गुरुवार, 25 जुलाई 2019

बख्तियार खिलजी टू नीतीश कुमार वाया बख्तियारपुर


मित्रों,  गुलाम वंश के पहले शासक कुतुबुद्दीन ऐबक के एक सिपहसालार का नाम था बख्तियार खिलजी. जी हाँ वही बख्तियार खिलजी जिसने महान नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर राख कर दिया था. दरअसल हुआ यह कि ११९३ के आरम्भ तक बख्तियार खिलजी ने पूर्वी भारत के कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था तभी वह काफी बीमार पड़ा. उसने अपने हकीमों से काफी इलाज करवाया मगर वह ठीक नहीं हो सका और मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया. तभी किसी ने उसको सलाह दी कि वह नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को दिखाए और इलाज करवाए. परन्तु खिलजी इसके लिए तैयार नहीं था. उसे अपने हकीमों पर ज्यादा भरोसा था. वह यह मानने को तैयार नहीं था की भारतीय वैद्य उसके हकीमों से ज्यादा ज्ञान रखते हैं या ज्यादा काबिल हो सकते हैं. लेकिन मरता क्या नहीं करता? अंत में अपनी जान बचाने के लिए उसको नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को बुलवाना पड़ा. फिर बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के सामने एक अजीब सी शर्त रखी और कहां कि वह उनके द्वारा दी गई किसी भी प्रकार की दवा नहीं खाएगा. बिना दवा के वो उसको ठीक करें. वैद्यराज ने सोच कर उसकी शर्त मान ली और कुछ दिनों के बाद वो खिलजी के पास एक कुरान लेकर पहुंचे और कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या.. इतने से इतने तक पढ़ लीजिये ठीक हो जायेंगे.

मित्रों, बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के बताए अनुसार कुरान को पढ़ा और ठीक हो गया. ऐसा कहा जाता हैं कि राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया था, वह थूक के साथ उन पन्नों को पढ़ता गया और ठीक होता चला गया. कथित महान शांतिप्रिय धर्म का झंडाबरदार अहसानफरामोश खिलजी इस तथ्य से परेशान रहने लगा कि एक भारतीय विद्वान और शिक्षक को उनके हकीमों से ज्यादा ज्ञान था. फिर उसने देश से ज्ञान और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करने का फैसला किया. परिणाम स्वरूप खिलजी ने नालंदा की महान पुस्तकालय में आग लगा दी और लगभग 9 मिलियन पांडुलिपियों को जला दिया.  ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में इतनी किताबें थीं कि वह तीन महीने तक जलती रहीं. इसके बाद खिलजी के आदेश पर तुर्की आक्रमणकारियों ने नालंदा के हजारों धार्मिक विद्वानों और भिक्षुओं की भी हत्या कर दी जिसमें आचार्य राहुल श्रीभद्र भी शामिल थे.
मित्रों, तबाकत-ए-नासिरी, फारसी इतिहासकार 'मिनहाजुद्दीन सिराज' द्वारा रचित की गई पुस्तक है. इसमें मुहम्मद ग़ोरी की भारत विजय तथा तुर्की सल्तनत के आरम्भिक इतिहास की लगभग 1260 ई. तक की जानकारी मिलती है. उस समय मिनहाज दिल्ली का मुख्य क़ाज़ी था. इस पुस्तक में 'मिनहाजुद्दीन सिराज' ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भी बताया है कि खिलजी और उसकी तुर्की सेना नें हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को जला कर मार दिया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बौद्ध धर्म का विस्तार हो. वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था. शिक्षक और विद्यार्थियों के लहू से पूरी धरती को लहू-लुहान कर भी जब अहसानफरामोश खिलजी को चैन नहीं मिला, तो उसने तत्कालीन विश्व के सबसे भव्य शिक्षण संस्था में आग लगा दी। बख्तियारपुर, जहां खिलजी को दफन किया गया था, वह जगह अब पीर बाबा का मजार बन गया है। दुर्भाग्य से कुछ मूर्ख हिन्दू भी उस लुटेरे और नालंदा के विध्वंसक के मजार पर मन्नत मांगने जाते हैं। दुर्भाग्य तो यह भी है कि इस लुटेरे के मजार का तो संरक्षण किया जा रहा है, लेकिन नालंदा विश्‍वविद्यालय का नहीं।

मित्रों, आप अनुमान लगा सकते हैं कि अगर नालंदा विश्वविद्यालय में जला दी गईं पुस्तकें जलाई नहीं गयी होती तो हमारा भारत हमेशा विश्वगुरु ही रहता और उसको पतन के दिन नहीं देखने पड़ते. लेकिन हम भारतीय अतीत से शिक्षा तो लेते नहीं हैं तभी तो आज महान बिहार में एक बार फिर से मानवता की सबसे बड़ी धरोहर पुस्तकों को नष्ट किया जा रहा है और संयोग यह है कि इस बार भी यह काम कोई और नहीं कर रहा बल्कि बख्तियार खिलजी के शहर बख्तियारपुर के रहनेवाले नीतीश कुमार जी कर रहे हैं. जी हाँ, बिहार के निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी भी बख्तियारपुर के ही निवासी हैं और पिछले विधानसभा चुनावों तक वहीँ जाकर मतदान भी करते रहे हैं. दरअसल मैं पिछले दिनों एक समय बिहार और भारत के गौरव रहे पटना के सिन्हा लाइब्रेरी में गया था और वहां की वर्तमान स्थिति को देखकर स्तब्ध रह गया. मैं यहाँ आपको बता दूं कि मैं २००८-०९ में भी इसका सदस्य था और तब इसकी रौनक देखते बनती थी. एक बिल्डिंग में पुस्तकें थीं तो दूसरी में समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ. ऐसी कोई भी पत्रिका या पत्र नहीं था जो यहाँ नहीं आता था. लेकिन अब पुस्तकालय सिर्फ एक बिल्डिंग में सिमट गया है. पत्रिकाओं के नाम पर चार-पांच पत्रिकाएँ आती हैं और पत्र के नाम पर आठ-दस अख़बार. मैं आठ-दस सालों की आजकल पत्रिका पढना चाहता मगर मुझे बताया गया कि आजकल पत्रिका सिर्फ पिछले पांच-छः महीने की ही उपलब्ध है. मैं स्तब्ध था कि यह हो क्या रहा है और क्यों हो रहा है? पूछने पर पुस्तकालय कर्मियों ने बताया कि पहले वहां ५० स्टाफ थे और अब ३ हैं. साथ ही सरकार ने पुस्तकालय के लिए आवंटन भी कम कर दिया है. 

