रविवार, 20 जून 2010
चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
६० का दशक हिंदी फिल्मों के इतिहास में अपने खूबसूरत गानों और कर्णप्रिय संगीत के लिए जाना जाता है.इसी दशक में एक फिल्म आई थी गुमराह.इस फिल्म में एक इज्ज़तदार घराने की बहू की ज़िन्दगी में उसका पुराना प्रेमी दोबारा आ धमकता है.संयोग से उसकी अपनी पूर्व प्रेमिका के पति से मित्रता हो जाती है और वह पूर्व प्रेमिका के घर पर भोजन के लिए निमंत्रित किया जाता है .जहाँ जिद किये जाने पर वह यह गाना सुनाता है.फिल्म में तो गाने की सिचुएशन एक ही बार की बन पाई लेकिन हमारे देश की राजनीति में इस गाने की सिचुएशन बार-बार बन रही है.कारण है राजनीतिक दलों और नेताओं का अवसरवादी रवैय्या.कुर्सी के लिए बेमेल गठबंधन किये जा रहे हैं.आश्चर्य की बात है कि इस गाने की सिचुएशन सबसे ज्यादा उस पार्टी के साथ बन रही है जो अपने को पार्टी विथ डिफ़रेंस कहती है.जी,हाँ मैं बात कर रहा हूँ भाजपा की.सबसे पहले उसने कई साल पहले उत्तर प्रदेश में मायावती से हाथ मिलाया.एकदम बेमेल गठबंधन.एक दल दलितवादी और एक हिंदूवादी.गठबंधन कुछ महीने से ज्यादा नहीं चल पाया और दोनों दल एक बार फ़िर अजनबी बन गए.अभी कुछ दिन पहले झारखण्ड में भी इस दल की गठबंधन सरकार टूटी है.शिबू सोरेन ने लोकसभा में यू.पी.ए. के पक्ष में वोट दल दिया.ऐसे में यह स्वाभाविक था कि भाजपा नाराज होती.नाराज भाजपा ने झारखण्ड सरकार से समर्थन वापस ले लिया.लेकिन इसी बीच सोरेन ने उसके सामने मुख्यमंत्री की कुर्सी का टुकड़ा फेंक दिया.भाजपा एक महीने तक एक बहुत ही सम्मानित जानवर जिसका नाम लेकर उसके अध्यक्ष कुछ ही महीने पहले विवादों में फंस गए थे की तरह टुकड़े के पीछे लार टपकती दौड़ती रही.अंततः एक महीने बाद थक कर बैठ गई और फ़िर शिबू के लिए यही गाना गाने लगी.अब बिहार और झारखण्ड ठहरे जुड़वाँ भाई भले ही दोनों भाइयों के बीच ज़माने के चलन के अनुसार बंटवारा हो गया हो सो झारखण्ड को जैसे ही अस्थिरता की बीमारी लगी बिहार भी इस रोग से प्रभावित होने लगा.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश को पहले से ही ग़लतफ़हमी की बीमारी है.बीमारी क्या है कि लालू-राबड़ी जब इस आवास में रहते थे तो उन्होंने गाय-भैंस पाल रखी थी.नीतीश जी को जानवर पालना पसंद नहीं था सो ग़लतफ़हमी पाल ली. वे समझते हैं कि बिहार की सरकार सिर्फ उनकी बदौलत काम कर रही है.बांकी कोई कुछ नहीं कर रहा.सो जीवन-साथी भाजपा से लड़ बैठे.जाने आगे बिहार की राजनीति क्या करवट ले.लेकिन लक्षण अच्छे नहीं हैं और यहाँ भी यह गाना गाया जा सकता है.अब दो का झगड़ा होगा तो फायदा तो तीसरे ही उठाएंगे सो लालू और पासवान ताक लगाये बैठे हैं कब उनके कानों में यह गाना गूंजना शुरू होता है.कुछ लोग बीच-बचाव में भी लगे हैं तो शिवानन्द तिवारी जैसे घरतोड़क आग में किरासन डालने में भी लगे हैं.तिवारीजी का रिकार्ड रहा है कि इन्होंने जिसकी पीठ पर भी हाथ फेरी वो बर्बाद हो गया है.पहले ये लालू की पीठ पर हाथ फेर चुके हैं.देखना है कि बिहार में एन.डी.ए. का सफलतापूर्वक चल रहा गठबंधन आगे चल पता है कि नहीं और कब हमें यह गाना सुनने को मिलता है.नीतीश ने तो गाना शुरू भी कर दिया है भाजपा कब तक गाना गाने से बचेगी?शायद इसी बात पर बिहार का भविष्य भी निर्भर करेगा.
is tarah ke bemel gathbandhanon ka yahi hasra hota hai.ek hindutvavadi hai to doosra alpsankhyakwadi.
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