सोमवार, 29 मई 2017

मोदी सरकार, काम बहुत है समय है थोडा

मित्रों, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को तीन साल पहले गुजरात छोड़कर केंद्रीय राजनीति में आए.  यह पहली बार हुआ कि एक वर्तमान मुख्यमंत्री देश का प्रधानमंत्री बना. उनको चुनने का कारण साफ था गुजरात के बाहर मोदी की कार्यशैली, निर्णय लेने की क्षमता, कुछ नया करने की इच्छाशक्ति और भविष्य को ध्यान में रखकर तकनीक का प्रयोग आदि की खबरें जो आई उसने लोगों के दिलोदिमाग पर एक ही छाप छोड़ी, अबकी बार मोदी सरकार.पहले लोग गुजरात के बाहर मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के जानते थे. अब लोग एक पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी को जानते और समझने लगे हैं. पिछले तीन सालों में पीएम मोदी के प्रति लोगों का लगाव कुछ ऐसा बढ़ा है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आने का नाम ही नहीं ले रहा है. विपक्ष आज भी इस बात से परेशान है.

मित्रों,शायद ही इससे पहले किसी प्रधानमंत्री का स्वच्छता के प्रति इतना झुकाव देश ने देखा होगा. खुद झाड़ू लेकर मैदान में उतरना और लाखों लोगों को इसके लिए प्रेरित करना आसान काम नहीं है. लेकिन पीएम मोदी ने बखूबी कर दिया. परिणाम कितना मिला इस बारे में ज्यादा नहीं कहा जा सकता, लेकिन देश में लोग इस बारे में प्राथमिकता से विचार जरूर करने लगे हैं.

मित्रों,पीएम नरेंद्र मोदी काफी मेहनती है. कहा जाता है कि दिन में 18 घंटे वह काम करते हैं. समय की पाबंदी पसंद करते हैं. जब से सत्ता में आए इन्होंने सरकारी कर्मचारियों में इसे लागू करवाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी. कई मंत्रालयों में जहां कर्मचारी १२  बजे के बाद दिखाई देते थे और 3 बजे तक कुर्सियां खाली होना शुरू हो जाती वहां की परिस्थिति बिल्कुल बदल गई है. पीएम मोदी ने आदेश देकर सभी केंद्रीय सरकारी कार्यालयों में बायोमेट्रिक मशीन लगाने के आदेश दे दिए.

मित्रों,नरेंद्र मोदी सरकार ने पाकिस्तान के नियंत्रण वाले कश्मीर के हिस्से में सर्जिकल स्ट्राइक की मंजूरी दी और भारतीय सेना ने पहली यह कारनामा कर पूरी दुनिया को अचरज में डाल दिया.

मित्रों,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आते ही यह प्रयास आरंभ किए कि भ्रष्टाचार पर पूर्णतया अंकुश लगे. इसके लिए सरकार ने सभी सरकारी भुगतान ऑनलाइन करने का निर्णय लिया. टेंडरों को पूरी तरह ऑनलाइन करने का आदेश दिया. इस प्रकार के कई आदेश सरकार दिए और इसकी उपलब्धि कितनी है इस बारे में ठोस नहीं कहा जा सकता है. कहा जा सकता है तो सिर्फ इतना कि पिछले तीन साल में अभी  तक सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा है. जबकि पिछली सरकार में मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक पर आरोप लगते रहे.

मित्रों,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 8 नवंबर को तत्कालीन 500 और 1000 के नोट को बंद करने का ऐलान किया. देश की पूरी अर्थव्यवस्था जैसे रुक गई. पीएम ने लोगों ने दो महीने का समय मांगा और लोगों ने दिया. लोगों को काफी कष्ट झेलने पड़े. विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाने का प्रयास किया. नोटबंदी को गलत कदम करार दिया. चुनाव में भुनाने का प्रयास भी लेकिन यह लोगों का मोदी से विश्वास कम नहीं हुआ.

मित्रों,पीएम मोदी अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी सजग हैं. वह सुबह उठकर योग करते हैं. उन्होंने पूरी दुनिया में योग दिवस मनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र से संपर्क किया और भारत के नाम एक अंतरराष्ट्रीय सफलता लगी. इतना ही नहीं वह लगातार लोगों से यह अपील कर रहे हैं कि वे अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दें.

