रविवार, 23 मई 2010
कहाँ गए हीरा और मोती
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी मुझे बचपन में बहुत-ही प्रिय थी और आज भी है.कहानी का नाम है-दो बैलों की कथा.यह कहानी थी हीरा और मोती नाम के दो बैलों की.इन बैलों में ही इनके मालिक झूरी की जान बसती थी.ये बैल भी अपने स्वामी को उतना ही अधिक प्यार करते थे.खैर यह कहानी बहुत पुरानी है.प्रेमचंद अगर आज के समय में पैदा हुए होते तो हम इस कहानी के रसपान से वंचित रह जाते.जब गांवों में बैल ही नहीं रहे तो उनको लेकर वे इतनी मार्मिक कहानी लिखते भी कैसे?कृषि और पशुपालन हजारों सालों से एक-दूसरे के पूरक बने हुए थे लेकिन सरकार की गलत नीतियों ने इसे तोड़ने की गलती की है.भारत और पश्चिम की सोंच में हमेश से काफी अंतर रहा है.हम प्रकृति को अपना दुश्मन नहीं बल्कि सहयोगी मानते हैं.गांवों में बैलों को सिर्फ खेती में मदद करनेवाला जानवर नहीं माना जाता था बल्कि उन्हें आदर से महादेव यानी शिव कहकर संबोधित किया जाता था.नए बैल की खरीद के बाद उसे सीधे खूंटे पर ले जाकर बाँध नहीं देते थे बल्कि पहले गृहिणियां तिलक करके उनकी पदपूजा करती थी.हल जोतना तो इनका काम होता ही था फसल की दौनी का काम भी यही करते थे.इतना ही नहीं कुएं से रहट की सहायता से ये पानी भी खींचते थे और इन्हें गाड़ी में जोतकर समान ढोने का काम भी लिया जाता था.यह जीव अपने मालिक के प्रति जितना समर्पित होता था शायद उसके परिवार का सदस्य भी उतना समर्पित नहीं होता था.संतान तो होना नहीं था क्योंकि इनकी बचपन में ही नसबंदी कर दी जाती थी.कोई ख्वाहिश नहीं इन्हें खुश रखने के लिए सिर्फ चारा-पानी और प्यार ही काफी था.खूटे पर बंधे बैलों की संख्या से ही पता चल जाता था कि कौन कितना बड़ा किसान है, किसी से पूछने की कोई दरकार नहीं.इनका गोबर सर्वोत्तम स्तर का खाद होता था और खेतों की उर्वरता बनाये रखने में सहायक होता था.किसान को एक और लाभ था बैलों से खेती होने से.बैलों के साथ गायें भी पाली जातीं जिससे दूध-दही की घर में कभी कमी नहीं रहती.बैलों को हल या गाड़ी में जोतते समय उन्हें निर्देश देने के लिए हमारे यहाँ कई शब्द प्रचलन में थे जैसे अगर उन्हें रोकना हो तो कहिये हौरा, चलने के लिए कहना हो तो कहिये आटठाम और अगर मोड़ना हो तो कहिये गोर तर.क्या मजाल ये बैल कभी कोई गलती कर दें.खेतों से इनके साथ आना भी जरूरी नहीं था बस खोलकर छोड़ दीजिये ये खुद-ब-खुद आपके दरवाजे पर पहुँच जाते.इसी तरह बैलगाड़ी चलाते समय गाड़ीवान के लिए जगा रहना भी जरूरी नहीं था.गाड़ीवान सो गया और बैल अपने रास्ते पर चले जा रहे हैं और दूर से ही सुनाई दे रही हैं उनके गले में बजती घंटियाँ.लेकिन अब तो बैल गांवों के लिए इतिहास का विषय बनकर रह गए हैं.हमारी सरकार ने पश्चिम की अंधी नक़ल करने के चक्कर में खेती का यंत्रीकरण कर दिया.गोबर की जगह खेतों में जहरीले रासायनिक उर्वरक डाले जा रहे हैं और खेतों को जोत रहे हैं ट्रैक्टर.अब ट्रैक्टर ठहरी महंगी चीज सो हर किसी के लिए इसे रख पाना संभव है नहीं सो किसान खेत जोतने के लिए भी दूसरों का मुंहतका बनकर रह गया है.बैल पालने की अनिवार्यता समाप्त हो जाने से दरवाजों से गायें भी गायब हो गईं जिससे गांवों में भी शुद्ध दूध मिलना दुर्लभ हो गया है,शहरों से तो आये दिन मिलावट वाले दूध की ख़बरें आती ही रहती हैं.अमृत विष बन गया है.खेत रासायनिक खादों के हमलों से ऊसर होने लगे हैं और भूमिगत जल जहरीले रसायनों के लगातार घुलने के चलते जहर बनते जा रहे हैं.जल अब जीवन नहीं मृत्यु बनने की ओर अग्रसर है.किसान भी बैलों से अलग होकर खुश नहीं है उसकी स्वाबलम्बनता जो छिन गई है.खेत जोतने से लेकर, सामान ढोने और जलावन का प्रबंध करने के लिए उसे पहले किसी की मक्खनबाजी नहीं करनी पड़ती थी.पश्चिमी देशों ने भी एक बार फ़िर जैविक खेती की ओर रूख किया है लेकिन हमारी सरकार अभी तक कम-से-कम इस मामले में उनकी नक़ल करने को तत्पर नहीं दिखती.अगर ऐसा होता है तो फ़िर से हमें सड़कों पर बैलों की घंटियाँ सुनाई देने लगेगी.और हीरा-मोती के वियोग में दुखी झूरी के चेहरे पर फ़िर से चवन्निया मुस्कान विराजमान हो जाएगी.और सबसे बड़ी बात कि हमारी खेती को नवजीवन मिल जायेगा.
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