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। बच्चे,महिलायें या कोई भी निर्दोष इंसान चाहे भारत के हों या पाकिस्तान या कहीं के भी उनकी हत्या करना सीधे इंसानियत की हत्या करना है और कोई भी मजहब इंसानियत से ऊपर नहीं हो सकता। लेकिन जब कोई मजहब ही हिंसा की नींव पर खड़ी हो और अपनी स्थापना के समय से ही हिंसा का मजहब हो तो फिर ऐसी हिंसा को कोई रोकेगा कैसे? मैं यहाँ इस्लाम को हिंसा का मजहब इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसको माननेवाले ही आज पाकिस्तान से लेकर नाइजीरिया तक खून बहा रहे हैं। दुर्भाग्यवश इस्लाम एक ऐसा मजहब है जिसके मुख्य धर्मग्रंथ कुरान में एक जगह नहीं बल्कि 50 जगह हिंसा का समर्थन किया गया है। जबकि यह तथाकथित ईश्वरीय पुस्तक खुलेआम अपने अनुयायियों से कहता है कि जब वर्जित समय बीत जाए, तब लड़ो और काफिर जहाँ मिले उन्हें मारो, बंदी बना लो, घेर लो, और हर लड़ाई में उनकी ताक में रहो! अभी-अभी कुछ ही समय पहले आईएसआईएस ने इसी कुरान के हवाले से यजीदी और कुर्द महिलाओं के साथ सामूहिक पाशविक बलात्कार और उनके क्रय-विक्रय को उचित ठहराया है।
मित्रों,सवाल उठता है कि जब सुन्नी मुसलमान हजारा,इसाई,अहमदियों,यजीदी,कुर्द,हिंदू,सिख बच्चों को बेरहमी से मारते हैं तब क्या इंसानियत की हत्या नहीं होती? क्या इस धरती पर सिर्फ सुन्नी मुसलमान ही जीने के हकदार हैं? फिर सुन्नी जब सुन्नी को मारता है तब वो किस अल्लाह के बताए रास्ते पर चल रहा होता है? जिस घर में बच्चे बचपन से ही रोजाना दूध पिलानेवाली मातासमान गायों के गले पर बड़ों को छुरियाँ फेरते हुए देखेंगे उस घर के बच्चे बड़े होकर क्रूर नहीं होंगे तो क्या दयावान होंगे? हिन्दी में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है कि जाके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीड़ पराई। सो पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद की नर्सरी पाकिस्तान को पेशावर बालसंहार के बाद शायद पूरी तरह से नहीं तो थोड़ी-थोड़ी यह समझ में आ गया होगा कि दूसरों को खाने के लिए अपने घर में बाघ को पालना कितना खतरनाक हो सकता है? कुरान के गलत अंशों को आधार बनाकर मजहबी हिंसा को प्रश्रय देना आत्मघाती भी हो सकता है।
मित्रों,पूरी इस्लामिक दुनिया में आज जो खून-खराबी हो रही है उसके लिए सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं बल्कि मेरी समझ में संयुक्त राज्य अमेरिका,रूस और सऊदी अरब भी जिम्मेदार हैं। अमेरिका ने अफगानिस्तान से सोवियत संघ को निष्कासित करने के लिए तालिबान को जन्म दिया,वैश्विक राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कुरान और इस्लाम का दुरूपयोग किया और पाकिस्तान की पंजाब और कश्मीर नीति का आँखें बंद करके समर्थन किया। रूस ने फिलीस्तीन के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दिया तो सऊदी अरब ने पूरी दुनिया में इस्लाम के गलत-सही तरीके से प्रचार-प्रसार के लिए अनाप-शनाप पैसे दिए। सीरिया में आईएसआईएस व अन्य विद्रोहियों को पहले अमेरिका ने ही सहायता देकर मजबूती दी और आज कथित रूप से उसके खिलाफ ही लड़ रहा है।
मित्रों,पूरी दुनिया के मुसलमानों को देर-सबेर यह समझ लेना होगा कि आज की दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान ही अकालमृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। मरनेवाले भी अल्लाह हो अकबर कहकर मर रहे हैं और मारनेवाले भी अल्लाह हो अकबर के नारे लगाकर उनको मौत के घाट उतार रहे हैं। मैं नहीं मानता कि कोई भी किताब ईश्वर की लिखी हुई हो सकती है और उसमें संशोधन नहीं किया जा सकता। किताब या धर्म ने इंसान को नहीं बनाया बल्कि इंसानों ने किताबें लिखीं और धर्म बनाए यहाँ तक कि ईश्वर को भी बनाया। फिर क्यों कुरान में संशोधन नहीं हो सकता? जब कुरान को माननेवाले ही कुरान के पालन के नाम पर एक-दूसरे को मार डालेंगे तो फिर मानव-समाज ऐसे धर्मग्रंथ को लेकर क्या करेगा? मैं पहले भी अपने आलेखों जैसे- अफजल गुरू जेहाद का फल था जड़ नहीं,इराक में इस्लाम कहाँ है?,व्यक्ति नहीं विचारधारा है ओसामा में मुसलमानों से इस तरह का निवेदन कर चुका हूँ लेकिन तब से न जाने कितने ही लाख मुसलमानों को मुसलमान मार चुके हैं और अभी तक तो मेरी अपील बेअसर रही। जाने कभी मेरी अपील का असर होगा भी कि नहीं?!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

उसने कहा था

16 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात जून,2013 की है। तब हमलोग प्रोफेसर कॉलोनी के प्रोफेसर सत्येंद्र पांडे के यहाँ किरायेदार थे और काफी परेशान थे। मकान के शौचालय की दशा काफी खराब थी और हर बार शौच जाने के बाद कपड़ा लगे डंडे से शौचालय के पैन को हूरना पड़ता था। बराबर डंडे का कपड़ा भीतर में ही खुल जाता जिसको फिर अपने हाथ से निकालना पड़ता। उस पर जब जी में आए तब पांडेजी उस भीषण गर्मी में हमारे डेरे की बिजली काट देते थे। तभी मेरे गांव के एक पंडित जी बस्कित मिश्र की बेटी की शादी हुई। श्री मिश्र तब आरएन कॉलेज के मैदान के दक्षिणी छोर पर रहा करते थे। श्री मिश्र के मामाजी और उनका लड़का भी शादी में आया हुआ था जो उन दिनों पास में ही घर बनवा रहा था। मिश्र जी के मामाजी मेरे पिताजी के काफी पुराने मित्र थे और पहले महनार,अंचल कार्यालय में बड़ा बाबू हुआ करते थे जो कि बिहार में काफी मलाईदार पद माना जाता है। मामाजी ने पिताजी से हाल पूछा तो स्वाभाविक रूप से पिताजी ने तत्कालीन मकान मालिक के अत्याचारों का वर्णन किया। तभी मामाजी ने अपने बेटे से कहा कि जब तुम्हारा घर बन जाए तब प्रोफेसर साहेब यानि मेरे पिताजी को ही किरायेदार बनाना।
मित्रों,हमें तो अकस्मात् ऐसा लगा जैसे कि किसी कई दिन से भूखे-प्यासे व्यक्ति को छप्पन भोग या गंगा का पानी मिल गया हो। इस बीच मामाजी का देहान्त हो गया लेकिन जब हम अक्तूबर में उनके बेटे से मिलने गए तो उन्होंने कहा कि उनको अपने मृतक पिता का कथन भलीभाँति याद है इसलिए वे हमलोगों को ही किराया पर फ्लैट देंगे। इस बीच उन्होंने घर का काम पूरा करने के लिए दो महीने का भाड़ा 7000 रु. अग्रिम के रूप में मांगा जो हमने दे भी दिया मगर इस ताकिद के साथ कि हम पहले दो महीने में इस राशि का समायोजन कर लेंगे। फिर हम 1 फरवरी,2013 को उनके यहाँ रहने के लिए बैंक मेन कॉलोनी में आ गये। पहली बार उनकी पत्नी के दर्शन हुए। वो रात का खाना लेकर हमारे पास आईं। चाय भी पिलाई। माँ से तो वो जब भी मिलती तो यही कहतीं कि अब आप ही मेरी सास हैं और गले से लिपट जातीं। बच्चे जब भी देखते कि पिताजी भारी झोला लिए आ रहे हैं तो दौड़कर झोला ले लेते और हमारे घर दे जाते। हम आश्चर्यचकित थे कि कोई मकानमालिक ऐसा कैसे हो सकता है?
मित्रों,इसी बीच हमने दो महीने के अग्रिम को सधा लिया और तभी  से उनलोगों के व्यवहार में भी बदलाव आने लगा। मुझे इस बात का भी शक हुआ कि उनका लगाया बिजली का मीटर ज्यादा तेज भाग रहा है इसलिए हमने मामाजी के बेटे श्रीमोहन मिश्र की सहमति से बाजार से बिजली का मीटर खरीदकर लगा दिया। जब तक मैं हाजीपुर में था उनलोगों ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन जैसे ही मैं वेबसाईट संबंधी कार्यों के लिए दिल्ली के लिए रवाना हुआ जैसा कि मुझे बाद में पता चला कि उनकी पत्नी ने आसमान को सिर पर उठा लिया। मेरी समझ में यह नहीं आया कि उनका मीटर अगर सही था तो मेरा मीटर गलत कैसे हो सकता था? क्या इसलिए क्योंकि वे मकान मालकिन थीं और हम किरायेदार?
मित्रों,इसी बीच मैं अपनी पत्नी और बेटे को डेरे में ले आया और मेरी माँ की आत्मघाती मूर्खता के चलते मेरा घर कुरूक्षेत्र का मैदान बन गया। मेरी माँ दिन-रात मकान-मालकिन के पास ही बैठी रहती और बार-बार उसको पंचायत करने के लिए बुलाती। इस बीच स्वाभाविक तौर पर हमारे घर में पानी का खर्च काफी बढ़ गया था जिससे मकान-मालकिन खुश नहीं थीं। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि हमारे मकान-मालिक श्रीमोहन झा की उनके घर में कुछ भी नहीं चलती बल्कि जो भी चलती है उनकी पत्नी की ही चलती है। मेरी माँ अपने घर में होनेवाले विवादों की विस्तृत रिपोर्ट रोजाना मकान मालकिन को सुनातीं और कहतीं कि उनकी बहू बहुत देर तक स्नान करती है।
मित्रों,इसी बीच एक दिन हम अपने बेटे को चापाकल के ताजा पानी से नहाने के लिए चापाकल पर ले जा रहे थे कि हमने देखा कि पानी का मोटर चल रहा है। जब मोटर को बंद कर ग्रिल में ताला लगा दिया गया तब हमने चापाकल चलाकर अपने बेटे को स्नान करवाया। मगर जब हम उसको लेकर छत पर गए तो पाया कि मेरी मकान-मालकिन इस बात को लेकर हल्ला कर रही हैं कि हमने मोटर चलने के दौरान ही तथाकथित रूप से चापाकल चलाया जिससे कि मोटर जल भी सकता था। मेरी माँ उसका ही साथ दे रही थीं और पिताजी चुपचाप थे जबकि वे दोनों ही जानते थे कि मैं मजाक में भी झूठ नहीं बोलता। मैंने प्रतिवाद किया और कहा कि मैंने मोटर बंद होने के बाद ही चापाकल चलाया था मगर वे अपनी ही बात पर अड़ी रहीं। मैंने कहा भी कि मकान मालकिन होने के कारण मैं आपके झूठ को सच नहीं मान लूंगा क्योंकि झूठ झूठ होता है चाहे उसको बोलनेवाला बॉस हो या मकान-मालकिन।
मित्रों,उसी दिन से डेरे में जल-संकट उत्पन्न कर दिया गया और कहा गया कि दिनभर में सिर्फ एक बार ही टंकी को भरा जाएगा। कुछ दिनों तक जल-संकट झेलने और चापाकल पर कपड़े धोने के बाद मैंने पत्नी और बच्चे को मायके भेज दिया। मैं करता भी क्या जबकि खुद मेरी माँ ही नहीं चाहती थीं कि हमलोग एकसाथ रहें। पत्नी के जाते ही कुछ ही दिनों में घर भूत का डेरा बन गया। इसी बीच मकान-मालकिन को शिकायत रहने लगी कि हम घर में पोंछा नहीं लगाते। मैंने जब कहा कि अगर आप पर्याप्त मात्रा में पानी देने का वादा करें तो मैं फिर से पत्नी को ले आऊंगा तो वे मौन साध गईं। इस बीच उनका बड़ा बेटा सौरभ हमसे हमारे दोनों बेंच मांग कर ले गया और हमने सीधेपन में दे दिया। अब तक हमने एक मोटरसाईकिल भी ले ली थी और मुझे लग रहा था कि उनको हमारा मोटरसाईकिल