मित्रों,आपने भी किताबों में पढ़ा होगा कि भारत में इस समय लोकतंत्र है और इस समय सुशील कुमार शिंदे भारत के गृह मंत्री हैं। आपको क्या लगता है कि किताबों में लिखी गई ये बातें सही हैं? मुझे तो लगता है कि भारत में इस समय भी राजतंत्र है और श्री शिंदे किसी लोकतांत्रिक सरकार के नहीं बल्कि किसी राजा या रानी के मंत्री हैं। देश के प्रति कोई जिम्मेदारी या वफादारी नहीं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर शिंदे किससे पूछकर इस संकट काल में अमेरिका में रूक गए? क्या गृह मंत्री होने के नाते यह उनका कर्त्तव्य नहीं था कि वे 25 मई को ही अमेरिका से भारत वापस आ जाते? कोई मामूली घटना नहीं घटी है देश पर हमला हुआ है बकौल सोनिया गांधी भारतीय लोकतंत्र पर हमला हुआ है और भारत का गृह मंत्री जिसके कंधों पर देश की आंतरिक सुरक्षा की महती जिम्मेदारी होती है विदेश में रंगरलियाँ मना रहा है?
मित्रों,श्री शिंदे पहले भारत के गृह मंत्री हैं या किसी के भाई या बाप? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या उनको सोनिया-राहुल ने वहाँ रूकने की अनुमति दी? मैं नहीं समझता कि बिना सोनिया-राहुल की रजामंदी के शिंदे संडास भी जा सकते हैं। तो क्या यह समझा जाना चाहिए कि शिंदे को खुद सोनिया-राहुल ने ही विदेश में रोक दिया? अगर हाँ तो इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? पहला कारण तो यह हो सकता है कि इन दोनों को शिंदे जी की योग्यता पर भरोसा नहीं है,उनको लगता है कि शिंदे स्थिति को संभाल नहीं पाएंगे और इसलिए उनको लगता हो कि ऐसे नाजुक समय में शिंदे देश से बाहर ही रहें तो अच्छा है वरना यहाँ आकर वे उटपटांग,पागलपन भरा बयान देकर रायता ही फैलाएंगे। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि ये माँ-बेटे समझते हों कि अंधा चाहे सोया रहे या जगा क्या फर्क पड़ता है। फिर प्रश्न यह भी उठता है कि तो फिर ऐसे काम के न काज के वाले व्यक्ति को क्यों केन्द्रीय सरकार में दूसरा सर्वोच्च पद दे रखा है?
मित्रों,मैं न तो कभी केंद्रीय मंत्री रहा हूँ और न ही कभी अमेरिका तो क्या नेपाल भी गया हूँ जो बता सकूँ कि शिंदे जी ने अमेरिका में किस प्रकार छुट्टियाँ मनाई होंगी। गोरी-गोरी मेमों से मसाज करवाकर बुढ़ापे को मुँह चिढ़ाया होगा या डिस्को में बालाओं के साथ डांस किया होगा या फिर किसी बीच पर मुँह औंधे घंटों पड़े रहे होंगे। जो जी चाहे वे करें उनकी जिन्दगी है लेकिन उन्होंने इसके लिए समय जरूर गलत चुना। वे चाहते तो बाद में दोबारा-तिबारा भी अमेरिका जा सकते थे। अब उनसे गलती तो हो ही चुकी है सो लोग चुप तो रहेंगे नहीं और कहनेवाले तो चाहें तो उनकी तुलना मजे में रोम के नीरो से कर सकते हैं और कह सकते हैं कि भाइयों एवं उनकी बहनों निराश मत होईए कि आप रोम के नीरो को नहीं देख सके। आप उसको आज भी देख सकते हैं। मिलिए इनसे ये हैं 21वीं सदी के जीवित नीरो,दुनिया के कथित रूप से सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के गृह मंत्री श्री श्री अनंत सुशील कुमार शिंदे। भूल जाईए नीरो को और उस कहावत को भी आज से एक नई कहावत ने उसका स्थान ले लिया है और वो कहावत अब इस तरह से जाना जाएगा कि जब भारत नक्सली हिंसा की आग में जल रहा था तब भारत का गृह मंत्री शिंदे अमेरिका में छुट्टियाँ मना रहा था,ठंडी हवा खा रहा था।
