बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

नीतीश जी आप ऐसे तो न थे

मित्रों, आपको याद होगा कि जब नीतीश कुमार जी २००५ में बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए थे तब बिहार की सडकों की क्या स्थिति थी. स्टेट हाईवे तो स्टेट हाईवे राज्य के नेशनल हाईवे की स्थिति भी इतनी बुरी थी कि पता ही नहीं चलता था कि गड्ढे में सड़क है या सड़क में गड्ढा. तब नीतीश जी ने दरियादिली दिखाते हुए न सिर्फ स्टेट हाईवे बल्कि नेशनल हाईवे की भी मरम्मत राज्य सरकार के खजाने से करवाई थी जबकि ऐसा करना उनकी जिम्मेदारियों में शामिल नहीं था. तब उनकी सोंच महान थी कि पैसा कहीं से भी व्यय हो राज्य का भला होना चाहिए.
मित्रों, अभी कुछ दिनों पहले जब हमने उन्हीं नीतीश कुमार जी को बिहार के विश्वविद्यालयों के बारे में मीडिया से बात करते हुए देखा तो सहसा न तो आखों को और न ही कानों को ही यकीन हुआ. श्रीमान फरमा रहे थे कि विश्वविद्यालय उनकी जिम्मेदारी नहीं हैं क्योंकि उनके कुलाधिपति तो राज्यपाल होते है.
मित्रों, बात दरअसल यह है कि बिहार राज्य के विवि शिक्षकों और कर्मचारियों को प्रत्येक महीने वेतन और पेंशन नहीं मिलता है. कभी-कभी तो ४-चार महीने की देरी राज्य सरकार की ओर से की जाती है. इस बीच उनके परिवार की आर्थिक स्थिति कितनी खस्ता हो चुकी होती है का आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं. इस साल सितम्बर का वेतन-पेंशन अभी तक नहीं आया है जबकि सारे खर्चीले हिन्दू त्योहार इसी दौरान आते हैं. इस बीच जब कुछ दिन पहले पत्रकारों ने नीतीश जी से विवि के वेतन-पेंशन के बारे में पूछ लिया तो नीतीश जी ने मामले से पूरी तरह से अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा कि यह उनकी जिम्मेदारियों में आता ही नहीं है.
मित्रों, आप सहज ही अनुमान लगा सकते है कि जब राज्य का मुखिया ही अपनी जिम्मेदारियों के प्रति इस कदर उदासीन होगा तो राज्य में शिक्षा या सम्पूर्ण शासन-प्रशासन की स्थिति कैसे सुधर सकती है? क्या राज्य के विवि में दूसरे राज्य के लोग नौकरी करते हैं या उनमें दूसरे राज्यों के बच्चे पढ़ते हैं? अगर विश्वविद्यालय राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं हैं तो हैं किसकी जिम्मेदारी? विश्वविद्यालय अधिनियम क्या अमेरिका की विधानसभा में पारित हुए थे या राज्यपाल को कुलाधिपति कहाँ की विधानसभा ने बनाया है? राज्य सरकार में सारे काम तो राज्यपाल के नाम पर ही होते हैं तो क्या मुख्यमंत्री की कहीं कोई जिम्मेदारी है ही नहीं? पता नहीं नीतीश जी को यह पल्ला झाड़ने की बीमारी कहाँ से लगी? कहीं केजरीवाल जी से तो नहीं जो लम्बे समय तक दिल्ली के विभागविहीन मुख्यमंत्री रह चुके हैं?
मित्रों, कदाचित बिहार के दिहाड़ी मजदूर भी नीतीश जी की जिम्मेदारियोंवाली सूची में नहीं आते हैं. तभी तो उनकी सरकार ने पिछले कई महीनों में राज्य में बालू के खनन पर रोक लगा रखी है जिससे राज्य में भवन-निर्माण का काम पूरी तरह से ठप है. अब अगर इन लाखों मजदूरों या विवि शिक्षकों-कर्मचारियों के परिवार में कोई भुखमरी से मर जाता है तो सरकारी डॉक्टर तो यही कहेंगे कि इसकी मौत भुखमरी से नहीं हुई है बल्कि मलेरिया का मच्छर काटने से किडनी में हार्ट अटैक हो गया था?

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

निरंकुश न्यायपालिका के खतरे

मित्रों, हम सभी जानते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में न तो कार्यपालिका, न ही संसद और न न्यायपालिका को ही बल्कि संविधान को ही सर्वोच्च कहा है. संविधान के अनुसार कानून बनाना संसद का काम होगा और संविधान की रक्षा करना न्यायपालिका का. यद्यपि तीनों के बीच अधिकारों का बंटवारा करते समय चेक एंड बैलेंस अर्थात नियंत्रण और संतुलन को प्राथमिकता दी गई तथापि उन्होंने इंग्लैंड की तरह संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया जिसके अनुसार राष्ट्रपति नाम मात्र का शासनाध्यक्ष होगा और उसको अपना शासन मंत्रिमंडल के परामर्श से चलाना होगा और वह परामर्श राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होगा.