मित्रों, फिर मैंने पुस्तक-सूची से कुछ पुस्तकों के नाम नोट किए और कर्मियों से उनको उपलब्ध करवाने को कहा तो उन्होंने ऊपर पहली मंजिल पर जाकर स्वयं ढूंढ लेने को कहा. मैंने भी उनकी मजबूरी को देखते हुए ऊपर का रूख किया. ऊपर स्थिति और भी भयावह थी. छत दो स्थानों पर टपक रही थी और किताबों पर धूल जमी हुई थी. बहुत-सारी किताबों के नाम मिट गए थे और वे फट रही थीं. ऐसे में हुआ वही जिसका मुझे डर था. मैं जो किताबें ढूंढ रहा था उनमें से कोई भी नहीं मिली. मैंने मन मसोसकर दो किताबें ऐसे ही पढने के लिए अपने कार्ड पर जारी करवा ली. 

मित्रों, बख्तियार खिलजी तो विदेशी था और वहशी व धर्मांध मुसलमान था फिर उसके मरे ८०० साल बीत चुके हैं लेकिन नीतीश कुमार तो विदेशी नहीं हैं फिर बिहार का गौरव सिन्हा लाइब्रेरी बंदी के कगार पर क्यों पहुँच गया है? सवाल उठता है कि माननीयों के पास खुद के पेंशन के लिए तो पैसा है लेकिन पुस्तकालय के लिए नहीं है? यह अपराध अगर लालू जी के बेटों ने किया होता तो फिर भी क्षम्य था लेकिन नीतीश जी तो पढ़े-लिखे हैं क्या उनको भी पुस्तकों की महत्ता के बारे में ज्ञान नहीं है? क्या उन्होंने कभी सोंचा है कि बिहार के शोधार्थी कहाँ जाकर अध्ययन करेंगे अगर उनको सिन्हा लाइब्रेरी से अपेक्षित सामग्री नहीं मिलेगी?



गुरुवार, 18 जुलाई 2019

डूबता बिहार बचा लो सरकार


मित्रों, बिहार में एक कहावत है कि अंधे के आगे रोए अपना दीदा (दृष्टि) खोए. हाँ, मैं उसी बिहार की बात कर रहा हूँ जहाँ से इन दिनों रोजाना तटबंधों के टूटने और गांवों के बह जाने की ख़बरें आ रही हैं. बिहार डूब रहा है लेकिन यह कौन-सी नई बात है बिहार के लिए? बिहार तो सालोंभर आंसुओं के समंदर में डूबा रहता है. अभी महाराष्ट्र के एक मंत्री ने बांध टूटने के बाद बयान दिया कि केकड़ों ने बांध में छेद कर दिया जिससे बांध टूट गया. हालांकि बिहार के किसी नेता या बयानवीर मंत्री ने अभी तक इस तरह की महान घोषणा नहीं की है लेकिन मुझे लगता है कि बिहार में अगर ऐसा हुआ भी तो आरोप चूहों पर जाएगा क्योंकि बिहार के चूहे बड़े बदमाश हैं. हजारों लीटर शराब तक पी जाते हैं. वैसे भी बिहार में केंकड़े खाने की चीज हैं आरोप लगाने की नहीं. वैसे बिहार के विभिन्न डूबे हुए जिलों से चूहों को खाने की ख़बरें भी आ रही हैं क्योंकि राहत या तो नदारद है या फिर जारी है भी तो उन बस्तियों से दूर जहाँ लोग फंसे हुए हैं निर्जन स्थानों पर भोजन और पानी के पैकेट गिराए जा रहे हैं. वैसे भी जिस बिहार में बिना रिश्वत के एक पत्ता तक नहीं हिलता भोजन देने से पाप नहीं लगेगा क्या?
मित्रों, मैं पूछना चाहता हूँ बिहार सरकार से कि बिहार के तटबंध इन दिनों बम क्यों बने हुए हैं? क्या इन तटबंधों की मरम्मत सिर्फ कागज़ पर नहीं की गयी? क्या सरकार के मंत्री भी इस कागज़ के खेल में शामिल होकर हर साल गाँधी छाप कागज नहीं कमा रहे? मैं पूछना चाहता हूँ बिहार सरकार से कि अगर देखभाल नहीं कर सकते तो तटबंध बनाए ही क्यों गए और नदियों के नैसर्गिक प्रवाह में बाधा क्यों डाली गयी? क्या यह बाढ़ भ्रष्टाचार की बाढ़ नहीं है?
मित्रों, मैं बिहार की सरकार को कई बार अंधी-बहरी मगर बडबोली सरकार कह चुका हूँ इसलिए मुझे उससे तो कोई उम्मीद नहीं है वो तो पूछने की आदत है इसलिए पूछ लिया था लेकिन क्या केंद्र की सरकार भी अंधी-बहरी और बडबोली है? अभी तक उसने बिहार के लिए किसी भी पैकेज की घोषणा नहीं की, क्यों? क्या बिहार कश्मीर, केरल और उड़ीसा की तरह भारत का हिस्सा नहीं है? क्या बिहार में ईन्सान नहीं रहते कीड़े-मकोड़े रहते हैं? क्या भाजपा बिहार को अपनी जमींदारी मानती है और सोंचती है कि चाहे इनको रामभरोसे छोड़ दो वोट तो ये हमें ही देंगे? वैसे मैं आपको याद दिला दूं कि बिहार में २००८ के कोशी महाप्रलय के समय मोदी जी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने बिहार को ५ करोड़ का सहायता पैकेज भेजा था और नीतीश जी ने तब उसे स्वीकार नहीं किया था. खैर अब तो वो पुरानी बात हो गयी. मोदी जी को पैकेज की घोषणा कर देनी चाहिए, शायद इस बार नीतीश जी पैकेज को अस्वीकार नहीं करेंगे. कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी जी इस बार इसी डर से पैकेज की घोषणा तो नहीं कर रहे हैं कि कहीं नीतीश जी इस बार ले ही न लें. कुछ भी हो सकता है.
मित्रों, प्रधानमंत्री जी ने दो दिन पहले भाजपा सांसदों को बैठक आयोजित कर निर्देश दिया कि वे अपने क्षेत्रों में जाकर लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी दें. भाजपा सांसदों की धृष्टता तो देखिए अभी तक कोई सांसद बिहार नहीं आया जिससे उन लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में भरपूर जानकारी मिलती जिनके परिजन भ्रष्टाचार की बाढ़ में बह गए या फिर जिनकी जिंदगी भर की जमा पूँजी पानी बहा ले गया. आएं भी कैसे संसद का सत्र जो चल रहा है और संसद का सत्र आगे तो बढाया नहीं जा सकता भले ही बिहार में महाप्रलय ही क्यों न आ जाए. वैसे बिहार सरकार ने बड़ी दरियादिली दिखाते हुए घोषणा की है कि हर बाढ़प्रभावित परिवार को ६-६ हजार रूपये दिए जाएंगे. ६-६ हजार रूपये भाई. बिहारियों के आंसुओं की कीमत ६ हजार, एक परिवार के वोट की कीमत ६ हजार, असहनीय भ्रष्टाचार को चुपचाप आंसू पी-पीकर सहने की कीमत मात्र ६ हजार रूपये. इसमें से भी न जाने कितने रूपये फिर से भ्रष्टाचार के मौसेरे भाई घोटाले की भेंट चढ़ जाएंगे हर वर्ष की भांति.
मित्रों, इस आलेख के साथ मैंने जो तस्वीर लगाई है वह कोई मामूली तस्वीर नहीं है. वह तस्वीर है बिहार के गौरव और अभिमान की. ऐसी ही एक तस्वीर कई साल पहले सीरिया में एक बच्चे की आई थी और तब पूरी मानवता अपने-आपको शर्मसार महसूस कर रही थी लेकिन मैं जानता हूँ कि बाढ़ में डूब गए इस निष्प्राण बिहारी के लिए कोई भी शर्मिंदा नहीं होगा. जब बिहार सरकार और भारत सरकार का कलेजा ही बिहार की जनता के लिए पत्थर का हो रहा है तो दुनिया क्यों अपने आंसुओं का अपव्यय करे.  वैसे भी रफ़ी साब कह गए हैं कि दुनिया पागल है या फिर मैं दीवाना.

रविवार, 14 जुलाई 2019

40 में ३९ फिर भी बदहाल बिहार


मित्रों, अगर हम २००५ से २०१० के कालखंड को अलग कर दें तो बिहार में २०१० से ही जंगलराज पार्ट २ चल रहा है. बीच में जब २०१४ का लोकसभा चुनाव आया तब बिहारियों के मन में जरूर लड्डू फूटने लगे. खुद प्रधानमंत्री के उम्मीदवार ने वादा किया था कि अब बिहारियों को बिहार से बाहर जाकर काम करने की जरुरत नहीं होगी क्योंकि वे चाहते हैं कि भारत का न सिर्फ पश्चिमी भाग विकसित हो बल्कि पूर्वी भाग भी बराबरी का विकास करे और यहाँ भी उद्योग-धंधों की स्थापना हो. तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश जी भाजपा का दामन छोड़कर लालू जी की गोद में जा बैठे थे. फिर भी बिहार की जनता ने मोदी जी के वादों पर यकीन करते हुए उनके गठबंधन को ३२ सीटें दे दीं.
मित्रों, फिर मौसम बदला, साल बदला और नीतीश जी ने एक बार फिर पाला बदल लिया. इस बार उन्होंने भाजपा की अगुवाई में चुनाव लड़ा. एक बार फिर से प्रधानमंत्री जी बिहार आए और फिर से वही वादे किए जो पिछली बार किए थे. साथ ही उन्होंने एक बार फिर से बिहार सहित पूरे भारत की जनता से आह्वान किया कि वे समझें कि भारत की प्रत्येक सीट से मोदी जी ही खड़े हैं और भूल जाएं कि उनके क्षेत्र से कौन खड़ा है. बिहार की जनता ने एक बार फिर से मोदी जी पर भरोसा किया और पिछली बार से ज्यादा किया और ४० में से ३९ सीटें एनडीए की झोली में डाल दी.
मित्रों, लेकिन सवाल उठता है कि २०१४ के बाद से बिहार में कोई बदलाव भी आया है या फिर बिहार के लोग खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं? सौभाग्यवश पूरे डेढ़ साल बाद मैं पिछले एक महीने से बिहार में हूँ और इस बीच मुझे एक बार फिर से बिहार को देखने-समझने का मौका मिला है. जहाँ तक मैंने पिछले एक महीने में महसूस किया है बिहार में जंगलराज अपने पूरे शिखर पर है. पिछले १०-१५ दिनों में सिर्फ वैशाली जिले में जो एक समय बिहार का सबसे शांत जिला होता था लगभग आधा दर्जन व्यवसायियों की हत्या हो चुकी है. अर्थात एक तो बिहार में नौकरियों की पहले से ही भारी कमी है तो वहीँ दूसरी तरफ आप व्यवसाय करके भी शांतिपूर्ण तरीके से कमा-खा नहीं सकते. कोई व्यवसायी नहीं जानता कि उनके जीवन का कौन-सा पल अपराधियों द्वारा मौत की अमानत बना दी जाए.
मित्रों, आप समझ गए होंगे कि इन दिनों बिहार में कानून और व्यवस्था की हालत अभूतपूर्व तरीके से ख़राब है. साथ ही पूरे बिहार में अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का बोलवाला है. अगर ऐसा नहीं होता तो २०० से ज्यादा बच्चों की अकाल मृत्यु नहीं हुई होती और न ही इन दिनों जगह-जगह तटबंध टूट रहे होते. पिछले कुछ दिनों में मैंने महसूस किया है कि हाजीपुर जैसे महत्वपूर्ण शहर में भी बिजली की स्थिति अत्यंत ख़राब है और दिन-रात मिलाकर १२ घंटे भी बिजली नहीं रहती. अब कल रात को ही ले लें तो ९ बजे बिजली कट गयी और आई सुबह ७ बजे. इस तरह पूरे हाजीपुर को आँखों-आँखों में रात काटनी पड़ी.
मित्रों, इतना ही नहीं इन दिनों भाजपा समर्थित नगर प्रधान की मेहरबानी से पूरा हाजीपुर नरक बना हुआ है. नालियों से गन्दा निकालकर सड़क किनारे रखकर छोड़ दिया गया है जो लगातार बरसात के कारण पूरी सड़क पर पसर गया है. इतना ही नहीं पूरे हाजीपुर में इस समय जलजमाव की स्थिति है.
मित्रों, अगर आपको पटना जाना हो तो पता नहीं कि आपको कितने घंटे लग जाएँ. महात्मा गाँधी सेतु की दाहिनी लेन पुनर्निर्माण के लिए तोड़ दी गयी है और सारी गाड़ियाँ सिर्फ बायीं लेन से आ-जा रही हैं. हमें बार-बार सुनाया जाता है कि महात्मा गाँधी सेतु के समानांतर दूसरा पुल भी बनेगा लेकिन ऐसा कुछ होता हुआ धरातल पर दिख नहीं रहा है. जब नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब बिहार की जनता को उम्मीद थी कि बंद पड़े ३० चीनी कारखानों को फिर से चालू किया जाएगा लेकिन उसमें भी घोटाला होने लगा. साथ ही बिहार का ऐसा कोई विभाग नहीं होगा जिसमें कोई-न-कोई घोटाला न हुआ हो. सृजन और मुजफ्फरपुर बालिका गृह काण्ड के तार तो बिहार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री तक भी जाते दिखाई दिये.
मित्रों, वैसे तो नीतीश कुमार मुज़फ़्फ़रपुर बालिका गृह कांड पर जमकर बोले हैं. लेकिन खुलकर नहीं बहुत कुछ छुपा कर बोले हैं. जैसे उन्होंने यह नहीं बताया कि ब्रजेश ठाकुर से उनका क्या और कैसा संबंध है. यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि नीतीश जी मुख्यमंत्री बनने के बाद ब्रजेश ठाकुर के पुत्र के जन्मदिन का केक काटने पटना से चलकर मुज़फ़्फ़रपुर गये थे. ब्रजेश ठाकुर के साथ नीतीश कुमार का राजनीतिक संबंध तो दिखाई नहीं दे रहा है. क्योंकि बताया गया है कि ब्रजेश ठाकुर नीतीश जी की पार्टी से नहीं बल्कि आनंदमोहन जी की पार्टी से जुड़े हुए थे. ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा जन्मदिन जैसे नितांत घरेलू और पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पटना से मुज़फ़्फ़रपुर जाना ठाकुर के साथ उनके संबंध की प्रगाढ़ता को ही दर्शाता है. नीतीश जी से बिहार की जनता यह जानना चाहेगी कि ब्रजेश ठाकुर के यहां जाकर उनको कृतार्थ करने के बाद उनके यानी ठाकुर के अख़बारों को मिलने वाले विज्ञापनों में कितना इज़ाफ़ा हुआ. यह भी बताना चाहिए कि मुख्यमंत्री जी द्वारा ठाकुर के घर को पवित्र करने के बाद बालिका गृह की तरह और कितने गृह के संचालन का ठेका ठाकुर को मिला.
मित्रों, जाहिर है कि बिहार भारत के सामने पहले भी बड़ा सवाल था, चुनौती था और आज भी है. साथ ही जाहिर है कि अगर मोदी जी बिहार की जनता से बिहार की प्रत्येक सीट पर अपने नाम पर वोट मांगते हैं तो बिहार से जुड़े सारे सवालों के जवाब भी उनको ही देने होंगे और पूरी संवेदनशीलता दिखाते हुए देने होंगे न कि वैसी संवेदनहीनता दिखाना होगा जैसा कि उन्होंने चमकी बुखार के मामले में प्रदर्शित किया है. बिहार की जनता के पास सिवाय मोदी जी की शरण में जाने के और कोई उपाय है भी नहीं क्योंकि नीतीश जी को तो न ही बिहार के शासन-प्रशासन से कुछ भी लेना-देना है और न ही बिहार की जनता के दुःख-दर्द से ही.

पुनश्च-हमें नहीं पता और पता नहीं कि किसे पता है कि प्रधानमंत्री जी २० घंटे जागकर करते क्या हैं? लेकिन इतना तो निश्चित है कि उनके जागरण से बिहार को कोई लाभ नहीं हुआ है.

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

नालों में शहीद होते सफाईकर्मी


मित्रों, पिछले दिनों लोकसभा चुनावों के समय जब भारत के प्रधानमंत्री ने मीडिया के सामने समाज के सबसे निचले पायदान पर आने वाले सफाईकर्मियों के पांव पखारे तो पूरा भारतवर्ष जैसे रोमांचित हो उठा। इतना सम्मान,अद्भुत, अभूतपूर्व!
मित्रों, सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित होने के बाद हूं इन सफाईकर्मियों की जिंदगी में कोई बदलाव भी आया है?अगर खबरों की मानें तो नहीं। बल्कि इन निरीह सफाईकर्मियों की जिन्दगी का कल भी कोई ठिकाना नहीं था और आज भी नहीं है. इनमें से कोई भी नहीं जानता कि नाले की सफाई करते हुए कब इनकी मौत दम घुट जाने से हो जाए. कभी-कभी तो नालियां इन बेचारों की सामूहिक कब्र भी बन जाती है. फिर घंटे-दो-घंटे तक मीडिया में शोर और फिर सब कुछ सामान्य जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं हो या फिर इनका मरना कोई रोजाना घटित होनेवाली अतिसामान्य घटना हो.
मित्रों, प्रधानमंत्री जी क्या समझते हैं कि इन बेचारों को सिर्फ सम्मान की आवश्यकता है? निश्चित रूप से इनको सम्मान भी चाहिए लेकिन उससे कहीं ज्यादा जरूरी है इनकी प्राण-रक्षा और मैं समझता हूँ कि इसमें खर्च भी कोई ज्यादा नहीं लगेगा. बस इनको गोताखोरों वाला गैस-सिलेंडर उपलब्ध करवा दिया जाए. प्रधानमंत्री जी कोई भी व्यक्ति जब तक पेट से बहुत लाचार न हो,निरुपाय न हो इस तरह के काम नहीं करेगा. हम जैसे ऊंचीं जाति के लोग तो मर जाएँगे किन्तु ऐसा काम नहीं करेंगे. फिर ये बेचारे तो पीढ़ियों से समाज को साफ़-सुथरा रखने का महान कार्य करते आ रहे हैं. क्या हमारी नगरपालिकाएं या नगर-निगम इनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछेक लाख रूपये खर्च नहीं कर सकते? क्या ऐसा करना सरकार और निगमों और पालिकाओं का कर्तव्य नहीं होना चाहिए?
मित्रों, हमारे यहाँ एक कहावत है कि जाके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीड पराई. आपने कभी गंदे नाले में डुबकी लगाई हो या मल की टंकी में उतरे हों तब आपको पता चलेगा कि सफाईकर्मी कितना बड़ा काम करते हैं. इसी तरह जब एक साथ १०-१० सफाईकर्मियों की नाली में दम घुटने के कारण सामूहिक मौत हो जाती है तब उनके परिजनों पर क्या गुजरती है यह उनके परिजन ही बता सकते हैं हम जैसे दूर दर्शक तो बस उनके दर्द को महसूस भर कर सकते हैं.
मित्रों, अब मैं प्रधानमंत्री जी से इन सफाईकर्मियों से सम्बद्ध सबसे बड़ा सवाल पूछने जा रहा हूँ. प्रधानमंत्री जी सच-सच बताईएगा कि आपने जो लोकसभा चुनावों के समय इन सफाईकर्मियों के पाँव पखारे थे क्या ऐसा आपने भावनाओं में बह कर सच्ची श्रद्धा से किया था या फिर यह दलितों का वोट प्राप्त करने का एक उपाय मात्र था? मैं ऐसा इसलिए पूछ रहा हूँ कि लगभग हर रोज कहीं-न-कहीं सफाईकर्मी नालियों में दम तोड़ रहे हैं लेकिन आपका एक बयान तक नहीं आ रहा सुरक्षा के उपाय करना तो दूर की बात रही. कहीं आपका सफाईकर्मियों के प्रति प्यार ठेठ बिहारी भाषा में छूंछ दुलार की श्रेणी में तो नहीं आता? यहाँ मैं पाठकों को बता दूं कि छूंछ दुलार का मतलब दिखावे वाला, फुसलाने-बहलानेवाला प्यार होता है. 

बुधवार, 10 जुलाई 2019

बजट जैसा बजट

मित्रों, काफी दिन पहले एक गजल मुझे काफी पसंद था, आज भी है-वो प्यार था या कुछ और था न मुझे पता न तुझे पता. कुछ ऐसा ही मुझे अभी कुछ दिन पहले आए बजट को देखकर लग रहा है कि यह बजट है या कुछ और है न मुझे पता न तुझे पता. कुछ लोगों ने इसे बही-खाता भी कहा है लेकिन मुझे लगता है कि बजट तो पिछले वित्त मंत्री पीयूष गोयल जी ने १ फरवरी को ही पेश कर दिया था यह बजट तो महज एक औपचारिकता था.
मित्रों, फिर भी अगर हम इस बजट पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि इसमें दो-तीन घोषणाएं काफी महत्वपूर्ण थीं-पहली सरकारी कंपनियों में विनिवेश, दूसरी रेलवे का निजीकरण और तीसरी भारत को ५ ट्रिलियन यानि ५० ख़राब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना.
मित्रों, जैसे वर्तमान सरकार शुरू से ही कहती आ रही है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है वैसे ही मैं भी शुरू से ही कहता आ रहा हूँ कि अगर सरकार चाहे तो सरकारी क्षेत्र की कंपनियों की हालत को सुधारा जा सकता है. लेकिन सवाल फिर वही है कि सरकार चाहती क्या है? क्या वो चाहती है कि सरकारी कंपनियों की हालत सुधरे या वो चाहती है कि उनकी हालत बिगड़े और जो चंद सरकारी कम्पनियाँ शेष रह गई हैं वो भी इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएँ? सबकुछ सरकार की मंशा पर निर्भर करता है. अगर आप सरकारी कंपनी बीएसएनएल के ऑफर्स को देखेंगे तो खुद ही समझ जाएँगे कि यह कंपनी क्यों बंद होने की तरफ अग्रसर है-१८७ रु. में २८ दिन तक १ जीबी प्रतिदिन डाटा और अनलिमिटेड बातें. कहाँ जियो १४९ रु. में १.५ जीबी प्रतिदिन डाटा दे रहा है और कहाँ बीएसएनएल १ जीबी और वो भी १८७ रु में. अब बताईए कि कैसे चलेगी यह कंपनी? इसी तरह बीएसएनएल ३१९ रु. में ८४ दिनों तक अनलिमिटेड बात करने की सुविधा दे रहा है लेकिन डाटा नहीं दे रहा. डाटा दे भी रहा है तो ३४९ रु. में मगर ५४ दिनों के लिए और वो भी १ जीबी प्रतिदिन. क्या अब भी आपको सन्देह है कि बीएसएनएल का कैसे सुनियोजित तरीके से राम नाम सत है किया जा रहा है?
मित्रों, ठीक इसी तरीके से बांकी सरकारी कंपनियों की भी बाट लगाई जा रही है क्योंकि सरकार उनको रखना ही नहीं चाहती है और चाहती है कि पूरी-की-पूरी अर्थव्यवस्था निजी हाथों में चली जाए. अन्यथा क्या कारण था कि सरकार रेलवे का निजीकरण करने जा रही है. यह सही है कि रेलवे में सुविधाओं की कमी है, रेलगाड़ियों की रफ़्तार धीमी है लेकिन क्या कभी आपने सोंचा है कि निजी हाथों में जाने के बाद रेलवे से सफ़र करना कितना महंगा हो जाएगा? क्या इसके बारे में सरकार ने कभी सोंचा है कि गरीबों की सवारी में गरीब किस प्रकार सफ़र कर पाएंगे?
मित्रों, अब बात करते हैं भारत के ५ ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने पर. ऐसा होने पर हमें भी ख़ुशी होगी और होनी भी चाहिए, होनी ही चाहिए मगर सवाल उठता है कि जिस तरह सरकार अर्थव्यवस्था का पूर्ण निजीकरण करने की तरफ कदम बढ़ा रही है उसमें आम आदमी ५ ट्रिलियन यानि ५० ख़राब डॉलर की अर्थव्यवस्था में कहाँ होगा? मान लिया कि अम्बानी के पड़ोस में कोई डॉक्टर साब हैं और डॉक्टर साब के घर में एक नौकर है. मान लिया कि एक महीने में तीनों की कुल आमदनी १०० करोड़ रु है और इसमें अम्बानी का हिस्सा ९९ करोड़, डॉक्टर साब का ९९ लाख ५० हजार है और बांकी का ५० हजार उनके नौकर का. अब अगर इन तीनों की कुल आमदनी दोगुनी हो जाती है तो अम्बानी तो १९८ करोड़ पर पहुँच जाएंगे जबकि डॉक्टर साब १ करोड़ ९९ लाख रु पर और नौकर तो १ लाख पर ही पहुँच पाएगा. ठीक यही हालत भारतीय अर्थव्यवस्था की होगी अगर वो २.७ ट्रिलियन से ५ ट्रिलियन पर पहुँचती है. कहने का तात्पर्य है कि तब भी गरीब न सिर्फ गरीब और अमीर न सिर्फ अमीर रहेंगे बल्कि अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और भी चौड़ी हो जाएगी. तब भी सबकुछ वैसा का वैसा रहेगा बल्कि गरीबों और किसानों का जीवन आज से कहीं ज्यादा कठिन हो जाएगा क्योंकि सबकुछ सरकार के हाथों से पूँजी के हाथों में जानेवाला है और पूँजी हृदयहीन होती है. सवाल उठता है कि क्या यही पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का अन्त्योदय दर्शन था?

गुरुवार, 4 जुलाई 2019

मोदी है तो क्या मुमकिन है?


मित्रों, कभी-कभी कुछ नारे काफी लोकप्रिय हो जाते हैं जैसे इस बार के लोकसभा चुनावों में एक नारा काफी लोकप्रिय हुआ-मोदी है तो मुमकिन है.  पता नहीं इस नारे का निर्माता कौन था लेकिन इतना तय है कि मोदी जी को फिर से जीत दिलाने में इस नारे की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही.
मित्रों, अगर हम इस नारे के सन्दर्भ में सीबीआई का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि मोदी जी के आने के बाद वह सीबीआई जिसे मनमोहन काल में सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे का तोता कहा था पूरी तरह से मरा हुआ तोता बन गया है. सवाल उठता है कि जिस सीबीआई का नाम सुनकर एक समय बड़े-बड़े राजनेताओं की हवा ख़राब हो जाती थी इन दिनों हत्या के छोटे-मोटे मामलों का भी उद्भेदन क्यों नहीं कर पाती? आखिर मोदीराज में सीबीआई पूरी तरह से समाप्त कैसे हो गयी? जैसा कि हम सब जानते हैं कि सीबीआई सीधे प्रधानमंत्री के मातहत होती है तो क्या प्रधानमंत्री जी ने स्वयं यत्नपूर्वक सीबीआई को मृतप्राय और औचित्यहीन बना दिया है?
मित्रों, आप कहेंगे कि एक बार फिर से सीबीआई पर मेरा गुस्सा फूटने का कारण क्या है. तो मैं आपको बता दूं कि इसके दो तात्कालिक कारण हैं. पहला यह कि रणवीर सेना के संस्थापक बरमेश्वर सिंह की हत्या हुए ७ साल बीत गए और अभी तक सीबीआई सुराग ही ढूंढ रही है. पिछले दिनों उसने इस्तहार जारी किया है कि इस हत्याकांड के बारे में सुराग देनेवालों को १० लाख का ईनाम दिया जाएगा. वाह री सीबीआई घटना के सात साल बाद भी सुराग ही खोज रही हो.  इसी तरह बिहार के जिन मामलों को सीबीआई को सौंपा गया है उन सभी मामलों में नौ दिन चले अढाई कोस वाली हालत है. शायद ७ साल बीतने का इन्तजार हो रहा है जब सीबीआई सुराग के लिए ईश्तहार जारी करेगी.
मित्रों, दूसरा कारण है कृष्णानंद हत्याकांड में मोख्तार अंसारी का बरी हो जाना. इस मामले में फैसला लगभग वैसा ही आया है जैसा जेसिका लाल हत्याकांड में आया था. हम जानते हैं कि मोख्तार अंसारी राजनेता भी है और हत्यारा भी. तो क्या नेताओं के मामले में सीबीआई कुछ कर ही नहीं सकती. मतलब कि नेताओं को मोदी जी ने घपले-घोटालों (२ जी घोटाला) के साथ-साथ खून-तून भी माफ़ कर दिया है?
मित्रों, इन दिनों लालू परिवार के सुर भी बदले-बदले से हैं. तेजस्वी यादव दिल्ली से भाजपा नेताओं से गुप्त मुलाकात करके लौटे हैं. हो सकता है कि निकट-भविष्य में इस मुलाकात का भी असर दिखे और सीबीआई के माध्यम से पूरा लालू परिवार पाक-साफ़ घोषित हो जाए जैसे माया-मुलायम-पप्पू यादव-साधू यादव आदि घोषित हो चुके हैं. यहाँ हम आपको बता दें कि माया-मुलायम-पप्पू यादव-साधू यादव मनमोहन काल में ही सीबीआई के माध्यम से अपना पवित्रीकरण करवा चुके हैं.
मित्रों, इस प्रकार हमने देखा कि मोदी है तो मुमकिन है सिर्फ एक नारा है इसमें कोई सच्चाई नहीं. कम-से-कम सीबीआई के मामले में तो स्थिति मनमोहन काल से भी ज्यादा चिंताजनक है. हम मोदी जी से हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि या तो आप सीबीआई की स्थिति को सुधारिए या फिर उसे समाप्त ही कर दीजिए. वैसे भी आपको स्थापित संस्थाओं को समाप्त करने में महारत हासिल है. मोदी है तो मुमकिन है.

सोमवार, 1 जुलाई 2019

काम का तरीका बदलिए मोदी जी


मित्रों, पांच साल पहले जब मोदी जी ने पहली बार केंद्रीय मंत्रिमंडल का गठन किया था तब निस्संदेह मुझे घनघोर निराशा हुई थी क्योंकि मंत्रिमंडल गठन में योग्यता को नहीं जाति-पांति को प्रधानता दी गई थी. मोदी सरकार के पांच साल के कामकाज से भी मैं खुश नहीं था तथापि विकल्पहीनता की स्थिति को देखते हुए फिर से उनको ही समर्थन और वोट देने का फैसला किया. मुझे पता था और पता है कि जिस तरह से विपक्ष छद्मधर्मनिरपेक्षता की पाखंडपूर्ण नीति पर चल रही है उसी तरह से मोदी सरकार भी छद्मराष्ट्रवाद की नीति पर चल रही है. कमोबेश दोनों का लक्ष्य सत्ता-सुख प्राप्त करना है.
मित्रों, मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि मुझे इस बार के मोदी मंत्रिमंडल से भी निराशा हुई है और पिछली बार से कही ज्यादा हुई है. मैं पहले भी कह चुका हूँ कि मोदी जी करना क्या चाहते हैं कदाचित उनको खुद भी पता नहीं है अन्यथा सुब्रह्मण्यम स्वामी को वित्त मंत्री होना चाहिए था. मैंने पिछली मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की भी जमकर आलोचना की थी और कहा था कि यह सरकार गलत आर्थिक आंकड़े पेश कर रही है. सुरेश प्रभु जैसा योग्य व्यक्ति इस बार के मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए गए हैं जो आश्चर्यजनक है.
मित्रों, मैंने ५ साल पहले भी कहा था कि जब टीम ही अच्छी नहीं होगी तो काम अच्छा कहाँ से होगा?  पिछली सरकार ने देश को दिया क्या? रोजगार के बदले बेरोजगारी, ईलाज के बदले बिहार में बच्चों की मौत और अंधाधुंध निजीकरण. अर्थव्यवस्था ठीकठाक प्रदर्शन नहीं कर रही थी तो जीडीपी मापने के पैमाने को ही बदल दिया और बेरोजगारी के आंकड़ों को महीनों तक जनता के आगे आने ही नहीं दिया. हाँ, एक काम जरूर मोदी जी की सरकार बड़े भी मनोयोग से कर रही है और वो है मूर्तियों का निर्माण मगर अफ़सोस लौह पुरुष सरदार पटेल की मूर्ति पहली बरसात का भी सामना नहीं कर पाई और रिसने लगी. अब मोदी सरकार तैयारी में है अयोध्या में  भगवान राम की विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने की. जबकि आवश्यकता है जनसामान्य के मन में राम के आदर्शों की स्थापित करने की. जब तक राम के आदर्शों को जन-जन के मन तक स्थापित नहीं कर दिया जाता तब तक नित्य घटित हो रही रेप की घटनाओं को कोई नहीं रोक सकता चाहे कितने ही कानून क्यों न बना दिए जाएँ? वैसे बनाना ही है तो सरकार राम मंदिर बनाए।
मित्रों, कभी-कभी तो मोदी सरकार के कदमों से ऐसा भी लगता है कि जैसे हमने बन्दर के हाथों में उस्तरा थमा दिया हो. कुछ उदाहरण आपके पास भी होंगे कुछ मेरे पास भी हैं. पिछले साल तक नेट की परीक्षा से व्याख्याता बनने की योग्यता निर्धारित होती थी लेकिन पिछले साल से ठीक उसी तरह जैसे नीतीश जी ने बिहार में प्राथमिक शिक्षकों की बहाली में किया था और बिहार की शिक्षा का बड़े धूम से सत्यानाश कर दिया था मोदी सरकार ने कहा कि अब स्कोर के आधार पर कॉलेजों में बहाली होगी योग्यता गई तेल लेने और हम सोचते थे कि ये लोग बदलेंगे देश.
मित्रों, इतना ही नहीं जब लाल किले से पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ देश के अल्पसंख्यकों का है तब इसी भाजपा ने सख्त विरोध किया था और आज जब मोदी दोबारा चुनाव जीतते हैं तो कहते हैं कि अल्पसंख्यकों को अलग से ५ करोड़ छात्रवृत्तियां दी जाएंगी तब क्या इस कदम के पीछे मुस्लिम तुष्टिकरण की कुत्सित मानसिकता नहीं होती है? अगर नहीं तो कैसे? मैं मनमोहन सिंह के समय भी मांग कर चुका हूँ कि रजिया की मदद करनी है तो की जाए लेकिन साथ-साथ सरकार राधा की भी मदद करे. क्या अपने इस तरह के कदमों से मोदी सरकार भी हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहती है जो कभी मनमोहन चाहते थे? वैसे मोदीजी के सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास नारे की पोल कल अल्ला हो अकबर के नारे के साथ दिल्ली के लाल कुआं के ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर की देव प्रतिमाओं को खंडित कर मुसलमानों ने खोल दी है।
मित्रों, मोदी सरकार ने एक और भी महान मूर्खतापूर्ण कदम उठाने की सोंची है. दरअसल यूपीएससी ने फैसला किया है कि अब सामान्य वर्ग के लोग सिर्फ २६ साल की उम्र तक ही सिविल सेवा परीक्षा में भाग ले पाएँगे. हद तो यह है कि बांकी वर्गों के लिए उम्रसीमा पूर्ववत है. मतलब कि मोदी सरकार मानती है कि सिर्फ सामान्य वर्ग के लोग मात्र २६ साल की उम्र में बूढ़े हो जाते हैं. क्या वो बताएगी कि वो इस निष्कर्ष पर किस शोध के आधार पर पहुंची है?
मित्रों, मोदी जी का एक कदम तो ऐसा है जिससे पता चलता है कि वे खुद को बाकियों से विशिष्ट मानते हैं जबकि ऐसा है नहीं। मोदीजी भी मानव हैं और समस्त मानवीय क्रिया-कलाप करते हैं। आपने भी ध्यान दिया होगा कि मोदीजी जब विमान पर चढ़ते हैं या विमान पर से उतरते हैं तो अकेले दिखाई देते हैं। क्या ऐसा करके वे यह दिखाना चाहते हैं कि उनके बराबर कोई नहीं है या फिर यह प्रर्दशित करना चाहते हैं कि वे अकेले ही सरकार चला रहे हैं? मोदी सरकार के एक और कदम से मैं निराश हुआ हूं और वह कदम यह है कि मोदी सरकार ने अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करके उन तीन अखबारों को विज्ञापन देना बंद कर दिया है जो लगातार उसके खिलाफ लिखते रहे हैं। पता नहीं ऐसा करके मोदी कौन से लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं? मैंने बिहार में देखा है कि किस तरह नीतीश विज्ञापन की बीन पर अखबारों को नचाते रहे हैं। तो क्या मोदी जी भी अब वैसा ही करेंगे? एक और मामले में नीतीश जी मोदी जी के गुरु हैं और वो यह है कि नीतीश जी शुरू से ही दिखावे की सरकार चलाते रहे हैं. जब बिहार में नीतीश जी की सरकार बनी तो महात्मा गाँधी सेतु का रंग-रोगन किया गया लेकिन पुल की सेहत पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम यह कि पुल अब गिरने के कगार पर पहुंच चुका है। मोदी भी नीतीश की तरह दिखावा कर रहे हैं काम कुछ भी नहीं हो रहा है। पुलिस और न्यायिक सुधार, जनसंख्या-नियंत्रण, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण सभी आज सरकारी प्राथमिकता से गायब हैं।
मित्रों, मोदी सरकार के एक-एक कदम पर नजर रखनेवाले निश्चित रूप से हमसे सहमत होंगे कि मोदी जी ने अब तक जो भी कदम उठाए हैं वोटबैंक को ध्यान में रखकर उठाए हैं. शायद वे नेहरु जैसी ताक़त चाहते हैं और इस बार के संसद में दिए अपने पहले भाषण में उन्होंने पहली बार नेहरु जी का जिक्र भी किया है. बस मोदी जी यहीं तक रूक जाएँ जो बेहतर होगा अन्यथा मुझे तो ऐसा भी लगता है कि कहीं सबका विश्वास पाने के चक्कर में मोदी जी सबका विश्वास न खो दें. यानि नेहरु जैसी ताक़त पाना है तो पाएं लेकिन अगर वे नेहरु बनने  का प्रयास करेंगे तो निश्चित रूप से बहुत जल्दी उनको अपना झोला उठाकर सचमुच दिल्ली छोड़कर चल देना होगा और केदारनाथ की गुफाओं में बुढ़ापा गुजारना होगा.