मंगलवार, 23 जून 2015

सिर्फ नदी द्वीप नहीं भ्रष्टाचार का टापू भी है राघोपुर

राघोपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,अपने गृह-प्रखंड राघोपुर (वैशाली) के बारे में हम बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं कि यह एक नदी द्वीप है जिसके चारों तरफ से गंगा बहती है। लेकिन अब राघोपुर को देखता हूँ तो पाता हूँ कि यह न सिर्फ एक नदी द्वीप है बल्कि भ्रष्टाचार का टापू भी है। एक ऐसा टापू जहाँ आकर केंद्र और राज्य सरकार की सारी योजनाएँ दम तोड़ जाती हैं या फिर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं।
मित्रों,हरि अनंत हरि कथा अनंता अर्थात राघोपुर में व्याप्त अव्यवस्था के बारे में मैं तो क्या श्रीगणेशजी भी संपूर्णता से वर्णित नहीं कर सकते। हमारे प्रखंड में करीब एक-डेढ़ दशक पहले सामुदायिक शौचालय निर्माण की योजना आई। आज अगर आप प्रखंड में घूमेंगे तो पाएंगे कि कहीं भी सामुदायिक शौचालय बना ही नहीं। ठेकेदारों ने बदले में अपने-अपने घरों में शौचालय बनवा लिए। इसी तरह इस प्रखंड में उनलोगों को भी इंदिरा आवास योजना के तहत पूरी की पूरी राशि दे दी गई जिनके पहले से ही छतदार मकान थे।
मित्रों,इसी तरह आपको इस प्रखंड में कई ऐसे पंचायत मिल जाएंगे जहाँ कि पिछले कई सालों से वृद्धावस्था या विधवा पेंशन का वितरण ही नहीं हुआ है। पूछने पर अधिकारी बताते हैं कि लाभान्वितों का रिकार्ड ही नहीं मिल रहा। पिछले वर्षों में कई बीडीओ यहाँ आए और चले भी गए लेकिन यह गुत्थी आज भी अनसुलझी की अनसुलझी ही है।
मित्रों,अगर आप चकौसन घाट से नदी पार करने के बाद चकसिंगार की तरफ बढ़ेंगे तो देखेंगे कि चकसिंगार में एक पुलिया गिरी पड़ी है। यह एक ऐसी पुलिया है जो बनने के साथ ही धराशायी हो गई जाहिर है कि निर्माण में गुणवत्ता को ध्यान में रखा ही नहीं गया बल्कि पैसा निर्माण पर ज्यादा जोर दिया गया। पुलिया बनी और गिरी। कई साल बीत गए लेकिन न तो ठेकेदार के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई और न ही संबंधित अभियंता के विरूद्ध ही।
मित्रों,चाहे नीतीश कुमार जितने भी दावे कर लें लेकिन सच्चाई तो यही है कि राघोपुर प्रखंड का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी लालटेन युग में जीने को विवश है। रात होते ही राघोपुर के कई पंचायत अंधेरे में डूब जाते हैं। कहीं ट्रांसफॉर्मर नहीं है तो कहीं तार।
मित्रों,राघोपुर प्रखंड में अगर सबसे खराब स्थिति किसी चीज की है तो वह है सरकारी शिक्षा। बीआरसी यानि ब्लॉक रिसोर्स सेंटर और क्लस्टर रिसोर्स सेंटरों की मिलीभगत से यहाँ के विद्यालयों के अधिकतर शिक्षक सिर्फ वेतन लेने विद्यालय आते हैं। हर महीने सीआरसी के समन्वयक को निर्धारित राशि पहुँचाते रहिए और घर पर खेती कराईए या फिर दुकान चलाईए। हाँ,अगर आप महिला हैं या स्कूलवाले गांव के ही हैं तो फिर और भी सोने पर सुहागा। अब जब शिक्षक रहेगा ही नहीं तो पढ़ाएगा कौन? प्रखंड के कई गांवों के स्कूलों में तो इतना अधिक नामांकन है जितने कि गांव में बच्चे भी नहीं हैं। नहीं समझे क्या? ज्यादा नामांकन होगा तभी तो भ्रष्टाचार की खिचड़ी ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पकाई जा सकेगी और हेडमास्टरों और सहायक शिक्षकों के वारे-न्यारे हो सकेंगे।
मित्रों,संभवतः पूरे वैशाली जिले में राघोपुर प्रखंड ही ऐसा इकलौता प्रखंड है जहाँ कि पुलिस पब्लिक के रहमोकरम पर जीती है। कभी थाने में घुसकर कोई दारोगा को मार जाता है और प्रशासन उसका बाल बाँका भी नहीं कर पाता तो कभी कोई बाजाप्ता फोन करके दारोगा को जान से मारने की धमकी देता है और दारोगा उसका कुछ भी नहीं उखाड़ पाता।
मित्रों,जहाँ हाजीपुर शहर की जनवितरण प्रणाली की दुकानों में हर महीने सामानों का वितरण किया जाता है वहीं राघोपुर में साल में दो बार भी अगर वितरण हो जाए तो लोग भगवान का शुक्रिया अदा करते हैं। प्रखंड के आंगनबाड़ियों का तो कहना ही क्या? कई स्थानों पर तो आंगनबाड़ी का धरातल पर अस्तित्व ही नहीं है और हर महीनों हजारों बच्चे लाभान्वित भी हो जा रहे हैं। कुपोषण को तो आंगनबाड़ियों ने प्रखंड से निकाल बाहर ही कर दिया है।
मित्रों,यूँ तो वैशाली प्रशासन के लिए राघोपुर हमेशा से टेढ़ी खीर रहा है लेकिन मैं नहीं मानता कि राघोपुर को चुस्त-दुरूस्त नहीं किया जा सकता। इसकी भौगोलिक स्थिति इस दिशा में उतनी बड़ी बाधा नहीं है जितनी बड़ी बाधा बिहार सरकार और उसके अधिकारियों की ईच्छा-शक्ति की कमजोरी है। माना कि साल के 6 महीने तक इस क्षेत्र में सिर्फ नावों के जरिए ही पहुँचा जा सकता है लेकिन बाँकी के 6 महीनों तक तो दो-दो पीपा पुलों की मदद से कभी भी कहीं भी अधिकारी आ-जा सकते हैं। इन 6 महीनों में तो प्रखंड में बहुत-कुछ सुधार लाया जा सकता है। एक और बात,जब तक राघोपुर से होकर पक्के पुल का निर्माण नहीं हो जाता तब तक गंगा के उत्तर पार से भी कम-से-कम एक पीपा पुल का निर्माण तो होना ही चाहिए क्योंकि वैशाली पुलिस-प्रशासन को पीपा पुल चालू होने की स्थिति में भी पटना होकर राघोपुर जाना पड़ता है जो कि गंगा सेतु पर महाजाम लगा होने पर लगभग असंभव-सा हो जाता है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 22 जून 2015

बाबू मोशाय,ब्रांड से नहीं खेल से मैच जीते जाते हैं

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,पूरी दुनिया जानती है कि बंगाली बाबू जगमोहन डालमिया का भारतीय और विश्व क्रिकेट में क्या योगदान है। आपको याद होगा कि आज से दो दशक पहले तक पूर्व क्रिकेट खिलाड़ियों की भुखमरी के किस्से कैसे समाचार पत्रों में छाये रहते थे। यह डालमिया की ही देन है कि आज भारत दुनिया के क्रिकेट का गढ़ बन गया है और भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों की गिनती दुनिया के सबसे धनी खिलाड़ियों में की जाती है। लेकिन अगर हम यह कहें कि क्रिकेट के इसी व्यवसायीकरण ने भारतीय क्रिकेट का बंटाधार करके रख दिया है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज भारतीय क्रिकेट के लिए खिलाड़ियों का चयन कदाचित यह देखकर नहीं किया जाता कि कौन खिलाड़ी अभी कैसा खेल रहा है बल्कि यह देखकर किया जाता है कि किस खिलाड़ी का ब्रांड वैल्यू कितना है।

मित्रों,अगर हम भारत-बांग्लादेश एकदिवसीय शृंखला के नतीजों और दोनों देशों की टीमों पर सरसरी नजर भी डालेंगे तो पाएंगे कि जहाँ बांग्लादेश की टीम में सारे फॉर्म में चल रहे खिलाड़ियों को रखा गया था वहीं भारत की टीम में बड़े-बड़े ब्रांड खेल रहे थे और उनमें से अधिकतर लंबे समय से आउट ऑफ फॉर्म चल रहे थे।

मित्रों,शायद यही कारण था भारत के कागजी शेर बांग्लादेश के नौजवान,जोशीले और देशभक्त खिलाड़ियों के आगे ढेर हो गए और इस प्रकार दोनों ही मैच एकतरफा हो गए। हम यह नहीं कहते कि भारतीय खिलाड़ी देशभक्त नहीं हैं लेकिन सवाल उठता है कि क्या कारण है कि जब भारतीय टीम विश्वकप के सेमीफाईनल में हारती है तो टीम के किसी भी खिलाड़ी की आँखों से आँसू नहीं बहते लेकिन जब वही खिलाड़ी आईपीएल के मैच हारते हैं तो मैदान पर फूट-फूटकर रोने लगते हैं? खेल में पैसा होना तो चाहिए मगर उसके प्रति इतना भी पागलपन नहीं हो कि देश के लिए खेलते समय खिलाड़ियों की प्रतिबद्धता ही खतरे में पड़ जाए।

मित्रों,इसलिए तो हम कहते हैं कि बाबू मोशाय भारतीय क्रिकेट को अगर बचाना है तो टीम से निकाल फेंकिए सारे बिस्कुट-पेप्सी-शैंपू आदि बेचनेवाले चुके हुए ब्रांडों को सिर्फ और सिर्फ उन्हीं खिलाड़ियों को टीम में रखिए जो पूरी तरह से फिट हों,फॉर्म में हों और देश के लिए खेलने में गौरव अनुभव करते हों। देश को ब्रांडों से भरी दिशाहारा टीम नहीं चाहिए बल्कि मैच जितानेवाली,देश का गौरव बढ़ानेवाली मजबूत टीम चाहिए।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 10 जून 2015

अब तेरा क्या होगा लालू?


