शनिवार, 27 जून 2020

तय है चीन की शर्मनाक पराजय

मित्रों, दुनिया और भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि इन दिनों भारत चीन की आँखों में ऑंखें डालकर बात कर रहा है. उस चीन की जो अपने आपको वैश्विक महाशक्ति मानता है और अमेरिका तक को आँखें दिखा रहा है. उस चीन में भारत का राजदूत इन दिनों सिंह गर्जना करते हुए कह रहा है कि चीन अपनी सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय पाले से वापस बुला ले अन्यथा उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इतना ही नहीं जिस भारतीय सीमा पर कभी पैदल भारतीय सैनिकों का पहुंचना भी लोहे के चने चबाने के समान था उसी सीमा पर इस समय भारतीय टैंक निर्भय होकर विचरण कर रहे हैं और भारत के लड़ाकू विमान गर्जना करते हुए ताल ठोक रहे हैं.
मित्रों, सवाल उठता है कि पिछले ६ सालों में ऐसा क्या हो गया कि भारत के सामने चीन की बोलती बंद हो गई है. कुछ भी तो नहीं बदला. बदली है तो बस भारत सरकार और भारत सरकार की नीयत. पहले की सरकार की अघोषित मुखिया सोनिया गाँधी जहाँ चीन से रिश्वत खा रही थी वर्तमान सरकार के घोषित मुखिया को ख़रीदा ही नहीं जा सकता क्योंकि वो बिकाऊ ही नहीं है. अब जब सरकार की नीयत ठीक है तो नीति को तो ठीक होना ही था. तभी तो नरों में सिंह के समान नरेन्द्र मोदी ने सत्ता सँभालते ही कह दिया था कि अबसे कोई भारत को आँख दिखाने या डराने की हिमाकत करने की सोंचे भी नहीं. उनके इस कथन में यह चेतावनी छिपी हुई थी कि अबसे ऐसा करनेवालों की ऑंखें निकाल ली जाएगी.
मित्रों, वो कहते हैं न कि अहंकार व्यक्ति को अँधा कर देता है और चीन की आँखों पर उसी तरह अहंकार की पट्टी बंधी हुई है जैसे कि कभी रावण, कंस और दुर्योधन की आँखों पर बंधी थी. चीन भूल गया कि अब परिस्थितियां उसके अनुकूल नहीं रही. उलटे वो भारत को कमजोर समझकर डराने की कोशिश करने लगा. उस भारत को जिसने विश्वविजेता सिकंदर को उलटे पांव लौटने के लिए विवश कर दिया था, उस भारत को विश्वयुद्धों के दौरान जिसके वीरों की वीरता की गाथाओं को आज भी पूरा यूरोप गाता और पूजता है, उस भारत को जिसके एक डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनीस ने पिछली शताब्दी के तीसरे दशक में चीन जाकर वहां की पददलित दुखी जनता की सेवा में अपना जीवन खपा दिया.चीन यह भूल गया किभारत की ताक़त उसकी जनता में निहित है जो देश की संप्रभुता के लिए हँसते-हँसते अपना सबकुछ न्योछावर कर देने को सदैव तत्पर रहती है.
मित्रों, अब इसमें कोई शक नहीं कि अगर चीन ने जल्द-से-जल्द अपने कदम वापस नहीं खींचे तो उसकी शर्मनाक पराजय तय है. इस बार भारत अकेला नहीं है पूरी दुनिया उसके साथ है वैसे भारत अकेले ही एक नहीं कई-कई चीनों से निबटने में सक्षम है इसमें कोई शक नहीं. चीन की तरह भारत की सेना कोई फ़िल्मी सेना नहीं है बल्कि सर पर कफ़न बाँधकर रणभूमि में उतरे ऐसे वीरों की सेना है जो रोजाना अपने ही रक्त में स्नान करने को अपना सौभाग्य मानते हैं। भारत के वीरों की वीरता का नमूना चीन गलवान में अपनी छोटी-छोटी खुली और फटी हुई आँखों से देख भी चुका है फिर भी उसके विवेक पर अहंकार का मोटा पर्दा पड़ा हुआ है.
मित्रों, वो कहते हैं न कि घमंडी का सिर नीचा. इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत जल्द चीन का सर भारत के पैरों पर होगा. इस बार भारत की बागडोर न तो कायर और डरपोक नेहरु के हाथों में है और न ही रिश्वतखोर सोनिया के घिनौने हाथों में बल्कि इस बार भारत की सत्ता एक नरसिंह के हाथों में है. आदेश मिलते ही भारत की सेना चीन की सेना को उसी प्रकार से चीरफाड़ कर रख देगी जैसे जहाज महासागर के जल को चीर डालता है. फिर तो चीन के इतने टुकड़े होंगे कि वो उनको गिन भी नहीं पाएगा. स्वयं चीन की जनता भी एकदलीय तानाशाही शासन से उब चुकी है और लोकतंत्र चाहती है. चीन की सेना अपने ही नागरिकों को डराने-धमकाने के लिए तो ठीक है लेकिन भारत जैसी विकट सेना से लड़ पाना उसके लिए सपने में भी संभव नहीं. फैसला चीन के हाथों में है कि वो मिलजुलकर रहना चाहता है या आत्महत्या करना चाहता है. भारत को चुनौती देकर उसने निश्चित रूप से अक्साई चिन और अरुणाचल के खोए हुए भाग को फिर से प्राप्त करने का स्वर्णिम अवसर भारत को दे दिया है. चीन यह भूल गया है कि युद्ध हथियारों से नहीं हौसले से लड़ा जाता है जिसे आदमी अपनी माता के गर्भ से लेकर पैदा होता है फिर भारत तो दुनिया का सबसे युवा राष्ट्र ठहरा. हम ऐसे ही थोड़े अपने सैनिकों को जवान कहते हैं. हमारे जवानों की जवानी के आगे क्या आग और क्या पानी और क्या चीन जैसे बूढ़े देश के जबरदस्ती जमा किए गए थके-हारे सेनानी.अपने इस आलेख को मैं महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की इन महान पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहूँगा-
जागो फिर एक बार!
समर अमर कर प्राण
गान गाये महासिन्धु से सिन्धु-नद-तीरवासी!
सैन्धव तुरंगों पर चतुरंग चमू संग;
”सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाऊंगा
गोविन्द सिंह निज नाम तब कहाऊंगा”
किसने सुनाया यह
वीर-जन-मोहन अति दुर्जय संग्राम राग
फाग का खेला रण बारहों महीने में
शेरों की मांद में आया है आज स्यार
जागो फिर एक बार!
सिंहों की गोद से छीनता रे शिशु कौन
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण?
रे अनजान
एक मेषमाता ही रहती है निर्मिमेष
दुर्बल वह
छिनती सन्तान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है;
किन्तु क्या
योग्य जन जीता है
पश्चिम की उक्ति नहीं
गीता है गीता है
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक बार

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