सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

एक किलो चावल के लिए हत्या

मित्रों, रामचरितमानस में एक प्रसंग है. भक्तराज हनुमान माता सीता की खोज में लंका जाते है. माता सीता से भेंट होने के बाद हनुमान भूख मिटाने के लिए पास के बगीचे से फल तोड़कर खाने लगते हैं. लेकिन उनका ऐसा करना राक्षसों को नागवार गुजरता है. फिर युद्ध होता है और अंततः हनुमान को बंदी बनाकर राक्षसराज रावण के दरबार में पेश किया जाता है. तब हनुमान रावण से पूछते हैं कि उनको किस अपराध में बंदी बनाया गया है. क्योंकि भूख लगने पर भूख मिटाने के लिए की गई चोरी अपराध नहीं होता क्योंकि अपनी जान की रक्षा करना हर प्राणी का कर्त्तव्य होता है.
मित्रों, इसी तरह का एक प्रसंग महाभारत में भी है जब रंतिदेव नामक एक ब्राह्मण का परिवार जो कई दिनों से भूखा होता है एक भिक्षुक की जठराग्नि को बुझाने के लिए अपना भोजन दान कर देता है और खुद दम तोड़ देता है. इसी प्रकार राजा शिवि द्वारा एक कबूतर की प्राणरक्षा के लिए अपना मांस अपने हाथों से काट-काटकर बाज को खिला देने का इसी महाकाव्य का प्रसंग भी हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं.
मित्रों, फिर उसी भारत में अगर किसी भूखे, लाचार गरीब को एक किलो चावल चुराने के चलते बेरहमी से पीट-पीट मनोरंजन के तौर पर मार दिया जाए तो इससे बुरा और क्या होगा. क्या आज के भारत में रामायण काल के राक्षसों का राज है? हाँ, हुज़ूर मैं बात कर रहा हूँ सर्वहारा पार्टी द्वारा शासित केरल में घटी घटना की जहाँ मधु नाम के एक गरीब आदिवासी की हत्या कर उनकी गरीबी और अभाव से भरे जीवन का भी अंत कर दिया गया है. शायद सर्वहारा के पैरोकार दल ने गरीबी मिटाने का यह नया तरीका ढूंढ निकाला है. क्या तरीका है! गजब!! अनोखा!!! जब गरीब ही नहीं रहेंगे तो गरीबी कहाँ से रहेगी, जब भूखे ही नहीं रहेंगे तो भूख कहाँ रहेगी? वैसे आश्चर्य है कि मार्क्स इस तरीके की खोज क्यों और कैसे खोज नहीं पाए?
मित्रों, आश्चर्य तो इस बात को लेकर भी है कि अभी तक किसी भी अतिसंवेदनशील ने अपने पुरस्कार वापस नहीं किए? करेंगे भी कैसे मधु ने कोई गाय की हत्या थोड़े ही की थी? चावल चुरानेवाले तो इन्सान होते ही नहीं हैं इन्सान तो गोहत्या करनेवाले होते हैं, मुम्बई में बम फोड़नेवाले होते हैं. यह बात अलग है कि मुझे आज तक कोई पुरस्कार दिया नहीं गया है वर्ना मैं कब का वापस कर चुका होता शायद तभी जब केरल में पहले आरएसएस प्रचारक की बेवजह नृशंस हत्या हुई थी.
मित्रों, इसी तरह से बंगाल में हिन्दू विद्यालयों पर रोक लगा दी गई है लेकिन फिर भी कोई असहिष्णुता नहीं फैली क्योंकि हिन्दू तो आदमी होते ही नहीं. हद तो यह है कि केंद्र की मोदी सरकार चुपचाप इस तरह की घटनाओं को मूकदर्शक बनी आँखें फाडे देखे जा रही है. क्या यही है उसका रामराज्य? उनके आदर्श राम ने तो सत्ता सँभालते ही घोषणा की थी कि निशिचरहीन करौं महि हथ उठाए पण कीन्ह. राम ने तो हर अन्याय का प्रतिकार किया. जब सत्ता में नहीं थे तब भी रावण जैसे सर्वशक्तिशाली से युद्ध किया. तो क्या आज की भाजपा के लिए राम भी सिर्फ एक वोटबैंक हैं? उनके आदर्शों का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं है? तो क्या इसी तरह मधु रोटी के लिए मारे जाते रहेंगे? अगर यही सब होना था तो क्या लाभ है भाजपा के केंद्र और १८ राज्यों में सत्ता में होने से? क्या लाभ है???

