मंगलवार, 31 जनवरी 2023
मुलायम को ताली, तुलसी को गाली
मित्रों, पिछले कुछ दिन भारत की राजनीति में बड़े छिछालेदार रहे हैं. एक तरफ तो राम के सबसे बड़े भक्तों में से एक के पीछे लोग डंडा लेकर पड़ गए हैं तो वहीँ दूसरी तरफ सबसे बड़े रामद्रोही को भारत का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान देकर सम्मानित किया जा रहा है. पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या गलत?
मित्रों, बिहार के बैग में कारतूस लेकर चलनेवाले शिक्षा मंत्री द्वारा रामचरितमानस को लेकर उठाई गयी हवा धीरे-धीरे वबंडर का रूप लेती जा रही है. दोनों तरफ से तलवारें खिंच गई हैं. कुछ लोग कहने लगे हैं कि रामचरितमानस को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. तो कुछ लोग कह रहे हैं कि यह सम्पूर्ण हिन्दू धर्म का अपमान है इसलिए रामचरितमानस के आलोचकों की जीभ काट लेनी चाहिए. कुछ लोग जो कुछ ज्यादा ही उत्साही हैं रामचरितमानस को ही जलाने लगे हैं जैसे वह उसकी अंतिम प्रति हो.
मित्रों, मेरा मानना है कि हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे लचीला धर्म है. अगर किसी हिन्दू को किसी भी काव्य, महाकाव्य या धर्मग्रन्थ से परेशानी है तो उसे निश्चित रूप से इस पर सवाल उठाने का अधिकार है. स्वामी प्रसाद मौर्य के रामचरितमानस पर दिये गए बयान पर तल्ख़ प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं है। मौर्य ने रामचरितमानस का अपमान नहीं किया है मात्र कुछ अंशों पर आपत्ति जताई है। उन्होंने राम पर नहीं तुलसीदास पर सवाल उठाया है. उन्हें इसका अधिकार है। फिर, रामचरितमानस पर किसी जाति या वर्ग का विशेषाधिकार नहीं है।
मित्रों, निश्चित रूप से भारतीय ग्रंथों ने समाज को गहराई से प्रभावित किया है। इन ग्रंथों में जातिवाद, ऊंचनीच, छुआछूत, जातीय श्रेष्ठता, हीनता आदि को दैवीय होना स्थापित किया गया है। अत: पीड़ित व्यक्ति या समाज अपना विरोध तो व्यक्त करेगा ही। किसी को भी भारतीय ग्रंथों पर एकाधिकार नहीं जताना चाहिए। कुछ अति उत्साही उच्च जाति के हिंदू ऐसे प्रत्येक विरोध को दबाना चाहते हैं। यह वर्ग चाहता है कि कोई इनका का विरोध न करे, क्योंकि वे इसे धर्मविरोधी बताते हैं। हिंदू समाज की एकता के लिए जरूरी है कि लोगों को अपना विरोध प्रकट करने दिया जाए। हिन्दू ग्रंथ सबके हैं। यह शोषित वर्ग हिंदू समाज में ही रहना चाहता है और रहता आया है इसीलिए विरोध करता रहता है। अन्यथा इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुका होता। अतीत में धर्मांतरण इस कारण से भी हुए हैं।
मित्रों, चाहे वो रामचरितमानस हो, चाहे कई भाषाओँ में रचा गया रामायण हो या फिर वेद या पुराण हों किसी भी पुस्तक की प्रामाणिक प्रति कौन-सी है पहले यह निर्धारित करना ही कठिन है क्योंकि लम्बे समय तक इनको लिखा ही नहीं गया और सिर्फ कंठस्थ किया जाता रहा जिसके चलते इनकी विभिन्न प्रतियों में अंतर देखने को मिलता है. स्वयं रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि सारे धर्मग्रन्थ जूठे हैं अर्थात सबमें कलमकारों ने अपने हिसाब से क्षेपक जोड़े हैं. इसलिए भी दुनिया का कोई भी ग्रन्थ दैवीय या ईश्वरीय नहीं हो सकता. हो सकता है कि उपलब्ध रामचरितमानस अक्षरशः तुलसी ने ही लिखा हो तब भी तुलसी ने वही लिखा जो उस समय प्रचलन में था या ज्ञात था. चाहे बाइबिल हो या कुरान हो उस समय जो ज्ञात था रचनाकार ने वही लिखा और अपने ज्ञान को ईश्वर पर थोप दिया. ठीक वही बात तुलसी पर भी लागू होती है. इसलिए अगर कोई आधुनिक ज्ञान के आधार पर पुरानी किताबों में बदलाव करने की मांग करता है तो बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि उन ग्रंथों में यथोचित बदलाव करना चाहिए. जिद करने से न तो धरती चपटी हो जाएगी और न ही कोई जाति नीच या ऊंच हो जाएगी.
मित्रों, तुलसी तो हमारे पूर्वज हैं ही राम और कृष्ण भी हमारे पूर्वज हैं। हम उनका अनुसरण करते हैं। हमें यह अधिकार है कि हम अपने पूर्वजों से प्रश्न करें। यह एक स्वस्थ समाज के विकास की स्वाभाविक गति है। राम और कृष्ण सहित अपने सभी पूर्वजों से उनके कई कार्यों के बारे में सदियों से आमलोग सवाल पूछते रहे हैं। यही उनकी व्यापक स्वीकार्यता का सबूत भी है इसलिए न तो किसी ग्रन्थ को जलाने की जरुरत है और न ही जीभ या सर काटने की बल्कि वर्तमान काल और परिस्थितियों के अनुसार उनमें अपेक्षित बदलाव करने की जरुरत है।
मित्रों, समस्या राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध से नहीं है बल्कि राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध की व्याख्या करने वालों से है. राम या कृष्ण या अल्लाह खुद तो किताबें लिखने नहीं आए बल्कि इंसानों ने उनको लिखा और उतना ही लिखा जितनी उसकी बुद्धि थी इसलिए भी धार्मिक पुस्तकों में जरुरत पड़ने पर परिवर्तन किए जा सकते हैं और किए भी जाने चाहिए.
मित्रों, समस्या सिर्फ ग्रंथकारों से नहीं राजनीतिज्ञों के पल्टू दांव से भी है. पता ही नहीं चलता कि वो कब क्या कर जाएँ. अब इस साल के पद्म पुरस्कारों को ही लीजिए. इस साल भगवान राम के सबसे बड़े विरोधी मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण सम्मान देने की घोषणा की गई है. पता नहीं राम के नाम पर सत्ता में पहुंची भाजपा और मोदी ने मुलायम सिंह यादव में ऐसा कौन-सा गुण देख लिया जो यह निर्णय लिया. क्या यह रामभक्तों पर गोलियां चलवाने का ईनाम है? अभी पिछले साल ही हिन्दू ह्रदय सम्राट और राम मंदिर आन्दोलन के अगुआ बाबूजी कल्याण सिंह जी को भी पद्म विभूषण दिया गया था. तो क्या मोदी जी की नज़रों में रामभक्त और रामद्रोही दोनों एकसमान हैं? अगर ऐसा है तो हम मोदी समर्थक नाहक ही उनके और हिन्दू धर्म के विरोधियों पर दिन-रात बरसकर अपना श्रम और समय जाया करते रहते हैं. पता नहीं कब किसको मोदी सरकार पद्मविभूषण देकर विभूषित कर दे, ओवैसी या जाकिर नाईक को भी भारत रत्न दे दे.