गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
नक्सलवाद:वाद नहीं व्यवसाय
२५ मई १९६७ को पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी जिले के नक्सलबाड़ी गाँव से नक्सलवाद की शुरुआत हुई.इसकी शुरुआत मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित दो युवाओं चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने की थी.इस हिंसक आन्दोलन को आरंभ करने के पीछे उनका उद्देश्य था गरीबों को साथ लेकर जमींदारों की जमीन पर कब्ज़ा जमाना.उनका उद्देश्य किसी की हत्या करना हरगिज नहीं था और अगर शांति से काम चल जाए तो वे अनावश्यक हिंसा के भी पक्षधर नहीं थे.नक्सलवादी आन्दोलन को शुरूआती दिनों में काफी सफलता मिली और इस दौरान हताहत होनेवाले लोगों की संख्या भी काफी कम रही.लेकिन जल्दी ही आन्दोलन मजुमदार और सान्याल के नियंत्रण से बाहर हो गया और जमींदारों की हत्या का दौर शुरू हो गया.इन दोनों ने विरोध भी किया और स्थिति पर नियंत्रण करने की कोशिश भी की लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो खुद को अलग कर लिया.इस स्थिति की तुलना गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने से की जा सकती है.लेकिन मजुमदार और सान्याल गांधी नहीं थे और न ही गांधी जैसा नैतिक बल ही उनके पास था, इसलिए तो कायरों की तरह उन्होंने खुद को अलग कर लिया.अब नक्सलवादी आन्दोलन दूसरे दौर में पहुँच चुका था.लगातार कथित वर्ग-शत्रुओं की हत्याएं की जा रही थी.आन्दोलन को अब बंगाल के बाहर बिहार,झारखण्ड, उड़ीसा,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में भी समर्थन मिलने लगा था.८० के दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ आन्दोलन का तीसरा दौर.अब आन्दोलन में जो भटकाव जमींदारों की हत्याओं से देखने को मिला था वह पूरी तरह से नजर आने लगा.नक्सली अब क्रांति के अपने मूल लक्ष्य को भूल चुके थे.भारत के बहुत बड़े हिस्से में उनकी समानांतर सत्ता कायम हो चुकी थी.अब उन्होंने इसका लाभ उठाकर धन उगाही करना शुरू कर दिया जिसे आम बोलचाल की भाषा में रंगदारी टैक्स कहते हैं और नक्सलियों की भाषा में इसे कहते हैं लेवी.नक्सलियों के प्रभाव-क्षेत्र में आपने सड़क या पुल या किसी भी अन्य चीज का ठेका लिया है तो नक्सलियों को आपको रंगदारी देना पड़ेगा अन्यथा आपकी और मजदूरों को परेशान किया जायेगा.हो सकता है कि जान से भी हाथ धोना पड़े.आज नक्सलवाद रंगदारी का व्यवसाय बन चुका है.कुछ विशेषज्ञों के अनुसार तो उनके इस व्यवसाय का टर्नओवर ३००० करोड़ रूपये से भी ज्यादा का है.अब उनके खतों का औडिट तो हो नहीं सकता सो सिर्फ अनुमान लगने की ही गुंजाईश बचती है.इन पैसों से कई नक्सली नेता तो अपना वर्ग बदलकर करोड़पति भी हो चुके हैं.साम्यवादियों की भाषा में ऐसे लम्पट और असामाजिक तत्वों को लुम्पेन कहा जाता है.वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम नक्सली समस्या को लेकर आजकल बड़े गंभीर दिखाई दे रहे हैं वास्तव में हैं कि नहीं यह तो शोध का विषय है.पहले उन्होंने नक्सलियों से बातचीत की अपील की लेकिन सकारात्मक जवाब नहीं मिला.आखिर नक्सली नेता क्यों अपने जमे-जमाये व्यवसाय को खामखा लात मारने लगे?सो मजबूरन केंद्र को राज्य सरकारों की मदद से नक्सलप्रभावित राज्यों में ग्रीन हंट के नाम से आपरेशन चलाना पड़ा जिससे अब तक तो कुछ हासिल होता नहीं दिखता.दरअसल केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल नाम की कोई चीज है ही नहीं.बंगाल में केंद्र में शामिल दल नक्सली हिंसा को सी.पी.एम. कैडरों के मत्थे थोपने पड़ तुले हुए हैं वहीँ झारखण्ड में जे.एम.एम. समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवादी भी है ऐसे में इन दोनों राज्यों में आपरेशन का जो होना चाहिए वही होता दिख रहा है.ले-देकर बच गए छत्तीसगढ़ और आन्ध्र प्रदेश.लेकिन छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आपरेशन की संभावित सफलता का श्रेय लेने के चक्कर में आपरेशन की भद्द पिट रही है.कुछ लोगों का मानना है कि अगर इस रेड कोरिडोरवाले ईलाके में अगर विकास कार्य संचालित किये जाएँ और युवाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिया जाए तो नक्सली आन्दोलन कमजोर पड़ सकता है.लेकिन इन ईलाकों में नक्सली ही विकास कार्य और प्रशिक्षण कार्य नहीं चलने देते क्योंकि इसमें उन्हें अपने कैडर-बेस के कमजोर पड़ने की आशंका महसूस होती है.यानी गरीबी के कारण जो नक्सली आन्दोलन शुरू हुआ क्या विडम्बना है कि वही अब गरीबी को दूर होने देना नहीं चाहता.अगर नक्सलियों को बातचीत को मेज पर लाना है तो उन्हें पहले बैकफूट पर धकेलना पड़ेगा चाहे जैसे भी हो.साथ ही हमारी पुलिस ने अगर किसी को नक्सली बनाकर झूठे मुक़दमे में फंसाया है तो निर्दोषों पर से मुक़दमे तो वापस लिए ही जाएँ साथ ही दोषी पुलिस अधिकारियों पर भी अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें