बुधवार, 27 जून 2018

लोकतंत्र अमर रहे

मित्रों, यह हमारे लिए अतिशय गौरव का विषय है कि हम २१वीं में जी रहे हैं. मानवता चाँद पर तो पिछली सदी में ही पहुँच गया था अब वो मंगल पर जाने की तैयारी में है. लेकिन यह हमारे लिए अतिशय शर्म का विषय है कि हमारा समाज आज भी जातिभेद के दुष्चक्र से निकला नहीं है. हमें आए दिन ऐसी ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं जिनमें इस तरह की घोर निंदनीय घटनाओं का जिक्र होता है-जैसे, बड़ी जाति के लोगों ने दलित दूल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया, दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार इत्यादि.
मित्रों, यह गंभीरतापूर्वक सोंचने का समय है कि हम अपने समाज को कहाँ ले जाना चाहते हैं? अस्पृश्यता या जातिभेद न केवल क़ानूनन अपराध है वरन मानवता के प्रति भी अक्षम्य अपराध है फिर जबकि साक्षरता का स्तर ७५ प्रतिशत को पार कर चुका है हमारा मानसिक स्तर इतना निम्न क्यों है?
मित्रों, हद तो तब हो गई जब जगन्नाथपुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर में भारत के राष्ट्रपति के साथ बदतमीजी की गई. धक्का मारा गया और कोहनी मारी गयी. मैं सच्चाई नहीं जानता कि ऐसा करने के पीछे पंडे की क्या मंशा थी लेकिन अगर ऐसा इस कारण से किया गया क्योंकि वे दलित हैं तो फिर इस घटना की जितनी भी निंदा की जाए कम है. वैसे इस बात की सम्भावना कम ही दिखती है क्योंकि मेरे कई दलित मित्र पुरी जा चुके हैं और उनसे उनकी जाति नहीं पूछी गई. हालाँकिपंडों की रंगदारी मैं स्वयं अपनी आँखों से काशी और देवघर में देख चुका हूँ.
मित्रों, राष्ट्रपति का पद देश का सर्वोच्च पद होता है और पूरे देश का प्रतिनिधि होता है इसलिए उनका अपमान भारत का अपमान है, भारत की सवा सौ करोड़ जनता का अपमान है. सवाल यह भी उठता है कि क्या राष्ट्रपति की सुरक्षा-व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त है? अगर हाँ तो फिर यह घटना कैसे घट गई? अगर नहीं तो नहीं क्यों?
मित्रों, मेरा हमेशा से ऐसा मानना रहा है कि न तो कोई नीच है और न हो कोई महान है क्योंकि सब एक ही तरीके से जन्म लेते हैं. फिर अगर कोई ठाकुर यानि मेरी जाति का व्यक्ति घोड़ी पर चढ़ सकता है तो दलित क्यों नहीं चढ़ सकता? कई बार दलित महिलाओं को गरीबी के कारण दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता है जिसका मालिक लोग नाजायज फायदा उठाते हैं जबकि ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए और उनको सोंचना चाहिए कि अगर ऐसा कुकर्म उनकी बहू-बेटियों के साथ हो तो उन पर क्या बीतेगी? इस दुनिया में मेरी नज़र में अगर कोई सबसे बड़ा पाप है तो वो है दूसरों की मजबूरियों का फायदा उठाना. वैसे मैं चाहता हूँ कि बलात्कारियों को जितनी क्रूर सजा दी जा सकती है दी जानी चाहिए और अच्छा हो कि उनको बीच चौराहे पर मृत्युदंड दिया जाए.
मित्रों, आज मुझे एक और खबर ने व्यथित कर दिया है. वो है भारत के प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र अमर रहे का नारा लगाना और लगवाना. क्या प्रधानमंत्री मोदी मानते हैं कि भारत में लोकतंत्र मर चुका है क्योंकि अमर रहे का नारा तो दिवंगत के लिए लगाया जाता है? या फिर हमारे प्रधानमंत्री को इतनी छोटी-सी बात का भी ज्ञान नहीं है? जब प्रधानमंत्री इस तरह की गलतियाँ करते हैं तो हमें खुद पर शर्म आती है कि हमने किसे चुन लिया. हमें नहीं चाहिए चौबीसों घंटे जागने वाला प्रधानमंत्री बल्कि हमें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिए जो ज्ञानी,समझदार,ईमानदार और वास्तव में देश को अपना सबकुछ माननेवाला देशभक्त हो. जो मदारी की तरह लच्छेदार बातें भले ही न करे वादे पूरे करे. जो अपने मन की बात भी भले ही न सुनाए बल्कि जनता के मन की बात सुने. और प्रत्येक कदम पूरी तैयारी करने के बाद, पूरी तरह से सोंच-समझकर उठाए. जो अपनी उपलब्धियां गिनाए न कि विपक्ष की कमजोरियाँ, यानि वास्तव में सकारात्मक सोंच वाला हो. जो जितना पढ़ा हो उतने का ही दावा करे और ताल ठोंक कर करे. जो हवाई यात्रा पर जाते समय सबके साथ सीढियों पर चढ़ता हुआ नजर आए न कि अकेले जैसे पूरी विदेश नीति वो बिना सचिवों, उच्चायुक्तों और मंत्री के खुद अकेले ही चलाता हो.
मित्रों, एक समय हमने २०१४ के चुनाव परिणामों की तुलना फ़्रांस की राज्यक्रांति से की थी लेकिन यह नहीं बताया था कि फ़्रांस में क्रांति के नाम पर लाखों लोगों को सूली पर चढ़ा दिया गया था और भयंकर अत्याचार किए गए थे. एक तरह का भयानक आतंकराज रॉबस्पियर के नेतृत्व में स्थापित कर दिया गया था. खैर वर्तमान भारत तो क्या फ़्रांस में भी ऐसा संभव नहीं है तथापि समझ में नहीं आता कि हमसे गलती हुई तो कहाँ हुई? समझ में तो आज भी नहीं आता कि हमारे समक्ष सबसे अच्छा विकल्प क्या है. तमाम निराशाओं के बीच हमारे लिए सबसे बड़े सौभाग्य की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र अमर रहे का नारा लगाने के बावजूद भारत में लोकतंत्र जिंदा है भले ही हमारे देश में वो मूर्खों का, मूर्खों द्वारा, मूर्खों के लिए शासन बनकर रह गया हो.

