मित्रों,वैसे तो मेरी सोंच और मेरा स्वभाव शुरू से ही युवा साम्यवादियों जैसा रहा है। मैंने हमेशा यथास्थिति को शिव के पिनाक धनुष की तरह पुनर्वार भंग करने का,तोड़ने का प्रयास किया है लेकिन मुझे इस बात को लेकर कभी गफलत नहीं रही है कि वर्तमान काल में ऐसा करना काफी कठिन है और दिन-ब-दिन कठिन से कठिनतर होता जानेवाला है। मैंने अपने एक आलेख में कई साल पहले ही लिखा था कि आज अगर गांधी भी साक्षात् आ जाएँ तो वे भी देश को कुछ खास नहीं बदल पाएंगे और उनको भी निराशा ही हाथ लगेगी। जब पूरा देश दूसरे रीतिकाल का निर्बाध और निफिक्र आनंद ले रहा हो,जब पूरा देश ऐन्द्रिक सुख के पीछे पागल हो,जब समाज का ज्यादा बड़ा तबका शराब की खुमारी में डूबा हो और सन्नी लियोन के देह-दर्शन को व्याकुल हो तब देश को कोई कैसे जगा सकता है?
मित्रों,यह तो आप भी जानते हैं कि शहीद दिवस,23 मार्च से ही अरविन्द केजरीवाल नामक एक उत्साही-उन्मादी युवक दिल्ली की जनता के दुःखभार को कम करने के लिए अनशन पर बैठा हुआ है परन्तु जनता है कि जैसे उसको नेताओं और पानी-बिजला कंपनियों के हाथों लुटने में ही मजा आ रहा है। वह एक ऐसे मरीज की तरह व्यवहार कर रही है जिसको स्वस्थ होना रास ही नहीं आ रहा फिर आप ही बताईए कि कोई अन्ना या केजरीवाल जान देकर भी उसका कैसे भला कर सकते हैं?
मित्रों,पहले तो संदेहभर था अब तो मुझे इस बात का पक्का यकीन हो गया है कि ये दोनों गुरू-चेले अव्वल दर्जे के पागल हैं प्यासा फिल्म के गुरूदत्त की तरह इसलिए इनको तो पागलखाने में होना ही चाहिए। बड़ा चले हैं जान देने। अमाँ मियाँ किसको चाहिए तुम्हारी जान? कोई क्या करेगा तुम्हारी जान का? चले हैं जनता को जगाने। जनता तो राग-रंग में डूबी हुई हो तुम भी डूब जाओ और मानव-जीवन का आनंद लो। संतों ने कहा भी तो है कि यह मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलनेवाला। तो क्यों नहीं तुम भी डूब जाते आनंद के महासागर में? आखिर इसमें तुम लोगों को परेशानी ही क्या है? क्यों नहीं चिपक जाते तुम भी सत्तारूढ़ दल से? क्यों नहीं बन जाते तुमलोग भी केंद्रीय मंत्री और फिर क्यों नहीं करते लाखों के वारे-न्यारे? इस भारत का कुछ भी नहीं हो सकता मित्र,कुछ भी नहीं हो सकता। यह तो जैसा है वैसा ही रहेगा जान से जाओगे तुम दोनों। देखते नहीं कि इसी भारत में शहीद भगत सिंह का घर खंडहर हुआ जाता है,तुम्हें यह भी दिखाई नहीं देता कि इसी भारत में चंद्रशेखर आजाद के घर पर सरकारी अमला कैसे बुलडोजर चलाता है और जनता मूकदर्शक बनी रहती है। ये लोग सोये हुए नहीं हैं दोस्त खोये हुए है खुद में और खुद से। ये लोग लापता हो गए लोग हैं,खुद से ही लापता। बताओ भला कैसे जगाओगे इन्हें? कैसे पता लगाओगे इनका,कहाँ जाकर खोजोगे इनको? इसलिए तुमलोग यह बार-बार का अनशन छोड़ो और भ्रष्टाचार से नाता जोड़ो जो अब हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। जिस देश में 100 में से 90 लोग बेईमान हों वहाँ कौन पढ़ेगा तुमसे ईमानदारी का नीरस पाठ? कहीं ईमानदारी से पेट भरता है दोस्त? मित्र अपनी ही जान का क्यों दुश्मन बनते हो? मर जाओगे तो ज्यादा-से-ज्यादा कहीं पार्क में या सड़क पर तुम्हारी एक मूर्ति बिठा दी जाएगी जिस पर कबूतर बीट करेंगे और आवारा कुत्ते पेशाब करेंगे। बरखुर्दार समझे कि नहीं? वैसे मेरा क्या मैं तो तेरे भले की बात कर रहा हूँ अब चाहो तो मानो और न चाहो तो नहीं मानो,अपनी बला से,हाँ! है कि नहीं!!
मित्रों,हम बिहारियों के शब्दकोश में बिहार पुलिस के कई पर्यायवाची दर्ज हैं। कोई इन्हें सरकारी कुत्ता कहता है तो कोई सरकारी दामाद। इन्हें कुत्ता इसलिए नहीं कहा जाता है क्योंकि यह जनता की रक्षा करती है बल्कि इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह जनता को काट खाती है और सरकारी दामाद इसलिए क्योंकि इनको मुफ्तखोरी की बहुत बुरी आदत होती है। लालू राज में भी ऐसा देखने आता रहा है कि कभी-कभी मुफ्त में सामान नहीं देने पर ये लोग ठेले-रेहड़ीवालों की कभी कानून के डंडे से और कभी बेंत के डंडे से पिटाई कर देते हैं लेकिन तब ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि कोई थानेदार रंगदारी नहीं देने पर अपनी सर्विस रिवाल्वर को किसी मजलूम पर खाली ही कर दे। परन्तु सुशासन की रामराजी सरकार में ऐसा भी होने लगा है।
मित्रों,ताजी घटना में रंगदारी में शराब नहीं देने पर नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में थानेदार ने दुकान के सेल्समैन की सरेबाजार गोली मारकर हत्या कर दी है। यह घटना जिले के थरथरी थाने के अस्ता-खरजम्मा बाजार में सोमवार 25 मार्च की रात करीब दस बजे हुई। मृतक के मौसेरे भाई संजय यादव ने एफआईआर में कहा है कि थरथरी थाने का थानेदार रामप्रवेश सिंह सोमवार की रात गश्ती के दौरान दुकान पर आया और मनोज (अब मृतक) से दो कार्टन शराब देने को कहा। शराब देने से मना करने पर उसने तत्काल मनोज को गोली मार दी और फिर पुलिस जीप में बैठकर भाग गया।
मित्रों,मैं पहले भी अर्ज कर चुका हूँ कि इन दिनों बिहार में घटनेवाली 90% आपराधिक घटनाओं के लिए नीतीश सरकार की दोषपूर्ण आबकारी या शराब नीति जिम्मेदार है। बिहार में अधिकतर अपराध या तो शराब के लिए हो रहे हैं या फिर शराब के नशे में संपन्न किए जा रहे हैं। दुर्भाग्यवश पूरे बिहार को शराबी बनाकर भी नीतीश सरकार शुतुरमुर्गी मुद्रा अख्तियार किए हुए है। अभी कल-परसों में ही हमारे राज्य में होली के सुअवसर पर बिहार के आबकारी विभाग द्बारा बेची जा रही विषैली मुँहफोड़वा या रंथी एक्सप्रेस शराब को पीने से कई दर्जन लोगों की जान जा चुकी है।
मित्रों,जहाँ तक सुशासन में पुलिस द्वारा जनता की की जा रही अमूल्य सेवाओं का प्रश्न है तो इससे तो हम इतने अभिभूत हैं कि सोंचकर ही हमारा दिल बैठा जा रहा है। पिछले सात सालों में हमारी सुशासनी सरकार ने बिहार पुलिस का चेहरा ही बदल कर रख दिया है। उसने पहले जिस तरह अहैतुकी कृपा करके शराब की दुकानों पर शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है लिखवा दिया था उसी तरह अब उसने राज्य के तमाम थानों पर आदर्श थाना लिखवा दिया है। माबदौलत (पगले आजम?) समझते हैं कि जब थाने का नाम ही आदर्श थाना होगा तो वहाँ पदस्थापित पुलिसकर्मी और अधिकारी खुद ही शर्म के मारे गलत काम नहीं करेंगे और इस प्रकार बिहार में स्वतः राम-राज्य कायम हो जाएगा।
मित्रों,मेरा तो चिरकाल से यह भी मानना रहा है कि यदि बिहार में नौकरशाही के चरम स्वरूप बिहार पुलिस नामक संस्था को समाप्त ही कर दिया जाता तो यह यहाँ की जनता पर सरकार का सबसे बड़ा उपकार होता। पिछले कई दशकों से बिहार पुलिस बिहार का सबसे बड़ा आपराधिक गिरोह बनी हुई है। लालूराज तक तो यह जनता को सिर्फ लूटती ही थी परन्तु अब तो यह जान से मारने भी लगी है। आगे-आगे देखिए कि यह लोकसेवक संस्था प्रदेश की कथित मालिक जनता के साथ/जनता के लिए और क्या-क्या करती है।
जिन्दगी एक सजा हो गई हो जैसे,
जिन्दगी बेमजा हो गई हो जैसे।
यूँ तो जीते रहे हम जिंदादिल की तरह,
पर कहीं कोई कमी-सी रह गई हो जैसे।
कतरा-कतरा करके बालू की तरह,
मुट्ठी से जिंदगी रिस गई हो जैसे।
जाड़े की धूप की तरह खुशियाँ,
चढ़ते-चढ़ते ढल गई हों जैसे।
किसी को फर्क नहीं मेरे होने या न होने से,
स्टेशन पर खड़े-खड़े ट्रेन छूट गई हो जैसे।
अब बेरंग है हर होली और बेनूर दिवाली,