मित्रों,हिंदी में एक कहावत है और है महाभारतकालीन कि मनुष्य बली नहीं होत हैं समय होत बलवान,भीलन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बान। 15 सालों तक बिहार पर एकछत्र राज करनेवाले लालू प्रसाद को देखकर एकबारगी स्वभाववश दया भी आती है और इस कहावत पर हमारा विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है। दरअसल मानव करण कारक है लेकिन वो खुद को समझ बैठता कर्त्ता है। श्री लालू प्रसाद यादव जी को भी किस्मत ने मौका दिया लेकिन जनाब खुद को खुदा समझ लेने की भूल कर बैठे। बिहार को उन्होंने फैमिली प्रॉपर्टी समझ लिया। दरवाजे पर बंधी गाय समझकर जब जितना चाहा दूहा।
मित्रों,इस लालू के शासन में बिहार का विकास नहीं हुआ विनाश हुआ। बिहार को इन्होंने सीधे रिवर्स गियर में चला दिया। जिस दौर में पूरी दुनिया इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी के पीछे पागल थी उस दौर में यह श्रीमान इसका मजाक उड़ाते हुए कहा करते कि ये आईटी-फाईटी क्या होता है? उनका एक और जुमला उन दिनों काफी मशहूर हुआ करता था कि कहीँ विकास करने से वोट मिलता है वोट तो जात-पात के नाम पर मिलता है?
मित्रों,धीरे-धीरे कैलेन्डर के साथ-साथ वक्त बदला,बिहारियों की सोंच बदली,मानसिकता बदली और आज इन लालू प्रसाद जी की स्थिति ऐसी हो गई है,ये इतने कमजोर हो गए हैं कि इन श्रीमान जो कभी बिहार के साथ-साथ दिल्ली की कुर्सी के भी किंग मेकर हुआ करते थे से खुद सड़कछाप हो चुके सोनिया और राहुल गांधी मिलना तक नहीं चाहते। जिस व्यक्ति ने बिहार पर 40 सालों तक शासन करनेवाली कांग्रेस पार्टी को अपना पिछलगुआ बनाकर रख दिया था आज खुद ही पिछलग्गू बनने को बाध्य है। जिन लोगों को ऐसा लगता था या लगता है कि मुलायम लालू के रिश्तेदार होने के नाते उनका समर्थन करेंगे उनको यह याद रखना चाहिए कि देवगौड़ा और गुजराल के जमाने में मुलायम ही लालू के सबसे बड़े दुश्मन हुआ करते थे और लालू जी जेल भेजवाने में भी सबसे बड़ा हाथ उनका ही था। वैसे भी लालू से मुलायम का यूपी में कुछ बनने-बिगड़ने को नहीं है।
मित्रों,एक बात हमेशा याद रखिएगा कि बिहार में जो पार्टी एक बार पिछलगुआ बन जाती है वह समाप्त ही हो जाती है। यानि अब लालू जी के राजनैतिक जीवन का तो अंत हो ही गया समझिए। भविष्य में बेचारे शरद यादव की तरह नीतीश कुमार की हाँ में हाँ मिलाने का ही एकमात्र काम किया करेंगे। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि भाजपा बिहार में सत्ता में साझीदार थी लेकिन पिछलग्गू नहीं थी। उसके नेता बराबर नीतीश कुमार को पसंद न आनेवाले बयान तो देते रहते ही थे साथ ही उस तरह के काम भी करते रहते थे। लेकिन यहाँ लालूजी की स्थिति वैसी नहीं है। उनको नीतीश जी को अपना नेता मानने के साथ ही खुद अपनी ही पार्टी के नेताओं को नीतीश को नागवार लगनेवाले बयान देने से रोकना पड़ा है। मतलब साफ है कि लालू जी ने अपने साथ-साथ पूरी पार्टी के स्वाभिमान को नीतीश कुमार के चरण कमलों में समर्पित कर दिया है।