रविवार, 24 जून 2018

चमकते बिहार को टूटा हुआ तारा बना डाला

मित्रों, लगभग हर चुनाव में हम इस नारे को सुनते हैं-तख़्त बदल दो ताज बदल दो बेईमानों का राज बदल दो. एक समय था जब समाजवादी होना ईमानदारी का प्रमाणपत्र माना जाता था लेकिन आज अखिलेश टोंटी चोर के नाम से जाने जाते हैं. यूपी की ही तरह बिहार में भी पिछले २८ सालों से समाजवादियों का शासन है जिन्होंने बिहार को क्या से क्या बनाकर रख दिया है.
मित्रों, कई बार जब हम समय के पन्ने को पलटकर देखते हैं तो पाते हैं कि हमने जिस सत्ता परिवर्तन को क्रांति समझा था वो दरअसल भ्रान्ति थी और कदाचित पहलेवाला शासन ही अच्छा था. हमें याद है कि १९९० के विधानसभा चुनावों के समय बिहार में कांग्रेसविरोधी लहर चल रही थी. वीपी सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे और यूं लगता था कि समाजवादी बिहार का भाग्य बदल कर रख देंगे. उन्होंने ऐसा किया भी और बिहार के सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल दिया. कुछ ही सालों में समाजवादी राज यादव राज में बदल गया. लालू के साले और पार्टी वालों ने दरोगा तो क्या डीएम तक को कार्यालय में घुसकर पीटा. आईएएस की पत्नियों के साथ बलात्कार तक हुआ. अब जब अधिकारी ही लाचार थे तो जनता की कौन सुनता. बिहार से व्यवसायी भागने लगे. देखते ही देखते बिहार के ३० चीनी मिलों में से २५ बंद हो गए. कहना न होगा लालू राज से पहले बिहार चीनी उत्पादन में देश में दूसरे स्थान पर था. मतलब कि लालू ने वादा तो किया था बिहार को औद्योगिक राज्य बनाने का लेकिन किया उल्टा. जो उद्योग पहले से चालू थे उनको भी बंद करवा दिया और बिहार को पूरी तरह से मजदूरों की आपूर्ति करनेवाला राज्य बना दिया. यहाँ मैं आपलोगों को याद दिला दूं कि बिहार प्रतिव्यक्ति आय के मामले में १९४७ में देश में दूसरा स्थान रखता था.
मित्रों, इसी बीच बिहार में नीतीश कुमार का अवतरण हुआ. उनको भी शासन करते आज १३ साल हो चुके हैं लेकिन बिहार की दशा सुधरने के बदले बिगड़ी ही ज्यादा है. अंतर बस इतना है कि लालू ताल ठोंककर भ्रष्टाचार करता था और ये चुपचाप करते हैं लेकिन आज बिहार में भ्रष्टाचार लालू के ज़माने से भी ज्यादा है. लालू के ज़माने में जिला प्रशासन ने विकास निधि की राशि को निजी खाते में नहीं डाला था लेकिन नीतीश के समय सृजन घोटाला हो चुका है. लालू के समय बिहार की शिक्षा व्यवस्था इतनी बुरी नहीं थी जितनी नीतीश ने ग्राम प्रधानों से शिक्षकों की बहाली करवा कर कर दी है. लालू के ज़माने में प्रत्येक बहाली में कम से कम आधे लोग प्रतिभा के आधार पर चुने जाते थे नीतीश के ज़माने में पूरी सीट पहले ही बिक जाती है. लालू के ज़माने में बिहार बोर्ड इतना बदनाम नहीं था लेकिन आज बिहार बोर्ड अराजकता और भ्रष्टाचार का इतना बड़ा अड्डा बन चुका है कि लोग इसके द्वारा परीक्षा देने में डरने लगे हैं.