मित्रों,जब प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम थे तभी से वह लगातार सोशल मीडिया के जरिए लोगों से जुड़े रहे हैं. मोबाइल तकनीक और सूचना तकनीक का प्रयोग कामकाज में करने के वे तभी से पक्षधर रहे हैं ताकि पारदर्शिता बने और काम सहज हो. यह प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की देश को एक देन है कि भारत में राष्ट्रपति का एक ट्विटर हैंडल  बना. पीएमओ का ट्वीटर हैंडल, पीएम का, सभी मंत्रालयों और मंत्रियों को ट्वटीर से लोगों से जुड़ने का आदेश दिया गया और सभी को सक्रियता से इससे जुड़ने की बात कही गई. परिणाम साफ है कि विदेश मंत्रालय से लेकर रेल, और कई अन्य मंत्रालयों में लोगों ने ट्विटर के जरिए अपनी समस्याओं का समाधान किया. कई बार तो बड़ी समस्याओं का समाधान एक ट्वीट से हो गया. उससे से बड़ी बात समय पर लोगों को सुविधा मिली और लोगों ने पीएम की इस मुहिम का लाभ उठाया।

मित्रों,मोदी डिजिटल भारत के सपने को लेकर आगे बढ़ रहे हैं. सरकार के सभी विभागों को डिजिटलाइजेशन के लिए प्रेरित कर रहे हैं. उनका मानना है कि इससे पर्यावरण से लेकर धन की हानि दोनों को बचाया जा सकता है. कई सरकारी काम अब इस माध्यम से होने लगे हैं. इतना ही नहीं कई ऐसे फॉर्म को सरल किया जिसके चलते पहले लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ता था.

मित्रों,पीएम ने न्यू इंडिया की संकल्पना की है. उन्होंने इसके लिए कैशलेस भारत की बात कही है. वह चाहते हैं कि देश में नकदी का चलन कम-से-कम हो. यह सबसे बड़ा माध्यम है भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का. पीएम को कितनी कामयाबी मिली, या मिलेगी यह तो साफ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन लोगों ने माना कि पीएम भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत किलेबंदी की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.

मित्रों,आजादी के पहले अंग्रेजों ने भारत के लिए कई कानून बनाए. आजादी के बाद भी हजारों की संख्या में इस प्रकार के कानून भारत में चलते रहे. कई ऐसे कानून भी हैं जिनकी अब आवश्यकता ही नहीं रही. आजादी के 70 से भी ज्यादा साल हो गए. कई सरकारें आईं लेकिन किसी ने भी इस ओर विचार नहीं किया. नरेंद्र मोदी सरकार ने कई ऐसे कानून रद्द कर दिए जिनकी अब कोई जरुरत नहीं है. इस तरह 1000 से ज्यादा कानून रद्द कर दिये गए हैं. वे अपनी इस मुहिम में रोज आगे बढ़ रहे हैं. उनका मानना है कि कई गैरजरूरी कानून लोगों के लिए दिक्कत पैदा करते हैं.

मित्रों,योजना आयोग अब इतिहास हो गया है. इसके स्थान पर पीएम मोदी ने नीति आयोग का गठन किया है. जब मोदी गुजरात के सीएम थे तब योजना आयोग, उसकी कार्यशैली और राज्यों से व्यवहार उन्हें उचित नहीं लगा. राज्यों से केंद्र के बेहतर समन्वय के लिए उन्होंने नीति आयोग का गठन किया.

मित्रों,अंतरराष्ट्रीय मंच पर आतंकवाद को नीति के रूप में प्रयोग कर रहे पाकिस्तान को भारत ने अलग-थलग कर दिया. आज पाकिस्तान पर अमेरिका से लेकर कई देशों ने दबाव बनाया है कि वह आतंकवाद को प्रशय देना बंद करे. इस काम में मोदी सरकार को बड़ी कामयाबी मिली है.