खरीदना पसंद नहीं आया था। आखिर कोई किरायेदार मकान-मालिक से ज्यादा अच्छी जिंदगी कैसे जी सकता था? इस बीच एक दिन मेरी माताजी नल को खुला छोड़कर घर में ताला लगाकर घूमने चली गईं। बाद में जब मोटर चला तो नल से पानी बहने लगा। उस दिन मैं ससुराल में था। आने के बाद पता चला कि उस रात मकान-मालकिन ने मेरे माँ-पिताजी को काफी खरी-खोटी सुनाई। दोनों हाथ जोड़कर बार-बार माफी मांगते रहे लेकिन वे सुनने को तैयार ही नहीं थीं। अब तक मकान-मालकिन का खुलकर समर्थन करनेवाले माँ-पिताजी समझ चुके थे कि मकान-मालकिन जैसी दिखती हैं वैसी हैं नहीं बल्कि विषकुंभंपयोमुखम् हैं।
मित्रों,सितंबर में उन्होंने यह कहकर दो महीने का एडवांस मांगा कि हमने ऐसा वादा किया था जबकि हमने कभी ऐसा वादा नहीं किया था। पिताजी ने शांति बनाए रखने के लिए एक महीने का एडवांस दे भी दिया कि तभी से हमें डेरा खाली करने के लिए तंग किया जाने लगा। मैं समझ गया कि अब हमारे दोनों बेंचों को तुरूप से पत्तों की तरह इस्तेमाल किया जाएगा क्योंकि हमारी मकान-मालकिन इस बीच हमारे बगल के फ्लैट में रहनेवाली एक महिला का एक महीने का किराया पचा चुकी थीं। फिर एक दिन हमसे चाबी खो जाने के नाम पर बाहर के ग्रिल की चाबी ले ली गई और कहा गया कि हमारी माताजी यानि उनकी पूर्व मित्र उनके खिलाफ मुहल्ले में प्रचार करती हैं। जवाब में मैंने बस इतना ही कहा कि मैं औरतों के झमेले में नहीं पड़ता। इस बीच एक दिन देर शाम को पिताजी अपना टॉर्च किसी दुकान पर छोड़ आए। तब तक मैं अपनी मोटरसाईकिल गैरेज में रख चुका था। मैंने गैरेज खुलवाकर फिर से मोटरसाईकिल निकाली और टॉर्च लाने चला गया। मगर यह क्या जब मैं लौटकर आया तो मकान-मालकिन मेरी गाड़ी को गैरेज में रखने को तैयार ही नहीं हुई। फिर दो महीने तक मुझे अपनी गाड़ी को मुहल्ले के मित्रों के यहाँ रखना पड़ा।
मित्रों,इस बीच हमने डेरा ढूंढ़ लिया और डेरा बदलने से एक सप्ताह पहले से बेंच के लिए तकादा करना शुरू कर दिया मगर कोई असर ही नहीं हो रहा था। बाद में बेंच दिया गया मगर तब जब मेरा पूरा सामान ढोया जा चुका था जिसके कारण मुझे बेंचों को अपने सिर पर उठाकर लाना पड़ा। अंत में जब मैं डेरा खाली करने के बाद घर को साफ कर रहा था तब श्रीमोहन झा आकर मुझसे बेवजह की बक-झक करने लगे। उनका कहना था कि उनके पास बहुत पैसा है। जब मैं उनपर काफी नाराज हो गया तब उनकी पत्नी ने आकर बीच-बचाव किया।
मित्रों,आज जब मैं अपने गांव के पड़ोसी बस्कित मिश्र के मामाजी के बेटे के मकान से निकल चुका हूँ या निकाला जा चुका हूँ तब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मामाजी ने हमें उस मकान में रहने की दावत क्यों दी थी? क्या वे यह बताना चाहते थे कि मकान-मालिक और किरायेदार के बीच सिर्फ एक ही रिश्ता होता है और वह रिश्ता होता है मकान-मालिक और किरायेदार का? या फिर यह अहसास दिलाना चाह रहे थे कि आज के जमाने में सच्चाई,ईमानदारी और अच्छाई की कोई कीमत नहीं है जो भी कीमत है वो पैसे की है? या फिर अपने बेटे और उसके परिवार को बताना चाह रहे थे कि कैसे एक बेटे को अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए या फिर किस तरह से एक परिवार सच्चाई के मार्ग पर चलकर इस घनघोर कलियुग में भी जी रहा है?