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

बच्चों के खून की कीमत लगाईए सुशासन बाबू

मित्रों, होली को अभी कई दिन बांकी हैं लेकिन बिहार में तो कई हफ्ते पहले से होली शुरू है. मुजफ्फरपुर के धरमपुर गाँव के बच्चों के साथ तो गजब की होली खेली गई है,खून की होली. पूरी तरह से सर्वधर्मसमभाव जो भाजपा का मूल मंत्र है का पालन करते हुए यह होली खेली गई है. हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय के ९ बच्चों के जिस्म को लाल टेसू रंग में दलित भाजपा नेता मनोज बैठा ने इस कदर सराबोर कर दिया कि बेचारे हमेशा के लिए नींद की आगोश में सो गए. उनकी माँ-उनके पापा रो-रो कर उनको जगा रहे हैं, दुहाई दे रहे हैं कि अब वे किसके लिए जीएंगे लेकिन बच्चे इतने ढीठ हैं कि सुन ही नहीं रहे. कई बच्चे अस्पताल में हैं और राम जाने कि उनमें से कितने वहां से वापस घर आएंगे.
मित्रों, मैं सुशासन बाबू से जिनकी बिहार में बड़ी हनक है से विनती करता हूँ कि हुज़ूर आप कोशिश करिए न जगाने की. आपकी बात बिहार में कौन काट सकता है फिर ये तो बच्चे ठहरे सरकार. सरकार विपक्ष के कई नेता आकर जा चुके हैं मगर बच्चों ने उनकी तो मानी नहीं. आप इस बार भी नहीं आएँगे क्या सरकार? पिछली बार जब गोपालगंज में बच्चे मिड डे मिल खाकर सो गए थे तब भी तो आप नहीं आए थे?सरकार कसम से आप आते तो बच्चे उठ बैठते और आपसे सवाल पूछते कि सरकार ने तो छोटे पौधों के काटने पर भी रोक लगा रखी है फिर कोई हमको चीटियों की तरह मसलकर कैसे मार सकता है?  सरकार आप तो जानते होंगे कि बच्चे अब सरकारी स्कूलों में पढने नहीं जाते क्योंकि वो तो होती ही नहीं है वे बेचारे तो खाना खाने के लालच में जाते हैं मगर उनको कहाँ पता होता है कि स्कूल का खाना उनके लिए बलि के बकरे के आगे रखा अक्षत साबित हो सकता है. सरकार सुना था कि आपने बिहार में शराबबंदी कर रखी है, फिर उस नेताजी ने कहाँ से पी ली? सरकार क्या आपने सत्ता पक्ष के नेताओं को इस बंदी से छूट दे दी है?
सरकार आपने अभी तक हमारी जान की और हमारे माँ-बाप के अरमानों की कोई कीमत नहीं लगाई? सरकार लगाईये न कीमत. हमें भी तो पता चले कि हमारे खून की कीमत क्या है. सरकार अभी तक आपने जाँच की घोषणा भी नहीं की है. सरकार जाँच का नाटक भी तो होना चाहिए. ऐसा रस्म रहा है दस्तूर रहा है जनाब. सीबीआई कैसी रहेगी? सृजन घोटाले की तरह पूरा लीपा-पोती कर देगी जनाब. विशेषज्ञता है इसको इसमें. सालों साल बीत जाएंगे मगर नतीजा नहीं आएगा. फिर आप न्यायिक जाँच करवा लीजिएगा, फिर एसआईटी और फिर फिर से सीबीआई और अंत में नो वन किल्ड जेसिका.

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

मोदी सरकार का मूर्ख बनाओ कार्यक्रम

मित्रों, मोदी सरकार के ५ साल पूरे होनेवाले हैं. अगर आपसे सरकार के काम-काज का निष्पक्ष होकर आकलन करने के लिए कहा जाए तो आपका निष्कर्ष क्या होगा राम जाने लेकिन हमारा तो वही आकलन होगा जो एक सच्चे राष्ट्रवादी का होना चाहिए.
मित्रों, क्या आपको याद है कि २०१४ में श्रीमान नरेन्द्र मोदी जी ने क्या-क्या वादे किए थे? चलिए मैं याद दिला देता हूँ-१. मोदी जी ने वादा किया था कि वे १०० दिनों में विदेशों से कालाधन वापस लाएंगे.
२. एक साल में सारे दागी सांसदों-विधायकों पर मुकदमा चलवाकर फैसला करवाएंगे.
३. देश के पूर्वी हिस्से के तीव्र विकास के लिए प्रयास करेंगे.
४. भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाएँगे और उनके द्वारा लूटे गए धन-सम्पत्ति को बिना भेदभाव के जब्त करेंगे.
५. गंगा को फिर से प्रदूषण-मुक्त बनाया जाएगा.
६. महंगाई कम की जाएगी.
७. हर साल २ करोड़ रोजगार पैदा किए जाएँगे.
८. सरकारी अस्पतालों की स्थिति में सुधार किया जाएगा.
९. कृषकों की आमदनी की दोगुना किया जाएगा.
१०. पुलिस में सुधार किया जाएगा.
११. न्यायिक प्रक्रिया को सरल और तीव्र किया जाएगा.
१२. पाक समर्थित आतंकवाद का स्थायी ईलाज किया जाएगा.
१३. भारत न तो किसी को आँख दिखाएगा न ही किसी से आँखें चुराएगा बल्कि हर किसी से आँखों में ऑंखें डालकर बात करेगा.
१४. सबको अपना आवास उपलब्ध करवाया जाएगा.
१५. भारत की शिक्षा को वैश्विक स्तर का बनाया जाएगा.
१६. गरीबों का पैसा सीधे उनके खाते में डाला जाएगा.
१७. भारत से गरीबी का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा. सबको अमीर बनाया जाएगा.
१८. देश के खजाने को सुरक्षित किया जाएगा और कोई खूनी पंजा इस पर हाथ नहीं डाल पाएगा.
१९. सारे बंगलादेशी घुसपैठियों को चिन्हित कर वापस भेजा जाएगा.
२०. भारत को वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसन्धान में अग्रणी बनाया जाएगा.
२१. वे प्रधानमंत्री की तरह नहीं बल्कि प्रधान सेवक की तरह व्यवहार करेंगे.
२२. रुचि और प्रतिभा के आधार पर नामांकन को सुनिश्चित किया जाएगा.
२३. स्वायल हेल्थ कार्ड बनाया जाएगा और कृषि ऋण और फसल बीमा को सस्ता और सरल बनाया जाएगा.
२४. आधारभूत संरचना में सुधार किया जाएगा.
२५. २४ घंटे बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी.
आदि आदि.
मित्रों, चुनाव जीतने के बाद देश की प्रगति को समर्पित कई गीत मोदी सरकार ने बनाए-जैसे कि मेरा देश बदल रहा है, आगे चल रहा है. दुर्भाग्यवश आज यह गीत एक नारा भर बनकर रह गया है. देश तो नहीं बदला लेकिन भाजपा बदल गई, उसका कार्यालय बदल गया. भाजपा आज पापी नेताओं के पापों का नाश करनेवाली गंगा बन गई है. उसका कार्यालय दुनिया का सबसे बड़ा कार्यालय है और वो खुद दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी.
मित्रों, बांकी किस क्षेत्र में क्या काम हुआ है आप ऊपर वर्णित वायदों को सरसरी निगाह से देखकर भी आसानी से मूल्यांकन कर सकते हैं. बर्बादे गुलिस्ताँ के लिए बस एक ही उल्लू काफी है, हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामें गुलिस्तान क्या होगा. यानि देश को बर्बाद करना है तो वित्त मंत्री किसी मूर्ख को बना दीजिए. बस वो अर्थव्यवस्था का नाश कर देगा और बांकी विभाग खुद ही बर्बाद हो जाएँगे, पूरा देश तबाह हो जाएगा. नोटबंदी से क्या लाभ हुआ राम जाने लेकिन जीएसटी से व्यापक नुकसान जरूर हुआ है. राज्यों की कर वसूली तो घटी ही है केंद्र की भी घट गयी है. राज्य सरकार व विश्वविद्यालयों  के कर्मियों को ६-६ महीने से वेतन नहीं मिला है. बिहार और दिल्ली का तो मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ बांकी राज्यों का आपलोगों को बेहतर पता होगा. और उस पर तुर्रा यह है कि ऐसी हालत तब है जब अभी नए वेतनमान को लागू करना बांकी है उसके बाद वेतन चालू रहेगा या बिलकुल ही बंद हो जाएगा अरुण जेटली जाने या हमारी पॉकेटमार सरकार जाने जो इन दिनों टेलकॉम कंपनियों की तरह ग्राहकों के बैंक खातों से चुपके से पैसा खिसकाने में लगी हुई है. १५ लाख तो आए नहीं १५०० भी गए.
मित्रों, आपने ध्यान दिया होगा कि मोदी सरकार २०१९ की बात ही नहीं कर रही बल्कि २०२२ की बात कर रही है. ५ साल में कुछ अच्छा होता दिख नहीं रहा तो ३ सालों में क्या हो जाएगा और भारत को क्या बना दिया जाएगा? मुझे तो लगता है कि सिवाय मूर्ख के और कुछ नहीं. आपको क्या लगता है?
मित्रों, कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि मैंने पार्टी बदल ली है लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है. मैंने आज भी घनघोर राष्ट्रवादी हूँ. मेरे लिए मोदिभक्ति कभी देशभक्ति नहीं थी, नहीं है और न ही होगी.

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

वित्तीय आपातकाल की ओर अग्रसर भारत

मित्रों,  भारतीय संविधान में तीन आपातकाल वर्णित हैं- 1. राष्ट्रीय आपात - अनुच्छेद 352) राष्ट्रीय आपात की घोषणा काफ़ी विकट स्थिति में होती है. इसकी घोषणा युद्ध, बाह्य आक्रमण और राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर की जाती है.

2. राष्ट्रपति शासन अथवा राज्य में आपात स्थिति- अनुच्छेद 356) इस अनुच्छेद के अधीन राज्य में राजनीतिक संकट के मद्देनज़र, राष्ट्रपति महोदय संबंधित राज्य में आपात स्थिति की घोषणा कर सकते हैं. जब किसी राज्य की राजनैतिक और संवैधानिक व्यवस्था विफल हो जाती है अथवा राज्य, केंद्र की कार्यपालिका के किन्हीं निर्देशों का अनुपालन करने में असमर्थ हो जाता है, तो इस स्थिति में ही राष्ट्रपति शासन लागू होता है. इस स्थिति में राज्य के सिर्फ़ न्यायिक कार्यों को छोड़कर केंद्र सारे राज्य प्रशासन अधिकार अपने हाथों में ले लेती है.