मित्रों,पिछले काफी समय से चीन भारत के बड़े भाई की भूमिका में आने के प्रयास में रहा. एक तरफ जहां वह पाकिस्तान की मदद कर रहा है वहीं भारत के कई हिस्से पर अपना दावा करता रहा है. एलएसी को वह स्वीकार नहीं कर रहा है. लेकिन कई दशकों बाद भारत ने लेह में 100 टैंक भेजे और युद्धाभ्यास किया. वहीं अरुणाचल प्रदेश के विकास और सीमा पर सड़क निर्माण कार्य को तेजी से आगे बढ़ाया गया.

मित्रों,मगर ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार किसी मोर्चे पर विफल न हुई हो. टूटे और अधूरे वादों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, ख़ास तौर पर रोज़गार और विकास के मामले में, सरकारी आँकड़े ही चुगली कर रहे हैं कि रोज़गार के नए अवसर और बैंकों से मिलने वाला कर्ज़, दोनों इतने नीचे पहले कभी नहीं गए । स्वयं केंद्र सरकार के लेबर ब्यूरो के आँकड़े कहते है कि मोदी सरकार अब तक सिर्फ 9 लाख 97 हजार नौकरियां दी हैं। रोजगार को बढ़ाना तो दूर की बात है, बड़े महकमे में जो पद सालों से खाली है वो भी अब तक नहीं भरे जा पाए हैं।

मित्रों,भाजपा के घोषणा पत्र में जो वायदे किए गए थे उनमें हर साल दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देना, किसानों को उनकी उपज का समर्थन मूल्य लागत से दोगुना मूल्य देना, विदेशों में जमा कालेधन की सौ दिनों के भीतर वापसी, भ्रष्टाचार के आरोपी सांसदों-विधायकों के मुकदमों का विशेष अदालतों के जरिए एक साल में निपटारा, महंगाई पर प्रभावी नियंत्रण, गंगा तथा अन्य नदियों की सफाई, जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 का खात्मा, समान नागरिक संहिता लागू करना, कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी, गुलाबी क्रांति यानी गोकशी और मांस निर्यात पर प्रतिबंध, देश में सौ शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में तैयार करना आदि प्रमुख वायदे थे। इन सभी वादों में से अधिकांश वादों में मोदी सरकार असफल है और कुछ मुद्दों पर प्रयासरत है किंतु अब तक कोई ठोस परिणाम नहीं मिले है। हालाँकि कई स्टार्ट अप और आवास योजनाएं चलाईं गयी हैं लेकिन आज भी बैंक से इनका लाभ उठाना आसान नहीं है.

मित्रों,कई बार लगता है कि जैसे यह सरकार जनता से कुछ छिपाना चाहती है. पता नहीं वो नोट बंदी के आंकड़े क्यों छिपाना चाहती है? इसी तरह सवाल उठता है कि क्या सरकार लोकपाल को सचमुच में नियुक्त करना चाहती है? हम तो समझे थे कि यूपी की भाजपा सरकार देशभर की राज्य सरकारों के लिए एक उदाहरण साबित होगी लेकिन वहां की योजनाओं में आज भी अल्पसंख्यक कोटा बना हुआ है? मोदी सरकार ने नई जातियों को ओबीसी कोटे में शामिल करने के राज्य सरकार के अधिकार को संसद को सुपुर्द कर दिया है लेकिन क्या गारंटी है कि मोदी सरकार इसका दुरूपयोग नहीं करेगी? जिस तरह मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा समाप्त कर दिए गए प्रोन्नति में आरक्षण को फिर से लागू करने जा रही है उससे तो यही संदेह उत्पन्न होता है.

मित्रों,जिस तरह से बड़े पैमाने पर कांग्रेस के नेताओं को भाजपा में शामिल किया जा रहा है उससे तो लगता है कि आने वाले समय में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह साबित करना होगी कि उसका कांग्रेसीकरण तो नहीं हो रहा है. और यह साबित करना भी होगी कि उसके लिए आज भी नेशन फर्स्ट है कुर्सी नहीं? और ये सब साबित करने के लिए उसके पास बहुत कम समय शेष बचा है,बहुत कम.

शनिवार, 13 मई 2017

न्यायपालिका में कितने कर्णन?

