मंगलवार, 9 मार्च 2010
आस्था के नाम पर ठगी
कार्ल मार्क्स धर्म को अफीम के समान नुकसानदायक मानते थे.उनका मानना था कि धर्म मानव की विचारशक्ति को कुंद कर देता है.हिन्दू वांग्मय में जिन कार्यों से समाज को लाभ हो वही धर्म है और जो अकर्तव्य हैं वो अधर्म है.यहाँ धर्म अन्धविश्वास का विषय नहीं बल्कि नैतिक व्यवस्था है.लेकिन कालांतर में धर्म अन्धविश्वास का विषय बन गया और लोग अपने विवेक के बदले धर्मशास्त्रों में लिखे शब्दों पर ज्यादा विश्वास करने लगे.पुजारियों और धर्माचार्यों ने धार्मिक ग्रंथों की अपने पक्ष में व्याख्या करनी शुरू कर दी.आज बाजारवाद का जोर है और बाजारवाद की हवा से न तो धर्म बचा है और न ही धर्माचार्य.तभी तो भक्त निष्काम भाव से भक्ति करने के बदले टीवी पर प्रवचन करते और योगाभ्यास करवाते ज्यादा दिखाई देने लगे हैं.पिछले पॉँच-सात सालों में जिस तरह हमारे धर्माचार्य अवैध यौनाचार से लेकर हत्या तक के मामलों संलिप्त पाए जा रहे हैं उससे हिन्दू धर्म की गरिमा को निस्संदेह भारी क्षति पहुंची है.इन परिस्थितियों में आमजन की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है.उन्हें दान देने और किसी पर विश्वास करने में और भी ज्यादा सावधानी बरतनी होगी क्योंकि कुछ लोग पैसा कमाने के लिए ही संन्यासी का चोगा धारण कर लेते हैं.पिछले दिनों ऐसे ही कई साधू कानून के घेरे में आये हैं.इन साधुओं को आम अपराधियों से ज्यादा कड़ी सजा मिलनी चाहिए क्योंकि इन्होने जनता की आस्था पर डाका डाला है.जनता को भी धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय ही बने रहने देना चाहिए क्योंकि उनकी आस्था के साथ तभी धोखा शुरू हो जाता है जब धर्म संस्थागत रूप लेने लगता है.तभी कहीं रामजन्मभूमि आन्दोलन शुरू होता है तो कहीं धर्म के नाम पर जेहाद.
भाई साहब मुझे तो इन दिनों हिन्दू धर्माचार्यों के साथ जो कुछ हो रहा है उसमें केंद्र की सरकार की साजिश नजर आती है.फिर भी हमें गेरुआ वस्त्रधारियों पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए.
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