मेरी तरह इनमें भी तासिर नहीं हो जैसे।
जिन्दगी एक सजा हो गई हो जैसे,
जिन्दगी बेमजा हो गई हो जैसे।
मित्रों,सुशासन की सरकार बिहार के निवासियों को सूचना का अधिकार अद्वितीय तरीके से प्रदान कर रही है। उनको सूचना मांगने का अनन्य अधिकार तो दे दिया गया है लेकिन सूचना पाने का अधिकार नहीं दिया गया है अलबत्ता कोई सूचनार्थी अगर सूचना मांगने की गुस्ताखी करने बावजूद जीवित या बिना जेल गए रह जाए तो उसे जरूर सुशासन का शुक्रगुजार होना चाहिए। इस बार सूचना मांगने की सजा पाई है एक अधिवक्ता रामकुमार ठाकुर ने। मुजफ्फरपुर जिले के मनियारी थाना के पुरुषोत्तमपुर गांव में शनिवार 23 मार्च की शाम घात लगाए अपराधियों ने जिले के रतनौली गांव निवासी सिविल कोर्ट के अधिवक्ता रामकुमार ठाकुर की गोली मारकर हत्या कर दी। अधिवक्ता रामकुमार ठाकुर ने अपने ही ग्रामीण रतनौली पंचायत के मुखिया राजकुमार सहनी से सरकारी योजनाओं की जानकारी आरटीआई से मांगने का अक्षम्य अपराध किया था। उम्मीद के मुताबिक ही सूचना उपलब्ध नहीं हुई थी। दैनिक जागरण,मुजफ्फरपुर के अनुसार अधिवक्ता बिहार मनरेगा वाच संगठन से भी जुड़े थे। मुखिया व उनके समर्थकों द्वारा कई बार उन्हें धमकी भी दी जा चुकी थी। जिसकी शिकायत थाने में भी की गई थी। लेकिन, थाना स्तर से उनके आवेदन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। अधिवक्ता ने अपनी सुरक्षा को लेकर पुलिस के वरीय अधिकारियों व मुख्यमंत्री तक को आवेदन दिया। कार्रवाई नहीं हुई और अंतत: वे अपराधियों के निशाने पर चढ़ गए। इतना ही नहीं थानेदार ने ईलाज के लिए ग्रामीणों द्वारा ले जाए जा रहे घायल अधिवक्ता को पुलिस जीप पर बिठा लिया और डेढ़ घंटा रास्ते में ही लगा दिया जिससे अधिवक्ता की जान चली गई।
मित्रों,बिहार में सुशासन किस तरह से काम कर रहा है मैं समझता हूँ कि यह उदाहरण देने के बाद बताने की आवश्यकता ही नहीं रह गई है। मैंने खुद भी कई-कई बार सूचना मांग कर देखा है मगर कभी मुझे सूचना प्राप्त नहीं हुई। मैं गारंटी के साथ नहीं कह सकता कि मुझ पर भी कभी जानलेवा हमला नहीं होगा या फिर मुझे कभी झूठे मुकदमे का सामना नहीं करना पड़ेगा। वास्तव में वर्तमान बिहार में लोकशाही का शासन है ही नहीं बल्कि नौकरशाही का निरंकुश शासन है जिस पर नियंत्रण करना न तो नीतीश कुमार उद्देश्य है और न तो अभीष्ट ही अर्थात् प्राथमिकता सूची में कहीं है ही नहीं।
मित्रों,भारत की राजनीति में लगातार प्रयोग हो रहे हैं। दुर्भाग्यवश हमारे अधिकतर राजनैतिक दल और राजनेता आज भी यथास्थितिवादी हैं। ऐसे राजनेताओं और दलों की तुलना हम मजे में मच्छर,खटमल या जोंक से कर सकते हैं। कुछ की तुलना जूँ से भी की जा सकती है जो खून पीने के बाद उसका रंग भी बदल देती है। इनमें से कुछ तो पूरी तरह से रंगे सियार हैं तो कुछ सिर्फ अपनी पूँछ रंगकर काम चला रहे हैं। कुछ गिरगिट की तरह रोज रंग बदलते रहते हैं। कुछ मगरमच्छ की तरह आँसू की टंकी हैं तो कुछ ने न केवल बाघ की खाल ही पहन रखी है वरन वे अब बाघ की बोली भी बोलने लगे हैं।
मित्रों,चाहे नेता कोई भी हो या उसका दल कुछ भी हो उनमें से अधिकतर के विवाहेत्तर संबंधों की तरह ही उद्योगपतियों के साथ अवैध संबंध हैं। इन्होंने फेरे तो लिए जनता के साथ,कसमें भी खाई साथ निभाने की मगर ये प्यार करते हैं लक्ष्मी और लक्ष्मीपतियों से। अब भारत का दिल कहलानेवाली दिल्ली को ही लें। पहले तो वहाँ की सरकार ने बिजली-पानी के वितरण का निजीकरण किया और अब इसकी दरों को सरपट बढ़ाती जा रही है। जनता मरे तो मरे मगर पूँजीपतियों और नेताओं की जेब जरूर भरे। जनता करे भी तो क्या करे बिना पानी और बिजली के जीवन संभव भी तो नहीं। कोई मार्ग नहीं कोई उपाय नहीं सिवाय अगले चुनावों का इंतजार करने के। फिर वोट देकर दूसरी पार्टी को जिताईए और उनके हाथों लुट जाने के लिए तैयार हो जाईए। वोट देते-देते ऊंगलियाँ घिस गईं,मतदान बाद स्याही लगाते-लगाते हाथ काले हो गए। सरकारें बदलती रहीं लेकिन शासन का चरित्र नहीं बदला।
मित्रों,ऐसे में जनता को जगाने और संघर्ष के लिए तैयार करने का बीड़ा उठाया है अरविन्द केजरीवाल ने। अरविन्द सत्तालोलुप हैं या नहीं या सत्ता में आने के बाद वे भी बाँकी नेताओं की तरह चुनावेत्तर संबंधों में खोकर रह जाएंगे या नहीं अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन उन्होंने जनता से जो सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया है मेरी समझ से जनता के समक्ष सरकार को झुकाने के लिए प्रत्येक परिस्थिति में इससे बेहतर विकल्प या रामवाण नहीं हो सकता। इसलिए दिल्ली की सवा करोड़ जनता को चाहिए कि वे उनका साथ दें। वे साथ कई तरीके से दे सकते हैं। कोई उनके साथ अनशन पर बैठ सकता है कोई पहले पानी और बिजली का बिल नहीं भरकर और कनेक्शन कट जाने पर खुद से जोड़कर भी सरकार की नाक में दम कर सकता है।
मित्रों,यह सविनय अवज्ञा आंदोलन नामक ब्रह्मास्त्र ही था जिसका संधान कर हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1930-31 में ब्रिटिश हुकूमत को लोहे के चने चबवा दिए थे। बाद में जब जनसमर्थन कम होने लगा तब गांधी को आंदोलन वापस भी लेना पड़ा था। जाहिर है कि हमारे लिए अनशन पर गांधी बैठें या केजरीवाल या अन्ना हजारे या फिर वे किसी नए आंदोलन का सूत्रपात करें। आंदोलन को सफलता मिलेगी या नहीं पूरी तरह से जनसमर्थन पर निर्भर करता है। केजरीवाल कोई अफलातून नहीं हैं बल्कि हा़ड़-मांस के बने आम आदमी हैं। वे जादू भी नहीं जानते जिसका प्रयोग कर वे शीला दीक्षित के मन को बदल देंगे। सिर्फ शीला दीक्षित के मन को ही नहीं बल्कि शासन के चरित्र को भी अगर कोई बदल सकता है तो वह हैं हम जनता। तो आईए मित्रों हम केजरीवाल का साथ दें। नहीं देना है तो नहीं दें लेकिन बिजली और पानी के मुद्दे पर सविनय अवज्ञा अवश्य करें और ठसाठस भर दें दिल्ली के तिहाड़ जेल को। तभी टूट पाएगा दिल्ली सरकार और बिजली-पानी वितरण कंपनियों के बीच का नापाक गठजोड़,अवैध चुनावेत्तर संबंध। डरिए नहीं जब अरविन्द नहीं डर रहे तो आप क्यों डर रहे हैं। जिस दिन आपने डरना छोड़ दिया उसी दिन से हमारे राजनेता हमसे डरने लगेंगे।
मित्रों,कई साल पहले मैंने दो खबरें पढ़ी-सुनी थी। पहली अमेरिका से थी और दूसरी इंग्लैंड से लेकिन दोनों ही नाबालिगों द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने से संबंधित थीं। पहली घटना में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति और तत्कालीन विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति जार्ज डब्ल्यू बुश की बेटी शराब पीकर गाड़ी चलाती हुई वाशिंगटन में स्थानीय पुलिस द्वारा पकड़ी गई थी। उस पर पुलिस ने जुर्माना किया था और उसकी जमानत देने स्वयं अमेरिका के राष्ट्रपति थाने गए थे। दूसरी घटना में इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के पुत्र को इसी तरह के अपराध में रात हिरासत में गुजारनी पड़ी थी और सुबह में तभी वे घर जा पाए जब उनके प्रधानमंत्री पिता ने सदेह थाने में उपस्थित होकर जमानत दी। दोनों ही मामलों में बुश या ब्लेयर न तो नाराज हुए और न ही पुलिस अधिकारियों पर किसी तरह की धौंसपट्टी ही दिखायी। कानून का सम्मान किया और पालन भी किया। क्या ऐसा भारत में कभी हुआ है या होता है? अगर भारत में ऐसा नहीं होता है तो फिर यहाँ कानून का राज कैसे हुआ?
मित्रों,आपने भी किताबों में पढ़ा होगा कि भारत में कानून का राज है और भारत में कानून की नजर में सभी बराबर हैं लेकिन व्यवहार में ऐसा है नहीं। अगर ऐसा होता तो आज एक समय के बिगड़ैल नवाब संजय दत्त को माफी देने की मांग नहीं उठी होती। बल्कि सरकार और कांग्रेस पार्टी उनके साथ उसी तरह पेश आती जैसे कि किसी अपराधी के साथ आया जाता है। लगता है कि भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने कल का अखबार पढ़ा ही नहीं है या हो सकता है कि उन्होंने जो कानून की किताबें पढ़ीं हों उनमें यह लिखा हो कि रसूखवाले लोग बॉस की तरह ही हमेशा सही होते हैं (बॉस ईज ऑलवेज राईट)। आश्चर्य होता है और संदेह भी होता है कि इस व्यक्ति ने न्यायाधीश के महान जिम्मेदारीवाले पद पर रहते हुए कई दशकों तक कैसे न्याय के साथ न्याय किया होगा?! आखिर इस आदमी ने किस आधार पर यह कहा कि 1993 के मुम्बई बम विस्फोटों में संजय दत्त का जुर्म संगीन नहीं था? सुप्रीम कोर्ट ने तो अपने निर्णय में साफ-साफ कहा है कि मुम्बई बम विस्फोटों में जो हथियार और विस्फोट उपयोग में लाए गए उनमें से कुछ को संजय दत्त ने विस्फोट से ऐन पहले अपने पास रखा था। इतना ही नहीं संजय दत्त को विस्फोट की साजिश के बारे में भी पहले से पूरी जानकारी थी लेकिन उन्होंने पुलिस को इसकी जानकारी नहीं दी उल्टे आतंकवादियों की हर तरह से सहायता की। काटजू साहब के अनुसार आतंकवादियों के साथ सांठ-गांठ रखना,आतंकी कार्रवाई में उनकी सहायता करना और पुलिस को इसके बारे में इत्तला नहीं करना अगर संगीन जुर्म नहीं होता है तो फिर संगीन जुर्म होता ही क्या है? माना कि संजय दत्त एक बड़ी हस्ती हैं और अभी कांग्रेस पार्टी में भी हैं,उनके व्यवहार में सुधार भी आया है लेकिन इससे उनका अपराध तो कम नहीं हो जाता।
मित्रों,अगर संजय दत्त को माफी दी जाती है तो इस अपराध में शामिल अन्य लोगों को भी माफी मिलनी चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं होना फिर उनके साथ अन्याय होगा,क्योंकि उनमें से अधिकतर ने इस इकलौते अपराध के बाद और कोई अपराध नहीं किया है। संजय दत्त को माफी देना भारत के न्यायिक इतिहास में एक गलत और शर्मनाक नजीर होगी। इस आधार पर तो कोई भी बड़ा-से-बड़ा अपराधी माफी की मांग करेगा। इतना ही नहीं अगर संजय दत्त को माफी दी जाती है तो मैं मीलों आगे बढ़कर यह मांग करता हूँ कि मुम्बई बम विस्फोटों में शामिल सभी लोगों को संजय दत्त के साथ ही भारत-रत्न और अशोक-चक्र एकसाथ देकर सम्मानित किया जाए और उनको बेवजह कष्ट पहुँचाने के लिए भारत सरकार की ओर से माफी भी मांगी जाए क्योंकि उनका अपराध तो संगीन था ही नहीं साथ ही उनकी आतिशबाजी से सिर्फ मुम्बई की सड़कें ही रौशन नहीं हुई थी भारत का पूरी दुनिया में नाम भी रौशन हुआ था।
मित्रों,इसी बीच भारत में एक और महत्त्वपूर्ण घटना घटी है। अभी कल परसों की ही बात है कि डीएमके नेता स्टालिन के घर पर कांग्रेस जाँच ब्यूरो (सीबीआई) ने जब छापा मारा तो पीएम तक परेशान हो गए। अगर वही छापा हम-आप जैसे किसी छोटे व्यक्ति पर पड़ा होता तो उनको यकीनन कोई फर्क नहीं पड़ता। पीएम साहब सीबीआई अगर छापा मारती है तो मारने दो,अगर देश में कानून का राज है तो कानून को अपना काम करने दो नहीं तो बाजाप्ता मुनादी करवा दो कि भारत में कानून का राज नहीं है बल्कि कानून तोड़नेवालों का राज है।
माँ,मैं नहीं जानता कि तुमने इस दुनिया को क्यों बनाया?तुम्हारी इस शरारत के पीछे तुम्हारा मकसद क्या था? लेकिन इतना तो निश्चित है कि मुझे तेरी दुनिया रास नहीं आई। तुम्हारी दुनिया में कहीं न्याय नहीं है। हर जगह सिर्फ अव्यवस्था,अत्याचार और अन्याय है। मैंने इस उम्मीद पर तुम्हारी दुनिया में घर बसाया था कि तेरी दुनिया में कम-से-कम मेरा हमसफर तो जिन्दगी के हर मोड़ पर,हर कदम पर मेरा हमकदम होगा। लेकिन मेरा हमसफर तो जैसे मेरे लिए मृगमरीचिका साबित हुई। उसने कभी मेरे जज्बातों को समझा ही नहीं बल्कि समझने की कोशिश ही नहीं की। मैं जितना ही उसके नजदीक जाता वो मुझसे दूर होती गई। माँ,मैंने उसे क्या समझा था और वो क्या निकली? माँ,उसके लिए भी तेरी दुनिया के अन्य लोगों की तरह तू भगवान नहीं है बल्कि पैसा ही भगवान है और मेरे पास यह कथित भगवान है तो लेकिन जरूरत भर ही। लेकिन उसे तो अपार पैसा चाहिए जिससे वो कथित तौर पर सुख खरीद सके। माँ,तेरे इस बाजारवादी युग में अब सुख भी बाजार में जो बिकने लगा है। माँ,मैं उसे हमेशा समझाता रहता हूँ कि दुनिया में हमसे भी ज्यादा अभावग्रस्त मगर सुखी लोग हैं लेकिन वो समझती ही नहीं है। माँ,वो बार-बार मेरे परिजनों को अपमानित करती रहती है। माँ,सेवा और त्याग तो जैसे उसके शब्दकोश में ही नहीं है। माँ,मैंने उसे हमेशा बराबरी का अधिकार दिया। हमेशा आप कहकर संबोधित किया। मैंने उसे कभी अपने से हीन नहीं समझा क्योंकि माँ यह तो तुम भी जानती हो कि मैं रूप का नहीं,धन का भी नहीं गुण का पुजारी रहा हूँ। माँ,मैंने उसे जब पहली बार लग्न-मंडप पर देखा था तो मैं समझा था कि तुमने मेरे लिए फिर से शारदामणि को धरती पर भेज दिया है। परन्तु यह तो कुछ और ही निकली। माँ,तुम्हारी आज की यह नारी कैसी है जो केवल एक शरीर है और जिसमें श्रद्धा नाम की चीज ही नहीं? माँ,मैं रोज अखबारों में पढ़ता हूँ कि पत्नी ने पति को मरवा डाला। माँ,सतियों की पावन-भूमि पर ये क्या हो रहा है,क्यों और कैसे हो रहा है?
माँ,वो लगातार मेरे दिल को तोड़ती ही जा रही है। उसने तो जैसे मेरी कोई भी बात नहीं मानने की कसम ही ले रखी है। उसको मेरा परिवार तनिक भी नहीं सुहाता। माँ,तुम तो जानती हो कि मेरे पिताजी संतमना महापुरूष हैं जो तुम्हारी गलती से सतयुग के बदले इस कलियुग में पैदा हो गए हैं लेकिन वह न जाने क्यों उनको भी नहीं देखना चाहती। माँ,तुम तो जानती हो कि मैंने हमेशा से तेरी दुनिया को तेरी लीला माना है। तो क्या जो कुछ मेरे साथ हो रहा है उसे भी तेरी लीला ही समझूँ? लेकिन माँ तेरा यह बेटा बहुत कमजोर है इसलिए इतनी भी कड़ी परीक्षा न ले कि तेरी दुनिया से मैं डरने लगूँ। माँ, अब तू ही बता कि मैं अकेले कैसे दुर्गम जीवन-पथ को तय करूंगा? माँ,मैं कैसे रातोंरात अंबानी या बिरला हो जाऊँ? हम जैसे हरिश्चन्द्रों को तुम्हारे बनाए इस कलियुग में कोई खरीदेगा भी तो नहीं माँ?!
मित्रों,आप सब भी जानते हैं कि कल श्रीनगर में सीआरपीएफ के कैंप पर आतंकवादी हमला हुआ जिसमें 5 जबान शहीद हो गए। श्रीनगर में पदस्थ रहे एक अधिकारी के मुताबिक, बुधवार के हमले के वक्त 100 में से सिर्फ 10 जवानों के पास हथियार थे। इन्होंने हिम्मत दिखाकर दो हमलावरों को मार गिराया। अगर सभी के पास हथियार होते तो वे बाकी आतंकवादियों को भागने नहीं देते। मौत को लेकर बल के अफसरों और जवानों में खासा रोष है। केंद्रीय गृह सचिव आर. के. सिंह का भले ही कुछ भी कहें, लेकिन बल के आला ऑफिसरों का कहना है कि अगर जम्मू-कश्मीर सरकार को सीआरपीएफ से ड्यूटी करानी है तो उसे अपना वह आदेश वापस लेना होगा जिसमें जवानों से बिना हथियार काम करने को कहा गया है। सीआरपीएफ के एक सीनियर अधिकारी के मुताबिक, श्रीनगर के पुलिस महानिरीक्षक ने पिछले महीने आदेश दिया था कि ड्यूटी के दौरान बल के जवान हथियार लेकर नहीं चलेंगे। अगर 100 जवान स्थानीय पुलिस की मदद पर जाएंगे तो सिर्फ 10 के पास ही हथियार होंगे। बाकी को लाठी-डंडे लेकर चलना होगा। इसके बाद से जवान बिना हथियार ड्यूटी कर रहे है। फैसले के पीछे यह तर्क दिया गया था कि स्थानीय लोगों को प्रदर्शन के दौरान ज्यादा नुकसान नहीं हो इसलिए सुरक्षा बलों को हल्के हथियार के साथ तैनात होना चाहिए।
मित्रों,समझ में नहीं आता कि जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला चाहते क्या हैं? वे सीआरपीएफ की राज्य में तैनाती चाहते हैं या नहीं। अगर नहीं चाहते तो उनको इस बारे में केन्द्र की अब तक की सबसे मजबूर सरकार से बात करनी चाहिए और अगर चाहते हैं तो फिर उनके पुलिस महानिरीक्षक ने बल के जवानों के हाथों में हथियारों की जगह डंडा क्यों पकड़ा दिया है?क्या कोई व्यक्ति एके-47 का जवाब डंडे से दे सकता है? क्या ऐसी मुठभेड़ बराबरी की टक्कर होगी? क्या इस तरह जवानों को बेमौत मरवा देने से आतंकवादियों का मनोबल गिरता है और हमारे जवानों का मनोबल ऊँचा होता है?
मित्रों,ये वही उमर अब्दुल्ला हैं जो अभी कई दिन पहले विधानसभा में सुरक्षा बलों के हाथों एक पत्थरबाज की मौत के बाद फूट-फूटकर रो रहे थे। तो क्या अब्दुल्ला जी के लिए किसी असामाजिक तत्त्व या पत्थरबाज की जान ही जान होती है और सीआरपीएफ के जवान उनके लिए भेड़-बकरी या गाजर-मूली की तरह हैं? क्या इस हमले में मारे गए लोग आदमी नहीं थे और उनलोगों का कोई मानवाधिकार नहीं था? क्या वे लोग किसी के बेटे,किसी की मांग का सिन्दूर और किसी बहन के भाई नहीं थे? अगर ऐसा नहीं है तो फिर उनकी आँखें सिर्फ किसी पत्थरबाज या आतंकवादी की मौत पर ही क्यों बरसती हैं? क्यों उनका दिल किसी सुरक्षा-बल के जवान की हत्या पर भावुक नहीं होता? मुझे तो लगता है कि आज सीआरपीएफ के 5 जवानों की सामूहिक शहादत पर उमर अब्दुल्ला काफी खुश होंगे क्योंकि वे प्रत्यक्षतः न सही परोक्ष रूप से तो ऐसा ही चाहते थे अन्यथा उनका पुलिस महानिरीक्षक सीआरपीएफ के जवानों के आत्मरक्षा के अधिकार को नहीं छीनता।
मित्रों,श्री अब्दुल्ला काफी दिनों से जम्मू-कश्मीर से अफस्पा कानूर को हटाने की मांग कर रहे हैं। उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि उनकी इस मांग का उद्देश्य क्या है? क्या वे फिर से कश्मीर घाटी को बारूदी धुएँ और खून के धब्बों से भर देना चाहते हैं? क्या वे सचमुच जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं? अगर ऐसा है तो फिर वे बार-बार भारत-विरोधी बयान क्यों देते रहते हैं? क्यों ऐसा जताते रहते हैं कि वे भारत से अलग हैं और भारत-सरकार उनके राज्य के साथ,उनके साथ अन्याय कर रही है?
मित्रों,आप क्या मानते हैं मुझे नहीं पता लेकिन मैं समझता हूँ कि कश्मीर नाम की कुत्ते की दुम तब तक सीधी नहीं होने वाली है जब तक कि भारत के संविधान में धारा 370 मौजूद है और जब तक जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है। यह विशेष राज्य का दर्जा ही है जो वहाँ के मुसलमानों को भारत से अलग होने का अहसास देता है,हौसला देता है। केन्द्र में चाहे जिस पार्टी की भी सरकार हो। वो चाहे सईद को मुख्यमंत्री रखे या अब्दुल्ला को इससे तब तक कोई फर्क नहीं पड़नेवाला जब तक कि संविधान में यह आत्मघाती धारा मौजूद है। मुख्यमंत्री चाहे सईद हों या अब्दुल्ला सबने भारत सरकार को धोखा दिया है। उससे धन प्राप्त किया है और उसका दुरूपयोग किया है और आगे भी करते रहेंगे। उनका दिल भारत के लिए नहीं धड़कता सिर्फ कश्मीरी मुसलमानों के लिए धड़कता है, उनकी आँखें भारत के लिए नहीं बरसती सिर्फ कश्मीरी मुसलमानों के लिए बरसती हैं और बरसती रहेंगी। आप ही बताईए क्या आपने कल से अब तक किसी चैनल पर उमर अब्दुल्ला को सीआरपीएफ के जवानों की निर्मम और कायराना हत्या पर रोते हुए देखा है?
मित्रों,अब तक मैं शब्दों में बात करता रहा हूँ लेकिन इस दफे मैं दृश्यों में बात करूंगा। दृश्य एक:-स्थान-घाटो,जिला-रामगढ़,झारखंड। प्रतिष्ठित टाटा इस्पात कंपनी की कोलियरी का एक मजदूर अपना वेतन प्राप्त करने आया हुआ है। पहले उसको 20 हजार मासिक मेहनताना मिल रहा था परंतु इस बार उसे हाथ आए हैं मात्र 5 हजार रूपए। जैसे कि कंपनी उनके साथ साँप-सीढ़ी का खेल खेल रही हो और उस खेल में उसके 99 पर पहुँच चुके वेतन को साँप ने काट लिया हो और उसका वेतन फिर से 1 पर आ गया हो। उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई है। उसके सारे सपने चूर-चूर हो गए हैं। एक बेटी की शादी करनी है,घर का खर्चा भी चलाना है और दो बेटे जो राँची में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं को भी पैसा भेजना है।
दृश्य दो:-स्थान-नई दिल्ली,टाटा कंपनी के पूर्व सर्वेसर्वा और टाटा परिवार के कुलदीपक रतन टाटा केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री अजित सिंह के कार्यालय में उनसे मिलने के लिए पधारे हुए हैं। श्री टाटा कई हजार करोड़ रूपए की लागत से एक नई विमानन कंपनी खोलना चाहते हैं।
मित्रों,आपने दोनों दृश्य देखे। आशा है कि आप मेरे आलेख के विषय से अवगत हो गए होंगे तो अब हम आते हैं विषय पर। हिन्दी में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध रही है-पर उपदेश कुशल बहुतेरे। आपने टाटा टी का वह विज्ञापन हजारों बार अपने टेलीवीजन पर देखा होगा जिसमें कि कंपनी देशवासियों से बड़ी ड्यूटी और छोटी ड्यूटी पूरी करने के लिए बड़े ही नाटकीय तरीके से अपील करती है। लेकिन ऊपर के दोनों सच्चे दृश्य तो चीख-चीख कर यह कह रहे हैं कि कंपनी खुद ही अपनी छोटी ड्यूटी को पूरा नहीं कर रही है। कितना बड़ा विरोधाभास है कि एक तरफ तो दैत्याकार भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ नकदी के पर्वताकार ढेर पर बैठी हैं वहीं कंपनी ने अपने गरीब कर्मचारियों को भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। वे बेचारे न तो नौकरी छोड़ ही सकते हैं और न तो कर ही सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि घाटो कोलियरी में ट्रेड यूनियन न हों लेकिन वे सबके सब या तो क्रीतदास हैं या फिर भयभीत।
मित्रों,हम भी यही चाहते हैं कि टाटा कंपनी खूब फूले-फले,टाटा परिवार के लिए हर दिन होली और हर रात दिवाली हो मगर हम यह नहीं चाहते कि वह होली और दिवाली कंपनी अपने मजदूरों की झोपड़ियों को फूँककर मनाए। क्या विडंबना है कि टाटा के पास बड़ी ड्यूटी पूरी करने के लिए अर्थात् नया एयरलाइंस खोलने के लिए तो बहुत पैसा है लेकिन कई दशकों से उसकी आर्थिक उन्नति में योगदान दे रहे अपने कर्मचारियों के लिए उसकी अंटी में चंद खुल्ले भी नहीं हैं। क्या रतन टाटा या साइरस मिस्त्री ने कभी सोंचा है कि दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ती महँगाई के युग में वे कर्मचारी सपरिवार अपनी बची-खुची जिंदगी कैसे काटेंगे,अपनी प्राणरक्षा भी कैसे कर पाएंगे जिनका वेतन उन्होंने अचानक आधा या चौथाई कर दिया है? उनमें से कुछ कर्मचारियों का वेतन तो रतन टाटा के जमाने में ही यानि कुछ महीने पहले ही आधा कर दिया गया था और जो उस समय बच गए थे उनका वेतन अब एक चौथाई कर दिया गया है क्योंकि कंपनी वेतन आधा करने के साथ ही रतन टाटा युग में कटौती नहीं कर पाने की अपनी भूल को भी सुधार रही है।
मित्रों,रतन टाटा जी या मिस्त्री जी को तो सिर्फ अपने बैलेंस-शीट से मतलब है उन्होंने न तो कभी गरीबी की मार ही झेली है और न ही कभी जानलेवा महँगाई में घटती आमदनी के कारण कभी उनको रोटी के लाले ही पड़े हैं। उनके लिए तो जीवित मजदूर भी जड़ मशीनों के माफिक हैं जिसके न तो मुँह होता है,न तो पेट ही और न तो परिवार ही।
मित्रों,भारतमाता के अनमोल रतन रतन टाटा जी और उनके महान व योग्य उत्तराधिकारी साइरस मिस्त्री जी ने दूसरों को जागने तथा बड़ी और छोटी ड्यूटी पूरी करने का उपदेश देने से पहले क्या कभी सोंचा है कि वे अपनी छोटी ड्यूटी कब पूरी करेंगे? वे स्वयं कब छोटी पत्ती की चाय पीने के लायक होंगे?
मित्रों,लगता है कि यूपीए के मंत्रियों ने पद-ग्रहण के समय संविधान और सत्यनिष्ठा की शपथ नहीं ली थी बल्कि जनता को लूटने की शपथ ली थी। जब बाँकी मंत्री जनता को लूट चुके तब अब बारी आई है रेलमंत्री पवन कुमार बंसल की।
मित्रों,हुआ यह कि अभी कुछ दिन पहले मेरे पिताजी को हाजीपुर से महनार रोड जाना था। पहले इस 30 किमी की दूरी का पैसेन्जर ट्रेन का भाड़ा था 5 रू.। पिताजी ने एक टिकट लिया और 10 का नोट काउंटर क्लर्क को थमाया और इस उम्मीद में कि वह बाँकी के पैसे लौटाएगा खिड़की पर ही खड़े रहे। दरअसल भाड़ा-बढ़ोतरी के बाद वे पहली बार ट्रेन से महनार जा रहे थे। जब उन्होंने देखा कि काउंटर क्लर्क ने उन पर ध्यान दिए बिना ही दूसरे यात्रियों को टिकट देना शुरू कर दिया है तब उन्होंने काउंटर क्लर्क को टोका। जवाब में उसने कहा कि पहले टिकट को तो देखिए कि उस पर कितना भाड़ा दर्ज है। टिकट पर तो सचमुच 10 रू. लिखा हुआ था अर्थात् भाड़ा सीधे दोगुना हो गया था। काउंटर क्लर्क ने उनको यह भी बताया कि अब पैसेन्जर ट्रेन का भाड़ा राउंड फिगर में 10 के अपवर्त्य में हो गया है।
मित्रों,अब आप पैसेन्जर अथवा लोकल ट्रेन से एक स्टेशन जाईए या 5 स्टेशन आपको कम-से-कम 10 रू. तो देना ही पड़ेगा। फिर 10 रू. के बाद भाड़ा सीधे 20,30,40,50......हो जाएगा। अगर आपको एक ही स्टेशन बाद उतरना है और आपको यह राउंड फिगर नागवार गुजर रहा है तो आपकी बला से। आपको बीच के स्टेशनों के लिए 10 रू. या 20 रू. देना अखर रहा है तो आपको उस अंतिम स्टेशन तक की यात्रा करनी चाहिए जहाँ तक का भाड़ा 10 रू. या 20 रू. है। क्या कहा वहाँ का आपको काम नहीं है तो इसमें इसमें रेलमंत्री की क्या गलती है,वहाँ का काम निकालिए?
मित्रों,अब तक तो हमने सिर्फ कहावतों में ही सब धन बाईस पसेरी सुना था लेकिन रेलमंत्री ने तो सारी दूरियों का भाड़ा एकसमान करके सचमुच इस महान कहावत को चरितार्थ कर दिया है। ठीक उसी तरह जैसे सवा सौ साल पहले रचित भारतेन्दु के नाटक अंधेर नगरी में महान राजा ने सभी वस्तुओं के मूल्यों को टके सेर कर दिया था.
मित्रों,हम सभी जानते हैं कि रेलवे और खासकर पैसेन्जर ट्रेन गरीबों की सवारी है। अमीर प्राईवेट गाड़ियों में चलते हैं वे क्यों पैसेन्जर ट्रेन में चढ़ने लगे? वैसे भी पैसेन्जर ट्रेनों और उनमें लगे डिब्बों की संख्या कम होने और बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में वर्तमान सरकार द्वारा बढ़ोतरी नहीं किए जाने से पैसेन्जर ट्रेनों से यात्रा करना दिनानुदिन घोर कष्टदायक होता जा रहा है। जाहिर है मंत्रीजी के पागलपन का सीमान्त गरीबों और घोर गरीबों को ही भुगतना पड़ा रहा है। उन्हीं गरीबों को जिनका सच्चा प्रतिनिधि होने का दावा कांग्रेस पार्टी दशकों से करती रही है। तो क्या कांग्रेस का गरीब अथवा गरीबी-प्रेम धोखा है,ढोंग है,छलावा है?
मित्रों,अगर मंत्रीजी को देश की गरीब जनता को लूटना ही था तो रात में उनके घरों पर जाकर डाका डालते। आखिर हर काम का एक तरीका होता है। आखिर लुटेरों की भी कोई आचार-संहिता होती है,यह भी कोई तरीका हुआ लूटने का। आपने एक्सप्रेस और मेल ट्रेनों का भाड़ा बढ़ाया कोई बात नहीं,पैसेन्जर का भी भाड़ा बढ़ाया कोई बात नहीं लेकिन भाड़ा को दूरी के अनुसार बढ़ाना चाहिए था। स्वयं भारत सरकार द्वारा बनाई गई समिति की रिपोर्ट कहती है कि भारत की आजादी के 70 साल बाद भी,20 साल के उदारवाद के बाद भी देश की 80% जनता 20 रू. प्रतिदिन या उससे भी कम दैनिक आय पर गुजारा करती है फिर क्या मंत्री जी बताएंगे कि वह गरीब जनता एक-दो किमी का भाड़ा 10 रू. कहाँ से चुकाएगी? क्या सरकार इस प्रकार स्वयं ही बेटिकट यात्रा को प्रोत्साहन नहीं दे रही है? प्रश्न यह भी है कि जो व्यक्ति पैसेन्जर ट्रेन से सिर्फ एक या दो स्टेशनों की यात्रा करता है वो क्यों 5-6 स्टेशनों की यात्रा का भाड़ा दे? क्या उनकी ट्रेन से चलने की मजबूरी या उनकी गरीबी का अनुचित लाभ उठाना नैतिक है? खैर केन्द्र की वर्तमान लुटेरी सरकार के लुटेरे मंत्रियों से तो नैतिक-कर्म की अपेक्षा रखना ही मूर्खता होगी।
मित्रों,पाकिस्तान के प्रधानमंत्री परवेज अशरफ की भारत यात्रा के विरोध में अजमेर शरीफ दरगाह के दीवान जेनुअल अबीदीन भी खड़े हो गए हैं। अबीदीन ने कहा है कि उन्होंने फैसला किया है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के दरगाह पर आने का वो विरोध करेंगे। अबुदीन ने साथ ही कहा कि वो प्रधानमंत्री के लिए जियारत भी नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि अगर मैं पाकिस्तान के पीएम की जियारत में मदद करता हूं, तो यह उन शहीदों का अपमान होगा जिनका सिर एलओसी पर पाकिस्तानी सैनिकों ने काट लिया था। उन्होंने कहा, 'पाकिस्तान ने हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाई और भारत के विरोध जताने के बावजूद दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।' दीवान अबीदीन ने कहा कि ऐसे समय में जब पाकिस्तान की वजह से देशों के बीच तनाव चरम पर है, तो यह आम राय है कि पाकिस्तान को भारत सरकार, हमारी सेना, शहीदों के परिजनों और सभी नागरिकों से माफी मांगनी चाहिए और इसके बाद प्रधानमंत्री को जियारत के लिए आना चाहिए। 'इससे पहले शहीद हेमराज के परिवार ने इस यात्रा का कड़ा विरोध किया है। सवाल राजनीति के गलियारों से भी उठ रहे हैं कि जब यह पाकिस्तान पीएम की निजी यात्रा है, तो फिर विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद उनकी शान में दावत क्यों दे रहे हैं? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अजमेर शरीफ की दरगाह पर जियारत के लिए पूरे परिवार के साथ आ रहे हैं। वे ख्वाजा के दर पर चादर चढाएंगे, लेकिन उनकी इस यात्रा से देश का दर्द एक बार फिर उभर आया है। अभी दो महीने पहले ही पाकिस्तानी सेना ने हमारे दो जवानों के सर कलम कर दिए थे। इस घटना के बाद सरहद से लेकर सियासी गलियारों तक तनाव बढ़ गया था। शहीदों के परिवार वाले राजा परवेज अशरफ की इस यात्रा का विरोध कर रहे हैं। उनकी शान में विदेश मंत्री जो भोज देने वाले हैं, उससे परिवार आहत है।
मित्रों,जब राजनैतिक गलियारों में परवेज अशरफ के आथित्य पर सवाल उठ ही रहे हैं तो लगे हाथों एक सवाल हम भी उठा देते हैं कि अजमेर शरीफ दरगाह के दीवान जेनुअल अबीदीन और भारत सरकार में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद में से कौन देशभक्त है? मैंने जानबूझकर यह सवाल नहीं उठाया है कि इन दोनों में से ज्यादा देशभक्त कौन है और ऐसा इसलिए किया है क्योंकि यह जगजाहिर है कि खुर्शीद केवल गांधी-नेहरू परिवार के भक्त हैं। मैं शुरू से ही यह कहता आ रहा हूँ कि भारत के सारे मुसलमान भारत-विरोधी नहीं हैं जैसे कि भारत के सारे हिन्दू देशभक्त नहीं हैं। उदाहरण के लिए हमारे पूर्व वायुसेनाध्यक्ष श्री एसपी त्यागी भी हिन्दू ही हैं लेकिन वीवीआईपी हेलीकॉप्टर घोटाले में उनका कृत्य़ देशद्रोही वाला ही है। हमें भारत के सारे मुसलमानों को एक ही तराजू पर तौलने का प्रयास कतई नहीं करना चाहिए। हर धर्म और समाज में कुछ लोग अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे भी। इसलिए हमें अपने जेनुअल अबीदीन जैसे देशवासियों पर गर्व करना चाहिए और उनके मातृभूमि-प्रेम को सलाम करना चाहिए। मैं अपने आसपास के तमाम आम मुसलमानों को देखता हूँ तो सारे-के-सारे जेनुअल अबीदीन की तरह के ही हैं। मैंने अपनी शादी में भी एक मुस्लिम बैंड को ही बुलाया था और मुझे आज भी वो लम्हा याद है कि ओम जय जगदीश हरे की धुन को उनलोगों ने कितनी भक्ति से बजाया था। बैंड के संचालक मो. सिराज आज भी जब पिताजी को देखते हैं तो हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं वालेकुमअस्सलाम नहीं करते। ऐसे मुसलमानों को देखकर अगर हमारा सिर भी श्रद्धा और प्रेम से झुक जाता है तो मैं इसमें कुछ भी गलत नहीं मानता। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी अक्सर कहा करते थे कि मुझे ऐसे मुसलमानों से समस्या नहीं है जो भारत से प्यार करते हैं बल्कि मुझे तो ऐसे मुसलमानों से समस्या है जो जब बरसात लाहौर में होती है तो छाता दिल्ली में तान लेते हैं।
मित्रों,आश्चर्य है कि अजमेर शरीफ दरगाह के दीवान जेनुअल अबीदीन के पुरजोर विरोध के बाद भी भारत की सरकार को यह समझ में नहीं आया कि भारत की आम जनता के साथ-साथ भारत का मुसलमान भी क्या चाहता है और वह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के सम्मान में भोज दे रही है। खुर्शीद साहब को शायद अब भी भ्रम है कि भारत का मुसलमान प्रत्येक स्थिति में पाकिस्तान से दोस्ती चाहता है और अगर वे देशहित को ताक पर रखकर पाकिस्तानी नेताओं से प्यार की पिंगे बढ़ाते हैं तो मुसलमान उनकी ही पार्टी को वोट दे देगा। खुर्शीद साहब भारत के आधे मुसलमान तो पहले से ही आप धर्मनिरपेक्षतावादियों की करतूतों से वाकिफ थे और जो अब भी मुगालते में थे वे कुंडा (उत्तर प्रदेश) में डीएसपी जिया उल हक की समाजवादी पार्टी के गुंडों द्वारा नृशंस हत्या के बाद उससे बाहर आ गए होंगे। इसलिए अब पाक से दोस्ती का नापाक कार्ड खेलना बंद करिए और हो सके तो नेहरू-गांधी परिवार का भक्त बनने के बदले देशभक्त बनिए। गंदी सियासत करने के बजाए देशहित को सर्वोपरि बनाईए वरना वक्त बाद में आपको और आपकी पार्टी को पछताने का अवसर भी नहीं देगा।
मित्रों,इन दिनों नीतीश बनाम मोदी की चर्चा खूब जोरों पर है। कुछ लोग दोनों के कथित विकास-मॉडल की तुलना करने में लगे हुए हैं। ऐसा करनेवाले वे लोग हैं जो जानते ही नहीं हैं कि नीतीश कुमार ने बिहार को क्या दिया है और बिहार के किन-किन क्षेत्रों को विनष्ट कर दिया है,बिहार से क्या-क्या छीन लिया है। बिहार की हकीकत को सिर्फ वही समझ सकता है जो बिहार में रह कर इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता हो वरना मीडिया के माध्यम से बिहार की वास्तविकता को जानना और समझना असंभव है क्योंकि नीतीश कुमार ने मीडिया को ही खरीद लिया है।
मित्रों,पहली बात कि नीतीश जब बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तब बिहार पूरी तरह से बर्बाद हो चुका था और उसकी विकास-दर लगभग शून्य थी। इसलिए जो भी सड़कों और छोटे पुलों के बनने से विकास हुआ विकास-दर काफी तेज दर्ज हुई। जब भी कोई रूकी हुई गाड़ी चलेगी तो भले ही उसकी गति अन्य पहले से ही तेज गति से चल रही गाड़ियों की तुलना में काफी कम हो उसका त्वरण तो ज्यादा रहेगा ही। हम सभी जानते हैं कि 0 किमी/घंटे की रफ्तार से चल रही गाड़ी की गति को 20 या 40 किमी/घंटे पर ले जाना आसान है लेकिन 200 किमी/घंटे की रफ्तार को 205 करना भी बहुत मुश्किल होता है। बिहार जहाँ 0 से 20-40 पर पहुँचा है वही गुजरात 200 से 205 पर फिर भी लोग पागलों की तरह बिहार के विकास-मॉडल को गुजरात के विकास-मॉडल से ज्यादा महान साबित करने में लगे हुए हैं। जबकि नीतीश कुमार खुद भी अपने मुँह से सैंकड़ों बार यह कह चुके हैं कि इसी विकास-दर से अगर बिहार लगातार 25 सालों तक विकास करता रहा तब जाकर वह प्रति व्यक्ति आय के मामले में राष्ट्रीय औसत पर पहुँचेगा।
मित्रों,बिहार में जो लोग रहते हैं वे जानते हैं कि नीतीश ने वास्तव में बर्बाद बिहार को और भी बर्बाद करके रख दिया है। बिहार में ऐसा कोई भी महकमा नहीं जो ठीक काम कर रहा हो। बिहार में दर्ज होनेवाले एफआईआर इस बात के गवाह हैं कि बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति एक बार फिर से बिगड़ गई है। फिर से बिहार का अपहरण-उद्योग चालू हो गया है अंतर इतना ही है कि बिका हुआ मीडिया अब इस तरह के मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाता बल्कि दबा देता है। बिहार में घुसखोरी चरम पर है, लोग आज भी अपराधियों से कम पुलिस से ज्यादा डरते हैं, पुलिस थानों के देखकर लोगों का सिर श्रद्धा से नहीं झुकता बल्कि मुँह से स्वतःस्फूर्त भाव से गालियाँ निकलने लगती हैं,आरटीआई फेल है,आरटीआई कार्यकर्ताओं को जेल है,ग्राम-प्रधान एक ही कार्यकाल में खाकपति से करोड़पति बन जा रहे हैं,इन्दिरा आवास नहीं बनता लेकिन इस मद में पैसे जरूर खर्च हो जा रहे हैं,दूध की गंगा के बदले बिहार में शराब की नदी बह रही है,गाँव-गाँव में शराब की दुकानें खुल गई हैं और नीतीश कुमार फरमाते हैं कि शराब नहीं बेचेंगे तो विकास के लिए पैसा कहाँ से आएगा,इसके साथ ही उनका यह भी कहना है कि वे इन दुकानों से माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शराब उपलब्ध करवा रहे हैं, फिर भी बिहार में हर महीने दर्जनों गरीब-गुरबा जहरीली शराब पीने से मर रहे हैं। बिहार के स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षक नहीं हैं। बिहार के प्राथमिक विद्यालयों में आज भी ज्यादातर ऐसे शिक्षक नौकरी कर रहे हैं जिनकी नियुक्ति नीतीश के राज में हुई है और जिनके प्रमाण-पत्र नकली हैं अथवा जो ग्राम-प्रधानों के भ्रष्टाचार के कारण नौकरी पा गए हैं। बिहार सरकार में आज भी बिना रिश्वत लिए नौकरी नहीं दी जाती। ताजा प्रमाण बिहार कर्मचारी चयन आयोग द्वारा ली गई सचिवालय सहायक की परीक्षा है जिसमें पैसे लेकर परीक्षा के बाद कॉपियों में हेराफेरी की गई फलस्वरूप पटना उच्च न्यायालय ने नियुक्ति पर रोक लगा दी है। बिहार के आयोगों के घुसखोर सदस्य आज भी इतने अयोग्य हैं कि वे 100-150 त्रुटिरहित प्रश्न भी नहीं चुन पाते। बिजली के बारे में पिछले 8 सालों से सिर्फ दावे और वादे ही किए जा रहे हैं, दलित मंत्री अपने दलित नौकर को अपनी गाय द्वारा बुरी तरह से घायल कर देने पर उसका ईलाज नहीं करवाता बल्कि मरने के लिए उसके घर पर फेंकवा देता है और फिर भी मंत्री बना रहता है। नीतीश शासन-काल में बिहार में एक भी उल्लेखनीय वृहत-उद्योग नहीं लगा है। बिहार में सारी योजनाएँ भ्रष्टाचार की शिकार हैं। बिहार के डॉक्टरों ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की राशि को हड़पने के लिए हजारों कुंआरी कन्याओं के गर्भाशय निकाल लिए फिर भी नीतीश मूकदर्शक बने हुए हैं। मनरेगा में काम करनेवाले 90 प्रतिशत मजदूर फर्जी हैं,जाँच में यह साबित भी हो चुका है फिर भी नीतीश मूकदर्शक हैं। पटना में नाली-निर्माण शुरू हुए पाँच साल से ज्यादा हो गए लेकिन निर्माण पूरा नहीं हुआ है। नीतीश की धर्मनिरपेक्षता भी दिखावा है। जब फारबिशगंज में उनकी पुलिस मुसलमानों का संहार कर रही थी तब नीतीश कहाँ थे?
मित्रों,कुल मिलाकर नीतीश शासन ऊपर से तो फिटफाट है मगर भीतर से सिमरिया घाट है। जैसे दूर के ढोल सुहावन लगते हैं वैसे ही हमारे कुछ मित्रों को नीतीश का शासन अद्वितीय और अभूतपूर्व लग रहा है। बिहार में नीतीश के समय हुआ विकास बस इतना ही है कि सड़कों के गड्ढे समाप्त हो गए हैं,नई सड़के बनीं हैं और छोटे-मोटे सैंकड़ों पुल बनाए गए हैं,बस। हाँ नीतीश बातें जरूर बड़ी-बड़ी कर रहे हैं। वे जनता को जरूर सब्जबाग दिखा रहे हैं। नीतीश कुमार ने बिहार की शिक्षा का पूर्ण विनाश कर दिया है और पूरे बिहार को शराबी बना दिया है। यह शराब से मिलने वाला कर ही है जिससे बिहार का खर्च चल रहा है। अगर किसी प्रदेश का विनाश कर देना ही विकास है तो मानना ही पड़ेगा कि नीतीश ने बिहार का अद्भुत विकास किया है। तब निस्सन्देह उनके समय में बिहार का अभूतपूर्व विकास हुआ है। अगर बिहार कर्मचारी चयन आयोग को बिहार कुर्मी चयन आयोग बना देना है विकास है तो निश्चित रूप से बिहार नीतीश के समय तीव्र विकास के पथ पर अग्रसर है।
मित्रों,क्या विडंबना है कि जिस भारत से दुनियाभर के लोग घनघोर वैश्विक मंदी में विकास का ईंजन बनने की उम्मीद लगा रहे थे उसकी अर्थव्यवस्था आज स्वयं मंदी के दलदल में जा फँसी है। जब वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम बजट पेश करने जा रहे थे तो दुनियाभर के अर्थव्यवस्था-विशेषज्ञों की निगाहें इस बात पर लगी थीं कि मंदी से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था में विद्यमान चार महती समस्याओं को दूर करने के लिए वे कौन-कौन से कदम उठाने जा रहे हैं। वे चार समस्याएँ थीं-कमरतोड़ महंगाई,राजकोषीय घाटा,खतरनाक स्तर तक बढ़ता भुगतान-असंतुलन और लगातार गोतें खाता विकास-दर। दोस्तों हम बारी-बारी से इन चारों समस्याओं को केंद्र में रखते हुए ही 2013-14 के बजट की समीक्षा करेंगे।
मित्रों,गलत आर्थिक नीतियों का दुष्परिणाम कहिए या जानबूझकर पूरे होशोहवाश में की गई गलती; सरकार ने जनता का घरेलू बजट तो पहले से ही बिगाड़ रखा है। महंगाई लंबे समय से अपनी पूरी जवानी पर है लेकिन बजट में महंगाई कम करने के लिए कोई रणनीति नहीं है। लगता है कि जैसे हमारी केन्द्र सरकार ने आतंकी हमलों को नियति मानते हुए तहेदिल से स्वीकार कर लिया है वैसे ही महंगाई को भी उसने अवश्यम्भावी मान लिया है लेकिन वह यह भूल गई है कि ऊँचे ब्याज-दर ने कर्ज को महंगा बना दिया हे जिसका असर निवेश और विकास-दर पर भी पड़ रहा है। जब तक महंगाई नहीं घटेगी,ब्याज-दर भी नहीं घटेगा और सोना सर्वाधिक रिटर्न देनेवाला निवेश बना रहेगा। ब्याज-दर नहीं घटेगा तो निवेश नहीं बढ़ेगा और निवेश नहीं बढ़ेगा तो न तो उत्पादन ही बढ़ेगा,न तो आपूर्ति ही बढ़ेगी और न तो रोजगार ही जिससे मांग भी नहीं बढ़ेगी। वैसे भी तेज महंगाई-दर के कारण यूँ ही मांग में कमी आ गई है और मांग नहीं बढ़ेगी तो निवेशकों को अपने निवेश पर रिटर्न नहीं मिलेगा। कुल मिलाकर केंद्र सरकार की मूर्खता के कारण इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक गंभीर दुष्चक्र में फँसी हुई है।
मित्रों,इस समय देश के समक्ष सबसे बड़ी समस्या चालू खाते में भुगतान संतुलन की है। आज इस संदर्भ में हमारी स्थिति 1991 से भी ज्यादा खराब है। हमारी अर्थव्यवस्था अर्दब (कुश्ती का एक ऐसा दाँब जिसका कोई तोड़ नहीं है) में फँस गई है। जहाँ 1991 में सरकार सोना के विदेश जाने (गिरवी पड़ने) से परेशान थी अब उसके देश में आने से परेशान है। सोना देश में आ रहा है और बदले में डॉलर देश से बाहर जा रहा है। तेल आयात तो आवश्यक आवश्यकता है उसे तो रोक नहीं सकते और सरकार लाख कोशिशों के बाबजूद देश में सोने के आयात को हतोत्साहित नहीं कर पा रही है। 1991ई. में तो वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति इंद्रधनुषी थी जिसने भारत की गिरती अर्थव्यवस्था को कुछ कीमत चुकाने के बाद सहारा दे दिया था मगर आज तो यूरोप और अमेरिका खुद ही परेशान हैं और भारत की ओर ही उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। ऐसे में अगर भारत दिवालिया होता है तो शायद इस समय उसको कोई सांत्वना देनेवाला कंधा भी नहीं मिलेगा।
मित्रों,भारत के सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों में से एक हमारे वित्त-मंत्री पी.चिदंबरम ने भी भुगतान संतुलन को ठीक करने में अपनी असमर्थता ही दिखाई है। उनका मानना है कि जब तक हमारा निर्यात नहीं बढ़ता हम इस दिशा में सिवाय अपना जनाजा निकलते देखने के कुछ भी नहीं कर सकते। जाहिर है कि सरकार निर्यात के लिए नए बाजार नहीं तलाश पाई है। ज्यादा समय नहीं गुजरा जब हमारी केंद्र सरकार बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार से परेशान थी। अगर हमने भी चीन की तरह विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाना जारी रखा होता तो शायद हमारी स्थिति भुगतान-संतुलन के क्षेत्र में इतनी बुरी नहीं होती जितनी कि आज है। जाहिर है कि इस मामले में हमारे नीति-नियंताओं से गंभीर गलती हुई है।
मित्रों,देश के समक्ष तीसरी सबसे बड़ी समस्या थी राजकोषीय घाटे को कम करने की तो इसको हमारी सरकार ने सरकारी योजना-व्यय में कमी करके और विनिवेश द्वारा साध लिया है। एक तरफ जहाँ देश में बेरोजगारी खतरनाक शक्ल अख्तियार कर रही है वहीं दूसरी तरफ सरकार सरकारी खर्चे में कटौती कर रही है जाहिर है कि इससे यह समस्या और बढ़ेगी और अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब दुनिया का सबसे युवा मुल्क होना भारत के लिए वरदान के बदले अभिशाप में बदल जाएगा।
मित्रों,इस चालू वित्तीय-वर्ष 2012-13 में राजकोषीय घाटे को पाटने की कवायद का सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है रक्षा पर होने वाले खर्च को। वह भी ऐसे समय में जबकि हमारे पड़ोसी चीन और पाकिस्तान इस क्षेत्र में अंधाधुंध व्यय कर रहे हैं। जाहिर है कि हमारी सरकार को देश की सुरक्षा की भी चिंता नहीं है। अगर होती तो भारत आज विश्व का सबसे बड़ा हथियार-आयातक नहीं होता बल्कि सबसे बड़ा हथियार-उत्पादक होता।
मित्रों,अभी परसों ही जब वित्त-मंत्री बजट प्रस्तुत कर रहे थे तभी यह खबर आई कि हमारी जीडीपी ने एक बार फिर गोता खाया है। अक्टूबर-दिसंबर में जीडीपी में वृद्धि मात्र 4.5 प्रतिशत की रही। अभी फरवरी के पहले सप्ताह में जब सीएसओ ने विकास-दर के 5 फीसदी रहने का ताजा अनुमान लगाया था तब वित्त मंत्री को यह बात नागवार गुजरी थी। उन्होंने इस आँकड़े को एक तरह से गलत करार देते हुए दावा किया था कि अर्थव्यवस्था 5.5% की दर से बढ़ेगी। गुरूवार को जारी ताजा आँकड़ों ने उनके इस दावे की हवा ही निकाल दी है। बदले हुए माहौल में वित्त मंत्री का बजट में 5% विकास-दर का अनुमान भी संशय के घेरे में आ गया है। वित्त मंत्री का यह मानना तो है कि देश के समक्ष तेज जीडीपी विकास-दर का कोई विकल्प नहीं है लेकिन उन्होंने बजट में इसका कोई मार्ग नहीं सुझाया है कि ऐसा होगा कैसे? माना कि दुनिया में चीन और इंडोनेशिया के अलावा इस समय ऐसा कोई देश नहीं है जो भारत की तरह 5% की विकास-दर से आगे बढ़ रहा हो लेकिन इससे 5% की विकास-दर तेज की श्रेणी में तो नहीं आ जाएगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर जीडीपी और गोतें खाता है तो हमारी 2% वार्षिक की गति से बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर हमारी प्रति व्यक्ति आय में भी गिरावट आने लगेगी जो किसी भी दृष्टिकोण से अच्छा नहीं होगा।
मित्रों,कुल मिलाकर 2013-14 का केंद्रीय बजट दिशाहीन और यथास्थितिवादी है। काले धन पर सरकार ने कुछ नहीं कहा है। सरकार ने इसमें विदेशी निवेश लाने की बात तो की है जो 20-25 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा नहीं होनेवाली वहीं उसके पास भारतीय उद्योगपतियों के पास जमा दसियों लाख करोड़ की फाजिल रकम के निवेश से संबंधित कोई योजना नहीं है। इस बजट में समस्याएँ तो गिनाई गईं हैं लेकिन समाधान गायब है। साहित्यिक भाषा में कहें तो यह बिना ईंजन की गाड़ी के समान है। वित्त मंत्री ने बजट में मौजूदा आर्थिक समस्याओं का कोई हल नहीं सुझाया है और सबकुछ भगवान भरोसे या परिस्थितियों पर छोड़ दिया है। हालाँकि करोड़पतियों पर अतिरिक्त कर लगाया गया है लेकिन उनकी संख्या मात्र 42 हजार होना खुद ही हमारी कर-व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह है। जाहिर है कि सरकार करोड़पतियों द्वारा की जा रही करचोरी को पकड़ नहीं पा रही है और बेबश है। कुल मिलाकर बेलगाम महंगाई इस साल भी बेलगाम ही रहनेवाली है,भुगतान-संतुलन की स्थिति और भी खराब होनेवाली है और जीडीपी गुड़गुड़ गोते खाते रहने वाली है। होना तो यह चाहिए था कि वित्त मंत्री न्यू-डील जैसी कोई वृहत निर्माणकारी योजना पेश करते जिसमें सिंचाई,हाईडल प्रोजेक्ट,नई रेल लाईनें,बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण,बंदरगाह निर्माण और वृहत ऊर्जा (नवीकरणीय सहित) परियोजनाएँ शामिल होतीं। वर्ष 1929 में अमेरिका की भी यही स्थिति थी। वहाँ भी मुद्रा-स्फीति काफी ज्यादा थी, बेरोजगारी खतरनाक स्तर पर पहुँच रही थी और जीडीपी गोते खा रही थी तब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति फैंकलिन डिलानो रूजवेल्ट ने न्यू-डील के माध्यम से वृहत और दैत्याकार निर्माण योजनाओं का संचालन कर अमेरिका को मंदी के चक्रव्यूह से बाहर निकाला था परन्तु पी.चिदंबरम ने तो जैसे परिस्थितियों के आगे घुटने ही टेक दिए हैं। कहने को तो बुनियादी ढाँचे पर व्यय को बढ़ाया गया है लेकिन इतनी छोटी वृद्धि से दैत्याकार भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई भला नहीं होने वाला।
मित्रों,भारत की दूसरी साईबर राजधानी हैदराबाद में पिछले दस सालों में पाँचवीं बार बम फटे आज 8 दिन बीत चुके हैं। इस बीच हमारे प्रधानमंत्री म(हा)नमोहन सिंह जहाँ कड़े कदम उठाने की औपचारिक घोषणा कर चुके हैं वहीं भारत के अब तक के सबसे (ना?) लायक गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे दोषियों को कड़ी सजा देने का (झूठा?) वादा भी कर चुके हैं। परन्तु अब तक भारत सरकार और आंध्र प्रदेश सरकार की सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की जाँच एक ईंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है। वे लोग अभी भी दावे के साथ यह कह सकने की स्थिति में नहीं हैं कि इस आतंकवादी घटना में कौन-कौन से संगठन और लोग शामिल थे। प्रश्न उठता है कि घटना के बाद आतंकवादी कहाँ गायब हो गए? उनको जमीन खा गई या आसमान निगल गया? इस तरह की कोई भी घटना का बिना स्थानीय लोगों की सहायता के घट जाना संभव ही नहीं है। तो क्या केंद्र और आंध्र प्रदेश की सरकारों को सचमुच यह पता नहीं है कि इसमें कौन-कौन से देशी-विदेशी लोग शामिल थे अथवा वो इतनी बड़ी संख्या में
अमूल्य मानव-जिंदगियों को खोने के बाद भी वोटबैंक की राजनीति के चलते पता नहीं होने का ढोंग कर रही हैं? क्या हमारी सरकारें और सरकारी एजेंसियाँ सिम्मी,इंडियन मुजाहिद्दीन, जमात उद दावा या अन्य आतंकी संगठनों के देश में मौजूद स्लीपर और जागृत एजेंटों के बारे में सचमुच कुछ भी नहीं जानती हैं या फिर वे सबकुछ जानते हुए जानबूझकर अनजान बन रही हैं? दरअसल दोनों ही स्थितियाँ देश के लिए खतरनाक हैं। अगर एजेंसियों को आतंकियों का पता पता नहीं है तो फिर इन एजेंसियों का औचित्य ही क्या रह जाता है? फिर क्यों जनता खर्च करे इनकी स्थापना और संचालन पर सालाना करोड़ों रुपए? इसी प्रकार अगर दूसरी बात सही है तब तो सीधे सरकार की नीति और नीयत पर ही प्रश्न-चिन्ह लग जाता है।
मित्रों,इसी बीच गजब का दुस्साहस दिखाते हुए मौत के सौदागरों ने भारत की दो कद्दावर हस्तियों को धमकी दी है। जहाँ भारत की दूसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी को जमात उद दावा ने फोन करके अपने सरगना श्री (बतौर दिग्गी) हाफिज मोहम्मद सईद साहब (बतौर शिंदे) के खिलाफ मुँह नहीं खोलने की खुली चेतावनी दी है वहीं भारत के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी को इंडियन मुजाहिद्दीन ने बाजाप्ता प्रेम-पत्र भेजकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से दूरी बनाने अन्यथा अंजाम भुगतने को तैयार रहने की धमकी दी है। अब तो प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हमारे देश की राजनीति और अर्थनीति का संचालन निकट भविष्य में जमात उद दावा और इंडियन मुजाहिद्दीन जैसे आतंकी संगठन करेंगे और फिर भी हमारी केंद्र सरकार मूकदर्शक बनी रहेगी? क्या इसे भारत की संप्रभुता को सीधी चुनौती नहीं समझा जाना चाहिए? अगर नहीं तो क्यों?
मित्रों,केंद्र में खुफिया एजेंसियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है,राज्यों में अलग से खुफिया एजेंसियाँ हैं फिर भी आतंकी घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। एजेंसियों का नकारापन यहाँ तक बढ़ गया है कि ये एजेंसियाँ न तो घटनाओं से पहले उसका पता लगा पाती हैं और न ही घटनाओं के बाद दोषियों को गिरफ्तार ही कर पा रही हैं और हमारे केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे हैं कि राष्ट्रीय आतंक निरोधक केंद्र के गठन का राग अलाप रहे हैं। मानो इसका गठन नहीं हो पाने के कारण ही आतंकी घटनाएँ हो रही हैं और इसका गठन होते ही आतंकी घटनाएँ स्वतः रूक जाएंगी क्योंकि तब आतंकी स्वतःस्फूर्त भाव से भयभीत हो जाएंगे। इस प्रकार भारत को नियमित अंतराल पर होनेवाली आतंकी घटनाओं से हमेशा के लिए निजात मिल जाएगी।
मित्रों,शायद शिंदे साहब नहीं जानते हैं (वैसे वे परमज्ञानी हैं) कि सिर्फ एजेंसियों की संख्या बढ़ाकर और उनको अत्याधुनिक हथियारों से लैस कराकर आतंकी घटनाओं को घटने से नहीं रोका जा सकता है। उसके लिए तो उनकी सरकार को देशहित को चुनावी हितों से ज्यादा अहमियत देनी पड़ेगी;इरादों को फौलादी बनाना पड़ेगा तब जाकर भारत-विरोधी देशी-विदेशी आतंकवादियों का मनोबल टूटेगा। श्री मनमोहन सिंह और शिंदे साहब जी अगर अमेरिका के खिलाफ 11 सितंबर,2001 के पूर्व और उपरांत कोई आतंकी हमला नहीं होता है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वहाँ की सरकार के लिए एक-एक अमेरिकी का जीवन अमूल्य है और वे उसकी रक्षा के लिए किसी भी हद से गुजर जाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।