बुधवार, 6 जून 2018

मनमोहन, मोदी और वर्तमान भारत

मित्रों,ब्रह्म के बारे में वर्णन व विश्लेषण करते समय कभी हमारे वैदिक ऋषियों ने कहा था नेति, नेति अर्थात ब्रह्म यह भी नहीं है, वह भी नहीं है. विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों में मैं भी ब्रह्मर्षियों जैसा महसूस करने लगा हूँ और वो भी नेताओं के मामले में. पहले मैंने किशोरावस्था में जब मैं अपने नामानुरुप किशोर हुआ करता था विश्वनाथ प्रताप सिंह का समर्थन किया था. बाद में उनके नाममात्र से भी घृणा हो गयी. फिर अटल जी पर अटल श्रद्धा हो गई मगर वे पहले चुनाव हारे और बाद में स्वास्थ्य भी. फिर अन्ना और केजरीवाल से उम्मीद जगी लेकिन उनके ४५ दिनों के नाटकीय शासन के बाद वो भी ह्रदय की गहराईयों में कहीं दफ़न हो गई. फिर बाबा रामदेव और अंत में नरेंद्र मोदी. बाबा ने जब गोपिका वेश बनाया तभी उनसे मोहभंग हो गया. अलबत्ता कांग्रेस या उसके किसी नेता से मैंने कभी उम्मीद नहीं पाली क्योंकि मैं दिल से सोंचनेवाला इंसान हूँ. सच्चाई तो यह है कि मैं वर्तमान कांग्रेस को उत्तरवर्ती मुग़ल शासकों के समान मानता हूँ.
मित्रों, यह सच है और सोलह आने सच है कि मैंने मोदी का तब समर्थन किया था और खुलकर समर्थन किया था जब मीडिया उनको पूरी तरह से अछूत मानती थी. मैं आज भी  मानता हूँ कि गोधरा में ट्रेन नहीं जलाई होती तो दंगे भी नहीं हुए होते. मोदी ने जिस तरह गुजरात को संवारा था मुझे लगा था कि वाकई इस आदमी का सीना ५६ ईंच का है. तब हमने हर्षातिरेक में मोदी चालीसा तक लिख डाली थी और वो भी २ अक्टूबर के दिन २०१३ में. लेकिन जब मोदी जी ने मंत्रिमंडल गठित की तब मेरे मन में पहली बार उनके प्रति सन्देह का बीज पड़ा. तब मुझे लगा एक साथ इतने नाकारे लोगों को लेकर कोई कप्तान कैसे अच्छा प्रदर्शन कर सकता है? फिर भी आशा थी कि बाद में कदाचित मोदी जी मंत्रिमंडल में अपेक्षित परिवर्तन करेंगे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. फिर वे एक-के-बाद-एक ऐसे कदम उठाते रहे कि बहुत जल्द लगने लगा कि मोदी का नेशन फर्स्ट का नारा महज एक जुमला था और उनके लिए कुर्सी, नाम और महिमामंडनादि ही सर्वोपरि है जो किसी भी सामान्य तानाशाह के मौलिक गुण होते हैं. कोई भी तानाशाह सिर्फ बोलता है सुनता नहीं, कोई भी तानाशाह चाहे वो कितना भी अयोग्य क्यों न हो येन केन प्रकारेण यही चाहता है कि लोग उसकी बड़ाई करते रहें, स्तुति करते रहें, वो किसी भी सवाल का जवाब देना नहीं चाहता, वो चाहता है कि सारी संस्थाएँ चाहे वो संवैधानिक ही क्यों न हों उसकी मुट्ठी में हों.
मित्रों, बड़े ही दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि मुझे वर्तमान मोदी में ये सारे गुण दृष्टिगोचर हो रहे हैं. जब-जब मोदी सरकार ने यू-टर्न लिया मेरा उसके प्रति विश्वास कम होता गया. जब उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी का निर्णय लिया तो वास्तविकता यह थी कि मेरी समझ में कुछ नहीं आया फिर भी मैंने उनका समर्थन किया यह सोंचकर कि क्या पता इनके परिणाम अच्छे आएँ. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि मोदी अँधेरे में तीर चला रहे थे.