मित्रों, पिछले कुछ दिनों से बिहार बोर्ड के अध्यक्ष आनंद किशोर पर ऊँगलियाँ उठ रही हैं. लेकिन सवाल उठता है कि थाने-प्रखंड से लेकर सचिवालय तक बिहार में ऐसा कौन-सा कार्यालय है जहाँ पैसे लेकर अधिकारियों को तैनात नहीं किया गया है? काफी समय पहले शायर शौक बहराईची ने कहा था-
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा 
सो इस स्थिति में बिहार का जो अंजाम होना था या होना चाहिए हो रहा है. नीतीश एक भी बंद चीनी मिल चालू नहीं करवा पाए और न ही कोई नया उद्योग ही बिहार में स्थापित करवा पाए. आज बिहार में फिर से लूट-मार-बलात्कार-अपहरण का बोलबाला है. आज फिर से भाजपा नीतीश के साथ आ चुकी है लेकिन अब तक इससे सेहत समेत बिहार के किसी भी महकमे की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है. 
मित्रों, मोदी जी ने तो कहा था कि वो भारतमाता के वामांग को भी शक्तिशाली बनाएंगे लेकिन बिहार में तो ऐसा कुछ दिख नहीं रहा बल्कि बिहार दिन-ब-दिन और भी बर्बाद होता जा रहा है. अलबत्ता बिहार भाजपा के अध्यक्ष नित्यानन्द राय जरूर इन दिनों राष्ट्रपति के साथ विदेश दौरे का लुत्फ़ उठा रहे हैं. भले ही वो बिहार में भाजपा को एक भी यादव का वोट नहीं दिलवा पाएँ.
मित्रों, आगे बिहार का क्या होगा पता नहीं. लालू के बेटों को हमने अब तक जितना देखा है उससे तो यही लगता है कि ये लालू से भी बड़े यादववादी हैं फिर बिहार की जनता के सामने विकल्प क्या है? यूपी को तो योगी मिल गया है. वैसे भी माया-मुलायम या अखिलेश के समय यूपी की दशा उतनी नहीं बिगड़ी थी जितनी बड़े भाई लालू और छोटे भाई नीतीश के समय बिहार की बिगड़ी है. इन दिनों मैं यूपी के मुज़फ्फरनगर में रह रहा हूँ और देखता हूँ कि किस तरह चीनी मीलों ने जिले के किसानों की दशा को बदलकर रख दिया है. क्या बिहार में ऐसा कभी देखने को मिलेगा? आखिर कब तक बिहार के किसान हानिकारक खेती करने को अभिशप्त रहेंगे? आखिर कब तक बिहार के युवा श्रमिक दूसरे राज्यों को पलायन करते रहेंगे,कब तक?

शनिवार, 16 जून 2018

गजब किया मोदी तेरे वादे पे ऐतबार किया

मित्रों, दुष्यंत कुमार ने क्या खूब कहा है कि

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये.