3. वित्तीय आपात - अनुच्छेद 360) वित्तीय आपातकाल भारत में अब तक लागू नहीं हुआ है. लेकिन संविधान में इसको अच्छी तरह से परिभाषित किया गया है. अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपात की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा तब की जाती है, जब राष्ट्रपति को पूर्ण रूप से विश्वास हो जाए कि देश में ऐसा आर्थिक संकट बना हुआ है, जिसके कारण भारत के वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है. अगर देश में कभी आर्थिक संकट जैसे विषम हालात पैदा होते हैं, सरकार दिवालिया होने के कगार पर आ जाती है, भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त होने की कगार पर आ जाए, तब इस वित्तीय आपात के अनुच्छेद का प्रयोग किया जा सकता है. इस आपात में आम नागरिकों के पैसों एवं संपत्ति पर भी देश का अधिकार हो जाएगा. राष्ट्रपति किसी कर्मचारी के वेतन को भी कम कर सकता है. गौरतलब है कि संविधान में वर्णित तीनों आपात उपबंधों में से वित्तीय आपात को छोड़ कर भारत में बाकी दोनों को आजमाया जा चुका है. भारत में कभी वित्तीय आपात लागू न हो, इसकी हमें प्रार्थना करनी चाहिए.

मित्रों, क्या इस समय भारत सरकार की साख और वित्तीय स्थायित्व को खतरा नहीं है? चार दिन पहले तक तो सरकार दावा कर रही थी कि उसके समय एक पैसे का भी गलत लोन नहीं दिया गया है और आज देश के सारे-के-सारे बैंक गलत लोन के चलते दिवालिया होने की स्थिति में हैं. कल अगर बैंक नकदी के अभाव में बंद हो जाते हैं या लोगों की जमाराशि को लौटाने से मना कर देती है तो सरकार ने सोंचा है कि तब वो क्या करेगी? जनता ने बैंकों पर अपने जमा धन की निकासी के लिए अगर धावा बोल दिया और बैंकों को आग के हवाले करना शुरू कर दिया तो क्या होगा क्या सरकार सोंचा है?

मित्रों, सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या सरकार पूरे मामले को गंभीरता से ले भी रही है? वो इन दिनों जिस तरह का व्यवहार कर रही है उससे तो ऐसा लगता नहीं। मोदी जी को तत्काल सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए और विपक्ष से भी न केवल परामर्श करना चाहिए बल्कि उसको विश्वास में भी लेना चाहिए. यह संकट कोई सरकार मात्र का संकट नहीं है बल्कि राष्ट्रीय संकट है. लेकिन सरकार कर क्या रही है? वित्त मंत्री घोटाला सामने आने के बाद भी २ दिनों तक देश में थे लेकिन वे मीडिया के सामने नहीं आए और विदेश चले गए. प्रधानमंत्री कभी बच्चों से परीक्षा कैसे देनी चाहिए पर बात करते हैं तो कभी कृत्रिम बुद्धि पर व्याख्यान दे रहे हैं. अर्थात उनको जो करना चाहिए और प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए वे नहीं कर रहे हैं. इसी को बिहार में कहते हैं हंसिया के लगन में खुरपी का गीत. आप ही बताईए अगर कोई श्राद्ध में शामिल होने जाए और विवाह के गीत गाने लगे तो आपको ख़ुशी होगी या गम, गायक पर प्यार आएगा या क्रोध?

मित्रों, इसलिए मैं कहता हूँ कि स्थिति की गंभीरता को समझते हुए सरकार तुरंत सर्वदलीय बैठक बुलाए और उसके बाद प्रेस वार्ता करके देशवासियों के समक्ष स्थिति को स्पष्ट करना चाहिए और विश्वास दिलाना चाहिए कि स्थिति नियंत्रण में है इसलिए भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है. विदेशों में तो ऐसी स्थिति में सर्वदलीय राष्ट्रीय सरकारों का भी गठन हो चुका है फिर सरकार को यशवंत सिन्हा, सुब्रमण्यम स्वामी और अरुण शौरी जैसे अपने लोगों से सलाह लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. कुछ लोग फिर से बैंकों के निजीकरण की मांग भी कर सकते हैं लेकिन मैं नहीं मानता कि यह कोई समाधान है क्योंकि दिवालिएपन के कगार पर तो निजी बैंक भी हैं.

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

क्या यह मोदी के अंत का आरम्भ है?

मित्रों, अगर आपने मेरे आलेखों को लगातार पढ़ा होगा तो देखा होगा कि जब भी केंद्र की मोदी सरकार ने अच्छा काम किया है मैंने पूरे मन से उसका समर्थन किया है और जब भी उसका काम मुझे देशहित में नहीं लगा है मैंने पूरी ताक़त से उसका प्रतिकार किया है. चाहे कश्मीर में गठबंधन का मामला हो या फिर भूमि-अधिग्रहण कानून पर आगे बढ़कर पीछे हट जाने का सवाल हो या फिर पापियों-प्रलापियों को मंत्रिमंडल में स्थान देने का प्रश्न हो या फिर सैनिकों की शहादत मेरी कलम ने कभी मोदी सरकार पर प्रहार करने में देर ने नहीं की.
मित्रों, मैं मानता हूँ कि अर्थशास्त्र का अच्छा ज्ञान होने के बावजूद मैं न सिर्फ नोटबंदी के पीछे मोदी सरकार की छिपी हुई मंशा को नहीं समझ पाया बल्कि जीएसटी को अब तलक भी नहीं समझ पाया हूँ. फिर भी ऐसा मानकर कि इस सरकार की नीति तो गलत हो सकती है लेकिन नीयत गलत नहीं होगी इन दोनों मुद्दों पर सरकार के कहे को सच मानकर उसकी पैरोकारी की यह जानते हुए भी कि नीतिगत गलती भी अक्षम्य होती है. लेकिन जैसे गर्म शीशे के टुकड़े पर ठंडा पानी पड़ने से शीशा टूटकर बिखर जाता है वैसे ही पीएनबी घोटाला के सामने आने बाद हमारा भोला-भाला भक्त-ह्रदय पूरी तरह से भग्न-ह्रदय में परिवर्तित हो गया है.
मित्रों, मोदी खुद को खजाने का पहरेदार कहते हैं अन्ना चौबीस घंटे चौकन्ना फिर कैसे कोई खूनी पंजा खजाने को लूट गया.  और सबसे दुखद समाचार तो यह है कि वो खूनी पंजा कोई और नहीं है बल्कि प्रधान सेवक सह चौकीदार जी का मेहुल भाई और उन मेहुल भाई का भांजा है. हो सकता है कि जनता के पैसे की खुली लूट का यह मामला २०११ तक जाता हो लेकिन तथ्य तो यही बताते हैं कि ९० प्रतिशत से ज्यादा लूट २०१६ और उसके बाद हुई. हमने यह भी माना कि पहले की सरकारों के समय भी बैंकों में जमा जनता की मेहनत की कमाई को लूटा और लुटाया गया लेकिन मैं मोदी जी से पूछना चाहता हूँ कि अगर आपकी सरकार में भी चलता है चलता रहा तो फिर आपकी और पहले की सरकार में क्या अंतर रहा?  तो क्या जनता ने आपको मन की बात के जरिये कोरे प्रवचन करने के लिए ही चुना था?
मित्रों, स्वर्गीय संजय गाँधी जिनका पूरा परिवार अभी भाजपा में शरणार्थी है कहते थे कि बातें कम काम ज्यादा। लगता है कि मोदी जी का मूल मंत्र है बातें ही बातें और काम शून्य. बिहार में इस सन्दर्भ में एक बहुत ही खूबसूरत कहावत प्रचलन में है कि बात हमसे लीजिए और काम हमारे दादाजी से. दरअसल बिहार में कुछ ऐसे महारथी भी हैं जो बातों से न सिर्फ मन भर देते हैं बल्कि पेट भी भर देते हैं और होशियार-से-होशियार लोग भी उनके झांसे में आ जाते हैं.
मित्रों, अब जब अगला लोकसभा चुनाव दरवाजे से कुछेक फर्लांग ही दूर रह गया है तब मुझे एक किस्सा याद आ रहा है. किसी गांव में एक डॉक्टर था जो था तो डिग्री के अनुसार सर्जन लेकिन अल्पज्ञ और बातूनी था. शुरुआत में जो भी उसके संपर्क में आता उससे बिना ईलाज कराए रह नहीं पाता. कभी वो किसी का पेट खोल देता तो कभी किसी का फेफड़ा तो किसी का ब्रेन लेकिन आतंरिक अंगों की जटिलता को समझ नहीं पाता और मरीज मरघट पहुँच जाता. धीरे-२ लोग उसकी परछाई से भी डरने लगे और डॉक्टर शहर छोड़कर चला गया.
मित्रों, आज मोदी सरकार हर मोर्चे पर असफल है लेकिन यह उसकी असफलता नहीं है बल्कि भारत की असफलता है. समझ में नहीं आता कि अगले चुनाव में हम किसे वोट डालेंगे? आपकी समझ में कुछ आ रहा है क्या? यह सरकार या आनेवाले चुनाव में उपस्थित विकल्प? कुछ भी?

