गुरुवार, 23 सितंबर 2010
आम आदमी
आप अक्सर घर से बाहर निकलते होंगे और अगर आप बिहार में रहते हैं तो कभी-न-कभी जरुर आपसे आपकी जाति पूछी जाती होगी.कोई यह नहीं पूछता होगा कि आप आम आदमी हैं या खास आदमी हालांकि यह विभाजन जाति से ज्यादा प्रभावकारी है..आप कहेंगे इन दोनों वर्गों में क्या फर्क है?हालांकि आप खुद भी इसका पता लगा सकते हैं लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप अपने कोमल मस्तिष्क तंतुओं पर दबाव डालें इसलिए थोड़ी मदद कर देता हूँ,हिंट दे देता हूँ.यदि आप प्रखंड,राज्य या जिले में अधिकारी या कर्मचारी,पूंजीपति,विधायक,मंत्री या सांसद,मुखिया या पंचायती राज जनप्रतिनिधि,नगर पंचायत प्रतिनिधि,अधिकारी या कर्मचारी,मीडिया में उच्चाधिकारी/प्रभारी,बैंक अधिकारी या कर्मी,बीमा अधिकारी या कर्मी,स्कूल में प्रधानाध्यापक,खाकी वर्दीधारी इत्यादि नहीं हैं तो आम आदमी हैं अन्यथा खास आदमी हैं.हमारे देश में हर कोई खास आदमी को गालियाँ देता है लेकिन साथ-साथ खुद खास आदमी बनना भी चाहता है,क्या बिडम्बना है!खास आदमियों को एक खास जिम्मेदारी दी गई है और वह है आम आदमी को परेशान करने व उनका शारीरिक,मानसिक और आर्थिक शोषण करने की जिम्मेदारी.आपको हर जगह आम आदमी मिल जाएँगे.कभी ट्रेन के टिकट के लिए पंक्तियों में खड़े हुए,तो कभी बैंक में पैसा जमा करने या निकालने के लिए धक्कामुक्की करते हुए.इनकी किस्मत में सिर्फ पंक्तियाँ हैं.जहाँ देखिये लाइन लगी है.इनकी आधी ज़िन्दगी तो लाइन में खड़े-खड़े गुजरती है और बांकी वक़्त बदलने का इंतजार करते-करते.हर पांच साल पर देश और इलाके के तारणहार इनका दरवाजा खटखटाते हैं कोई लाल-हरी पत्ती हाथ पर रख देता है तो कोई थमा जाता है कभी न पूरा हो सकनेवाले वादों का पुलिंदा.ये लोग बड़े भोले और भावुक होते हैं तभी तो नेता इन्हें जाति और धर्म जैसी भावनाओं में बहा ले जाते हैं.इनका पग-पग पर शोषण होता है.डाक्टर,वकील और पुलिस इस मामले में सबसे आगे कहे जा सकते हैं.पुलिस तो इन्हें गाहे-बगाहे घरों से उठा भी लेती है और जब ये वापस लौटते हैं तब दो पैरों पर नहीं बल्कि चार कन्धों पर सवार होकर.यहाँ तक कि इनका शोषण करने में गैस वेंडर और टेम्पो चालक भी पीछे नहीं.वेंडर इन्हें अक्सर एक-दो किलो कम गैस वाला सिलेंडर थमा जाते हैं तो वहीँ टेम्पो चालक जितना चाहे उतना पैसा किराया के नाम पर इनकी जेब से निकाल लेते हैं.यानी हर कोई चाहे वो गरीब हो या अमीर इनकी मजबूरी का फायदा उठाने के चक्कर में रहता है.ये हमेशा शक्तिविहीन और मजबूर होते हैं.इनमें से कई तो यूं जीते हैं मानों जीना इनकी मजबूरी हो.यह अपनी ही लाश कंधे पर उठाये आजीवन संघर्ष करता है,कभी समाज के अराजक तत्वों के खिलाफ तो कभी शासन-प्रशासन के खिलाफ.जब संघर्ष से जी उब जाता है तो विदर्भ के किसानों की तरह कीटों पर कीटनाशकों का प्रयोग करने के बजाये खुद अपने ऊपर कर डालता है और सोंचता है कि सरकारी मुआवजे से कम-से-कम उनका परिवार तो सुखी हो जाए.बाद में आत्महंता आम आदमी के परिवार के दूसरे आम आदमी मुआवजे के लिए बांकी जिंदगी दफ्तरों के चक्कर लगाते काटते हैं और उनका सुख-चैन सरकारी फाइलों में खोकर रह जाता है.बैंककर्मी इनके ऋण में से घूस के तौर पर पैसा काट लेने को अपना कई जन्मों का सिद्ध अधिकार मानते हैं तो इनके ही गाँव का मुखिया इंदिरा आवास के पैसे में से ८-१० हजार रूपया काट लेना अपना धर्म.मीडिया भी इन्हें कवरेज नहीं देता जब तक ये भारी संख्या में मारे न जाएँ.इनकी जान सस्ती होती है क्योंकि ये ट्रेन से चलते हैं प्लेन से नहीं इसलिए दुर्घटना होने पर इन्हें या इनके परिवार को मुआवजा भी कम मिलता है.कभी-कभी तो अगलगी आदि होने पर गाँव-ग्राम का दबंग आदमी पूरा का पूरा मुआवजा गटक जाता है और ये मुंह ताकते रह जाते हैं.इनके जीवन का पल-पल कठिन होता है लेकिन फ़िर भी ये हंसी-ठिठोली के अवसर निकाल ही लेते हैं.आईये हम भी इनकी जिन्दादिली को सलाम करें जिसके सहारे ये अपनी पहाड़-सी लम्बी और कठिन जीवन-यात्रा पूरी करते हैं वरना हर चीज तो खास लोगों के हाथों में हैं इनके पास सिवाय संघर्ष करते रहने के हौसले के सिवा है भी क्या.साथ ही प्रतिज्ञा करें कि मेरी परिभाषानुसार खास आदमी बन जाने पर भी हम आम आदमी के प्रति संवेदनहीन नहीं होंगे.
शनिवार, 18 सितंबर 2010
कर्मचारियों का शोषण, अख़बारों का पोषण
क्या आपने कभी अख़बारों के बैलेंस सीट पर ध्यान दिया है?सारे अख़बारों में मुनाफा बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की जैसे होड़ लगी होती है.लेकिन यह मुनाफा आता कहाँ से है कभी सोंचा है.विज्ञापनों से तो आता ही है,कुछ लोगों के अनुसार पेड न्यूज़ से भी आता है.साथ ही इसमें जुड़ी होती हैं कर्मचारियों के शोषण से बचाई गई राशि भी.कार्ल मार्क्स ने कहा था कि विकास की पहली शर्त है अतिरिक्त उत्पादन.दुर्भाग्य की बात तो यह है कि दिन-रात न्याय की बात करनेवाले अख़बार वाले भी अपने कर्मियों का शोषण कर उन्हें कम वेतन देकर अतिरिक्त उत्पादन करते हैं.आज ही मालूम हुआ और जानकर दुःख भी हुआ कि भारत के अग्रणी समाचार पत्रों में से एक दैनिक भास्कर में ट्रायल पर लोगों को रखने प्रथा शुरू की गई है.इस ट्रायल की जानकारी एचआर को भी नहीं दी जाती है, जिस वजह से संबंधित व्यक्ति हमेशा असमंजस में रहता है।बाद में जब कर्मी द्वारा पैसा माँगा जाता है तो अंगूठा दिखा दिया जाता है.यानी बिलकुल मुफ्त में काम कराया जाता है ठीक वैसे ही जैसे पहले बंधुआ मजदूरों से कराया जाता था.अब इसे शोषण की पराकाष्ठ न कहा जाए तो क्या कहा जाए?इन बेचारों से भी ज्यादा सर्वहारा कोई हो सकता है क्या?उच्च शिक्षा प्राप्त की,उच्चस्तरीय बौद्धिक परिश्रम किया और मजदूरी नदारद.जो राजस्थान पत्रिका पहले श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के अक्षरशः पालन के लिए जानी जाती थी वह भी अब शोषण पर उतारू है.कर्मचारी के गलती करने पर स्कूलों में लगनेवाले अनुपस्थिति दंड के समान जुर्माना लगाया जाता है.पत्रिका में पहले अवकाश का नकदीकरण होता था। वह बंद कर दिया गया है। बोनस बंद कर दिया गया है। वेतन वृद्धि भी संपादक अपने चमचों को ही दिला देते हैं। काम के आधार पर वेतन वृद्धि की कोई व्यवहारिक व्यवस्था नहीं है। दैनिक भास्कर का अनुसरण हर काम में किया जा रहा है। हर बार सबसे पहले वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने वाले पत्रिका में अब तक अंतरिम राहत की सिफारिश भी लागू नहीं की गई है। बांकी अख़बारों की हालत भी कमोबेश यही है.कुल मिलाकर स्थितियां ऐसी हैं कि पत्रकार समाज का सबसे शोषित वर्ग बन गया है और उनकी स्थिति कथित सर्वहारा से भी ज्यादा ख़राब है.केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अविलम्ब इस दिशा में कदम उठाए जिससे सर्वहारा पत्रकारों का शोषण बंद हो सके,वैसे भी श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम अब बेमानी हो चुका है क्योंकि कोई भी समाचार पत्र इसका पालन नहीं कर रहा.अगर केंद्र ऐसा नहीं कर सकता तो इस अधिनियम को निरस्त कर दे जिससे जो मत्स्य न्याय का नियम पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रहा है उसे वैधानिकता प्राप्त हो सके.