मित्रों, याद करिए मोदी जी ने २०१४ में क्या-क्या वादे किए थे? उनमें से एक वादा यह भी था कि वे भारत को एक बार फिर से विश्वगुरु बनाएँगे और इसके लिए देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करेंगे. मगर हुआ क्या? न तो देश की प्राथमिक शिक्षा के लिए ही और न ही उच्च शिक्षा की स्थिति में ही कोई परिवर्तन आया और न ही इस दिशा में कोई ऐसी योजना ही आई जिससे पता चले कि ऐसा करने की सरकार की कोई मंशा भी है. अलबत्ता जो शेष है उसे भी बर्बाद करने की मंशा जरूर झलक रही है.
मित्रों, यह किसी से छिपी हुई नहीं है कि देश की शिक्षा प्रणाली मर चुकी है और अब परीक्षा प्रणाली में परिणत हो चुकी है. उस पर कहर यह कि बोर्ड और विश्वविद्यालय समय पर और समुचित तरीके से परीक्षा भी नहीं ले पा रहे हैं. हर शाख पे उल्लू बैठा हो तो फिर भी गनीमत यहाँ तो हर पत्ते पर उल्लू बैठा है और गजब यह कि मीर साहब के शब्दों में
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने जाने गुल ही जाने बाग़ तो सारा जाने है.
मित्रों,मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा लगता नहीं कि मोदी सरकार जो आंकड़ों की सरकार है और कहती है कि दिखे या न दिखे देश बदल रहा है शिक्षा को लेकर कतई गंभीर है. तभी तो वो बार-बार अयोग्य व्यक्तियों को शिक्षा मंत्री बना रही है. पहले उसने एक ऐसी महिला को शिक्षा मंत्री बनाया जिसकी खुद की डिग्री सवालों के घेरे में है. वैसे सवालों के घेरे में तो खुद माननीय प्रधानमंत्री की डिग्री भी है. उसके बाद उसने एक ऐसे व्यक्ति को शिक्षा मंत्री बनाया जो आईए गधा,बीए बैल, सबसे अच्छा मैट्रिक फेल को बखूबी चरितार्थ करता है अर्थात् जिसके पास व्यावहारिक ज्ञान है ही नहीं. जो सिर्फ नाम से ही प्रकाश है और जिसे शैम्पेन की बोतल खोलने के अलावा और कुछ आता ही नहीं. 
मित्रों, आप कहेंगे कि आपने उनकी महिमा का जो बखान किया है उसके बारे में आपके पास प्रमाण क्या है. तो प्रमाण है प्रोफेसर की नौकरी के लिए नेट की अनिवार्यता को समाप्त करना. 
मित्रों, सवाल उठता है कि एक तरफ तो सरकार उच्च न्यायपालिका से कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त करना चाहती है तो वहीँ विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में कॉलेजियम लाना चाहती है? योग्यता की परीक्षा नहीं ली जाएगी और शोध के आधार पर प्राध्यापक बहाल किए जाएंगे? वाह क्या योजना है जैसे सरकार को पता ही नहीं कि देश में शोध कैसे किए जाते हैं? कॉपी, कट-पेस्ट और शोध पूरा. सरकार की योजना अगर सफलीभूत हो गई तो निश्चित रूप से उच्च शिक्षा की स्थिति और भी निम्न हो जाएगी. सिर्फ प्रोफेसरों के बेटे और रिश्तेदार ही प्रोफ़ेसर बन पाएँगे. 
मित्रों, पता नहीं यह योजना किस नायाब दिमाग की उपज है? हमें तो शक ही नहीं पूरा यकीन है कि महान शिक्षा मंत्री ने ही इसे सुझाया होगा. वर्षों पहले बिहार में प्राथमिक शिक्षकों की नियुक्ति भी बिना प्रतियोगिता परीक्षा लिए की गई थी और इस तरह बिहार की प्राथमिक शिक्षा की शांतिपूर्ण मृत्यु का मार्ग धूम-धड़ाके से प्रशस्त किया गया था. हमें तो डर है कि अभी इस सरकार ने बिना सिविल सेवा पास किए अधिकारियों की नियुक्ति का जो रास्ता खोला है वो भी भविष्य में इस सरकार सबसे बड़ा छलावा न साबित हो और सिर्फ अपने लोगों को आईएएस न बना दिया जाए. क्योंकि यह सरकार भले ही किसी को ५ रूपये खाने न दे लेकिन १००० रूपये का गिलास जरूर तोडती है.