मित्रों, यह हम सभी जानते हैं कि मोदी कम पढ़े-लिखे हैं. कदाचित इसलिए उनकी नीतियाँ अक्सर गलत सिद्ध होती हैं फिर वे झेंप मिटाने के लिए कहते हैं कि मेरी नीयत में तो खोट नहीं थी. इन दिनों वे उत्तरवर्ती मनमोहन की ही तरह आँकड़ेबाजी पर उतर आए हैं. नौजवान नौकरी मांगते हैं तो वो मुद्रा योजना के आँकड़े दिखाते हैं, हम पेट्रोल की कीमत का मुद्दा उठाते हैं तो वो दूसरे देशों के मूल्यों के आँकड़े दिखाते हैं, हम स्वास्थ्य सेवा मांगते हैं तो वो मोदी केयर थमा देते हैं, हम न्यायिक और पुलिसिया सुधार मांगते हैं तो वो संवैधानिक मजबूरियों का रोना रोने लगते हैं, हम शिक्षा में सुधार मांगते हैं तो वो कौशल प्रशिक्षण प्रमाण-पत्र थमा देते हैं  मगर यह नहीं बताते रोजगार कहाँ है, हम विकास मांगते हैं तो वो बताते हैं कि हमने विश्व बैंक से कर्ज नहीं लिया मगर यह नहीं बताते कि विश्व बैंक से कर्ज वीपी सिंह ने भी नहीं लिया था मगर उसके बाद चंद्रशेखर को सोना गिरवी रखना पड़ा था, हम सैनिक साजो-सामान की कमी का मुद्दा उठाते हैं तो वो कश्मीरी आतंकियों को मारने और सर्जिकल स्ट्राइक की बात करते हैं मगर यह नहीं बताते कि पत्थरबाजों पर से मुकदमे क्यों हटाए गए और युद्ध विराम क्यों किया गया, हम चीन का मुद्दा उठाते हैं तो वो चुप्पी लगा जाते हैं और अचानक पर्यटक की तरह बाहें फैलाए चीन पहुँच जाते हैं, जब हम कहते हैं कि महंगाई के अनुपात में वेतन वृद्धि पर्याप्त नहीं है तो वो कहते हैं कि पैसे नहीं हैं लेकिन अचानक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और तमाम माननीयों के वेतन में कई गुना की बढ़ोतरी कर डालते हैं. वे यह भी नहीं बताते जब १ अप्रैल २००४ और उसके बाद नियुक्त असैनिक कर्मियों और अधिकारियों के पेंशन बंद कर दिए गए तो माननीयों को क्यों दिए जा रहे हैं?
मित्रों, कुल मिलाकर हालात निहायत अफसोसनाक हैं. रोते-२ बड़ी मुश्किल से हँसना सीखा था मगर अब फिर से रोना आ रहा है. मनमोहन के पास किताबी ज्ञान था तो व्यावहारिक ज्ञान और पावर नहीं था, मोदी के पास व्यावहारिक ज्ञान और पावर है तो गूढ़ विषयगत ज्ञान का अभाव है. जनता करे तो क्या करे क्योंकि मोदी के खिलाफ जो गठबंधन बन रहा है उसमें सिर्फ चोरों, डकैतों और ठगों का जमावड़ा है. मतलब यह कि अगर मोदी को हम हटा भी दें तो उनकी जगह आएगा कौन? तथापि मुझे वो कहानी याद आ रही है जिसमें किसी सेठ ने बन्दर को नौकर रखा था और बन्दर ने सेठ के सर से मक्खी उड़ाने के लिए तलवार ही चला दी थी तथापि उसकी नीयत और मेहनत तमाम संदेहों से परे थी. आज फिर से मुझे कहना पड़ रहा है और बड़े ही उदास स्वर में कहना पड़ रहा है कि भारत के लिए संसदीय शासन प्रणाली सर्वथा अनुपयुक्त है और आज नहीं तो कल हमें अध्यक्षीय प्रणाली अपनानी ही पड़ेगी यद्यपि दुश्वारियाँ तब भी आएंगी.

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