मित्रों,लालू जी ने इस अवसर पर यह भी कहा कि भाजपा को हराने के लिए वे जहर पीने को भी तैयार हैं। वास्तविकता भी यही है कि लालू जी ने जहर ही पिया है,एक ऐसा जहर जो न सिर्फ उनकी राजनीति की बल्कि उनकी पार्टी की भी जान ले लेगा। वैसे हमारी लालू जी के साथ कोई हमदर्दी नहीं है। इस आदमी ने बिहार को बर्बाद करके रख दिया और जो कुछ भी थोड़ा-बहुत बिहार बचा हुआ था उसको समाप्त कर दिया उनके छोटे भाई नीतीश कुमार जी ने। आज तो हालत यह कि बिहार फिर से वहीं पर आकर खड़ा हो गया है जहाँ कि 2005 में तब था जब नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। मैं पूछता हूँ  कि नीतीश कुमार जी जीतन राम मांझी जी के एस्टीमेट घोटाले पर कोई जवाब या सफाई क्यों नहीं देते? चाहे सरकारी पुल हो,सड़क या मकान उनके निर्माण में खर्च होता है 1 करोड़ तो एस्टीमेट बनाया जाता है 5 करोड़ का। मांझी जी का तो यह व्यक्तिगत अनुभव था कि कमीशन का पैसा मुख्यमंत्री रहते हुए उनके पास भी पहुँचता था तो क्या नीतीश कुमार तक मांझी जी से पहले और मांझी जी के बाद भी कमीशन का पैसा पहुँचता था या पहुँचता है? अगर नहीं तो बरसात के दिनों में बिहार के कोने-कोने से नीतीश काल में निर्मित पुलों के गिरने की खबरें क्यों आती हैं? नीतीश जी ने पूरे बिहार में बोर्ड लगवा दिए हैं कि इन-इन सड़कों के टूटने की सूचना इस नंबर दें? आप कमीशन खाईए और पब्लिक दिन-रात पागलों की तरह नंबर डायल करती रहे?
मित्रों,वैसे आपको अबतक मेरे द्वारा उठाये गए सवाल का जवाब तो मिल ही गया होगा कि अब लालू जी का क्या होने वाला है। अब लालूजी बिहार से समाप्त हो चुके हैं,उन्होंने आत्मघाती गोल मारकर अपने द एंड को सुनिश्चित कर लिया है। चुनावों में चाहे जीते कोई लालूजी ने चुनाव लड़ने से पहले ही अपनी हार सुनिश्चित कर ली है। लालू जी अब मदारी नहीं रहे जमूरा बन गए हैं जो दूसरों के इशारे पर नाचता है। लेकिन यह मेरे उस सवाल का पूरा जवाब नहीं है। पूरा उत्तर यह है कि अगले कुछ महीनों में लालू जी कदाचित फिर से जेल की शोभा बढ़ाएंगे। अब दिल्ली में उनकी माई-बाप की सरकार नहीं है जो उनको खुल्ला छोड़ देगी। जब छोटे घोटालेबाज चौटाला को चुनावों के दौरान ही जेल भेज दिया गया तो लालू जी तो बहुत ही बड़े घोटालेबाज हैं पीएचडी डिग्रीधारी।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 4 जून 2015