मित्रों, अब विश्वास किया है तो चाहे यह सरकार हर क्षेत्र में कॉलेजियम ला दे बर्दाश्त तो करना ही पड़ेगा.
दाग देहलवी साहब ने तो काफी पहले कहा था कि 

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया.
हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया.

बुधवार, 6 जून 2018

मनमोहन, मोदी और वर्तमान भारत

मित्रों,ब्रह्म के बारे में वर्णन व विश्लेषण करते समय कभी हमारे वैदिक ऋषियों ने कहा था नेति, नेति अर्थात ब्रह्म यह भी नहीं है, वह भी नहीं है. विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों में मैं भी ब्रह्मर्षियों जैसा महसूस करने लगा हूँ और वो भी नेताओं के मामले में. पहले मैंने किशोरावस्था में जब मैं अपने नामानुरुप किशोर हुआ करता था विश्वनाथ प्रताप सिंह का समर्थन किया था. बाद में उनके नाममात्र से भी घृणा हो गयी. फिर अटल जी पर अटल श्रद्धा हो गई मगर वे पहले चुनाव हारे और बाद में स्वास्थ्य भी. फिर अन्ना और केजरीवाल से उम्मीद जगी लेकिन उनके ४५ दिनों के नाटकीय शासन के बाद वो भी ह्रदय की गहराईयों में कहीं दफ़न हो गई. फिर बाबा रामदेव और अंत में नरेंद्र मोदी. बाबा ने जब गोपिका वेश बनाया तभी उनसे मोहभंग हो गया. अलबत्ता कांग्रेस या उसके किसी नेता से मैंने कभी उम्मीद नहीं पाली क्योंकि मैं दिल से सोंचनेवाला इंसान हूँ. सच्चाई तो यह है कि मैं वर्तमान कांग्रेस को उत्तरवर्ती मुग़ल शासकों के समान मानता हूँ.
मित्रों, यह सच है और सोलह आने सच है कि मैंने मोदी का तब समर्थन किया था और खुलकर समर्थन किया था जब मीडिया उनको पूरी तरह से अछूत मानती थी. मैं आज भी  मानता हूँ कि गोधरा में ट्रेन नहीं जलाई होती तो दंगे भी नहीं हुए होते. मोदी ने जिस तरह गुजरात को संवारा था मुझे लगा था कि वाकई इस आदमी का सीना ५६ ईंच का है. तब हमने हर्षातिरेक में मोदी चालीसा तक लिख डाली थी और वो भी २ अक्टूबर के दिन २०१३ में. लेकिन जब मोदी जी ने मंत्रिमंडल गठित की तब मेरे मन में पहली बार उनके प्रति सन्देह का बीज पड़ा. तब मुझे लगा एक साथ इतने नाकारे लोगों को लेकर कोई कप्तान कैसे अच्छा प्रदर्शन कर सकता है? फिर भी आशा थी कि बाद में कदाचित मोदी जी मंत्रिमंडल में अपेक्षित परिवर्तन करेंगे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. फिर वे एक-के-बाद-एक ऐसे कदम उठाते रहे कि बहुत जल्द लगने लगा कि मोदी का नेशन फर्स्ट का नारा महज एक जुमला था और उनके लिए कुर्सी, नाम और महिमामंडनादि ही सर्वोपरि है जो किसी भी सामान्य तानाशाह के मौलिक गुण होते हैं. कोई भी तानाशाह सिर्फ बोलता है सुनता नहीं, कोई भी तानाशाह चाहे वो कितना भी अयोग्य क्यों न हो येन केन प्रकारेण यही चाहता है कि लोग उसकी बड़ाई करते रहें, स्तुति करते रहें, वो किसी भी सवाल का जवाब देना नहीं चाहता, वो चाहता है कि सारी संस्थाएँ चाहे वो संवैधानिक ही क्यों न हों उसकी मुट्ठी में हों.
