रविवार, 9 जून 2019

खतरे में उच्च शिक्षा का भविष्य


मित्रों, सर्वप्रथम मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को दोबारा भारत का प्रधानमंत्री चुने जाने पर बधाई देता हूँ. मैं उनका बहुत पुराना भक्त हूँ और इसलिए उनके प्रधानमंत्री रहते हुए जब देखता हूँ कि कई सारे क्षेत्रों में स्थिति चिंतनीय और दयनीय है तो मन गहरी व्यथा से भर जाता है. उदाहरण के लिए अभी-अभी एनएसएसओ की रिपोर्ट आई है कि देश में नौकरीपेशा लोगों की स्थिति दैनिक मजदूरों से भी ज्यादा खस्ता है. जहाँ दैनिक मजदूर रोजाना १००० रूपये कमा रहे हैं और फिर भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते वहीँ शिक्षित बेरोजगारों की स्थिति पिछले पांच सालों में काफी ख़राब हो गयी है. आज पीएचडी धारक युवाओं को भी १०००० मासिक की नौकरी आसानी से नहीं मिल रही. और ऐसा आरोप सिर्फ विपक्ष लगा रहा होता तो गनीमत थी खुद एनएसएसओ जैसी प्रतिष्ठित सरकारी सर्वेक्षण एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में ऐसा कहा है.
मित्रों, सवाल उठता है कि इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार अगर अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगी तो कौन समझेगा? अब उच्च शिक्षा से सम्बंधित सरकारी आदेश को ही लें. पिछले साल मानव संसाधन मंत्रालय भारत सरकार ने राजपत्र जारी कर घोषणा की कि अब से कॉलेज प्राध्यापकों की नियुक्ति में यूजीसी नेट को मात्र ५ अंक का वजन मिलेगा जबकि पीएचडी को ३० अंक का वजन मिलेगा. सवाल उठता है कि फिर नेट का मतलब ही क्या रह गया? सरकार क्या समझती है कि नेट करना आसान है या पीएचडी करना? भारत में हर साल इतने सारे लोग शोध करते हैं फिर किसी को नोबेल क्यों नहीं मिलता? क्या भारत में शोध का मतलब कॉपी, कट, पेस्ट नहीं है? क्या भारत की डीम्ड यूनिवर्सिटीज पैसे लेकर पीएचडी की डिग्री नहीं बेच रही? क्या सरकारी यूनिवर्सिटीज में पीएचडी करने के लिए विभिन्न तरह की घूसखोरी नहीं चल रही जिसमें यौन-शोषण भी शामिल है?
मित्रों, मुझे याद आता है कि लालू जी के समय बिहार में व्याख्याताओं की बहाली हुई थी. कुल ३०० अंक की परीक्षा थी. मगर बेहद हास्यास्पद तरीके से इनमें से १०० अंक लिखित के और २०० अंक साक्षात्कार के रखे गए थे. फिर तो लालू के लगभग सारे विधायक और मंत्री यहाँ तक कि विधायक-मंत्रियों के साले-सालियाँ भी कॉलेज प्राध्यापक बन गए. मुझे लगता है कि पिछली मोदी सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर जी ने भी अपने किसी साला-साली को फायदा पहुँचाने के लिए ही यह मनमाना कदम उठाया था.
मित्रों, अब श्री जावड़ेकर मानव संसाधन विकास मंत्री नहीं रह गए हैं और नई सरकार में उनका स्थान हिंदी के जाने-माने साहित्यकार रमेश पोखरियाल निश्शंक जी ने ले लिया है. इसलिए मैं समझता हूँ कि अब उनसे निवेदन करना ही समीचीन होगा. मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि नेट उत्तीर्ण व्यक्ति अध्यापन के लिए ज्यादा उपयुक्त होगा या पीएचडी किया हुआ व्यक्ति. माना कि शोध भी पाठ्यक्रम का हिस्सा होता है लेकिन बहुत छोटा जबकि नेट किये हुए व्यक्ति के पास पूरे विषय का ज्ञान होता है अन्यथा वो नेट उत्तीर्ण ही नहीं कर पाएगा.
मित्रों, सरकार यदि उच्च शिक्षा का स्तर वास्तव में ऊँचा उठाना चाहती है तो आज के समय की मांग है कि पीएचडी और नेट दोनों को अनिवार्य करते हुए नेट की वैल्यू को पीएचडी से ज्यादा कर देना चाहिए क्योंकि नेट उत्तीर्ण व्यक्ति को पूरे विषय का ज्ञान होता है जबकि पीएचडी वाले व्यक्ति को केवल शोध का ज्ञान होता है और जब शिक्षक कक्षा में पढ़ाने जाता है तो उसे ९० प्रतिशत विषय और १० प्रतिशत शोध के बारे में ज्ञान देना होता है. भारत के युवाओं की दूसरी मांग यह है कि इसी राजपत्र में सरकार ने कहा है कि २०२१ से नेट उत्तीर्ण लोग सिर्फ कॉलेजों में नियुक्त हो पाएँगे विश्वविद्यालयों में नहीं. ऐसा करने का आधार क्या है? किसी भी सरकारी कदम का कोई तार्किक आधार तो होना चाहिए? क्या विश्वविद्यालयों में सिर्फ शोध की पढाई होती है विषय की पढाई नहीं होती?
मित्रों, अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा है कि मुझ पर इतना दबाव डालो कि मैं खुद अपने खिलाफ भी छापा मरवाने के लिए बाध्य हो जाऊं. सवाल उठता है कि क्या सरकार दबाव में आती भी है या फिर मोदी जी का ऐसा कहना सिर्फ जुमलेबाजी है? मैं समझता हूँ कि मेरे इस आलेख के बाद जो भारत के सारे युवाओं की मांग को धारण करता है मोदी जी के इस बयान की सच्चाई की परीक्षा भी हो जाएगी. हालाँकि मेरा आज भी विश्वास है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है.

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