मित्रों,मैं कई बार लिख चुका हूँ कि हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं। यह समस्या हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है,हमारी एकता और अखंडता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है लेकिन केंद्र सरकार को वोटों का हिसाब लगाने से फुरसत कहाँ। इसलिए तो वो इसे सिर्फ कानून-व्यवस्था की स्थानीय समस्या बताती रही है। उसको अपने प्रचार-तंत्र पर अटूट विश्वास भी है। वो समझती है कि मीडिया में सिर्फ यह बताकर कि सरकार ने गरीबों-आदिवासियों के लिए कितनी योजनाएँ चला रखी हैं नक्सलवाद को समाप्त किया जा सकता है।
मित्रों,मैंने अपने पहले के आलेखों में अर्ज किया है कि आज का नक्सल आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं है बल्कि यह लुम्पेन साम्यवादियों के रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में परिणत हो चुका है। इन पथभ्रष्ट लोगों का साम्यवाद और गरीबों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हाँ,इनका धंधा गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहाँ तक कि स्कूलों में पढ़ाई भी नहीं होने देते। आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर एकछत्र शासन करते हैं वे भला क्यों मानने लगे समझाने से? क्या कोई ऐसी समस्या जिसका विस्तार देश के 20 प्रतिशत भाग पर हो स्थानीय हो सकती है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़ राज्य के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहाँ के नक्सली क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं योजनाएँ क्या जाएंगी? इसलिए बल-प्रयोग कर वहाँ पहले संविधान और कानून का राज स्थापित करना पड़ेगा तब जाकर उन क्षेत्रों में भी 1 रुपया में से 10 पैसा भी जा पाएगा। अब ये दूसरी बात है कि जब संविधान और कानून का सम्मान केंद्र सरकार खुद ही नहीं कर रही है तो फिर वो इनका सम्मान करने कि लिए नक्सलियों को कैसे बाध्य कर पाएगी? कहाँ से आएगा उनके पास इस अतिकठिन कार्य के लिए नैतिक बल जो खुद ही लगातार अनैतिक कार्यों में,गैरकानूनी कृत्यों में आपादमस्तक संलिप्त हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर जेपी और रविशंकर महाराज ने चंबल के डाकुओं से आत्मसमर्पण करवाया था तो अपने नैतिक बल पर ही करवाया था।
मित्रों,यह सच है कि महेन्द्र कर्मा सलवा जुडूम के कारण नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसलिए अगरचे तो उन्हें उनके इलाके में जाना ही नहीं चाहिए था और अगर गए भी तो स्थल-मार्ग से नहीं जाना चाहिए था। जब एक अदना-सा डाकू वीरप्पन अगर जंगल में छिप जाए तो उससे पार पाना कठिन होता है तो फिर नक्सलियों ने तो बाजाप्ता फौजी ट्रेनिंग ले रखी है,फौज बना रखी है। जंगल में सबसे बड़ी कठिनाई यही होती है कि आप उनको नहीं देख रहे होते हैं जबकि वे आपको हर वक्त देख रहे होते हैं। वहाँ जेड प्लस-माईनस का कोई अर्थ नहीं होता। कुछ लोग इस घटना के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं और राजनैतिक लाभ पाना चाहते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि श्रीमती इन्दिरा गांधी की जब हत्या हुई तब तो वे खुद ही प्रधानमंत्री थीं,बेअंत सिंह को जब मारा गया तब तो वे स्वयं पंजाब के मुख्यमंत्री थे फिर उनकी सुरक्षा में चूक के लिए कौन जिम्मेदार था? बल्कि इंदिरा को तो उनके सुरक्षा बलों ने ही मार डाला था इसलिए मैं कहता हूँ कि आरोप-प्रत्यारोप बंद करो,कुर्सी की राजनीति बंद करो और इस बात पर विचार करो कि इस नक्सली समस्या को कैसे जड़-मूल से समाप्त किया जाए?
