सोमवार, 30 जून 2014

महामूर्ख हैं शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती

30 जून,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं नहीं जानता कि हिन्दुओं के लिए पूजनीय शंकराचार्यों का चुनाव किस प्रक्रिया के तहत किया जाता है लेकिन मैं यह जरूर जानता हूँ कि वह प्रक्रिया दोषपूर्ण है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो एक दंभी,घमंडी और महामूर्ख द्वारिका पीठ का स्वामी नहीं होता। आपने एकदम सही समझा है मैं स्वरूपानंद सरस्वती की ही बात कर रहा हूँ जो न तो ज्ञानी हैं,न ही तत्त्वदर्शी,तो ब्रह्मज्ञानी हैं और न ही आत्मज्ञानी फिर भी शंकराचार्य हैं और उस शंकराचार्य के उत्तराधिकारी माने जाते हैं जिसने कभी पूरी दुनिया से कहा कि ब्रह्मास्मि। तत् त्वमसि।। इन श्रीमान् ने वैसे तो पहले भी जमकर मूर्खतापूर्ण बातें की हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में तो इन्होंने हद ही कर दी है।

मित्रों,इन श्रीमान् का कहना है कि चूँकि साईं बाबा का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था इसलिए हिन्दुओं को उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए। मैं नहीं जानता कि स्वरूपानंद ने कहाँ से इस तथ्य का पता लगाता लेकिन अगर यह सत्य भी है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि साईं बाबा एक महामानव थे। हम उनको राम और कृष्ण की श्रेणी में तो नहीं रख सकते लेकिन कबीर और रामकृष्ण परमहंस जैसे संतों की श्रेणी में तो रख ही सकते हैं। हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण यह नहीं रहा है कि कोई जन्मना क्या था बल्कि महत्त्व इस बात का रहा है कि कोई कर्मणा क्या था। रावण तो जन्मना ब्राह्मण था लेकिन हम उसको नहीं पूजते। महान हिन्दू संन्यासी स्वामी विवेकानंद ने तो यहाँ तक कहा है कि अगर वे ईसा को सूली चढ़ाने के समय मौजूद होते तो उनके रक्त को अपने माथे पर लगाते और अपने रक्त से उनके चरण धोते तो क्या विवेकानंद पर माता काली नाराज हो गईँ? स्वामी स्वरूपानंद को कैसे पता चला कि राम उमा भारती से नाराज हैं? क्या राम ने स्वयं आकर उनको इस बात की जानकारी दी? क्या स्वरूपानंद अन्य लोगों को भी राम के दर्शन करवा सकते हैं?

मित्रों,हम हिन्दू शुरू से ही महामानवों के साथ-साथ पशु-पक्षी,पेड़-पौधों और धरती के कुछ भू-भागों,मिट्टी पत्थरों के पिंडों तक की पूजा करते आ रहे हैं फिर मानव तो रामकृष्ण परमहंस के अनुसार ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है और साईं तो महामानव थे। हम साईं के शरीर की पूजा नहीं करते बल्कि उनकी त्यागपूर्ण जिंदगी और कृतियों को पूजते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अगर कोई अच्छे लोगों के प्रति श्रद्धा नहीं रखता और बुरे लोगों से नफरत नहीं करता तो वह मानव कहलाने के योग्य ही नहीं है। फिर कोई कैसे साईं के प्रति श्रद्धा नहीं रखे?

मित्रों,इस स्वरूपानंद ने तो गंगा पर भी एक धर्म विशेष का एकाधिकार बता दिया है। कितनी बड़ी मूर्खता है यह! क्या यह महामूर्खता नहीं है? क्या हवा,नदी और धरती पर भी किसी का एकाधिकार हो सकता है? मैं ऐसे कई मुसलमानों को जानता हूँ जिनके घर गंगा किनारे हैं और जो सालोंभर गंगा स्नान करते हैं तो क्या इससे गंगा हिन्दुओं के लिए पूजनीय नहीं रही? यह आदमी बार-बार शास्त्रों का उदाहरण देता है। ऐसे ही लोगों के लिए कबीर ने कभी कहा था कि
मैं कहता हूँ आँखन देखी,तू कहता कागद की लेखी,
तेरा मेरा मनुआ एक कैसे होई रे।
लेकिन लगता है कि इन श्रीमान् ने कबीर के इस दोहे को कभी पढ़ा ही नहीं है। अनुभव हमेशा ज्ञान से बेहतर होता है ये श्रीमान् यह भी नहीं जानते। श्रीमान् शास्त्रों में संतोषी माता और साईं बाबा को ढूंढ़ रहे हैं। मैं नहीं श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि चूँकि सारे शास्त्रों में मनमाफिक हेराफेरी की गई है इसलिए वे झूठे हैं। उनके अनुसार ईश्वर गूंगे का गुड़ है इसलिए उसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता। ईश्वर का वास तो अच्छे गुणों और कर्मों में हैं। कोई तो पढ़ाओ इस स्वरूपानंद को रामकृष्ण साहित्य।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 22 जून 2014

डॉ. मंजू गीता मिश्र के यहाँ पुरुष करता है महिलाओं का अल्ट्रासाउण्ड

पटना,ब्रजकिशोर सिंह। पटना के कदमकुआँ का जगतप्रसिद्ध जगतनारायण रोड। नाम बड़े और दर्शन छोटे चारों तरफ गंदगी-ही-गंदगी। यहीं पर स्थित है पटना की सबसे प्रसिद्ध स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. मंजू गीता मिश्र का महलनुमा क्लिनिक,एमजीएम। दिन शनिवार,तारीख-21 जून,2014। दिखाने के लिए महिलाओं की भीड़। डॉक्टर साहिबा एक सुर में सारी नई मरीजों को खून जाँच और अल्ट्रासाउण्ड लिख रही हैं। एक असिस्टेंट भी है जो नौसिखुआ मालूम होती है क्योंकि वो बार-बार दवाओं का उच्चारण गलत लिख देती है। पूछने पर महिलाएँ और उनके परिजन डॉक्टर साहिबा की ईलाज से काफी संतुष्ट दिखे। यहाँ मरीजों के बाहर जाने की जरुरत नहीं सारी जाँच यहीं पर हो जाती है। मगर तभी थोड़ी देर बाद सीमा अल्ट्रासाउण्ड जो उसी परिसर में स्थित है में कुछ हंगामा होने लगता है। पता चला कि इसका नाम मरीजों को धोखा देने के लिए सीमा अल्ट्रासाउण्ड रखा गया है दरअसल भीतर में एक पुरुष डॉक्टर महिलाओं के गर्भाशय और गुप्तांगों का अल्ट्रासाउण्ड कर रहा है। जब एक महिला मरीज के पति ने इस पर आपत्ति की तो डॉक्टर ने कहा कि मेडिकल क्षेत्र में तो ऐसा होता है।

वहाँ उपस्थित महिलाओं से जब हमने पूछा कि आप एक पुरुष डॉक्टर से अल्ट्रासाउण्ड करवाने में असहज तो नहीं महसूस करतीं तो उन्होंने कहा कि करती तो हैं मगर करें क्या। मंजू गीता जी से दिखवाना है तो सहना ही पड़ेगा लेकिन अगर कोई महिला अल्ट्रासाउण्ड करती तो जरूर ज्यादा अच्छा होता। उनका यह भी कहना था कि पटना में हर जगह तो महिला डॉक्टर ही अल्ट्रासाउण्ड करती है फिर यहाँ पर पुरुष क्यों? उन महिलाओं में से कुछ तो मुसलमान भी थीं जिनका मजहब इन सब बातों को लेकर काफी सख्त है। इस बारे में जब डॉ. मंजू गीता मिश्र से बात करने की कोशिश की गई तो वे ओटी में व्यस्त रहने के कारण उपलब्ध नहीं हो सकीं।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 21 जून 2014

सुशासन बाबू गए मांझी भी चले जाएंगे मगर क्या कुबतपुर में बिजली आएगी?

21-06-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं पहले के कई आलेखों में अपनी ससुराल के गांव यानि वैशाली जिले के देसरी प्रखंड के कुबतपुर (भिखनपुरा) का जिक्र कर चुका हूँ। इन आलेखों में आपको मैंने बताया है कि इस गांव की बिजली सुशासन बाबू के शासन की शुरुआत में ही चली गई। वजह यह थी कि ट्रांसफार्मर जल गया था और ठेकेदार रंजन सिंह 20000 रु. घूस में मांग रहा था। बाद में मेरे लिखने के बाद ठेकेदार और जूनियर इंजीनियर गांव आए। दोनों ने इसी साल 1 मई को खंभों पर से तार उतरवा दिया और जब मैंने जेई को फोन करके पूछा तो उन्होंने बताया कि अब इस तार की जरुरत नहीं है क्योंकि गांव में अब तीन फेजवाली बिजली आएगी। बाद में ट्रांसफार्मर भी लगा दिया गया लेकिन पोलों पर से तार अभी भी गायब है।
मित्रों,कभी ठेकेदार और जेई कहते हैं कि छोटे ट्रांसफार्मरों द्वारा बिजली आपूर्ति की जाएगी जैसा कि राजीव गांधी विद्युतीकरण परियोजना के अंतर्गत किया जाता है तो भी कभी कहते हैं कि बड़े ट्रांसफार्मर पर से बिजली दी जाएगी। इस बीच वे खंभों पर से दौड़ाने के लिए उपभोक्ताओं से ही तार मांग रहे हैं। कई उपभोक्ता तार खरीदकर उनका इंतजार भी कर रहे हैं लेकिन पिछले दो सप्ताह से उनका कोई अता-पता नहीं है। इस बीच जब मैंने जेई से उसी नंबर पर संपर्क करना चाहा जिस नंबर पर 1 मई को बात हुई थी तो उस नंबर से जो कोई भी फोन उठाता है रांग नंबर कहकर फोन काट देता है। इतना ही नहीं जिले के कार्यपालक अभियंता रामेश्वर सिंह का नंबर भी अब नहीं लग रहा है और डायल करने पर उधर से घोषणा सुनाई देती है कि इस नंबर से कॉल डाईवर्ट कर दिया गया है और फिर फोन कट जाता है। पता ही चल रहा है क्या किया जाए और किससे बात की जाए। बिजली मंत्री को फोन करिए तो पीए कभी कहता है कि साहब हाउस में हैं तो कभी कहता है कि मीटिंग कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल वर्ष 2006 में तक माखनलाल पत्रकारिता विश्ववि. के नोएडा परिसर का था जब मैंने वहाँ नामांकन लिया है। वहाँ के निदेशक अशोक टंडन हमेशा स्टाफ की मीटिंग करते रहते लेकिन विश्ववि. में कोई सुधार नहीं हो रहा था। तब मैं छात्रों के साथ मीटिंग में ही घुस गया था और कहा था कि कभी हमारी भी तो सुनिए ऐसे मीटिंग से क्या लाभ? फिर तो जो हुआ वह इतिहास है। परिसर बदला और फिर बहुत कुछ बदल गया।
मित्रों,सुशासन बाबू तो चले गए और अब जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि इनके शासन-काल में भी कुबतपुर के लोगों को बिजली नसीब हो पाएगी। कहीं कोई सुननेवाला नहीं है। तंत्र के संचालक अधिकारी जैसे मन होता है वैसे काम करते हैं। राज्य का सबसे भ्रष्ट विभाग बिजली विभाग राज्य के लोगों को सहूलियत नहीं देता बल्कि झटके देता है। बिना रिश्वत दिए शहर के घरों में भी बिजली नहीं आती है तो फिर कुबतपुर में कैसे आएगी?मैं समझता हूँ कि कुबतपुर में बिजली आपूर्ति नीतीश जी के शासन का भी लिटमस टेस्ट था और मांझी जी के शासन का भी लिटमस टेस्ट है। देखना है कि मांझी सरकार इस टेस्ट में पास होती है या नहीं। इस गांव में बिना रिश्वत दिए बिजली आती है या नहीं। कुबतपुर में बिजली का आना या न आ पाना सिर्फ इस बात का फैसला नहीं करेगा कि राज्य में सुशासन है या नहीं बल्कि इस बात का भी निर्णय करेगा कि राज्य में शासन नाम की कोई चीज है भी या नहीं या फिर निरी अराजकता है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 17 जून 2014

इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे सोनिया के चमचे राज्यपाल?

17 जून,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों केंद्र की मोदी सरकार जब पुराने राज्यपालों को हटाने जा रही है तो सारे छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी दल बेजा शोर मचाने में लगे हैं। जब संप्रग सरकार ने वर्ष 2004 में राजग काल के राज्यपालों को हटाया था तब तो यही लोग तालियाँ पीट रहे थे फिर आज विरोध क्यों? क्या विरोधी दलों का काम सिर्फ विरोध करना है चाहे सरकार के कदम सराहनीय हों और देशहित में हों तब भी? उनको जब मौका मिला था तब उनको भी तो इस संवैधानिक पद का सम्मान करते हुए राजग काल के राज्यपालों को शांतिपूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने देना चाहिए था।

मित्रों,हमने देखा है कि पिछले 10 वर्षों में संप्रग की सरकार में राज्यपाल के पद की गरिमा को रसातल में पहुँचा दिया गया। आरोप तो यहाँ तक लगे कि कांग्रेस आलाकमान पैसे लेकर जैसे-तैसे लोगों को राज्यपाल बना रहा है। तब मैंने 3 अक्टूबर,2011 के अपने एक आलेख राज्यपाल हैं कि आदेशपाल द्वारा यह आरोप भी लगाया था कि राज्यपालों को आदेशपाल बना दिया गया। बिहार का उदाहरण अगर हम लें तो बिहार में लगभग प्रत्येक राज्यपाल के समय विश्वविद्यालयों में उच्चाधिकारियों की नियुक्तियों में खरीद-फरोख्त के आरोप लगे। कई बार पटना उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। विश्वविद्यालयों का परीक्षा-विभाग घूसखोरी का अड्डा बन गया।

मित्रों,अगर हम संप्रग काल में नियुक्त सारे राज्यपालों पर नजर डालें तो पता चलता है इनमें से अधिकतर लोगों को सिर्फ इसलिए राज्यपाल बनाया गया क्योंकि ये सोनिया परिवार की चापलूसी करते थे और चहेते थे। कई ऐसे लोग भी राज्यपाल बना दिए गए जिनको विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जनता ने सिरे से नकार दिया था। कई लोगों पर तो राज्यपाल बनने से पहले से संगीन घोटालों के भी आरोप थे। सवाल उठता है कि ऐसे नाकारा लोगों को सिर्फ संवैधानिक पद के नाम पर वर्तमान केंद्र सरकार क्यों ढोये? हम जानते हैं कि नरेंद्र मोदी का एजेंडा देश को काफी आगे ले जाने का है और सुशासन देने का तो है ही? क्या ऐसे सोनिया के चमचे लोग मोदी के एजेंडे के लागू होने में कभी सहायक सिद्ध हो सकते हैं?

मित्रों,हम जानते हैं कि संविधान के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद को धारण करता है। हम यह भी जानते हैं कि संविधान में राष्ट्रपति का मतलब केंद्र सरकार से है तो फिर उचित तो यही होता कि ये लोग अपनी पार्टी के लोकसभा चुनावों में हार के बाद खुद ही पद छोड़ देते और नई सरकार को फिर से अपनी टीम गठित करने का मौका देते। इससे पार्टियों में सद्भावना भी बनी रहती और इनका महामहिमों का सम्मान भी बचा रह जाता। हम यह भी जानते हैं कि राज्यपाल राज्यों में केंद्र का प्रतिनिधि होता है तो फिर जब केंद्र में इनकी चहेती सरकार रही ही नहीं तो ये लोग उसके प्रतिनिधि होने का कैसे जबर्दस्ती दावा कर सकते हैं?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 12 जून 2014

यूपी में कब राष्ट्रपति शासन लगाएगी मोदी सरकार?

12-06-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों यूपी की जो हालत है उससे आप भी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। चारों ओर कत्लो गारद और दंगे। बलात्कारों की तो जैसे बाढ़ ही आ गई है। यहाँ तक कि पुलिसवाले भी इस कुकृत्य को बखूबी अंजाम दे रहे हैं और राज्य के डीजीपी इसे रूटीन घटनाओं का नाम दे रहे हैं। तो क्या पुलिसवाले भी बलात्कार करके उसी रूटीन को पूरा कर रहे हैं? क्या बलात्कार करना पुलिसवालों की ड्यूटी में शामिल है?

मित्रों, अभी पढ़ने को मिला कि राज्य में यादव थानों पर डीजीपी भी हाथ नहीं डाल सकते क्योंकि तब उनको शिवपाल सिंह यादव की डाँट सुननी पड़ती है। यादव थानों का मतलब उन थानों से है जहाँ के थानेदार यादव हैं। जगह-जगह भाजपा कार्यकर्ताओँ को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिर कौन खुलकर भाजपा का झंडा उठाएगा?

मित्रों,कहने का मतलब है कि पूरे यूपी में कानून और संविधान का शासन समाप्त हो गया है और जंगलराज कायम हो गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि केंद्र की मोदी सरकार कब वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाएगी और वहाँ की जनता को कंसों के शासन से मुक्ति दिलवाएगी? आखिर किस बात का इंतजार है उसे? अगर मोदी सरकार ने भी राज्यसभा में बहुमत के लिए मुलायम सिंह यादव ते घिनौने हाथों को थाम लिया है तो फिर यूपी की उस जनता का क्या होगा जो दुर्भाग्यवश जन्मना यादव नहीं है? माना कि अभी वहाँ की सरकार को आए दो साल ही हुए हैं लेकिन इतने दिनों में ही वहाँ जिस तरह के हालात बन गए हैं क्या ऐसे में वहाँ की सरकार को उसका कार्यकाल पूरा करने देना वहाँ की जनता के साथ अन्याय और अत्याचार नहीं होगा?