मित्रों,न्याय करना बच्चों का खेल नहीं है. इसके लिए अतिसूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता होती है. प्राचीन काल में कई बार राजा चुपके से वेश बदलकर घटनास्थल पर जाकर सच्चाई का पता लगाते थे. एक प्रसंग प्रस्तुत है. एक बार अकबर के पास एक मुकदमा आया जिसमें एक व्यक्ति दूसरे पर कर्ज लेकर न लौटाने के आरोप लगा रहा था. सारे गवाह कथित कर्जदार के पक्ष में थे लेकिन कर्जदाता की बातों से सच्चाई जैसे छलक-छलक रही थी. अब फैसला हो कैसे? तभी बीरबल ने दोनों को सुनसान सड़क पर एक लाश के पास बैठा दिया और आधे घंटे बाद लाश उठाकर लाने को कहा. दोनों बेफिक्र होकर लाश के पास बैठकर बातें करने लगे. कर्जदार ने कहा मैंने कहा था न कि मैं तुमको ही झूठा साबित कर दूंगा. क्या जरुरत थी तुमको बेवजह अपनी मिट्टी पलीद करवाने की? तुम्हारे पैसे तो मैंने लौटाए नहीं ऊपर से तुम्हारी ईज्ज़त को भी तार-तार कर दिया. दूसरा बेचारा चुपचाप सुनता रहा. आधे घंटे बाद जब वे दोनों लाश लेकर दरबार में पहुंचे तो फिर से सुनवाई शुरू हुई. फिर से बेईमान का पलड़ा भारी था कि तभी लाश बना गुप्तचर उठ बैठा और सच्चाई सामने आ गयी.
मित्रों,अब बताईए कि हमारी वर्तमान न्यायपालिका किस तरह काम करती है? क्या वो गवाहों के बयानात,जांच अधिकारी की रिपोर्ट, कानून की विदेशी किताबों में दर्ज लफ्जों और वकीलों की दलीलों के आधार पर अपने फैसले नहीं सुनाती है? अगर उसके समक्ष उपर्लिखित मामला या उसके जैसा कोई मामला जाता तो वो क्या करती? न्याय या अन्याय? हमारी आज की जो न्याय-व्यवस्था है उसमें निश्चित रूप से अन्याय होता और होता भी होगा.
 मित्रों,हमारे देश में विलंबित मुकदमों की भारी संख्या होने के पीछे एक कारण यह भी है कि कई दशकों की देरी के बाद जब फैसला आता है तो पीड़ित पक्ष को न्याय नहीं मिलता. कौन देगा न्याय की गारंटी? किसकी जिम्मेदारी है यह? मैं मानता हूँ कि निश्चित रूप से यह उच्च न्यायपालिका, सरकार यानि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की संयुक्त जिम्मेदारी है.
मित्रों,लेकिन हमारे उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश क्या कहते हैं? कदाचित उनका तो यह मानना है कि वे निरंकुश हैं. संविधान क्या कहता है इससे उनको फर्क नहीं पड़ता वे जो कहते हैं वही संविधान है और कानून भी. जब जैसा चाहा वैसी व्यवस्था दे दी और कई बार तो वे खुद ही अपने लिए नई व्यवस्था बना लेते हैं जबकि ऐसा करने से व्यवस्थापिका के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण होता है. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने संसद और 20 विधानसभाओं से एक सुर में पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) कानून को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया उसके बाद तो यह सवाल उठने लगा है कि संसद और विधान-सभाओं की आवश्यकता ही क्या है? क्या जजों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था आसमानी है जिसमें लाख कमियों के बावजूद कोई बदलाव नहीं हो सकता? अगर इसी तरह अतिनिराशाजनक स्थिति को बदलने के लिए उच्चतर न्यायपालिका कुछ करेगी नहीं और कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को करने भी नहीं देगी तो यथास्थिति बदलेगी कैसे? क्या इसी तरह कर्णन जैसे विचित्र स्थिति पैदा करनेवाले विचित्र लोग जज बनते रहेंगे? जब जज ऐसे होंगे तो फैसले कैसे सही हो सकते हैं? कितने महान निर्णय हमारी उच्च न्यायपालिका देती है उदाहरण तो देखिए. कोई मुसलमान १५ साल की उम्र में शादी तो कर सकता है लेकिन बलात्कारी या हत्यारा नहीं हो सकता. बलात्कारी या हत्यारा होने के लिए उसको १७ साल,११ महीने और ३० दिन का होना होगा. सोंचिए अगर निर्भया के सारे बलात्कारी हत्यारे नाबालिग होते तो? तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होता? तब सुप्रीम कोर्ट कहता कि हत्या हुई ही नहीं,बलात्कार भी नहीं हुआ वो तो बच्चों से गलती हो गई? इसी तरह से बतौर न्यायपालिका जलिकट्टू क्रूरता है क्योंकि इसमें जानवर घायल हो जाते हैं लेकिन सरकार को वधशालाओं को बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि पशुओं का मांस खाना लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार है. क्या फैसला है? हत्या अपराध नहीं लेकिन घायल करना अपराध है. इसी तरह से हमारी न्यायपालिका मानती है कि कुरान में जो कुछ भी लिखा गया है सब सही है लेकिन यही बात वेद-पुराणों के लिए लागू नहीं हो सकती.
मित्रों,कितने उदाहरण दूं भारत की महान न्यायपालिका के महान फैसलों के? पूरी धरती को पुस्तिका बना लूं फिर भी स्थान की कमी रह जाएगी. जब तक कर्णन जैसे कर्णधार जज बनते रहेंगे उदाहरणों की कमी नहीं रहेगी. वो कहते हैं न कि बर्बादे गुलिस्तान के लिए बस एक ही उल्लू काफी है,हर डाल पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तान क्या होगा.. आप कहेंगे कि न्यायाधीशों के लिए ऐसा कहना उचित नहीं होगा. मगर क्यों? क्या गाली सुनना सिर्फ नेताओं का जन्मसिद्ध अधिकार है? मुलायम बोले तो गलत और जज बोले तो सही? क्या जज आदमी नहीं होते, जन्म नहीं लेते? सीधे धरती पर स्वर्ग से आ टपकते हैं?