देश की राजनीति का डिब्बा नहीं ईंजन रहा है बिहार

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आप बिहार को गरीब कहकर हँसी भले हीं उड़ा लें लेकिन इस बात से आप इंकार नहीं कर सकते कि बिहार के लोगों में जो राजनैतिक विवेक है वो कई पढ़े-लिखे और समृद्ध कहलानेवाले राज्यों के मतदाताओं में भी नहीं है। यही कारण है कि चाहे छठी सदी ईसा पूर्व के बौद्ध और जैन धर्म आंदोलन हों या चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य का भारत को एक राष्ट्र में बदलने का अभियान या 1857 का पहला स्वातंत्र्य संग्राम हो या 1920 का असहयोग आंदोलन हो या 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन या 1974 का जेपी आंदोलन बिहार ने ईंजन बनकर देश की राजनीति को दिशा दिखाई है। बिहार के लोग इतिहास को दोहराने में नहीं नया इतिहास बनाने में विश्वास रखते हैं।
मित्रों,अब से कुछ ही महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और बिहार की सारी यथास्थितिवादी शक्तियों ने एकजुट होना शुरू कर दिया है। उनको लगता है कि बिहार में 1995 और 2000 ई. जैसे चुनाव-परिणाम आएंगे। ये विकास-विरोधी,बिहार की शिक्षा को रसातल में पहुँचा देनेवाले,भ्रष्टाचार को सरकारी नीति बना देनेवाले और बिजली,चारा,अलकतरा,दवा-खरीद,धान-खरीद,पुल-निर्माण,एस्टीमेट आदि घोटालों की झड़ी लगा देनेवाले घोटालेबाज लोग सोंचते हैं कि बिहार में अगले चुनावों में भी लोग जाति के नाम मतदान करेंगे और इन जातिवादियों की नैया फिर से किनारे लग जाएगी। नीतीश जी ने तो कई बार मंच से कहा था कि अगर साल 2015 तक बिहार के हर घर में बिजली नहीं पहुँचती है तो वे वोट मांगने ही नहीं जाएंगे। बिजली तो मेरी पंचायत जुड़ावनपुर बरारी में ही नहीं है। शाम होते ही पूरी पंचायत अंधेरे के महासागर में डूब जाती है तो क्या नीतीश जी सचमुच इस चुनाव में वोट नहीं मांगेंगे? नीतीश जी ने 2010 के चुनाव जीतने के बाद कहा था कि इस कार्यकाल में उनकी सरकार भ्रष्टाचार के विरूद्ध जीरो टॉलरेंस की नीति अख्तियार करेगी तो क्या बिहार से भ्रष्टाचार समाप्त हो गया? फिर क्यों बिहार में रोजाना नए-नए घोटाले सामने आ रहे हैं? क्या यही है जीरो टॉलरेंस की नीति?
मित्रों,कितने आश्चर्य की बात है कि पूरी दुनिया में सत्ता-पक्ष को हराने के लिए मोर्चे बनाए जाते हैं,गठबंधन किए जाते हैं लेकिन बिहार में विपक्ष को रोकने के लिए पहले महाविलय का नाटक किया गया और अब गठबंधन की नौटंकी की जा रही है। कल तक लालू-राबड़ी राज आतंकराज था और लालू-राबड़ी आतंकवादी थे लेकिन आज बड़े भाई और भाभी हो गए हैं। लालू जी भी मंचों से कहा करते थे कि ऐसा कोई सगा नहीं जिसको नीतीश ने ठगा नहीं और खुद पहुँच गए उस आदमी की शरण में जिसने पूरे बिहार की जनता को ठगा है और आज लालू भी खुद को ठगे हुए महसूस कर रहे हैं। नीतीश ने लालू को किनारे लगाकर कांग्रेस से खुद को मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित करवा लिया है और खुद को राजनीति का पीएचडी कहनेवाले लालू जी की समझ में ही नहीं आ रहा है कि अब करें तो क्या करें?