मित्रों,हमारे कुछ मित्र अभी भी उन आदिवासियों को जो नक्सल आंदोलन में शामिल हैं भोला भाला और गुमराह कर दिया मानते हैं। मैं उनलोगों से पूछता हूँ कि परसों कांग्रेसी नेताओं की बेरहमी से हत्या करके लाशों पर नृत्य करनेवाला कैसे भोला-भाला हो सकता है? जब सुरक्षा बलों की गोलियाँ समाप्त हो गई थीं तब तो वे निहत्थे थे तो क्या निहत्थों पर बेरहमी से वार करने को मानवाधिकार का सम्मान कहा जाना चाहिए? क्या सिर्फ नक्सलियों का ही मानवाधिकार होता है? क्या यह फर्जी मुठभेड़ नहीं हुई? मैं दावे के साथ कहता हूँ कि न तो ये लोग भोले भाले हैं और न ही गुमराह बल्कि ये लोग असभ्य हैं,नरपिशाच हैं,ड्रैकुला हैं,हार्डकोर वधिक हैं इसलिए बातों से नहीं मानेंगे कभी नहीं मानेंगे। इनके लिए मनमोहन जैसा पिलपिला शासक नहीं चाहिए बल्कि राम जैसा अस्त्र-शस्त्रधारी चाहिए जो सिंहासन पर बैठते ही प्रतिज्ञा ले कि-निशिचरहीन करौं मही हथ उठाई पन किन्ह।
मित्रों,कुल मिलाकर यह हमला न तो केवल राजनीति पर हमला है और न ही कांग्रेस नेताओं पर बल्कि यह भारत की संप्रभुता पर हमला है,भारत पर हमला है और इससे पहले के वो सारे हमले भी सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता पर ही किए गए थे जिनमें हमारे सैंकड़ों जवान मारे गए। मैं नहीं समझता कि उनमें और इसमें कोई अंतर है या किया जाना चाहिए। प्रश्न अब यह उठता है कि हमारी केंद्र सरकार अब करेगी क्या? मुझे नहीं लगता कि इस सरकार के मंत्री और प्रधानमंत्री माँ के गर्भ से वो जिगर लेकर पैदा हुए हैं जिनकी आवश्यकता नक्सलियों और माओ की वैचारिक,रक्तपिपासु संतानों से निबटने के लिए होती है। बल्कि इन लोगों ने तो लूट-पर्व में भाग लेने के लिए सत्ता संभाली है इनको कहाँ देश सों काम। सो पहले की तरह कुछ दिनों तक बड़े-बड़े बयान दिए जाएंगे,किसी भी दोषी को नहीं बक्शने के बेबुनियाद दावे किए जाएंगे और इस घटना को भी भुला दिया जाएगा तब तक के लिए जब तक कि कोई अगली बड़ी घटना न घट जाए।
मित्रों,इन दिनों शादी-ब्याह का मौसम पूरे शबाब पर है। हो सकता है कि इस साल अब तक आपलोग भी कई-कई बार बाराती बन चुके हों। वैसे अब बारात जाने में वो बात कहाँ रही जो 20-30 साल पहले थी। पहले जो शान बैलगाड़ी और डोली में थी अब वो मर्सिडीज में भी कहाँ। तब अहले सुबह ही बारात गाँव से निकल पड़ती थी। रास्ते में कई जगहों पर जनवासा रखा जाता था। बैलगाड़ियों और कभी-कभी हाथियों पर भी सिर्फ आदमी ही लदे-फदे नहीं होते थे बल्कि जानवरों का चारा और बारातियों के लिए कच्ची-पक्की पर्याप्त खाद्य-सामग्री भी होती थी। लंबी यात्रा की थकान को ध्यान में रखते हुए विवाहोपरांत एक दिन मर्यादा के लिए रखा जाता था। इस दिन गीत-संगीत की महफिल सजती थी। वारांगनाएँ नृत्य करती थीं और आल्हा-गायक ओजस्वी स्वरों में आल्हा गाया करते थे जिनको सुनकर खाट पर पड़े बूढ़ों की भा नसें फड़कने लगती थीं। बार-बार बारातियों पर इत्रदानगुलेपाश से इत्र और गुलाबजल की बौछारें की जातीं और बार-बार परात में पान-सुपारी पेश किए जाते। जब नर्तकी किसी पोपले वृद्ध के साथ घूंघट साझा करके मुँहमांगी रकम की जिद करके बैठ जाती तब पूरा जनवासा कहकहों से गूँज उठता। महफिल के दौरान प्रश्नोत्तर का भी सत्र चलता और अंग्रेजी में बहस भी होती। बड़े-बुजुर्ग जहाँ महफिल का आनंद लेते बच्चे हाथियों को घेरे रहते। विदाई से बाद जब हाथी जाने लगते तब बच्चे उनके पीछे-पीछे हाथी-हाथी दाम दे घोड़े को लगाम दे चिल्लाते हुए दौड़ते। कभी-कभी हाथी पलटकर उनका पीछा भी करता मगर वे कौन-से उसके हाथ आनेवाले थे तीर की तरह भाग निकलते।
