बुधवार, 29 अप्रैल 2015

किसानों के नाम पर राजनीति और किसानी की समस्याएँ

मित्रों,इन दिनों भारत देश की राजनीति अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रही है। पूरा का पूरा विपक्ष एकजुट होकर किसान नाम केवलम् का जाप कर रहा है और केंद्र सरकार पर किसान विरोधी होने के आरोप लगा रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि आप जो पार्टियाँ विपक्ष में हैं यह उनकी ही करनी का परिणाम है कि आज किसानों को जीवन जीना कठिन और मौत को गले लगा लेना आसान लगने लगा है। आज खेती-किसानों की जो हालत है वह आज अचानक पैदा नहीं हुई बल्कि आजादी के बाद से ही धीरे-धीरे पैदा हुई,पिछले 60 सालों में पैदा हुई। केंद्र सरकार कह रही है और संसद में कह रही है कि विपक्ष हमें सुझाव दे,हम उस पर विचार करेंगे लेकिन विपक्ष सुझाव देने के बदले केंद्र के खिलाफ सिर्फ नारेबाजी किए जा रही है।
मित्रों,सवाल उठता है कि शोर-शराबे,नारेबाजी और बकवास भाषणबाजी करने से ही क्या किसानों का भला हो जाएगा? आज अमेरिका में 2 फीसदी जनसंख्या खेती-किसानी पर निर्भर है तो वहीं भारत में 65 फीसदी। आजादी के 70 साल बाद भी ये आँकड़े क्यों नहीं बदले? क्यों जो खेती आजादी के समय सबसे उत्तम व्यवसाय मानी जाती थी आज मजबूरी का पर्यायवाची बन गई है? इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं? आजादी के बाद कौन लोग और दल सत्ता में रहे? किसानों की दुरावस्था के लिए किन पार्टियों और नेताओं की नीतियाँ जिम्मेदार हैं?
मित्रों,राजनीति तो इस बात को लेकर होनी चाहिए कि किसानों की समस्याएँ क्या हैं और उनका समाधान क्या हो सकता है? लेकिन राजनीति हो रही है कि कैसे किसानों की समस्याएँ जस-की-तस बनी रहें और कैसे किसानों को बरगलाकर,उनके हितैषी होने का दिखावा करके उनके वोट प्राप्त किए जाएँ। कोई जंतर-मंतर पर किसान से फाँसी लगवाकर तालियाँ बजा रहा है तो कोई पूर्व में देश को बेचने में सबसे आगे रह चुका नेता जेनरल बोगी में यात्रा करके खुद को किसानों का सच्चा हमदर्द साबित करने में लगा हुआ है। लेकिन इस बात पर कोई भी विपक्षी दल विचार नहीं कर रहा कि किसानों की असल या मौलिक समस्याएँ क्या हैं और उनका समाधान क्या हो सकता है। तो क्या सिर्फ कोरी नारेबाजी और घड़ियाली आँसू बहानेभर से किसानों का भला हो जाएगा? हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि पिछले 60 सालों में जनसंख्या बढ़ने से किसानों के पास प्रति परिवार जोत का आकार काफी कम हो गया है,इतना कम कि उतनी जमीन से एक परिवार का पेट नहीं भरा जा सकता। राहुल गांधी कहते हैं कि भविष्य में कृषि-भूमि का मूल्य सोने का बराबर हो जाएगा। अगर ऐसा भविष्य में हो सकता है तो अब तक क्यों नहीं हुआ? क्यों 4 गुना 5 फीट की 'लोहे' की दुकान में बैठा आदमी 'सोना' हो गया और 5 बीघा सुनहरी फसलों में खड़ा किसान 'मिट्ठी' हो गया?
मित्रों,भारत के सामने इस समय दो ही रास्ते हैं। पहला यथास्थितिवाद का रास्ता है कि जैसी हालत है वैसी ही बनी रहे और दूसरा रास्ता है विकास का कि खेती पर से कैसे जनसंख्या का भार कम किया जाए। कैसे भारत को दुनिया की फैक्ट्री बनाया जाए,कैसे भारत के युवाओं को रोजगार मिले,कैसे किसानों के युवा पुत्रों को योग्यतानुसार काम मिले,कैसे खेती को लाभकारी व्यवसाय में बदला जाए,कैसे सरकार और राजनीतिज्ञों के प्रति किसानों के मन में विश्वास पैदा किया जाए जिससे वे आत्महत्या के मार्ग पर न जाएँ।
मित्रों,केंद्र सरकार सुझाव मांग रही है और पूरा भरोसा भी दे रही है कि वह विपक्ष के सुझावों पर अमल करेगी लेकिन विपक्ष है कि चाहती ही नहीं कि किसानों का भला हो,किसानी का भला हो। अच्छा होता कि विपक्ष सरकार के साथ बैठकर इस बात पर विचार करती कि अतीत में जो भी सरकारें सत्ता में रही हैं उनकी कृषि-नीतियों में कहाँ-कहाँ, कौन-कौन-सी गलतियाँ हुईं और उनका परिमार्जन किस तरह से इस प्रकार किया जाए कि कृषि फिर उत्तम खेती हो जाए,सबसे ज्यादा लाभकारी व्यवसाय हो जाए। आजादी के सत्तर साल बाद भी किसान क्यों सिंचाई के लिए बरसात पर निर्भर है? इस दिशा में केंद्र की प्रधानमंत्री सिंचाई योजना किस तरह से फायदेमंद हो सकती है या फिर इस योजना में कौन-कौन से सुधार किए जाने की आवश्यकता है? पानी का ज्यादा-से-ज्यादा संरक्षण कैसे संभव हो जिससे कि जरुरत के दिनों में पानी की कमी नहीं हो? कृषि की ऐसी कौन-सी विधियाँ हैं जिससे कम पानी में ज्यादा पैदावार प्राप्त हो सकती हैं? गांव-गांव में कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना कैसे हो? मृदा का संरक्षण कैसे हो और केंद्र सरकार की स्वायल हेल्थ कार्ड योजना इस दिशा में किस तरह लाभकारी सिद्ध हो सकती है? आदि-आदि। लेकिन विपक्ष सरकार के साथ खेती-किसानी की समस्याओं के समाधान में सहयोग करने की बात तो दूर ही रही साथ बैठकर समस्या पर विचार तक करने को तैयार नहीं है।
मित्रों,अगर आपने कजरारे-कजरारे वाली 'बंटी और बबली' फिल्म देखी होगी तो आपको याद होगा कि उसके एक दृश्य में बंटी अभिषेक बच्चन ताजमहल का सौदा करके एक विदेशी जोड़े को ठगता है। वो कुछ भाड़े के नेता टाईप लोगों को कुछ पैसे देता है और असली मंत्री की कार के आगे उनसे नारेबाजी करवा देता है। भाड़े के नेता नारेबाजी करते हैं कि हमारी मांगें पूरी हों चाहे जो मजबूरी हो। मंत्री कार से उतरकर पूछती है कि आपकी मांगें क्या हैं तो वे मांग नहीं बताते बल्कि वही नारा दोहराते रहते हैं कि हमारी मांगें पूरी हो चाहे जो मजबूरी है। इस बीच बंटी बबली रानी मुखर्जी को मंत्री बनाकर मंत्रालय में बैठा देता है और विदेशी जोड़े से मोटी रकम हासिल करके फरार हो जाता है।
मित्रों,कुछ ऐसा ही भाड़े के नेताओं जैसा काम इन दिनों विपक्ष कर रहा है। केंद्र सरकार कह रही है कि आपकी क्या मांगें हैं और उनका क्या समाधान हो सकता है पर आईए मिल-बैठकर विचार करते हैं लेकिन विपक्ष कुछ भी नहीं सुन रहा है और लगातार सिर्फ नारेबाजी करता जा रहा है। दरअसल विपक्ष भी बंटी और बबली फिल्म के नारेबाजों की तरह समस्या का समाधान नहीं चाहता बल्कि सरकार का मार्ग अवरूद्ध करना चाहता है,विपक्ष चाहता है कि सरकार काम नहीं कर पाए,देश का विकास नहीं कर पाए जिससे फिर से सत्ता पर उनका कब्जा हो सके,बस।

हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित

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