सोमवार, 8 मई 2017

कोई उम्मीद बर नहीं आती

मित्रों,भगत चा यानि शिव प्रसाद भक्त उसी आरपीएस कॉलेज,चकेयाज,महनार रोड,वैशाली  में दफ्तरी हैं जहाँ से मेरे पिताजी साल २००३ में प्रधानाचार्य बनकर रिटायर हो चुके हैं.उनसे मेरा परिचय तब हुआ जब १९९२ में हमारा परिवार जगन्नाथपुर छोड़कर महनार आ गया.यह उनके व्यक्तित्व का ही जादू था कि वे बहुत जल्द हमारे परिवार का हिस्सा बन गए.मेरी छोटी दीदी की शादी में लगभग सारा इंतजाम उन्होंने ही किया था.
मित्रों,भगत चा १९८० से कॉलेज में हैं लेकिन उनको वेतन नहीं मिलता है. इन ३७ सालों में उन्होंने अनगिनत कष्ट झेले हैं लेकिन क्या मजाल की एक दिन के लिए भी कॉलेज से गैरहाजिर हुए हों. मैंने उनको उदास तो कई बार देखा लेकिन हताश कभी नहीं. जेब और पेट भले ही खाली हों चेहरे की मुस्कान हरदम बनी रही.पत्नी और बच्चों को भी हरपर अपनी जरूरतों में कटौती करनी पड़ी लेकिन उन्होंने भी हमेशा उनका साथ दिया.आरपीएस में ऐसे लगभग डेढ़ दर्जन लोग थे जिनको वेतन नहीं मिलता था.पिछली पंक्ति में हैं की जगह थे का प्रयोग मैंने इसलिए किया है क्योंकि उनमें से २ अभाव और भूख से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं.एक बार नहीं दो-दो बार पटना उच्च न्यायालय ने उनको वेतन और बकाया देने का आदेश दिया.मौत आ गयी लेकिन वेतन नहीं आया.वेतन का इंतजार जिन्दगी को होती है जनाब मौत को नहीं.
मित्रों,अभी पिछले साल बीआरए बिहार विवि के रजिस्ट्रार की तरफ से कॉलेज के प्रधानाचार्य के पास पत्र आया कि इन लोगों को वेतन भुगतान शुरू किया जाए लेकिन बड़ी ही चालाकी से यह नहीं बताया गया कि किस मद से.लिहाजा फिर से गेंद को विवि के पाले में डाल दिया गया. अब रजिस्ट्रार साहब को ४ लाख रूपये चाहिए तभी वे फिर से कॉलेज में पत्र भेजेंगे मद को स्पष्ट हुए.मगर यह पैसा देगा कौन और कहाँ से? ४० साल की अवैतनिक गृहस्थी के बाद किसी के पास कुछ बचा ही कहाँ होता है साहेब बहादुर को नजराना देने के लिए.बूढ़े और जर्जर हो चुके जिस्मों में खून तक तो शेष नहीं वर्ना वही पिला दिया जाता.
मित्रों,तो मैं बात कर रहा था भगत चाचा यानि भगत चा की.भगत चा इन दिनों मृत्यु शैया पर हैं शर शैया पर तो १९८० से ही थे.उनको लीवर का कैंसर है जो अंतिम स्टेज में है.कुछ भी नहीं पच रहा.नसों में खून नहीं बचा जिसके चलते स्लाईन चढ़ाना भी मुमकिन नहीं.डॉक्टरों ने ३ महीने की समय-सीमा तय कर दी है.पहले से ही कर्ज में चल रही गृहस्थी अब और भी ज्यादा कर्ज में है.घर में सिवाय चंद बर्तनों और कपड़ों के पहले भी कुछ नहीं था और आज भी नहीं है. कभी जिस भगत चा को उनके शिक्षक सितारे हिन्द कहकर बुलाते थे वही भगत चा आज डूबता हुआ तारा हैं.६० साल की जिंदगी में ४० साल का भीषण संघर्ष अब समाप्ति की ओर है.भगवान का एक अनन्य भक्त अब भगवान से निराश होकर भगवान के पास जा रहा है.देखना यह है कि मौत पहले आती है या वेतन पहले आता है.देखना है कि विश्वास जीतता है या हारता है?देखना यह है कि क्या भगत चा भी बिना वेतन पाए ही ३ महीने में जिंदगी से रिटायर हो जाने वाले हैं वैसे नौकरी अब भी ६ महीने की बची है.देखना यह भी है कि चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेनेवाले ऊपर से नीचे तक आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे  विवि प्रशासन का जमीर जागता है या नहीं. वैसे सच पूछिए तो मुझे तो इस चमत्कार की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. बतौर ग़ालिब-