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

मोदी सरकार की टच एंड रन की नीति

मित्रों, हमारे बिहार में एक कहावत है कि मंत्र तो बिच्छू का भी नहीं पता और चले हैं सांप के बिल में हाथ डालने. पता नहीं आपके यहाँ इसके बदले कौन-सी कहावत प्रचलन में है. इसी तरह एक और कहावत भी बिहार में चलती है कि झोली में दाम नहीं और सराय में डेरा अर्थात अपने बारे में ओवरस्टीमेट होना.
मित्रों, दुर्भाग्यवश ये दोनों कहावतें इन दिनों केंद्र में सत्ता संभाल रही मोदी सरकार पर लागू हो रही है. चाहे वो नोटबंदी हो या जीएसटी, गंगा-सफाई हो या मेक इन इंडिया, हरित क्रांति हो या स्वास्थ्य क्रांति हो या पुलिस और न्यायपालिका में सुधार हो या सबके लिए आवास उपलब्ध करवाना या भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई हो या कालाधन या रोजगार-सृजन या कश्मीर हर मामले में मोदी सरकार पूरी तरह से असफल है या फिर आंशिक रूप से सफल है. उसने हर मामले को छेड़ जरूर दिया है लेकिन सच्चाई यह भी है कि किसी भी मामले को अंत तक नहीं ले जा पाई है और अधूरा छोड़ दिया है या छोड़ना पड़ा है.
मित्रों, पता नहीं सरकार के दिमाग में कैसा केमिकल लोचा चल रहा है? बेवजह सुरेश प्रभु का मंत्रालय बदल दिया, स्मृति ईरानी को लगातार महत्वपूर्ण मंत्रालय दिया जा रहा है, राफेल पर पर्दादारी की जा रही है, रोजगार की नई परिभाषा ही गढ़ दी गई है. कदाचित मोदी जी अपने बारे में ओवरस्टीमेटेड थे और हैं या फिर देश की जनता ने ही उनकी क्षमताओं के बारे में जरुरत से ज्यादा अनुमान लगा लिया. आज भी मोदी जी के पास सिवाय जन-धन खातों और उज्ज्वला के कुछ भी नहीं है और अगर कुछ है भी तो अभी परिणति से कोसों दूर है. सबसे हद तो कश्मीर में की जा रही है. भाजपा और महबूबा दोनों निहायत विपरीत ध्रुवों की राजनीति करते हैं और और अभी भी कर रहे हैं जिससे वहां विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई है.
मित्रों, गांवों में एक और कहावत है कि नीम हकीम खतरे जान. अब अपने देश की अर्थव्यवस्था को ही लीजिए जो आगे जाने के बदले पीछे जा रही है. जैसे कोई झोला छाप डॉक्टर किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीज का ईलाज करता है और बार-बार दवा बदलकर प्रयोग करता है वैसे ही जेटली जी भी अंदाजन दवा-पर-दवा बदलते जा रहे हैं. मरीज ठीक हो गया तो श्रेय लूट लेंगे और ठीक नहीं हुआ तो वैश्विक स्थिति पर सारा ठीकरा फोड़ देंगे.
मित्रों, जो गलती बिहार में नीतीश ने नौकरशाही के बल पर शासन सुधारने की कोशिश करके की वही गलती इन दिनों मोदी सरकार कर रही है. सरकार तो वाजपेयी जी ने भी चलाई थी और हर मंत्रालय में उसके विशेषज्ञों को बैठाया था तो क्या वाजपेयी पागल थे? बल्कि मेरा तो यहाँ तक मानना है कि अगर जरूरी हो तो विपक्षी खेमे में शामिल योग्य लोगों से भी सलाह लेनी चाहिए. मुझे एक दृष्टान्त याद आ रहा है. १८६१ में लिंकन जब राष्ट्रपति बने तो उन्होंने दास प्रथा को समाप्त कर दिया. दक्षिणी राज्यों ने विद्रोह कर दिया और भयंकर युद्ध छिड़ गया. उस समय पूरे अमेरिका में सबसे बड़े सैन्य जनरल थे ग्रांट लेकिन समस्या यह थी कि वे लिंकन के विरोधी थे. इसके बावजूद लिंकन ने उनको ही सेनाध्यक्ष बनाया. जब लिंकन के दोस्तों ने इस पर आपत्ति की तो उनका जवाब था कि भले ही वो मेरा विरोधी है लेकिन पूरे अमेरिका में उससे ज्यादा योग्य सेनानायक नहीं है इसलिए मैंने अहम पर देशहित को अहमियत दी. चूंकि लिंकन यह मानते थे कि वे सर्वज्ञ नहीं थे इसलिए उनका नाम विश्व इतिहास में गर्व से लिया जाता है.
मित्रों, आज भारत को भी लिंकन सरीखे व्यक्तित्व की आवश्यकता है लेकिन क्या मोदी जी उनके समकक्ष भी हैं? यह अद्बभुत संयोग है कि लिंकन 16वें राष्ट्रपति थे तो मोदी 16वें प्रधानमंत्री हैं। तो मुझे यह भी लगता है कि मोदी जी ने मार्गदर्शक मंडल की स्थापना करके ठीक नहीं किया. बल्कि देशहित में यही ठीक रहता कि आडवाणी जी और जोशी जी को भी मंत्रिमंडल में लिया जाता. वे कम-से-कम गिरिराज और स्मृति ईरानी से तो बेहतर ही सिद्ध होते. क्योंकि मुझे लगता है कि मोदी जी के इर्द-गिर्द जो लोग हैं और जिनकी सलाह पर वे चलते हैं वे सही नहीं हैं और मुझे यह भी लगता है कि मोदी जी को पता नहीं है कि टीम वर्क करते समय खुद १६-१८ घंटे काम करने से ज्यादा जरूरी होता है दूसरों से काम करवाना.