मित्रों, बड़े ही दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि मुझे वर्तमान मोदी में ये सारे गुण दृष्टिगोचर हो रहे हैं. जब-जब मोदी सरकार ने यू-टर्न लिया मेरा उसके प्रति विश्वास कम होता गया. जब उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी का निर्णय लिया तो वास्तविकता यह थी कि मेरी समझ में कुछ नहीं आया फिर भी मैंने उनका समर्थन किया यह सोंचकर कि क्या पता इनके परिणाम अच्छे आएँ. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि मोदी अँधेरे में तीर चला रहे थे.
मित्रों, यह हम सभी जानते हैं कि मोदी कम पढ़े-लिखे हैं. कदाचित इसलिए उनकी नीतियाँ अक्सर गलत सिद्ध होती हैं फिर वे झेंप मिटाने के लिए कहते हैं कि मेरी नीयत में तो खोट नहीं थी. इन दिनों वे उत्तरवर्ती मनमोहन की ही तरह आँकड़ेबाजी पर उतर आए हैं. नौजवान नौकरी मांगते हैं तो वो मुद्रा योजना के आँकड़े दिखाते हैं, हम पेट्रोल की कीमत का मुद्दा उठाते हैं तो वो दूसरे देशों के मूल्यों के आँकड़े दिखाते हैं, हम स्वास्थ्य सेवा मांगते हैं तो वो मोदी केयर थमा देते हैं, हम न्यायिक और पुलिसिया सुधार मांगते हैं तो वो संवैधानिक मजबूरियों का रोना रोने लगते हैं, हम शिक्षा में सुधार मांगते हैं तो वो कौशल प्रशिक्षण प्रमाण-पत्र थमा देते हैं  मगर यह नहीं बताते रोजगार कहाँ है, हम विकास मांगते हैं तो वो बताते हैं कि हमने विश्व बैंक से कर्ज नहीं लिया मगर यह नहीं बताते कि विश्व बैंक से कर्ज वीपी सिंह ने भी नहीं लिया था मगर उसके बाद चंद्रशेखर को सोना गिरवी रखना पड़ा था, हम सैनिक साजो-सामान की कमी का मुद्दा उठाते हैं तो वो कश्मीरी आतंकियों को मारने और सर्जिकल स्ट्राइक की बात करते हैं मगर यह नहीं बताते कि पत्थरबाजों पर से मुकदमे क्यों हटाए गए और युद्ध विराम क्यों किया गया, हम चीन का मुद्दा उठाते हैं तो वो चुप्पी लगा जाते हैं और अचानक पर्यटक की तरह बाहें फैलाए चीन पहुँच जाते हैं, जब हम कहते हैं कि महंगाई के अनुपात में वेतन वृद्धि पर्याप्त नहीं है तो वो कहते हैं कि पैसे नहीं हैं लेकिन अचानक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और तमाम माननीयों के वेतन में कई गुना की बढ़ोतरी कर डालते हैं. वे यह भी नहीं बताते जब १ अप्रैल २००४ और उसके बाद नियुक्त असैनिक कर्मियों और अधिकारियों के पेंशन बंद कर दिए गए तो माननीयों को क्यों दिए जा रहे हैं?
मित्रों, कुल मिलाकर हालात निहायत अफसोसनाक हैं. रोते-२ बड़ी मुश्किल से हँसना सीखा था मगर अब फिर से रोना आ रहा है. मनमोहन के पास किताबी ज्ञान था तो व्यावहारिक ज्ञान और पावर नहीं था, मोदी के पास व्यावहारिक ज्ञान और पावर है तो गूढ़ विषयगत ज्ञान का अभाव है. जनता करे तो क्या करे क्योंकि मोदी के खिलाफ जो गठबंधन बन रहा है उसमें सिर्फ चोरों, डकैतों और ठगों का जमावड़ा है. मतलब यह कि अगर मोदी को हम हटा भी दें तो उनकी जगह आएगा कौन? तथापि मुझे वो कहानी याद आ रही है जिसमें किसी सेठ ने बन्दर को नौकर रखा था और बन्दर ने सेठ के सर से मक्खी उड़ाने के लिए तलवार ही चला दी थी तथापि उसकी नीयत और मेहनत तमाम संदेहों से परे थी. आज फिर से मुझे कहना पड़ रहा है और बड़े ही उदास स्वर में कहना पड़ रहा है कि भारत के लिए संसदीय शासन प्रणाली सर्वथा अनुपयुक्त है और आज नहीं तो कल हमें अध्यक्षीय प्रणाली अपनानी ही पड़ेगी यद्यपि दुश्वारियाँ तब भी आएंगी.