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती

मंगलवार, 2 मई 2017

बड़े बेआस होकर हम पटना एम्स से निकले

मित्रों,जब हम दिल्ली में थे तो एक बार 2006 में दिल्ली एम्स में पूर्व विधायक महेंद्र बैठा जी जो मेरे मित्र अजय के पिता हैं के साथ जाने का अवसर मिला था. सुअवसर नहीं बोलूँगा क्योंकि तब उनकी तबीयत बहुत खराब थी. वहाँ की व्यवस्था देखकर मैं दंग था और तभी से सोचने लगा कि ऐसा कोई अस्पताल बिहार में होता तो कितना अच्छा होता.
मित्रों,शायद यही कारण था कि जब ४ साल पहले पटना में एम्स का उद्घाटन हुआ तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था और स्वाभाविक रूप से मेरे मन में पटना एम्स को लेकर कई कल्पनाओं ने जन्म ले लिया. मैं सोचता था कि यहाँ भी दिल्ली एम्स की तरह लाजवाब व्यवस्था होगी और दिल्ली की तरह ही पैरवी लेकर आनेवालों से कहा जाता होगा कि हम राष्ट्रपति की भी नहीं सुनते लाईन में जाइए. और शायद यही कारण था कि जब मेरी पत्नी विजेता की तबियत ख़राब हुई तो मैंने आँख बंद कर पटना एम्स का रूख किया। १७ अप्रैल को हम वहां सुबह-सुबह जा पहुंचे लेकिन तब तक रजिस्ट्रेशन की लाईन हनुमान जी की पूँछ की तरह काफी लम्बी हो चुकी थी. मेरी पत्नी विजेता महिलाओं वाली पंक्ति में खड़ी हो गयी. ८ बजे से १२ बजे तक पंक्ति में खड़े रहने के बाद उसका रजिस्ट्रेशन हुआ और कहा गया कि नई वाली ओपीडी में चली जाए. पता नहीं क्यों वहां रजिस्ट्रेशन के लिए और काउंटर नहीं खोला जाता. शायद वहां के प्रशासक को धक्का-मुक्की अच्छी लगती है. वहां से उसे १०९ नंबर कमरे में जाकर पेशाब जाँच कराने को कहा गया. वहां भी पैसा जमा करने में वही धक्का-मुक्की. जब हम जाँच रिपोर्ट लेकर गए तब लांच ब्रेक हो चुका था. हम काफी खुश थे क्योंकि जाँच रिपोर्ट बता रही थी कि मैं एक बार फिर से बाप बनने जा रहा हूँ. लंच ब्रेक के बाद जब डॉक्टर विराजमान हुई तो एक नया खेल देखने को मिला। लोग जान-पहचानवाले स्टाफ को साथ में लेकर आते और दिखलाकर चले जाते. हमारी कोई पहचान तो है नहीं सो हमारे पास विरोध करने के और नरेंद्र मोदी ऐप पर जाकर शिकायत करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था. किसी तरह से साढ़े ५ बजे विजेता का बुलावा आया. डॉक्टर साहिबा को तब तक घर जाने की जल्दी हो चुकी थी. सो उन्होंने कुछेक जाँच और सिर्फ फोलिक एसिड लिखकर अपनी ड्यूटी पूरी कर ली. उनका भी क्या दोष बांकी के स्टाफ भी तो यही कर रहे थे. हम फिर से १०९ की तरफ भागे. वहां मौजूद स्टाफ को भी शायद घर भागने की जल्दी थी. उसने जाँच के लिए खून तो ले लिया लेकिन यह नहीं बताया कि एक जाँच बच गयी है जिसके लिए खाली पेट आना होगा.
मित्रों,कल होकर मुझे भी अपना खून खाली पेट में जाँच के लिए देना था सो मैं पटना एम्स गया और लौट भी आया. लेकिन अगली बात जब २१ तारीख को पत्नी जाँच रिपोर्ट लेकर डॉक्टर के पास गयी तो डॉक्टर ने बताया कि यह रिपोर्ट अधूरी है क्योंकि एक जाँच होनी तो बांकी ही रह गयी. हमारे पास भिन्नाए मन से घर लौट जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था. हम फिर से कल होकर एम्स गए और खून दिया. अंततः वह दिन भी आया जब हम सारी जाँच रिपोर्ट लेकर डॉक्टर के समक्ष उपस्थित हुए. मगर यह क्या डॉक्टर ने एक घटिया कंपनी की मल्टीविटामिन वीटा गोल्ड के सिवा और कुछ लिखा ही नहीं. मैं जानता था कि यह दवा भले ही ए टू जेड से ज्यादा मंहगी थी मगर क्वालिटी में उससे हलकी थी. शायद कमीशन का कोई चक्कर होगा.
मित्रों,अब तक हम एम्स का चक्कर लगाते-२ थक चुके थे. बाईक से ५० किलोमीटर आना और ५० किलोमीटर जाना. जाँच-फाँच में भी पांच-६ हजार की अच्छी-खासी राशि खर्च हो चुकी थी. अब हमने एम्स से तोबा ही कर लिया था. वहां से वापस आते हुए रास्ते में हम सोंच रहे थे कि अगर एम्स में भी यही सब होना था तो पीएमसीएच और आईजीएमएस तो पटना में पहले से था ही. हम सोंच रहे थे कि एम्स किसी बिल्डिंग का नाम है या सोंच का या फिर एक कोरे सपने का? फिर हमने जो दिल्ली एम्स में देखा था वो क्या था?