मित्रों,भारत का संविधान कहता है कि राज्यों में कानून और संविधान का शासन चल रहा है या नहीं देखना केंद्र सरकार का काम है। इस काम को पूरा करने के लिए संविधान ने उसे अनुच्छेद 355 और 356 के तहत व्यापक अधिकार दिए हैं। क्या मोदी सरकार को अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों का पालन करते हुए राज्य में अविलंब राष्ट्रपति शासन नहीं लगा देना चाहिए? नरेंद्र मोदी ने बार-बार देश को सुशासन देने का वादा किया है फिर यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाए बिना यूपी में सुशासन कैसे आएगा? क्या अपने उन कार्यकर्ताओं की रक्षा करना भारत के प्रधानमंत्री बन चुके नरेंद्र मोदी का कर्त्तव्य नहीं है जो अपनी पार्टी के विकास को कार्यकर्ताओं की 5 पीढ़ियों की शहादत और मेहनत का परिणाम बताते नहीं थकते?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 5 जून 2014

क्या मोदी का हिन्दी प्रेम दिखावा है?

5 जून,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत अच्छी हिन्दी जानते हैं। लोकसभा चुनाव प्रचार के समय वे भारत को लगातार हिन्दी में संबोधित करते रहे। यहाँ तक कि केरल और तमिलनाडु में भी वे हिन्दी ही बोलते रहे और दुभाषिये की सहायता ली। इस साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक बार फिर से हिन्दी गूंजेगी। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी कई बार संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण कर चुके हैं। मोदी द्वारा हिन्दी में संबोधन की खबर को सुनकर खुशी तो होती है लेकिन आश्चर्य और शक होता है कि क्या मोदी का हिन्दी प्रेम दिखावा है? अगर नहीं तो फिर भारत के प्रधानमंत्री की आधिकारिक वेबसाइट http://pmindia.nic.in/ पर जनता को हिन्दी में अपनी बातें रखने की अभी तक अनुमति क्यों नहीं दी गई है? राजस्थान से लेकिन बिहार तक पूरे हिन्दी क्षेत्र में अगर मोदी को जनता ने सिर आँखों पर नहीं बैठाया होता तो क्या वे आज भारत के प्रधानमंत्री होते और अगर होते तो इतनी मजबूत स्थिति में होते? फिर प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने हिन्दीभाषियों को अंगूठा क्यों दिखा दिया? http://pmindia.nic.in/feedback.php लिंक पर जाकर आप भी देख सकते हैं कि प्रधानमंत्री जी इन दिनों सिर्फ अंग्रेजी में ही जनता की शिकायतें सुन रहे हैं। फिर हिन्दीभाषी जनता क्या करे और कैसे अपनी समस्याओं से अपने प्रधानमंत्री को अवगत करवाए? क्या हिन्दीभाषियों को अपनी समस्याओं को अपनी भाषा में दर्ज करवाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? आजकल तो दुनिया की किसी भी भाषा में लोग अपनी बातें रख सकते हैं। ऐसी सुविधा तो माइक्रोसॉफ्ट खुद ही दे रही है फिर सिर्फ अंग्रेजी में ही शिकायत दर्ज करवाने का प्रावधान क्यों? वोट मांगा हिन्दी में और पीएम बनते ही हिन्दी को अंगूठा दिखा दिया क्या यह दोहरा मानदंड नहीं है? क्या यह भारत की कथित राष्ट्रभाषा और स्वयं भारतमाता का अपमान नहीं है? क्या भारत की जनता को,भारतमाता की संतानों को भारतमाता की अपनी भाषा में बात रखने का अधिकार नहीं होना चाहिए? अगर नहीं तो फिर भारतमाता की जय और वंदे मातरम् नारा लगाने का क्या मतलब है? क्या मोदी का भारतमाता से प्रेम और उनके प्रति उनकी भक्ति भी सिर्फ दिखावा था मात्र चुनाव जीतने के लिए? यह कैसा राष्ट्रवाद है राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा का? फिर अंग्रेजों,कांग्रेसियों और भाजपा में क्या अंतर है कम-से-कम भाषा के स्तर पर?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)