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

बढ़ते भारत का प्रतीक पकौड़ा साहित्य

मित्रों, मैं वर्तमान पकौड़ा-विमर्श को देखते हुए झूठ नहीं बोलूंगा कि मैं पकौड़ों से प्रेम नहीं करता हूँ लेकिन सच यह भी है कि जबसे मेरे शरीर के भीतर डाईबीटिज का बसेरा हुआ है प्रेम में कमी आ गई है. अगर पकौड़ा जरूरी है तो उससे ज्यादा जीना जरूरी है. धीरे-धीरे हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि मैं पकौड़ों की तरफ देखना तो दूर, जुबाँ पर उसका नाम लेना तो दूर, उसका नाम भी नहीं सुनना चाहता.
मित्रों, मगर मुझे क्या पता था कि देश में कई दशकों से चल रहे दलित-विमर्श के स्थान पर पकौड़ा-विमर्श आरम्भ हो जाएगा और मुझे भी मजबूरन पकौड़ावादी बनना पड़ेगा. जो साहित्य किसी वाद का हिस्सा न हो अर्थात निर्विवाद हो वो कम-से-कम हिंदी वांग्मय में तो साहित्य कहला ही नहीं सकता. पहले राष्ट्रवाद आया, फिर छायावाद, फिर प्रगतिवाद, फिर नव प्रयोगवाद, फिर नई कहानी नई कविता, फिर उत्तरवाद और नव उत्तरवाद, फिर समकालीन साहित्य, फिर दलित साहित्य और अब पकौड़ावाद.
मित्रों, मैं अपने देश के प्रधानमंत्री जी का इस बात के लिए आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने सबका साथ सबका विकास के अपने मूलमंत्र पर चलते हुए निहायत उपेक्षित पकौड़े को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया. साथ ही उम्मीद करता हूँ कि वे भविष्य में भिक्षा और कटोरे का जिक्र करके कटोरावादी साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे. अगर वे ऐसा करते हैं तो हिंदी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा.
मित्रों, लेकिन हम अपने विमर्श को फ़िलहाल पकौड़ा साहित्य तक ही सीमित रखना चाहेंगे क्योंकि मैं वर्तमान में जीता हूँ. तो मैं कह रहा था कि मैं चाहता हूँ कि भविष्य में पकौड़े पर कविता, कहानी ही नहीं वरन महाकाव्य और उपन्यास भी लिखे जाएं. बल्कि मैं तो चाहता हूँ कि पकौड़ा साहित्य साहित्यिक आंदोलन का रूप ले और देश के निमुछिए से लेकर कब्र में पाँव डाल चुके साहित्यकार तक फिर चाहे वो किसी भी लिंग, वर्ग, प्रदेश या संप्रदाय का हो दशकों तक पकौड़ा साहित्य रचे. पकौड़ों पर थीसिस लिखे जाएं और पकौड़ों पर पीएचडी हो. जब रसगुल्ले को लेकर दो राज्य सरकारों में मुकदमेबाजी हो सकती है तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता? अभी दो दिन पहले मैंने प्रधानमंत्री निवास के निकटवर्ती लोक कल्याण मार्ग मेट्रो स्टेशन पर एक विचित्र मशीन को देखा. वो मशीन न केवल इच्छित स्टेशन के टोकन ही दे रही थी बल्कि पैसे काटकर वापस भी कर रही थी. अगर इसी तरह सरकारी सेवाओं का मशीनीकरण होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कटोरावाद पकौड़ावाद का स्थान लेकर हिंदी साहित्य के कारवां को आगे बढ़ाएगा।
मित्रों, अंत में मैं एक भविष्यवाणी करना चाहूंगा. वो यह कि जिस तरह से आधार को ऑक्सफ़ोर्ड ने २०१७ का शब्द घोषित किया है मैं इस बात की अभी से ही मोदी जी की तरह जापानी ढोल पीटकर भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि ऑक्सफ़ोर्ड इस चलंत साल यानि २०१८ का शब्द पकौड़ा को ही घोषित करेगा, करना पड़ेगा. अंत में मैं चाहूंगा कि आप भी दोनों मुट्ठी बंद कर जोरदार नारा लगाएं-जय पकौड़ा, जय पकौड़ावाद. इतनी जोर से कि हमारी आवाज पश्चिमी देशों तक पहुंचे और वहां भी पकौड़ावादी साहित्यिक आंदोलन शुरू हो जाए. कब तक हम साहित्यिक आंदोलनों के मामले में पश्चिम के पीछे चलेंगे? गाना तो बजाओ भाई मेरा देश बदल रहा है, पकौड़े तल रहा है. 