मित्रों,यह सच्चाई है कि जबतक बिहार में भाजपा नीतीश सरकार में शामिल थी तब तक बिहार ने 14 प्रतिशत की दर से विकास किया। तब भी नीतीश कुमार कहा करते थे कि इस रफ्तार से विकास करने पर भी बिहार को अन्य विकसित राज्यों की बराबरी में आने में 20 साल लग जाएंगे और उनके पास 20 साल तक इंतजार करने  लायक धैर्य नहीं है। आज उन्होंने जबसे भाजपा को सरकार से निकाल-बाहर किया है बिहार की विकास दर आधी हो चुकी है और 7 प्रतिशत तक लुढ़क चुकी है। जाहिर है कि अब तो नीतीश जी को 100 सालों तक इंतजार करने लायक धैर्य एकत्रित करना पड़ेगा। लेकिन सवाल उठता है कि क्या बिहार की जनता 100 सालों तक इंतजार करेगी? क्या भारत की तीसरी सबसे बड़ी युवा आबादी को धारण करनेवाले बिहार के लोगों के पास आज 100 सालों तक विकास का इंतजार करने लायक धैर्य है?
मित्रों,कदापि नहीं,कदापि नहीं!!  इतना ही नहीं भाजपा को हटाने के बाद से बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति में इतनी गिरावट हो चुकी है कि लगता है कि बिहार फिर से नीतीशकथित आतंकराज में पहुँच गया है। लालू-नीतीश बिहारी होकर भी बिहार को नहीं समझ पाए हैं। बिहार कोई दिल्ली नहीं है जो बार-बार मूर्खता करे और अपने विकास के मार्ग को रायता विशेषज्ञों को मत देकर खुद ही अवरूद्ध कर ले। बिहार के लोग कम पढ़े-लिखे भले हीं हों लेकिन बिहार का अनपढ़ चायवाला या रिक्शावाला भी इतनी समझ रखता है कि कौन उसका और उसके राज्य का वास्तविक भला चाहता है। बिहार की जनता में अब विकास की भूख जग चुकी है। वैसे भी केंद्र की मोदी सरकार ने बिहार की सारी मांगों को एकसिरे से न सिर्फ मंजूर कर लिया है बल्कि उससे भी ज्यादा दे दिया है जितने कि नीतीश कुमार की सरकार ने मांग की थी। इतिहास गवाह है कि बिहार की जनता लगातार नए प्रयोग करने में विश्वास रखती है। वो लालू और नीतीश दोनों को देख चुकी है,परख चुकी है इसलिए ये दोनों तो इसबार के चुनाव में शर्तिया माटी सूंघते हुए ही दिखनेवाले हैं। भाजपा अगर बिहार में जीतती है तो निश्चित रूप से भारतमाता की बांयीं बाजू को मजबूत बनाने के नरेंद्र मोदी के संकल्प पर तेज गति से काम होगा और दुनिया में भारत अतुल्य भारत तो बनेगा ही वसुधा पर बिहार का भी जोड़ा नहीं मिलेगा। 1947 में जो बिहार प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश में दूसरा स्थान रखता था 2047 आते-आते कदाचित पहला स्थान प्राप्त कर लेगा और बिहार की जनता इस बात को बखूबी जानती और समझती है। ये बिहार की पब्लिक है बाबू और ये जो पब्लिक है वो सब जानती है,कौन बुरा है कौन भला है ये न सिर्फ पहचानती है बल्कि देश में सबसे ज्यादा पहचानती है।

हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित