शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

पुलवामा के अभागे शहीद



मित्रों, पुलवामा आतंकवादी घटना को एक साल बीत चुके हैं मगर वो वीभत्स दृश्य जैसे आँखों के आगे से हटने का नाम ही नहीं ले रहा है. चारों तरफ मांस के लोथड़े और खून. कौन-सा टुकड़ा किसका है पहचानना असम्भव. गाँव में लाशें तो आई लेकिन मांस के चंद टुकड़ों के रूप में. पूरे देश में क्रोध और देशभक्ति का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ. लोग चाहते थे कि इसका बदला लिया जाए. आसमान से बम गिराकर बदले की कार्यवाही भी पूरी की गई. मोदी सरकार ने देश में पैदा हुए गुस्से से पूरा लाभ उठाया और दोबारा चुनाव जीत लिया.
मित्रों, फिर सबकुछ सामान्य हो गया और लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो. धरती घूमती रही और देखते-देखते आज एक साल पूरा हो गया. देश के बांकी लोगों के लिए सबकुछ भले ही सामान्य हो लेकिन जिन परिवारों ने अपने बेटे खोए उनकी तो जैसे दुनिया ही उजड गई.
मित्रों, हमारे देश में सब बराबर हैं ऐसा आप और हम रोज पढ़ते हैं सुनते हैं लेकिन यह सिर्फ पढने और सुनने के लिए है. वास्तविकता तो यह है कि हमारे देश में न तो जीवित लोग बराबर हैं और न ही देश के लिए अपनी जान लुटानेवाले ही. अगर देश में सब बराबर होते तो देश के लिए अपनी जान न्योछावर करनेवाले अर्द्धसैनिकों को भी जल, थल और वायु सैनिकों की तरह शहीद का दर्जा मिलता. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सैनिक तो युद्ध होने पर ही मरते हैं जबकि अर्द्धसैनिक शांतिकाल में भी रोज अपनी जान देते हैं, पुलवामा में भी दी लेकिन उनको शहीद का दर्जा नहीं मिलता, पुलवामा के शहीदों को भी नहीं मिला. उनके परिजनों को पेंशन भी नहीं मिलेगा क्योंकि अब महान भारतवर्ष में पेंशन तो सिर्फ जल, थल, वायु सैनिकों के अलावे सिर्फ विधायकों और सांसदों को ही मिलती है. सालभर से पुलवामा के शहीद मुआवजे और पेंशन के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं. हर टेबल पर उनको दुत्कारा जाता है, मजाक उड़ाया जाता है, गालियाँ दी जाती हैं और रिश्वत माँगा जाता है. और सरकार कहती है कि मेरा देश बदल रहा है. कैसा बदलाव? काहे का बदलाव? जब पिछले ९० सालों में कुछ नहीं बदला तो अब एक साल में क्या बदलेगा?
मित्रों, किसी शायर ने अंग्रेजों के समय में कहा था कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले. लेकिन विडम्बना यह है कि न तो अंग्रेजों के समय शहीदों को शहीदों का दर्जा मिला और न ही अब मिल रहा है. तब भगत सिंह को नहीं मिला था और अब अर्द्धसैनिकों को नहीं मिल रहा. तब विदेशी सरकार थी अब देशी है. आजादी के बाद भी कुछ नहीं बदला. तब नेहरु ने सुभाष चन्द्र बोस को युद्ध अपराधी कहा था. फिर देशभक्तों की सरकार आई और २००५ में नेताओं और सैनिकों को छोड़कर सबको बिना पेंशन का कर दिया. जो सबसे ज्यादा जान देते हैं उन अर्द्धसैनिकों को भी उन्होंने बिना पेंशन का कर दिया. देशभक्तों की सरकार थी कोई कुछ बोलता भी तो कैसे? फिर नेताओं को तो पेंशन दे ही दिया था तो नेता भला क्यों विरोध करते? फिर उनके बच्चे शहीद तो होते नहीं. शहीद तो होते हैं गरीब किसानों और मजदूरों के बेटे. जो पहले अपनी जान देते हैं और बाद में उनके परिजन नेताओं के वादों का पुलिंदा लिए दफ्तरों में भटकते रहते हैं. यह सिलसिला चलता ही रहता है. फिर आतंकी घटना फिर शहादत और फिर दफ्तरों के चक्कर और रिश्वत. अभी तो २०१३ के शहीद हेमराज के परिजन ही भटक रहे हैं फिर पुलवामा को तो एक साल ही हुआ है. देश तो नहीं बदला रहा लेकिन देश में रिश्वत का स्वरुप जरूर बदल रहा है. अभी यूपी में रिश्वत खाकर ३० नेताओं और अधिकारियों को एचआईवी-एड्स हो गया. मेरा देश बदल रहा है, आगे चल रहा है. मेरा भारत महान.

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