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

बजट:दुरुस्त आयद मगर देर से आयद

मित्रों, एक जमाना था जब हम क्रिकेट के दीवाने हुआ करते थे और भारत की हार हमारे लिए नाकाबिले बर्दाश्त हुआ करती थी. कई बार तो ऐसा भी होता कि भारतीय टीम को अंतिम ओवर में जीत के लिए ४०-५० रन बनाने होते थे लेकिन हमें तब भी पूरी उम्मीद होती थी कि जीत भारत की ही होगी. जाहिर है असंभव तो असंभव ही होता है इसलिए हार के बाद हम टूट-से जाते थे.
मित्रों, हमारी कुछ ऐसी ही मनःस्थिति इन दिनों केंद्र में काबिज नरेंद्र मोदी की सरकार को लेकर हो रही थी. सरकार के चार साल बीत चुके हैं. काम कुछ खास हो नहीं पाया है लेकिन लगता था जैसे एक साल में ही क्रांति हो जाएगी, चमत्कार हो जाएगा. जैसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ बॉलर अंतिम ओवर में लगातार कई दर्जन नोबॉल फेंकेगा और भारत का दसवां बल्लेबाज उन हरेक नोबॉल पर सिर्फ छक्के ही जड़ेगा।
मित्रों, अब इस साल के बजट को ही लें. बेहतरीन दस्तावेज है, जबरदस्त, सुपर. लेकिन सवाल उठता है कि ऐसा बजट तो पहले साल आना चाहिए था. बजट में जो प्रावधान किए गए हैं एक साल में उनपर काम होगा कैसे? माना कि सरकार ने उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया लेकिन वो किसानों को मिलेगा कैसे? माना कि सरकार ने उद्योंगों को करों में छूट दे दी लेकिन एक साल में करोड़ों रोजगार कहाँ से आ जाएंगे? इसी तरह आदिवासियों की शिक्षा के लिए, शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए भी जो कुछ किया गया है वो भी स्वागत योग्य है लेकिन इनके परिणाम आने में कई साल लग जाएंगे फिर इस काम में देरी क्यों की गई?
मित्रों, कई मामलों में यह बजट सरकार की लाचारी और नाकामी को भी दर्शाता है. जैसे सरकार ने जो न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की जो घोषणा की है उससे साबित होता है सरकार कृषि के क्षेत्र में कुछ नया नहीं कर पाई. बल्कि वही सब कर रही है जो पिछली सरकारें कर रही थीं. कहाँ है पर ड्राप मोर क्रॉप और मृदा स्वास्थ्य कार्ड? कहाँ हैं नदियों को जोड़नेवाली नहरें?
मित्रों, इसी तरह सरकार ने जो स्वास्थ्य बीमा की राशि बढ़ाने की घोषणा की है उसको भी सरकार की नाकामी का प्रतीक मानता हूँ. आखिर कोई क्यों जाए निजी अस्पतालों में? फिर इसकी क्या गारंटी है कि निजी अस्पताल उन पैसों को बेईमानी कर हजम नहीं कर जाएंगे? बिहार में तो अविवाहित लड़कियों के गर्भाशय तक उनकी बिना जानकारी के लापता कर दिए गए.
मित्रों, इसी तरह इस बजट में रक्षा क्षेत्र को ज्यादा राशि दी गयी है जो स्वागतयोग्य है लेकिन रोजाना पाकिस्तानी सीमा पर जो कैप्टेन कपिल कुंडू मारे जा रहे हैं उनकी मौतों को रोकने के लिए सरकार के पास कोई योजना है क्या? युद्ध सिर्फ हथियारों से नहीं हौसलों से जीते जाते हैं. क्या है इस सरकार के पास हौसला? अगर है तो फिर कश्मीर में सेना पर एफआईआर क्यों हो रहे हैं और क्यों सेना पर पत्थर फेंकनेवालों के खिलाफ दर्ज एफआईआर वापस लिए जा रहे हैं? सरकार का गठन देश की सुरक्षा के लिए हुआ था या वोटों की सुरक्षा के लिए?
मित्रों, तमाम सवालों के बावजूद इस सरकार ने आधारभूत संरचना के क्षेत्र में अद्भुत काम किया है. रेलवे की सिग्नल प्रणाली बदलने से, नई पटरियों के बिछने से आनेवाले वर्षों में उम्मीद की जानी चाहिए कि पटना से दिल्ली आने में जाड़े में भी १२ से १४ घंटे ही लगेंगे न कि दो-दो दिन. इसी तरह भारत भविष्य में अपनी बेहतरीन ६ लेन सडकों, पुलों, और फ्लाईओवरों के लिए जाना जाएगा.
मित्रों, बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि सरकार त्वरित न्याय की दिशा में कार्यकाल के चार साल बीत जाने के बाद भी कुछ नहीं कर पाई है. इस बजट में भी इस बारे में शून्य बटा सन्नाटा ही है. बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि देश में अभी भी हर कदम पर भ्रष्टाचार है, अराजकता है जबकि १८ राज्यों में भाजपा की सरकार है. पुराने पापी मजे में हैं. बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है मोदी सरकार भी जातिवादी राजनीति में आकंठ डूब गई है. ये दलित, वो पटेल तो यहाँ आरक्षण, वहां आरक्षण. पता नहीं देश समझ पाया या नहीं कि मध्यम वर्ग को आयकर में छूट नहीं दी जा सकती क्योंकि देश को पैसा चाहिए लेकिन मैं यह नहीं समझ पाया कि बजट द्वारा आखिर राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति और सांसदों के वेतन को बढ़ाने की जरुरत क्या थी? क्या ये लोग भूखों मर रहे थे? क्या इनका वेतन बढ़ाने से खजाने पर कोई बोझ नहीं पड़ेगा? प्रधानमंत्री के आग्रह पर करोड़ों लोगों ने गैस की सब्सिडी छोड़ दी लेकिन अमीर सांसद कब वेतन और सुविधा लेना बंद करेंगे?
मित्रों,  राजस्थान तो पहली झांकी है पूरा भारत बांकी है. पता नहीं सरकार कैसे एक साल में सरकार जनता का दिल जीत पाएगी? कैसे साबित कर पाएगी कि मोदी सिर्फ जुमलावीर नहीं हैं?