मित्रों,बारातियों को तब आदरपूर्वक बैठाकर भोजन कराया जाता था। समधी और दुल्हे के बहनोइयों का खास ख्याल रखा जाता था। पियक्कड़ई का तो नामोनिशान तक नहीं था। अगर कोई पियक्कड़ होता भी था वो अपवाद। जबकि आज बारात में अगर कोई शराब नहीं पीनेवाला होता है तो वह अपवाद बन जाता है। बारातियों को भरपुर शरबत पिलाई जाती थी और कभी-कभी तो अत्यंत अनूठे तरीके से। किसी कुएँ में पाँच-दस बोरी चीनी डाल दी फिर पीते रहिए जितनी शरबत पीनी हो। बारात अगर नजदीक के गाँव से आती थी तब बाराती नाश्ता-पानी करके घर चले जाते और फिर माल-मवेशी को चारा-पानी देकर भोजन के समय फिर से वापस आ जाते।
मित्रों,अब तो बिना डोली की शादियाँ होती हैं। आज से 20-25 साल पहले बिना डोली की शादी अकल्पनीय थी। दुल्हा और दुल्हन जब अलग-अलग डोलियों में बैठकर विदा होते तब रास्ते में बच्चे काफी दूर तक दुल्हे को छेड़ते हुए उनका पीछा करते। कई बार तो नावों पर दुल्हनों के आपस में बदल जाने की घटनाएँ भी हो जाया करती थीं। लेकिन अब शादियों में वो बात रही कहाँ? बाँकी संस्कारों की तरह शादियाँ भी अब औपचारिकता मात्र रह गईं हैं। लोग गाड़ियों में लद-फदकर रात में बारात लाते हैं। रास्ते में जनवासा होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि गाड़ियों को शराब की दुकानों पर अवश्य रोका जाता है और जमकर शराब पी जाती है। पहले जहाँ तुरतुरिया, सिम्हा और अंग्रेजी बैंड बजा करते थे अब मुआ डीजे पर बजनेवाले अश्लील गानों की धुन पर और शराब की पिनक पर लोग अजीबोगरीब नृत्य करते हैं। कई दफे तो महिलाएँ भी बाराती बनकर ऐसा करती हैं। फिर नाश्ता-पानी होता है और विदेशी कंपनियों द्वारा निर्मित कोल्ड-ड्रिंक पिलाई जाती है। फिर एक-दो घंटे के भीतर ही ताबड़तोड़ भोजन भी करा दिया जाता है। उसके बाद वर-पक्ष के 5-10 लोगों को छोड़कर बाँकी बाराती रात में ही गाड़ियाँ खुलवाकर घर चले आते हैं। बाँकी लोगों को भी सुबह होते ही वधू के साथ विदा कर दिया जाता है। एक दिन की मर्यादा और महफिल का तो सवाल ही नहीं।
मित्रों,अगर टेबुल-कुर्सी पर बिठाकर बारातियों को ससम्मान भोजन कराया गया तो ठीक नहीं तो बुफे सिस्टम में कुत्तों की तरह छीना-झपटी करते हुए खड़े-खड़े भोजन करना पड़ता है। कई बार तो इस धींगामुश्ती में परमादरणीय बुजूर्ग भूखे भी रह जाते हैं। लड़की वाले शांतिप्रिय रहे तो ठीक नहीं तो पियक्कड़ई के चलते गाली-गलौज और मारपीट की आशंका लगातार बनी रहती है। विवाह के किसी भी चरण में,विधि में कहीं भी भाव नहीं,आस्था नहीं,प्रेम नहीं,सबकुछ महज औपचारिकता।