मित्रों, यह परामर्श शब्द एक जगह और भी संविधान में आया है. संविधान का अनुच्छेद १२४ कहता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करता है जिन्हें वह इस कार्य के लिए आवश्यक समझता है. यह अनुच्छेद मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य बनाता है.
इसी प्रकार अनुच्छेद २१७ में प्रावधान किया गया है कि किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सम्बंधित राज्य के राज्यपाल एवं उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य है. परन्तु संविधान में परामर्श शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है कि यह परामर्श बाध्यकारी होगा अथवा नहीं. इसलिए यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में किसे प्रधानता होगी राष्ट्रपति को या न्यायाधीशों को.

मित्रों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहुत संवेदनशील मुद्दा है क्योंकि प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में उस पर कई गंभीर आघात किए गए थे. उसी समय “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” का नारा दिया गया था और वरिष्ठतम जज की उपेक्षा करके उससे जूनियर जज को भारत का प्रधान न्यायाधीश बना दिया गया था. जिसके चलते इमरजेंसी के दौरान न्यायपालिका की भूमिका गौरवपूर्ण नहीं रही. इसीलिए उसके बाद पूरी कोशिश की गई कि न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए और जजों की नियुक्ति में सरकारी भूमिका को कम किया जाए. 

मित्रों, कुछ इस तरह के माहौल में उपरोक्त अनुच्छेदों  में परामर्श शब्द को परिभाषित करने हेतु सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तीन निर्णय दिए गए जिन्हें ३ न्यायाधीशवाद की संज्ञा दी गई. प्रथम न्यायाधीशवाद में ७ न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से १९८१ में निर्णय दिया कि अनु. १२४ एवं २१७ में परामर्श का अर्थ भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति नहीं है. यदि राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश के मध्य मतभिन्नता आती है तो राष्ट्रपति की राय प्रभावी होगी. लेकिन वर्ष १९९३ में द्वितीय न्यायाधीशवाद में ९ न्यायाधीशों की पीठ ने ७:2 के बहुमत से वर्ष १९९३ में निर्णय को उलट दिया. इस निर्णय में परामर्श को सहमति माना गया और विवाद की स्थिति में मुख्य न्यायाधीश की राय को प्रभावी बताया गया. इसी निर्णय के आधार पर कोलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आई.

मित्रों, इस प्रणाली में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं २ अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों की राय से सरकार को अवगत करा दी जाने की व्यवस्था बनाई, जो कि राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी थी. अपवादस्वरुप सरकार मजबूत एवं ठोस तर्कों से अनुशंसित नियुक्ति को अस्वीकार कर सकती थी किन्तु निर्णय में व्यवस्था थी कि यदि पुनः अनुशंसा करनेवाले न्यायाधीश एकमत से सरकार के तर्कों को दरकिनार करके अनुशंसित नियुक्ति की पुनः अनुशंसा करते हैं तो सरकार यह नियुक्ति करने के लिए बाध्य होगी. इसके बाद वर्ष १९९८ में तृतीय न्यायाधीशवाद में कोलेजियम के आकार को बढाकर सर्वोच्च न्यायालय के ४ वरिष्ठतम जजों को भी शामिल कर लिया गया.

मित्रों, फिर तो माननीय न्यायमूर्तियों ने न्यायाधीश के पद की ऐसी अन्यायपूर्ण बंदरबांट की कि एनजेएसी पर सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश के 13 हाईकोर्ट में 52 फीसदी या करीब 99 जज बड़े वकीलों और जजों के रिश्तेदार हैं। आरोपों के अनुसार जजों की नियुक्ति प्रणाली में 200 अभिजात्य रसूखदार परिवारों का वर्चस्व है। सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने कोलेजियम व्यवस्था में खामी पर सहमति जताते हुए सुधार के लिए खुलेपन की जरूरत जताई थी। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने स्तर पर कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए न्यायिक आदेश पारित करने में विफल रहा। उसने केंद्र सरकार को ही मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव करने का निर्देश दे दिया।

मित्रों, उसके बाद केंद्र सरकार ने बार-बार न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के प्रयास किए. अंततः वर्ष २०१४ में वर्तमान केंद्र सरकार ने १२१वां संविधान संशोधन विधेयक २०१४ एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को दोनों सदनों से १४ अगस्त,२०१४ को पारित करवाया. तत्पश्चात राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को १३ अप्रैल, २०१५ को भारत सरकार के राजपत्र में अधिसूचित कर दिया गया. इस जन्म से पहले मार दिए गए राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग में ६ सदस्य होने थे जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के ही २ वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जो ३ सदस्यीय समिति जिसमें प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता शामिल होंगे द्वारा चयनित होंगे शामिल होने थे. परन्तु १६ अक्टूबर २०१५ को सर्वोच्च न्यायलय ने न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता में ५ न्यायाधीशों की पीठ ने ४:1 बहुमत से संविधान संशोधन को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया और पुराने कोलेजियम प्रणाली को ही जारी रखने का निर्णय देते हुए इसकी खामियों में सुधार हेतु सुझाव मांगे. संविधान संशोधन और आयोग के गठन वाला कानून संसद के दोनों सदनों ने बिना किसी विरोध के पारित किया था और उसे 20 विधानसभाओं का भी अनुमोदन प्राप्त था. इसलिए यह कहा जा सकता है कि ये जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे. इतना ही नहीं न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना विधि आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी संस्थाओं के व्यापक अध्ययन और सिफारिश के बाद की गई थी।

मित्रों, अब जबकि सुप्रीम कोर्ट एमओपी में बड़े बदलाव के लिए राजी नहीं है और उसके बगैर नए जजों की नियुक्ति लटकी है. चीफ जस्टिस के अनुसार विभिन्न हाईकोर्ट में 43 फीसदी पद रिक्त होने से 38 लाख मुकदमे लंबित हैं, लेकिन तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य अदालतों में 3.5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। सवाल है कि ये मुकदमे क्यों लंबित हैं? इन अदालतों में तो जजों की नियुक्ति पर कोई गतिरोध नहीं है। न्यायिक सुधारों और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के बगैर केवल जजों की संख्या बढ़ाने से आम जनता को जल्दी न्याय कैसे मिलेगा? देश में 1940 और 1950 के दशक के मुकदमे अभी भी लंबित हैं। दूसरी ओर बड़े वकीलों की उपस्थिति से जयललिता और सलमान खान जैसे रसूखदारों के मुकदमों में तुरंत फैसला हो जाता है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने जजों के भ्रष्टाचार को दर्शाते हुए एक हलफनामा दायर किया था। राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाने वाला सुप्रीम कोर्ट जजों की अनियमितताओं के मामलों में सख्त कारवाई करने में विफल रहा। दिलचस्प है कि जजों को बर्खास्त करने के लिए संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया निर्धारित की गई है, लेकिन यह प्रक्रिया इतनी कठिन है कि उसके इस्तेमाल से आज तक कोई भी जज हटाया नहीं जा सका है।

मित्रों, आखिर हमारी अदालतें 19वीं शताब्दी के कानून और 20वीं सदी की मानसिकता से लैस होकर 21वीं सदी की समस्याओं को सिर्फ जजों की संख्या बढ़ा कर कैसे सुलझा सकती हैं? जब सीनियर एडवोकेट्स की नियुक्ति हेतु सभी जजों की सहमति चाहिए होती है तो फिर जजों की नियुक्ति हेतु पांच जजों की बजाय सभी जजों की सहमति क्यों नहीं ली जाती? जब लोकतंत्र के सभी हिस्से सूचना अधिकार कानून के दायरे में हैं तो फिर जज उसके दायरे में आने से परहेज क्यों करते है? जब संसद की कार्यवाही का सीधा टीवी प्रसारण हो सकता है तो फिर अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण या रिकार्डिंग को क्यों रोका जा रहा है? अगर जजों के बच्चे या रिश्तेदार हाईकोर्ट में वकालत कर रहे हैं तो फिर ऐसे जज अपना तबादला खुद कराकर नैतिक मिसाल क्यों नहीं पेश कर पा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार तीन महीने से ज्यादा कोई आर्डर रिजर्व नहीं रखा जा सकता। इसके बावजूद तमाम मामलों में सालों साल बाद आदेश पारित हो रहे हैं।

मित्रों, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एडीआर मामले मे दिए गए फैसले के बाद सांसद और विधायक का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को व्यक्तिगत विवरण का हलफनामा जरूरी हो गया है। यदि जज भी सत्ता केंद्रों के साथ अपने संबंधों का हलफनामा दें तो उनकी नियुक्ति पारदर्शी हो जाएगी। इस तरह का हलफनामा देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट की खामोशी चिंताजनक है। नेम और शेम के तहत हलफनामे में विवरण के अनुसार रिश्तेदारों को चयन प्रक्रिया से बाहर होना ही पड़ेगा। इससे समाज के वंचित वर्ग के योग्य लोगों को जज बनने का मौका मिलेगा। हलफनामे में गलत तथ्य होने पर जजों को बगैर महाभियोग के हटाने में आसानी होगी।