मित्रों,खैर मामाजी हमें क्या बताना चाहते थे यह राज तो उनके साथ ही चला गया मगर हम भी कुछ कहना चाहते हैं और कहना चाहते हैं अपनी राज्य और केंद्र की सरकारों से। हम कहना चाहते हैं कि भारत में ऐसे करोड़ो लोग हैं जो मजबूरी में किराया के मकान में रहते हैं और दिन-रात मकान-मालिकों के जुल्म को सहते हैं। क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं होता? मकान-मालिक जब जी चाहे तब मकान खाली करने का फरमान सुना देता है और किरायेदारों को खाली करना भी पड़ता है। इस तंगदिली के जमाने में किराये के मकान में रहना जेल में रहने के बराबर है। मकान-मालिक किरायेदारों को अपने बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझते और मकान-मालिक ईज ऑलवेज राईट की नीति पर अमल करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्यों व केंद्र की सरकारें कब तक करोड़ों लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को नजरंदाज करती रहेंगी? क्या दिन-रात अपनी सरकार को गरीबों की सरकार बतानेवाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी कभी गरीब और लाचार करोड़ों किरायेदारों पर नजरे ईनायत करेंगे और उनके अधिकारों की रक्षा से संबंधित कानून बनाएंगे,उनको बंधुआ मजदूरी से आजाद करवाएंगे?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

'घरवापसी' पर हंगामा क्यों?

13 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,यकीन मानिए कि लेखन के लिए धर्म मेरा प्रिय विषय नहीं है लेकिन जब धर्म के नाम पर अधर्म बढ़ने लगे तो फिर लिखना ही पड़ता है। अभी-अभी हमने देखा कि आगरा में चंद मुसलमानों को हिन्दू बना दिया गया है और इस समारोह को नाम दिया गया घरवापसी। न जाने क्यों इस घटना के सामने आते ही देश की कथित धर्मनिरपेक्ष जमात बुरी तरह से तिलमिला उठी है जैसे कि कोई कुत्ते की पूँछ पर पेट्रोल डाल दे या फिर बंदर की पूँछ कुचल दे।
मित्रों,आश्चर्य है कि जब हिन्दू हजारों की संख्या में लालच,दबाव या प्राण पर संकट आने पर किसी दूसरे धर्म को अपनाते हैं तब देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं होता लेकिन जब कोई इक्का-दुक्का ऐसा मुसलमान या ईसाई जो स्वयं जन्मना हिन्दू था या जिनके पूर्वज हिन्दू थे फिर से हिन्दू समाज में वापसी करते है तब भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ जाती है! यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है जो प्रत्येक मामले में हिन्दुओं और अन्य धर्माम्बलंबियों के बीच भेदभाव करती है?