मित्रों, जहाँ पहले जहाँ शादी से पहले वर-वधू के मिलने-जुलने और बातचीत करने को बुरा माना जाता था अब मोबाईल और कंप्यूटर के चलते ऐसी कोई रूकावट नहीं रह गई है। शादी के पहले अगर मंगनी हो गई हो तब तो वे साथ-साथ मौज-मस्ती और सैर सपोटे भी कर सकते हैं। वैसे जिस कुमार्ग पर हमारा समाज अग्रसर हो चुका है और जिस तरह कामुकता का जोर बढ़ रहा है,जिस तरह लिव ईन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ रहा है मुझे तो इस बात का भी डर सता रहा है कि भविष्य में शादी नाम की यह औपचारिकता भी कहीं इतिहास के पन्नों में सिमट कर न रह जाए अथवा आपवादिक घटना न बन जाए। तब न तो कोई मैरेज एनिवरसरी ही मनाएगा,अखबारों में वर-वधू चाहिए का विज्ञापन नहीं दिखेगा,शादी डॉट कॉम जैसी वेबसाईटों के दफ्तरों पर ताले लटक जाएंगे और बैंडवालों,डीजेवालों,डोलीवालों,कैटरिनवालों के साथ-साथ शादी का लड्डू,चट मंगनी पट ब्याह,हड़बड़ी की शादी कनपटी में सिंदूर,कानी की शादी में 9-9 गो बखरा,हँसुआ के लगन आ खुरपी के बियाह जैसी अनगिनत कहावतें भी बेरोजगार हो जाएंगी।
मित्रों,काफी दिन पहले मैंने प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका बाल भारती में एक बाल कहानी पढ़ी थी। एक राज्य में वयोवृद्ध राजा की मृत्यु के बाद उसका युवा पुत्र राजा बना। वह बड़ा दानी और दयालु था। दोनों हाथों से दान करता। उसके राज्य में कोई भी दुःखी नहीं था सिवाय वृद्ध मंत्री के। धीरे-धीरे खजाने में राजस्व वसूली घटने लगी और खजाना खाली हो गया। दुःखी राजा ने मंत्री से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि महाराज अंधाधुंध दान-वितरण के चलते लोग आलसी होते जा रहे हैं क्योंकि उनकी जरुरतें बैठे-बिठाए ही पूरी हो जा रही हैं। राजा द्वारा समाधान जानने की ईच्छा प्रकट करने पर मंत्री ने सुझाव दिया कि दान बंद कर उसी राशि से नए उद्योग-धंधे स्थापित किए जाएँ।
मित्रों,बचपन की पढ़ी एक और कहानी याद आ रही है। वह कहानी भी एक दानवीर से ही संबंधित है। परंतु वह दानवीर राजा नहीं था अपितु एक अमीर व्यवसायी था। वह व्यवसायी दान में खुल्ले पैसे नहीं देता था बल्कि मोटी रकम देता था और लाभार्थी को खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए प्रोत्साहित भी करता था। उसने प्रत्यक्ष अनुभव किया था कि लोग भीख में मिले पैसों को खा-पीकर उड़ा देते हैं और फिर से भीख प्राप्त करने पहुँच जाते हैं जबकि उद्यम-व्यवसाय से उनको स्थायी लाभ होता है।
मित्रों,अब कल्पना कीजिए कि अगर पहली कहानी के राजा के राज्य में राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र होता और राजा मनमोहन सिंह होते तब क्या होता? तब निश्चित रूप से वहाँ वही होता जो इस समय भारत में हो रहा है। तब राजा खैरात बाँटना बंद नहीं करता चाहे राज्य अराजकता और दिवालियेपन का शिकार ही क्यों न हो जाता। चाहे देश को एक बार फिर सोने को गिरवी ही क्यों न रखना पड़ता। तब राजा संसद से लेकर गाँव तक नोट फॉर वोट का गंदा खेल खेलता और लगातार चुनाव जीतता रहता,रोज-रोज नए-नए घोटाले करता रहता।
मित्रों,अपने देश में पहले जहाँ सिर्फ चुनावों के समय पैसे बाँटकर वोट खरीदे जाते थे और अवैध तरीके से नजर बचाकर बाँटे जाते थे अब केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा खुलेआम और कानूनी तरीके से बाँटे जा रहे हैं। इतना ही नहीं अब मतदाताओं के बीच सिर्फ पैसे ही नहीं बाँटे जा रहे हैं बल्कि इसके अलावा कोई लैपटॉप बाँटता है तो कोई साईकिल तो कोई अनाज तो कोई टीवी-रेडियो और और भी बहुत कुछ। राजा भी मस्त और जनता भी प्रफुल्लित। एक भ्रष्टाचरण द्वारा मलाई चाभकर खुरचन जनता को थमा दे रहा है तो दूसरा भिखारी बनकर,मुफ्त की रोटियाँ तोड़ने में मस्त है। इस तरह भारत में इन दिनों एक नई तरह की अर्थव्यवस्था का निर्माण हो रहा है (और केंद्र सरकार कहती है कि हो रहा भारत निर्माण) जिसे अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्री अगर चाहें तो खैराती अर्थव्यवस्था का नाम दे सकते हैं। अगर आप भी इस समय भारत में रहते हैं और केंद्र सरकार की धूर्तता से धूर्ततापूर्वक लाभ उठाना चाहते हैं तो आपको भी चाहिए कि अपना नाम 100-50 रुपया देकर बीपीएल सूची में डलवा लीजिए और फिर आपका और आपके पूरे परिवार का जन्म से लेकर मृत्यु तक बहुत सारा भार सरकार उठायेगी। आप वास्तव में अमीर भी हैं तो कोई बात नहीं आप कागजी तौर पर खराब ताउम्र गरीब बने रह सकते हैं कोई भी आपको रोकेगा-टोकेगा नहीं।
मित्रों,मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए शुरू की गई नई आर्थिक नीति से हमारे देश की अर्थव्यवस्था को जो कुछ भी कथित लाभ हुआ था प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह उसे नई खैराती और घोटालावेशी अर्थव्यवस्था द्वारा बर्बाद कर चुके हैं। कदाचित् अब भी मनमोहन की समझ में यह नहीं आया होगा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की वास्तविक महाशक्ति बहुर्राष्ट्रीय पूंजीपति हैं न कि बड़ी जनसंख्यावाले बाजार।
मित्रों,जब सरकार का ध्यान उत्पादन और निर्यात बढ़ाने के बदले खैरात बाँटने पर होगा तो फिर क्यों कर उत्पादन और निर्यात में अपेक्षित वृद्धि होने लगी? खैरात बाँटने से खजाने को तो क्षति पहुँच ही रही है खैरात का ज्यादातर पैसा जनता तक पहुँच भी नहीं रहा है बल्कि भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढ़ जा रहा है। इस तरह देश को दोहरी क्षति उठानी पड़ रही है। हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इन दिनों भोजन के अधिकार के नाम पर खैरात में 6 लाख करोड़ रुपए सालाना की बढ़ोत्तरी करने की कोशिश में है। निश्चित रूप से यह योजना भी भविष्य में तेल,चीनी,गेहूँ और चावल की तरह ही भ्रष्ट जनवितरण प्रणाली के हत्थे चढ़ जानेवाली है और भोजन का अधिकार एक नारा बनकर रह जानेवाला है।
मित्रों,सरकारों को अगर देना ही है तो जनता को साईकिल के बदले अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे,लैपटॉप के बदले टॉप क्लास की फैकल्टी दे,पैसों और कम मूल्य पर अनाज के बदले स्थायी और गरिमापूर्ण रोजगार दे। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि वैशाखी चाहे सोने की ही क्यों न हो वैशाखी ही होती है और भीख का कटोरा चाहे रत्नजटित ही क्यों न हो भीख का कटोरा ही होता है। खैरात बाँटकर दस-बीस सालों तक देश पर राज जरूर किया जा सकता है,लूटा जरूर जा सकता है लेकिन देश को वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर नहीं बनाया जा सकता। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि कोई देश जनता के बीच केवल खैरात बाँटकर महाशक्ति बन गया हो। लोककल्याणकारी कार्य अवश्य होने चाहिए लेकिन इन कार्यों और विकास के कार्यों के बीच एक व्यावहारिक संतुलन भी जरूर होना चाहिए। आखिर वर्तमान केन्द्र सरकार और कुछेक राज्य सरकारों का उद्देश्य क्या है? क्या वे हमारे देश और प्रदेश को विकसित करने की सोंच और ईच्छाशक्ति रखती हैं या फिर वे पैसे और खैरात बाँटकर पूरे मनोयोग से लोभियों के गाँव में कभी ठग भूखा नहीं मरता कहावत को चरितार्थ करने में जुटे हुए