शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

चिराग तले अँधेरा

कभी प्रजापति कहलाने वाले कुम्हार
के घर में अब नहीं जलता आवा,
और आवा की आग के साथ चूल्हे की आग
भी पड़ने लगी है ठंडी;
अब न तो दुर्गा पूजा और न ही दिवाली में
छोटू-छोटी खरीदते हैं मिट्टी के खिलौने,
और वातानुकूलित दुकानों से खरीदने लगे हैं
हाथी-घोड़े के साथ गुल्लक भी,
जो बोलते भी हैं और चलते भी हैं;
कुम्हारों के गरीब खिलौनों की तरह
चुपचाप मुंह नहीं ताकते रहते हैं।
कल का प्रजापति आज भुखमरी
का शिकार है,
उसके बच्चों को स्कूल जाना तो दूर
रोटी के साथ सब्जी तक नसीब
नहीं होती;
वे हाथ जो बनाते हैं दिए दिवाली में दूसरों के
घरों को रौशन करने के लिए,
ख़ुद उनका ही वर्तमान और भविष्य अंधेरे में है;
जो हाथ लक्ष्मी को रास्ता दिखानेवाले दीपक गढ़ते हैं,
उनके घरों से कब गुजरेगी लक्ष्मी की सवारी;
कब वे भरपेट भोजन कर सकेंगे,
और कब उनके बच्चे नए-नवेले
ड्रेस में स्कूल जा सकेंगे;
यह तो वही जाने जो पूरी कायनात को
गढ़ता है अपनी चाक पर।

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