मित्रों,इतिहास गवाह है कि भारत ही नहीं काबुल तक के ईलाके में सनातन-धर्मी हिंदू-ही-हिंदू रहते थे। यह भी सही है कि हिन्दुओं में मध्यकाल में ऊँच-नीच और छुआछुत की कुरीति शर्मनाक स्तर तक बढ़ गई थी जिससे आहत होकर बहुत-से हिन्दू मुसलमान बन गए। साथ ही सत्य यह भी है कि बहुत सारे हिन्दुओं को तलवार के बल पर मुसलमान बनने पर बाध्य किया गया। गजनवी,गोरी,तैमूर,नादिरशाह,अब्दाली,खिलजी के साथ भारत आए इतिहासकारों के विवरण इस बात के प्रमाण हैं कि भारत के विभिन्न शहरों में हिन्दू पुरुषों के मुंडों के पहाड़ खड़े कर दिए गए,बच्चों को हवा में उछालकर भालों से बींध दिया गया और स्त्रियों को अरब देशों में ले जाकर बाजार में ठीक उसी तरह से खुलेआम नीलाम कर दिया गया जैसे कि इन दिनों कुर्द व यजीदी महिलाओं को आईएसआईएस के इस्लामिक वीर कर रहे हैं।
मित्रों,गुरू तेगबहादुर को इसलिए बलिदान देना पड़ा क्योंकि उन्होंने औरंगजेब द्वारा कश्मीरी पंडितों पर किए जा रहे अत्याचार का विरोध किया। अगर कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को मारा और सताया नहीं गया होता तो आज भी कश्मीर हिन्दू-बहुल होता। गुरू गोविन्द सिंह के मासूम बच्चों को दीवार में इसलिए चुनवा दिया गया क्योंकि वे मुसलमान बनने के लिए राजी नहीं हुए।
मित्रों,आज जबकि स्थितियाँ बदल गई हैं। आज हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव न के बराबर रह गया है और न ही हिन्दुओं को हिन्दू होने के चलते जान से हाथ धोने का भय है तो फिर अगर कोई पूर्व हिन्दू मुसलमान या इसाई फिर से हिन्दू बनना चाहता है तो इससे किसी को भी क्यों ऐतराज हो? जब हिन्दू किसी अन्य धर्म को अपनाता है तब तो किसी को भी ऐतराज नहीं होता,क्यों?
मित्रों,स्वयं राष्ट्रपिता गांधी ने इसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं को लालच देकर या बहला-फुसलाकर,झूठ बोलकर इसाई बनाने की जमकर भर्त्सना की है और ऐसा आदिवासी हिन्दुओं के साथ तो आज भी किया जा रहा है इसलिए जरुरत इस बात की है कि गलत तरीके से किए जानेवाले धर्मान्तरण को रोकने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान किए जाएँ। केंद्र सरकार इसके लिए तैयार भी दिखती है। तो क्या भारत के छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी लोग इस पुनीत कार्य में सरकार का साथ देने के लिए तैयार हैं?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

हत्या सिर्फ ललित बाबू की नहीं इंसाफ की भी हुई है मी लॉर्ड!

9 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आज से करीब ढाई हजार साल पहले कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा था कि जिस राज्य के निवासियों को न्याय नहीं मिलता वहाँ अराजकता पैदा होती है और अंततः उस राज्य का अंत हो जाता है। अभी कुछ ही दिन पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दत्तू ने भी भारत की न्यायिक प्रणाली पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत की न्यायिक प्रणाली गरीब-विरोधी है। अब जब मुख्य न्यायाधीश का ही ऐसा मानना है तो फिर इस संबंध में बहुत-कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
मित्रों,अभी कुछ ही हफ्ते पहले निठारी कांड पर कोर्ट का फैसला आया और अजीबोगरीब आया,अमीर-गरीब के बीच फर्क करनेवाला आया। जिस मकान में कई दर्जन बच्चों के साथ बलात्कार किया गया और फिर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए आश्चर्यजनक तरीके से उस मकान के मालिक को सीबीआई और कोर्ट ने निर्दोष बताते हुए बरी कर दिया। आप ही बताईए कि क्या ऐसा संभव है कि कई सालों से मकान में अनवरत जारी बलात्कारों और हत्याओं के बारे में मकान मालिक पूरी तरह से अनभिज्ञ रहे और अगर पंढ़ेर को सबकुछ पता था तो उसने पकड़े जाने तक चुप्पी क्यों साधे रखी? क्या धनवान पंढ़ेर ने सीबीआई अधिकारियों को मोटी रकम देकर उनके ईमान को खरीद नहीं लिया था?  क्या गरीब नौकर कोली अपनी गरीबी के कारण ऐसा नहीं कर पाने के कारण आज फाँसी की सजा का इंतजार नहीं कर रहा है?