मित्रों, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अपनी जगह है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि कॉलेजियम प्रणाली बहुत सुचारु ढंग से काम नहीं कर रही है. इसमें सुधार-संबंधी सुझावों पर विचार करने की बात कहकर खुद सुप्रीम कोर्ट ने प्रकारांतर से यह स्वीकार किया है कि प्रणाली में खामियां हैं. पिछले कई वर्षों के दौरान हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के भ्रष्टाचार के बारे में सवाल उठे हैं. देश के शीर्षस्थ कानूनविदों में से एक फाली एस. नरीमन ने हालांकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का विरोध किया था, लेकिन उनका भी यह कहना था कि कॉलेजियम प्रणाली बिलकुल भी पारदर्शी नहीं है और इसे बदलने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि वह आयोग का इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि छह सदस्यों वाले इस आयोग में तीन ऐसे सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है जिनमें कानून मंत्री भी शामिल होंगे और शेष दो सदस्य ऐसे होंगे जिनका कानून से कोई वास्ता ही नहीं होगा. इस तरह जजों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश पैदा हो जाएगी.

मित्रों, दरअसल सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक बार जज बन जाने के बाद उस व्यक्ति पर चाहे कितना भी गंभीर आरोप क्यों न लग जाए, उसे उसके पद से हटाने की प्रक्रिया इतनी कठिन और लंबी है कि हटाना लगभग असंभाव ही है. इसके कारण यह सवाल पैदा होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बरकरार रखते हुए उसे जवाबदेह कैसे बनाया जाए. इस समय किसी को भी यह नहीं पता है कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया क्या है और उन्हें किन कसौटियों पर कसने के बाद नियुक्त किया जाता है, यानी उनकी नियुक्ति के लिए क्या मानक तय किए गए हैं. इसलिए यह राय बल पकड़ती जा रही है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचाने के नाम पर न्यायपालिका ने खुद को निरंकुश बना लिया है. यह अपने अधिकारों का दुरुपयोग तो है ही साथ ही लोकतंत्र में उसका कोई भी स्तंभ निरंकुश नहीं हो सकता.

मित्रों,कहाँ तो हमने सोंचा था कि वर्तमान केंद्र सरकार पूरी-की-पूरी न्याय व्यवस्था में ही आमूल-चूल परिवर्तन करेगी जिससे डिजिटलाईजेशन के इस युग में न्याय पाना चुटकी बजाने जितना आसान होगा और कहाँ अभी तक उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर जारी गतिरोध ही दूर नहीं हो सका है. सवाल उठता है कि न्यायपालिका में बांकी के सुधार भी क्या स्वयं न्यायपालिका ही करेगी या संसद को बेधड़क होकर करने देगी जो संसद का संवैधानिक अधिकार भी है? फिर भी मैं मानता हूँ कि सरकार और संसद को इस दिशा में अपना काम तेजी से जारी रखना चाहिए जिससे हमारी न्याय व्यवस्था २१वीं सदी के साथ त्वरित गति से कदम-से-कदम मिलाकर चल सके. अगर आगे भी सर्वोच्च न्यायालय इस पवित्र कार्य में बाधा डालता है तब भी जनता के समक्ष यह तो साबित हो ही जाएगा वर्तमान सरकार की मंशा में कोई खोट नहीं है.

सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

जारी है अरेस्ट वारंट, फिर भी थमा दी महिला थाना की कमान

मित्रों, एक कहावत तो आपने सुनी होगी कि भगवान के घर देर है लेकिन अंधेर नहीं. लेकिन बिहार में तो देर भी लगती है और अंधेर भी ख़त्म नहीं होता. हाजीपुर में पुलिस डिपार्टमेंट का एक अजीब कारनामा सामने आया है. मामला है वारंटी एसएचओ को थाने की कमान देने का. दरअसल मुजफ्फरपुर कोर्ट की वारंटी लेडिज पुलिस सब इंसपेक्टर पूनम वैशाली के हाजीपुर महिला थाना की थानेदार हैं. कोर्ट के आदेश की परवाह नहीं है. संबंधित कोर्ट से लेकर डिस्ट्रिक्ट जज, उच्च न्यायालय में उनकी अग्रिम जमानत अर्जी खारिज हो चुकी है. लोकायुक्त पटना तक मामला पहुंच चुका है.कानून की अवहेलना का मामला संज्ञान में लाए जाने के बाद लोकायुक्त भी हैरान हैं. वैशाली एसपी को जीएससीसीए रूल का हवाला देते हुए पूछा गया है जिस पुलिस पदाधिकारी को निलंबित करते हुए उनके विरुद्ध विभागीय स्तर पर कार्रवाई होनी चाहिए थी वे अपने पद पर कैसे बनी हुई हैं. कैसे वे थानेदारी कर रही है?

लोकायुक्त पटना ने इस मामले को गंभीरता से लिया है. मामले की सुनवाई की तिथि 25 जुलाई 2017 निर्धारित करते हुए आरोपी को हाजिर कराने के संबंध में एसपी को लिखा गया था. वहीं हाजीपुर महिला थाना की एसएचओ पूनम कुमारी के खिलाफ आरोपों की जांच कर तीन माह के भीतर रिपोर्ट देने को कहा गया है.