हैं? अर्थशास्त्र और इतिहास तो यही कहता है कि नवीन अनुसंधान,निर्यात और उत्पादन ही हैं जो किसी भी अर्थव्यवस्था को महान् और महानतम बनाते हैं न कि जनाधिक्य,आयात और खैरात। इसलिए सरकार को चाहिए कि बेवजह की योजनाओं को बंद करे,बेकार की नई योजनाएँ न लाए,जनता पहले से ही अधिकारों के आधिक्य से पीड़ित है इसलिए उसको नए अधिकार भी नहीं दिए जाएँ बल्कि उसी पैसे से उद्योग-धंधे स्थापित करे,आधारभूत संरचना का विकास करे और न्याय को द्रुत बनाए। देना ही है तो हर हाथ को काम दे फिर हाथ खुद ही अपना पेट भर लेगा। सीधे-सीधे पेट भरने का प्रयास कहानी संख्या एक और दो की तरह मूर्खतापूर्ण तो है ही देश और देश की अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती भी है।
मित्रों,साहित्य के लिए वर्ष 1953 के नोबेल पुरस्कार विजेता और ब्रिटेन के कथित महानतम प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारत को आजादी देने की मांग को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि भारत के लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि वे देश और आजादी को संभाल सकें। तब से न जाने कितनी बार खासकर चुनावों के बाद मैं खुद अपने देश के महानतम् बुद्धिजीवियों को यह लिखते-कहते हुए देख चुका हूँ कि महान भारत की महान जनता ने समय के साथ चर्चिल को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया है। वे शायद ऐसा सिर्फ इस एक आधार पर कहते रहे हैं कि भारत में सत्ता बंदूकों के बल पर नहीं बल्कि जनता के मत से बदलती है। मगर क्या सिर्फ इस एक आधार पर चर्चिल को गलत ठहराना उचित होगा या हो सकता है जबकि चर्चिल को सही साबित करने के अनगिनत आधार मौजूद हों।
मित्रों,निश्चित रूप से मतदान द्वारा सत्ता-परिवर्तन अच्छी उपलब्धि है लेकिन भारतीय लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि हर पाँच साल पर सत्तारूढ़ दलों या समूहों के बदलते रहने से क्या बदला और जो कुछ भी बदला वह सकारात्मक था या नकारात्मक? दिन-ब-दिन सरकार के प्रत्येक अंग में नए प्रतिमान स्थापित करते भ्रष्टाचार,कुव्यवस्था और अराजकता क्या यह चीख-चीखकर,अट्टहास करते हुए नहीं कह रहे हैं कि न केवल चर्चिल अंशतः ही ठीक था बल्कि पूरी तरह से सही था। कल और आज का अखबार कहता है कि रेलवे बोर्ड के सदस्यों को करोड़ों रूपया लेकर नियुक्त किया जा रहा है जिसमें से पहली किस्त लेता हुआ रेलमंत्री का भांजा पकड़ा भी गया है। कौन यकीन करेगा कि यह सब बिना रेलमंत्री की ईच्छा और जानकारी के हो रहा है। रेलवे बोर्ड का कोई सदस्य क्यों रेलमंत्री के भांजे को यूँ ही 2 करोड़ रूपया देगा? इसका दूसरा मतलब यह भी है कि सीबीआई को सरकारी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार की पूरी जानकारी रहती है फिर भी वो जानबूझकर कान पर ढेला डाले बैठी रहती है। आज भारत का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि इस सरकार में राज्यपाल का गरिमामय पद भी क्रय-विक्रय की वस्तु बन चुका है। आज भारत की जनता और भारतीय लोकतंत्र का सर्वोच्च वास्तविक प्रतिनिधि प्रधानमंत्री खुद कोयला,अंतरिक्ष और 2जी घोटाला करता है और सीधी संलिप्तता साबित हो जाने पर भी पूरी निर्लज्जता के साथ पद पर बना रहता है। यहाँ तक कि आज भारत के वर्तमान और हाल ही में भूतपूर्व हुई राष्ट्रपति पर भी भ्रष्टाचार के सैंकड़ों आरोप लगे हुए हैं। आज हमारा चिर-विश्वासघाती पड़ोसी चीन जो कभी एशिया का मरीज हुआ करता था हमारी सीमा में 19 किमी भीतर तक घुस आया है और फिर भी हमारा चिंदीचोर विदेश मंत्री मामले को तूल नहीं देने की नसीहतें बाँटता फिर रहा है। कल तक अमेरिका और नरेन्द्र मोदी को लेकर आसमान सिर पर उठा लेनेवाले गद्दार कम्युनिस्टों ने 1962 की तरह ही आज चीनी घुसपैठ पर अपने मुँह सी लिए हैं। पता नहीं लड़ाई छिड़ने पर ये भारत का साथ देंगे या चीन का। आज हमारे छोटे-छोटे पड़ोसी देशों में भी हमारा रसूख इतना गिर चुका है कि हमारे देशवासियों की जान इन देशों की जेलों में भी सुरक्षित नहीं रह गई है। आज कोई भी आम आदमी बिना घूस दिए सरकारी नौकरी नहीं पा सकता। आज आरक्षण भी बेमानी हो चुका है और आरक्षित वर्गों से भी केवल उनको ही नौकरियाँ मिल रही हैं जिनके माता-पिता के पास पैसा है। कुल मिलाकर इस समय शिवपालगंज से लेकर नई दिल्ली तक जित देखूँ तित लूट का वातावरण बना हुआ है।
मित्रों,मैं वर्षों पहले ही अपने एक आलेख ........... में भारत को एक असफल राष्ट्र घोषित कर चुका हूँ। उस समय हो सकता है कि मेरे कई मित्र मुझसे असहमत रहे हों लेकिन मैं आश्वस्त हूँ कि आज की तारीख में मुझसे कोई असहमत नहीं होगा। तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि आज भारत एक पूरी तरह से बर्बाद राष्ट्र बन चुका है? गलती किसकी है? क्या हमारी ही गलतियों की वजह से ऐसा नहीं हुआ है? पिछले 66 सालों में 15 लोकसभा और सैंकड़ों विधानसभा या स्थानीय-निकाय चुनावों में कौन मतदान करता रहा है? आजादी के शुरूआती सालों में जहाँ इंसानियत और अच्छाई के आधार पर प्रतिनिधि जीतते थे आज क्यों सिर्फ पैसेवाले,चोर-डकैत-बलात्कारी-भ्रष्टाचारी-जाति व धर्म के ठेकेदार ही चुनाव जीतते हैं? कौन चुनता है इनको? क्या हमहीं नहीं चुनते हैं? क्यों चुनते हैं? हम भारतीयों का बहुमत क्यों चुनता है ऐसे गलत लोगों को? क्या हमने कभी सोंचा है कि जब हमारे प्रतिनिधि जिनके हाथों में हम अपना शासन,अपना वर्तमान और भविष्य,अपना 5 साल सौंप रहे हैं ही ठीक नहीं होंगे तो फिर हमारा शासन-प्रशासन कैसे अच्छा होगा? जब हमारे जन-प्रतिनिधि चुनाव-दर-चुनाव और भी ज्यादा चरित्रहीन और नैतिकताशून्य होते जाएंगे तो फिर शासन-प्रशासन के चरित्र में सुधार कहाँ से होगा?
मित्रों,मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता था,भारतमाता की कसम मैंने कभी नहीं चाहा कि दुष्ट चर्चिल की भविष्यवाणी सत्य साबित हो जाए लेकिन सच तो सच है। क्या यह सच नहीं है कि हमारे बहुमत ने देश और समाज की भलाई के बारे में सोंचना ही बंद कर दिया है और आप भला देश और समाज चाहे बुरा या भला हमारा जीवन-मंत्र बन चुका है। हम इस बारे में अपने मन में विचार करें या न करें,सोंचें या न सोंचें लेकिन अंतिम सत्य तो यही है कि अगर समय रहते हमारी जनसंख्या के बहुमत ने देश और भलाई के बारे में सोंचना प्रारंभ नहीं किया तो फिर एशिया का नया मरीज बन चुके भारत नामक राष्ट्र का राम नाम सत्य है होना तय है,अटल है। तो क्यों नहीं हमें यह मान लेना चाहिए कि हम भारतीय 1947 तो क्या आज 2013 में भी आजादी पाने के काबिल नहीं हुए हैं। हमें आज भी किसी दूसरे मुल्क का ही गुलाम होना चाहिए और कदाचित् हमारे अगले शासक चीनी होंगे।