मित्रों,जहाँ तक ललित बाबू की हत्या के मामले का सवाल है तो खुद स्वर्गीय ललित नारायण मिश्र के बेटे ने कल कोर्ट का फैसला आने पर कहा कि एक तो फैसला काफी देर से आया है और दूसरी बात यह है कि जिन लोगों को सजा दी गई है वे पूरी तरह से निर्दोष हैं। जहाँ तक मैं और मेरे इलाके के लोग जानते हैं कि बिहार विधान परिषद् के माननीय सदस्य विजय कुमार मिश्र एकदम सही कह रहे हैं। वास्तव में इस हत्याकांड की साजिश के पीछे तथ्य यह था कि जैसा कि तब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और ललित बाबू के अनुज डॉ. जगन्नाथ मिश्र जो खुद भी बम-विस्फोट में घायल हो गए थे,ने मित्रोखिन आर्चिव्स के आधार पर आरोप लगाया था कि चूँकि तत्कालीन रेल मंत्री ललित बाबू और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रूसी खुफिया एजेंसी केबीजी से रिश्वत ली थी इसलिए सबूत मिटाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व और उनके बिगड़ैल बेटे ने ललित बाबू की हत्या करवा दी। हालाँकि बाद में जब जगन्नाथ मिश्र को इंदिरा ने बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया तो वे चुप लगा गए। 2 जनवरी और 3 जनवरी,1975 के घटनाक्रम को देखते हुए भी ऐसा ही लगता है कि श्री मिश्र की हत्या में सीधे प्रधानमंत्री का हाथ था। जहाँ बम-विस्फोट में घायल बाँकी लोगों को तत्काल दरभंगा मेडिकल क़ॉलेज अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया वहीं स्व. मिश्र के ईलाज में जानबूझकर रेलवे के अधिकारियों ने 10 घंटे की देरी की और उनको दानापुर रेलवे अस्पताल में भर्ती करवा दिया जबकि वहाँ अच्छे डॉक्टर नहीं थे।
मित्रों,बाद में बिहार पुलिस से मामले की जाँच को सीबीआई ने अपने हाथों में ले लिया और न जाने कहाँ से चार निर्दोष आनंदमार्गियों को पकड़कर आरोपी बना दिया। वह सीबीआई उस युग की सीबीआई थी जिस युग में कहा जाता था कि इंदिरा ईज इंडिया एंड इंडिया ईज इंदिरा। पहले निठारी और अब ललित बाबू हत्याकांड में जिस तरह से सीबीआई और अदालत ने संभावित निर्दोषों को सजा सुनाई है उससे सवाल उठता है कि अगर न्याय-प्रणाली को इसी तरह से काम करना है तो फिर भारत में पुलिस,सीबीआई और न्यायालयों की जरुरत ही क्या है? क्या हमारी अनुसंधान-एजेंसी और अदालतें रोजाना सैंकड़ों-हजारों निर्दोषों को इसी तरह से सजा नहीं सुना रही है?
मित्रों,जैसा कि पीएम मोदी बार-बार कह रहे हैं कि बेकार के कानुनों को समाप्त कर न्यायिक-प्रक्रिया को सरल बनाया जाएगा उसको ध्यान में रखते हुए क्या हमें यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वर्तमान केंद्र सरकार यानि मोदी सरकार न्यायिक-प्रक्रिया को द्रुत और पारदर्शी बनाने की दिशा में कोई प्रभावी कदम उठाएगी? क्या कभी भारत की न्याय-प्रणाली गरीब-विरोधी के बजाए निष्पक्ष हो सकेगी या फिर आगे के मुख्य न्यायाधीश भी यह कहकर अपनी लाचारी व्यक्त करने को मजबूर होंगे कि भारत की न्याय-प्रणाली आज 22वीं सदी में भी गरीब-विरोधी या अमीरों की रखैल है?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)