मामले में आरोपित की गईं एसआई पूनम ने अग्रिम जमानत के लिए कोर्ट में आवेदन दिया था. 14 दिसंबर 1999 को कोर्ट ने वेल पीटिशन खारिज कर 10 दिनों के भीतर कोर्ट में समर्पण करने का आदेश दिया था.

 इसके बाद वे डिस्ट्रिक्ट जज की कोर्ट में एंटी सेपरेटरी बेल के लिए 234/99 पीटिशन दिया वह भी मामले की गंभीरता देखते हुए खारिज कर दिया गया. संबंधित कोर्ट ने बार-बार अहियापुर थाना जहां वे पोस्टेड थीं उसे रिमांइडर देकर आरोपी दाराेगा को कोर्ट में सदेह हाजिर कराने का आदेश दिया.

वैशाली जिला में योगदान दे रही एसआई पूनम कुमारी फिलवक्त हाजीपुर महिला थाने की थानेदार हैं. पूनम कुमारी इससे पहले मुजफ्फरपुर में पोस्टेड थीं. मुजफ्फरपुर के अहियापुर थाना में 17 वर्ष पूर्व उनके खिलाफ कांड संख्या 99/99 के तहत आपराधिक मामला दर्ज हुआ था.

इतना ही नहीं वैशाली महिला थाना की थानाध्यक्ष का काम सँभालने के दौरान भी पूनम कुमारी के विरुद्ध जाति सूचक गाली देकर मारपीट करने के कई मुकदमें दर्ज हो चुके हैं. नगर थाना क्षेत्र के मीनापुर मधुवन मोहल्ला की रामपरी देवी द्वारा अक्टूबर २०१६ में दायर किए गए मामले में तो उनका वेल पेटीशन भी रद्द हो चुका है. आरोप है कि जब पीड़िता अपने पुत्र एवं बहू द्वारा की जा रही मारपीट की शिकायत करने थाना पर गई तो थाना प्रभारी पूनम कुमारी ने अनुसूचित जाति की इस बुजुर्ग महिला को जाति सूचक गालियां देते हुए थप्पड़ मारकर गिरा दिया।

इसी तरह २५ मार्च २०१७ को महिला थानाध्यक्ष पूनम कुमारी समेत छह लोगों के विरुद्ध मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के न्यायालय में एक आपराधिक मामला दायर किया गया। उक्त मामला बरांटी ओपी क्षेत्र में बरुआ बहुआरा गांव के नागेंद्र सिंह ने दायर किया है।

दायर मामले में महिला थानाध्यक्ष पूनम कुमारी के अलावे अवर निरीक्षक अर्चना कुमारी, सहायक अवर निरीक्षक प्रदीप राय, चौकीदार विनोद पासवान, राजापाकर थाना क्षेत्र के दयालपुर गांव के विभा देवी तथा अजय कुमार सिंह को नामजद आरोपी बनाया गया है। भादवि की धारा 323, 379, 384 406 तथा 409 अंतर्गत दायर इस मामले को मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी जयराम प्रसाद ने जांच एवं साक्ष्य हेतु अपनी निजी संचिका में रख लिया है।

मित्रों, जब मैंने खुद थाना पर जाकर थानाध्यक्ष से इन मामलों पर बात करने की कोशिश की तो उन्होंने यह कहते हुए कि यहाँ मिडिया का प्रवेश प्रतिबंधित है सीधे हम पर ही गालियों की बौछार कर दी. मैं नहीं समझता हूँ कि जब तक पूनम कुमारी महिला थाने की थानेदार है किसी भी महिला को यहाँ से न्याय मिल भी सकता है. वे सिर्फ पैसा पहचानती है. यहाँ तक कि थाना परिसर में ही रहनेवाले नाका न. २ के कर्मियों से भी पानी देने के बदले एक-एक हजार रूपये मांग रही है. मैं समझता हूँ कि उसने और बांकी से थाना स्टाफ ने व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार करके काफी ज्यादा कालाधन और बेनामी संपत्ति भी अर्जित की है जिसकी भी जाँच होनी चाहिए. साथ ही इस बात की भी जाँच होनी चाहिए कि उसको किन-किन लोगों का वरदहस्त प्राप्त है जिसके बल पर वो जेल में होने के बजाए आज की तारीख तक थानेदार बनी हुई है.

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

पागल कौन विकास या राहुल?

मित्रों, उन दिनों मैं हाई स्कूल में पढता था. इसी दौरान मुझे आरा जाने का अवसर मिला. वहां रेलवे स्टेशन पर मैंने एक पागल को देखा जो लगातार बडबडा रहा था कि पागल मैं नहीं हूँ पूरी दुनिया पागल है. मैं आश्चर्यचकित था कि इसको खुद के शरीर तक की सुध तो है नहीं और ये पूरी दुनिया को पागल बता रहा है? बाद में कई पागलों के व्यवहारों का जब मैंने सूक्ष्म विश्लेषण किया तो यही समझ में आया कि पागलपन की बीमारी का यह सामान्य लक्षण है कि हर पागल दूसरों को ही पागल समझता है.
मित्रों, मुझे पता नहीं है कि राहुल गाँधी कहाँ तक मानसिक रूप से स्वस्थ हैं लेकिन उनका व्यवहार जबसे वे सार्वजानिक जीवन में आए हैं हमेशा असामान्य रहा है. कभी विधेयक की कॉपी फाड़ने लगते हैं तो कभी लेडिज टॉयलेट में घुस जाते हैं. कभी आलू की फैक्ट्री लगाने की बात करने लगते हैं. कभी भारत-चीन के बीच भारी तनाव के समय चीनी दूतावास में गुप्त मंत्रणा करने चले जाते हैं तो कभी कहते हैं कि लोग मंदिर लुच्चागिरी करने जाते हैं. इतना ही नहीं कभी यह भी कह देते हैं कि भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा कथित भगवा आतंकवाद है जबकि पूरी दुनिया जानती है कि आतंकवाद का रंग हरा होता है भगवा तो हरगिज नहीं. कभी अचानक थाईलैंड की गुप्त यात्रा पर निकल जाते हैं. खुद साल के ६ महीने विदेश में क्यों रहते हैं नहीं बताते लेकिन प्रधानमंत्री की आधिकारिक विदेश यात्रा पर ऊंगली उठाते हैं. इतना ही नहीं प्रेम भी करते हैं तो किसी सामान्य लड़की से नहीं बल्कि पोर्न अभिनेत्री के साथ. कभी भारत की नाकामी के प्रतीक मनरेगा को रोजगार देनेवाली महान योजना बताते हैं तो कभी कहते हैं कि कांग्रेस घमंडी हो गई थी इसलिए हार गयी. कभी कहते हैं कि हम तो रोजगार नहीं ही दे पाए मोदी भी नहीं दे पा रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि भारत इन दिनों एफडीआई में दुनिया में शीर्ष पर है इसलिए भारी मात्रा में रोजगार का आना तय है.
मित्रों, जब प्रधानमंत्री बनना उनके लिए जमीन पर गिरे हुए सिक्के को उठाने से भी ज्यादा आसान होता है तब एक पुतले को पीएम बनाकर अनंत घोटालों का आनंद लेते हैं और जब चुनाव हार जाते हैं तो कहते फिरते हैं कि मैं प्रधानमंत्री बनने को तैयार हूँ. मैं ६ महीने में देश की कायापलट कर दूंगा मानों उनको भी भगवान बुद्ध की तरह अचानक ज्ञान की प्राप्ति हो गई हो. आश्चर्य है राहुल बाबा को आज तक पता ही नहीं है कि एनआरआई किसको कहते हैं! उनको यह भी पता नहीं है कि वे भारत में पैदा हुए हैं या इटली में इसलिए वे भारत की महिलाओं से शोर्ट और निक्कर पहनने की आशा रखते हैं. खुद के हाथों में जब शासन की बागडोर होती है तो देश को भ्रष्टाचार और अराजकता की आग में जान-बूझकर झोंक देते हैं और चीन-पाकिस्तान के हाथों का खिलौना बन जाते हैं और जब अगली सरकार भ्रष्टाचार,आतंकवाद और माओवाद को जड़ से ही समाप्त करने का माद्दा दिखाती है और देश के विकास की गाड़ी को फिर से पटरी पर लाना चाहती है तो चीन से तुलना कर-करके कहते हैं कि विकास पागल हो गया है, विकास को पागलखाने से वापस लाना होगा इत्यादि.
मित्रों, अब आप ही बताइए कि इन दिनों पागल कौन है विकास या स्वयं राहुल गाँधी? विकास अगर पागल था भी तो सोनिया-मनमोहन के समय था. जब एक साथ तीनों लोकों में घोटाले किए जा रहे थे तब विकास पागल था, जब हिंदूविरोधी सांप्रदायिक दंगा विधेयक लाया जा रहा था तब विकास पागल था, जब लालू,मुलायम,मायावती मुकदमों से बरी हो रहे थे तब विकास पागल था, जब भगवा आतंकवाद की झूठी कहानी रची जा रही थी तब विकास पागल था, जब लाल किले से घोषणा की जा रही थी कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ कथित अल्पसंख्यकों का है तब विकास पागल था. अब तो विकास के पागलपन को दूर किया जा रहा है राहुल बाबा.
मित्रों, मैं समझता हूँ कि मोदी सरकार को तो अपनी उपलब्धियों को गिनाने की आवश्यकता ही नहीं है. केरल-कश्मीर से लेकर डोकलाम तक प्रत्येक क्षेत्र में स्वयं उसका काम बोलता है और रोज ही बोलता है. अब राहुल बाबा को दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा है तो इसमें हम क्या कर सकते हैं या मोदी सरकार क्या कर सकती है? पेट्रोल के दाम ७-आठ रूपये बढे थे अब कम भी हो रहे हैं. जीएसटी को लेकर भी व्यापारियों को जो समस्याएँ थीं दूर कर दी गई हैं. आश्चर्य है कि राहुल गाँधी को नोट और कागज में कोई फर्क क्यों नजर नहीं आ रहा है? वे क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था का शुद्धिकरण हुआ है? आतंकियों और नक्सलियों की गतिविधियों में कमी आई है. बेनामी संपत्ति की जब्ती से अर्थव्यवस्था पूरी तरह से शुद्ध और पवित्र हो जाएगी. क्या उनसे हम उनकी क्षमता से बहुत ज्यादा की उम्मीद कर रहे हैं? क्या उनके दोनों कानों के बीच का स्थान रिक्त है? क्या उन्होंने विदेश जाकर ऐय्याशी करने के अलावे और कुछ सीखा ही नहीं है या सीख ही नहीं सकते ?
मित्रों, ये तो हद की भी हद हो गयी. जो खुद शुरुआत से ही पागलों सरीखा व्यवहार करता आ रहा है एक भ्रष्टाचार मुक्त शासन देनेवाली और सच्चे मन से भारत को फिर से विश्वगुरु बनाने की दिशा में काम करनेवाली सरकार को ही पागल बता रहा है? ये सब क्या है राहुल बाबा? कब तक बचपना करते रहिएगा? अब तो ४७ साल के हो चुके हैं आप, अब तो अपना ईलाज सही पागलखाने के सही डॉक्टर से करवाईए. बांकी आपकी और आपकी माँ की मर्जी. हम तो सर्वे भवन्तु सुखिनः में विश्वास रखते हैं इसलिए आपकी बीमारी देखकर हमसे चुप नहीं रहा गया.

