रविवार, 30 मई 2010
भारत को चाहिए इस्पाती इरादोंवाला प्रधानमंत्री
भारत महान विडंबनाओंवाला देश है.हमारे लिए यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जब देश को उसी तरह के नेतृत्व की जरूरत है जिस तरह का नेतृत्व चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इंग्लैंड का किया था, लालबहादुर शास्त्री ने १९६५ के और इंदिरा ने १९७१ के भारत-पाक युद्ध के समय और अटल बिहारी वाजपेयी ने कारगिल युद्ध और परमाणु परीक्षण के समय भारत का किया था तब देश नेतृत्वविहीनता की स्थिति में है.प्रत्येक दो दिन में नक्सलवादी औसतन तीन भारतीयों की हत्या कर रहे हैं,महंगाई चरम पर है और भ्रष्टाचारी केंद्रीय मंत्रिमंडल तक में घुसपैठ कर चुके हैं और प्रधानमंत्री बस इतना कर रहे हैं कि वे कुछ नहीं कर रहे हैं.१५० से ज्यादा लोग जानबूझकर कराई गई रेल दुर्घटना में मारे जाते हैं.एक अख़बार (नई दुनिया) दुर्घटनाग्रस्त मालगाड़ी के ड्राईवर से बातचीत छापता है जिसमें वह बता रहा है कि किस तरह सिग्नल ग्रीन नहीं होने पर भी नक्सलवादियों ने उन्हें ट्रेन चलाते रहने पर बाध्य किया और रेलमंत्री कह रही हैं कि हमला नक्सलवादियों ने ही किया था या नहीं इसको लेकर उन्हें संदेह है.खैर रेलमंत्री के लिए तो बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी ही सबकुछ है लेकिन प्रधानमंत्री तो पूरे देश के प्रधानमंत्री है.इस संक्रमण काल में अगर उनसे शासन नहीं संभल सकता तो यह ईमानदारी का तकाजा है कि वे अविलम्ब इस्तीफा दे दें.उनकी कांग्रेस के प्रति ईमानदारी पर किसी को शक नहीं है.लेकिन उन्हें उस जनसमर्थन के प्रति भी ईमानदारी दिखानी चाहिए जिसने उनपर भरोसा करके उन्हें नेहरु और इंदिरा के बाद सबसे ज्यादा दिनों तक भारत का प्रधानमंत्री रहने का सौभाग्य प्रदान किया है.लगता है कि मनमोहन जी अपनी उस शपथ के प्रति भी ईमानदार नहीं रह गए हैं जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनते समय ली थी और वो भी एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार.उन्होंने शपथ ली थी कि वे भारत की एकता और अखंडता को अक्षुण रखेंगे और अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करेंगे.साथ ही उन्होंने इस बात की भी शपथ ली थी कि वे भय या पक्षपात,अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति न्याय करेंगे.क्या इस तरह की जाती है एकता और अखंडता की रक्षा?क्या यही है उनका न्याय.उनकी सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से रात में ट्रेनों का परिचालन रोक दिया है अगर माओवादी दिन में ही ट्रेन पर हमला कर देते हैं तब तो दिन में भी परिचालन रोकना पड़ेगा.क्या भारत की १२० करोड़ जनता भी आपकी सरकार की तरह नपुंसक हो गई है?आप आह्वान करके तो देखिए जनता खुद ही माओवादियों से निपट लेगी.क्या ट्रेनों का परिचालन रोक देना भारत की एकता और अखंडता और संप्रभुता को मजबूत करेगा?हमारे गृह मंत्री बुद्धिजीवियों पर माओवाद को बौद्धिक समर्थन देने का आरोप लगा रहे हैं जबकि वे खुद ममता बनर्जी,दिग्विजय सिंह जैसे लोगों से घिरे हुए हैं.जो उनके अपने हैं और खुलेआम माओवादियों का बचाव कर रहे हैं.शायद वोटबैंक की मजबूरी होगी.कदाचित प्रधानमंत्री की भी यही मजबूरी हो.जब देश का शासन वोटबैंक को ध्यान में रखकर ही चलाया जाना है तो फ़िर क्या जरूरत है इस तरह की शपथ लेने की.स्वर्गीय इंदिरा गांधी के समय भी आतंकवाद था और शायद स्थितियां वर्तमानकाल से भी ज्यादा बुरी थीं.लेकिन उन्होंने जिस प्रकार आपरेशन ब्लू स्टार का निर्णय लिया और जिस दृढ़ता से आतंकवाद को कुचला वह आज भी एक मिशाल है.भले ही इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी लेकिन उन्होंने देश की एकता और अखंडता को टूटने नहीं दिया.जब उस समय स्वर्णमंदिर पर सेना कार्रवाई कर सकती थी तो आज नक्सलवादियों के खिलाफ स्थल और वायुसेना को क्यों नहीं लगाया जा सकता?आखिर सेना होती क्यों है क्या प्रधानमंत्री बताएँगे?एक महिला जब इस तरह की हिम्मत दिखा सकती है तो मनमोहन तो फ़िर भी मर्द हैं.अंत में मैं भारत की सवा अरब जनता की ओर से उन्हें और अन्य राजनेताओं को आगाह कर देता हूँ कि भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी कायरों और डरपोकों के लिए नहीं बनी है उस पर बैठने का तो वही हक़दार है जिसका सीना फौलाद का बना हो और जिसके इरादे इस्पात से भी ज्यादा मजबूत हों.
yes sir we want strong very strong pm.
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