गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

श्रद्धा, भक्ति और मोदी


मित्रों, एक बार फिर से भारत में लोकसभा चुनाव प्रगति पर है और एक बार फिर से नरेन्द्र मोदी भारत का प्रधानमंत्री बनने को ओर अग्रसर हैं.  ऐसा मैं ही नहीं बल्कि सारे सर्वे भी कह रहे हैं और इसका कारण यह है कि मोदी जी ने पिछले ५ सालों में जितने दुश्मन बनाए हैं उससे कहीं अधिक संख्या में उनसे श्रद्धा करने वाले लोग उनके प्रशंसक बन गए हैं.
मित्रों, कुछ लोग कहते हैं कि मोदी जी ने प्रयत्नपूर्वक अपने श्रद्धालु बनाये हैं जबकि हिंदी के सार्वकालिक सबसे बड़े आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ऐसा मानते हैं कि श्रद्धा स्वतःस्फूर्त होती हैं. वे कहते हैं कि किसी मनुष्य में जनसाधारण से विशेष गुण या शक्ति का विकास देख उसके सम्बन्ध में जो एक स्थायी आनंद-पद्धति ह्रदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं. श्रद्धा महत्व की आनंदपूर्ण स्वीकृति के साथ-साथ पूज्य-बुद्धि का संचार है. यदि हमें निश्चय हो जाएगा कि कोई मनुष्य बड़ा वीर, बड़ा सज्जन, बड़ा गुणी, बड़ा दानी, बड़ा विद्वान, बड़ा परोपकारी व बड़ा धर्मात्मा है तो वह बड़े आनंद का एक विषय हो जाएगा. हम उसका नाम आने पर प्रशंसा करने लगेंगे, उसे सामने देख आदर से सिर नवाएंगे, किसी प्रकार का स्वार्थ न रहने पर भी हम सदा उसका भला चाहेंगे, उसकी बढती से प्रसन्न होंगे और अपनी पोषित आनंद-पद्धति में व्याघात पहुँचने के कारण उसकी निंदा न सह सकेंगे. इससे सिद्ध होता है कि जिन कर्मों के प्रति श्रद्धा होती है उनका होना संसार को वांछित है. यही विश्व-कामना श्रद्धा की प्रेरणा का मूल है.
मित्रों, आप कहेंगे कि लोग मोदी जी से प्रेम करने लगे हैं और प्रेम तो अँधा होता है तो इस बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि प्रेम और श्रद्धा में अंतर यह है कि प्रेम प्रिय के स्वाधीन कार्यों पर उतना निर्भर नहीं-कभी-कभी किसी का रूप मात्र,जिसमें उसका कुछ हाथ भी नहीं, उसके प्रति प्रेम उत्पन्न होने का कारण होता है. पर श्रद्धा ऐसी नहीं है. किसी की सुन्दर आँख या नाक देखकर उसके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होगी, प्रीति उत्पन्न हो सकती है. प्रेम के लिए इतना ही बस है कि कोई मनुष्य हमें अच्छा लगे; पर श्रद्धा के लिए आवश्यक यह है कि कोई मनुष्य किसी बात में बढ़ा हुआ होने के कारण हमारे लिए सम्मान का पात्र हो. श्रद्धा का व्यापार-स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकांत. प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार.
मित्रों, जहाँ तक भक्ति का सवाल है तो आचार्य शुक्ल के अनुसार श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है. जब पूज्यभाव की वृद्धि के साथ श्रद्धा-भाजन के सामीप्य-लाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो, तब ह्रदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए.
मित्रों, अब आप ही बताईए कि अगर कोई मोदी जी के प्रति श्रद्धा रखता है तो क्या ऐसा वो अपनी मर्जी से करता है या फिर मोदी जी के कर्म ही ऐसे हैं जो उसे ऐसा करने के लिए उसे बाध्य करते हैं? जहाँ तक मोदी जी की भक्ति करने का सवाल है तो जैसा कि हमने देखा कि जब श्रद्धा में प्रेम भी मिश्रित हो जाता है तो उसे भक्ति कहते हैं. अब अगर देश की जनता ऐसा कर रही है तो इसके लिए मोदी जी कहाँ से और कैसे दोषी हो गए? भारत एक आजाद मुल्क है, प्रत्येक नेता जनता के मन-मंदिर में अपना स्थान बनाने को स्वतंत्र है. अब कोई निरंतर गर्हित कार्यों में लगा रहे और फिर भी ऐसी उम्मीद करे कि जनता मोदी जी को छोड़ कर उसकी भक्ति करे और ऐसा न होने पर मोदी जी के प्रति ईर्ष्या रखने लगे तो रखे उसकी मर्जी लेकिन ऐसा करके वो खुद अपने ही स्वास्थ्य की हानि करेगा और बदले में कुछ सार्थकता प्राप्त भी नहीं कर पाएगा. चोर-चोर चिल्लाने से कोई चोर साध नहीं हो जाता बल्कि इसके लिए उसे सन्मार्ग पर और त्याग के मार्ग पर चलना भी होगा. सबकुछ छोड़ कर ही सबकुछ पाया जा सकता है.

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