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

क्या यशवंत सिन्हा सचमुच भीष्म हैं?

मित्रों, पता नहीं क्यों हम अपने संस्कृत और तदनुसार अपनी संस्कृति से कटते जा रहे हैं. कदाचित इसी का परिणाम होता है कि हम कई बार अपने शास्त्रों से गलत उदाहरण दे जाते हैं. हो सकता है कि भारत के पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा अंग्रेजी के विद्वान हों लेकिन भारतीय वांग्मय के बारे में उनकी जानकारी शून्य है यह उन्होंने अपने बारे में गलतफहमीयुक्त उदाहरण देकर साबित कर दिया है.
मित्रों, आप सभी जानते हैं कि यशवंत सिन्हा जी ने पिछले दिनों खुद को भीष्म पितामह घोषित किया है. तो पहले बात कर लेते हैं इसी बात पर कि भीष्म थे कौन और उन्होंने क्या-क्या किया था. भीष्म हस्तिनापुर के राजा शांतनु के पुत्र थे जिनका जीवन महान त्यागों से भरा पड़ा है. किशोरावस्था में उन्होंने पिता की ख़ुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की और सिंहासन का परित्याग कर आजीवन हस्तिनापुर की राजगद्दी की सेवा करने का व्रत लिया.
मित्रों, बाद में उनको अपनी प्रतिज्ञाओं के कारण भारी मानसिक क्लेश झेलने पड़े, यहाँ तक कि पुत्रवधू का चीरहरण तक देखना पड़ा लेकिन उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी. महाभारत की लडाई में भीष्म को अधर्म के पक्ष में सेनापति बनकर युद्ध करना पड़ा. उनकी अपराजेयता से परेशान होकर पांडवों द्वारा पूछने पर धर्मविजय के निमित्त उन्होंने स्वयं अपनी पराजय का उपाय पांडवों को बता दिया. कल होकर उनका सबसे प्रिय पौत्र अर्जुन उनके समक्ष उपस्थित तो हुआ लेकिन अपने आगे शिखंडी को ढाल बनाकर.
मित्रों, शिखंडी के पीछे से वाण चलाकर अर्जुन ने उनके रोम-रोम को अपने पैने वाणों से छेद दिया लेकिन महात्मा भीष्म इस भीषण दर्द को चुपचाप सहते रहे उत्तर नहीं दिया. बाद में शरशैया पर भी तब तक जीवित रहकर ईच्छा मृत्यु के वरदान के बावजूद असह्य पीड़ा को सहते रहे जब तक हस्तिनापुर का सिंहासन चहुँओर से सुरक्षित न देख लिया.
मित्रों, तो ऐसे महात्मा भीष्म से अपनी तुलना करके मियां मिट्ठू बन रहे हैं वयोवृद्ध यशवंत सिन्हा. शायद उनको पता नहीं कि सिर्फ उम्रदराज हो जाने से ही कोई इतना महान नहीं हो जाता कि उस भीष्म पितामह से अपनी तुलना करने लगे जिनके आगे भगवान श्रीकृष्ण का सिर भी श्रद्धा से स्वतः झुक जाया करता था. आईएएस की नौकरी समय से पहले छोड़ने के सिवाय ऐसा कौन-सा त्याग किया है यशवंत बाबू ने और क्या ऐसा करनेवाले वे एकमात्र व्यक्ति हैं? ऐसा उन्होंने किया भी तो अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए किया न कि देशहित या देशसेवा की भावना से आप्लावित होकर. पहले चंद्रशेखर के साथ चिपके फिर भाजपा में आ गए.
मित्रों, आपको याद होगा कि जब यशवंत चंद्रशेखर सरकार में वित्त मंत्री थे तब उनकी महान आर्थिक नीतियों के चलते भारत के खजाने की हालत ऐसी हो गई थी कि भारत को ४७ टन सोना गिरवी तक रखना पड़ा था. वाजपेयी सरकार में जब वे वित्त मंत्री थे तब उन पर कई तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगे. उन्होंने कथित तौर पर मारीशस के रास्ते भारी मात्रा में अपने कालेधन को सफ़ेद किया था. उनका कार्यकाल बहुत जल्द इतना विवादित हो गया था कि उनको वित्त मंत्री के पद से हटाना पड़ा. फिर भी भाजपा ने उनका मान रखा और मंत्रिमंडल में बनाए रखा. विदेश मंत्री के रूप में उनकी उपलब्धि क्या रही शायद वे ही बेहतर जानते होंगे.
मित्रों, बाद में वे कई बार हजारीबाग से सांसद बने लेकिन अपने बल पर नहीं पार्टी के नाम पर? क्योंकि सांसद बनकर भी वे ठसकवाले आईएएस ही ज्यादा रहे और जनता से आयरन कर्टन सरीखी दूरी बनाए रखी. पिछली बार अपनी जगह बेटे को खड़ा किया जो इन दिनों संघ सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री हैं. श्री सिन्हा का आरोप है कि इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था का चीरहरण हो रहा है और वे इसे चुपचाप नहीं देख सकते. सिन्हा जी भारत के इतिहास में पहली बार तो भारत की अर्थव्यवस्था को महान और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने की निःस्वार्थ कोशिश हो रही है और आप राग विलाप आलाप रहे हैं? जीडीपी की वृद्धि-दर इस तिमाही में घटी है तो अगली में बढ़ जाएगी इसके लिए उपाय किए जा रहे हैं. रोजगार भी बढ़ेगा बस थोडा-सा धैर्य रखिए ये अभूतपूर्व एफडीआई जो आ रही है कोई अंचार डालने के लिए नहीं आ रही . सिन्हा जी या तो आपको अर्थव्यवस्था की बुनियादी समझ ही नहीं है या फिर आप भी उस शत्रु-मंडली का हिस्सा बन गए हैं जो देश में भ्रष्टाचार की जड़ों को बचाने और चीन-पाकिस्तान के साथ मिलकर देश और मोदी सरकार को कमजोर करने की इन दिनों जी-तोड़ कोशिश कर रही है.
मित्रों, दूसरी बात की सम्भावना ही ज्यादा है कि यशवंत सिन्हा जी जानबूझकर उस कांग्रेस की गोद में जा बैठे हैं जो स्वयं को भ्रष्टाचार का पर्याय बना चुकी है. पता नहीं उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि जीवन की सांध्य-बेला में कौरव-पक्ष और उसका अनाचार उनको ज्यादा प्रिय लगने लगा है?
मित्रों, देश की जनता एक लम्बे समय से राजनेताओं की अवकाशप्राप्ति की उम्र निर्धारित करने की मांग कर रही है जो उचित भी है. यूपीए सरकार के समय रक्षा मंत्री एंटोनी सेना की सलामी के दौरान ही बेहोश हो गए थे. इसी तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लाल किले पर झंडे की रस्सी ही नहीं खींच पाए थे. अगर मोदी जी ने राजनेताओं की अवकाशप्राप्ति की आयु अघोषित रूप से निर्धारित कर दी तो क्या गलत किया? नौकरीवाले रिटायर होते है तो नेता क्यों नहीं हों? फिर यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है कि वो किसको मंत्री रखेगा और किसको नहीं और किस मंत्रालय में रखेगा. क्या सिन्हा जी जबरदस्ती मंत्री बनना चाहते हैं? पता नहीं सच क्या है लेकिन इतना तो तय है कि सिन्हा जी को अपनी तुलना प्रातःस्मरणीय भीष्म पितामह से नहीं करनी चाहिए थी. कहाँ तो उन्होंने कुर्सी का त्याग किया था और कहाँ ये कुर्सी के लिए हस्तिनापुर के राजसिंहासन के ही नहीं बल्कि हस्तिनापुर के शत्रुओं से जा मिले हैं.