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
ज़िन्दगी की बिसात पर एक और दांव
कल उसने ज़िन्दगी की बिसात पर एक बार फ़िर दांव लगाने का फैसला किया.निर्णय पर पहुंचना आसान नहीं था.मन किसी बंधन को स्वीकारने को तैयार नहीं लेकिन परिस्थितियां पूरी तरह से अनुकूल भी तो नहीं.जब तक माता-पिता जीवित हैं तब तक तो उनके होटल में खाया जा सकता है लेकिन उसके बाद???कुछ-न-कुछ तो करना ही था इस पापी पेट को भरने के लिए सो उसने नौकरी करने का निर्णय लिया.कभी भी जर को रज से ज्यादा अहमियत नहीं देनेवाला शख्स कर रहा था कल मोलभाव.लगा रहा था पत्रकारिता के बाज़ार में अपना मूल्य.बाजारवाद के इस धुर विरोधी को कैसे बाज़ार ने मजबूर कर दिया था अपनी शरण में आने के लिए.शेर बाध्य था खुद ही पिंजरे में जाने के लिए और खुद अपने ही हाथों सिटकनी बंद करने के लिए.प्रश्न सिर्फ भूख और पेट भरने भर का ही नहीं था. प्रश्न था अस्तित्व का.कोई भी लड़कीवाला उसके हाथों में अपनी लड़की का हाथ देने को तैयार नहीं था.लोग आते देखते और चले जाते.जैसे वह और उसकी प्रतिभा नुमाईश की चीज बनकर रह गए हों.उम्र भी तो कम नहीं थी अब.३० वसंत पूरा हुए पूरे ५ साल बीत चुके थे.अपने माँ-बाप का वह इकलौता बेटा था.जल्दी-से-जल्दी शादी होनी भी जरुरी थी.जमीन-जायदाद की कोई कमी नहीं थी उसके पास.लेकिन बदले वक़्त में इनका कोई महत्व भी तो नहीं रह गया था लड़कीवालों की नज़रों में.उन्हें तो बस कमानेवाले वर की तलाश थी.चाहे उसका कमाने का तरीका वैध हो या अवैध.वह संघर्ष से नहीं भागता था.उसकी पूरी ज़िन्दगी संघर्ष करते ही तो बीती थी.कभी समाज से तो कभी भ्रष्टाचार से.लेकिन अब उसके पास समय नहीं था संघर्ष के लिए.उसे घर बसाना था जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी.बेतरतीबी से जीने का उसका समय समाप्त हो चुका था.घर के लोग भी उससे उबने लगे थे.बड़ी दीदी तो यहाँ तक कह देतीं कि कुछ तो कमाओ चाहे चपरासी की नौकरी ही क्यों न करो.क्या कहता वो जवाब में?चुपचाप रह जाता.वह अच्छा लिखता था लेकिन कमाई,कुछ भी तो नहीं थी.कब जाकर कमाई होती और कितनी,कुछ भी तो निश्चित नहीं था.वह मजबूर था हालात के हाथों,भाग नहीं सकता था.खुद अपने-आप से भागकर जाता भी तो कहाँ?इसलिए उसने फ़िर से नौकर बनना स्वीकार कर लिया.दुनिया को बदल देने का उसका सपना न तो टूटा था और न वह पराजित ही था.क्योंकि अभी ज़िन्दगी समाप्त नहीं हुई थी,अवसर समाप्त नहीं हुए थे.
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
हिंदी भारत की परिभाषा
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी भारत की परिभाषा;
अमीर खुसरो ने पौध लगाया,
सूर-तुलसी ने सींचा;
प्रेमचंद के हृदय-रक्त से
विकसित हुआ बगीचा;
लोकप्रिय हो भूमंडल में फैले
है यह हिंदीजनों की आशा;
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी भारत की परिभाषा.
घर की मालकिन नौकरानी,
अंग्रेजी बन बैठी पटरानी;
दिलाना है हमें इसका बाजिब हक़
पोंछना है आँखों से पानी;
प्रतीक्षा की घड़ियाँ असह्य हुईं अब
बीत गए अनगिन दिन-मासा;
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी भारत की परिभाषा.
हिंदी भारत की परिभाषा;
अमीर खुसरो ने पौध लगाया,
सूर-तुलसी ने सींचा;
प्रेमचंद के हृदय-रक्त से
विकसित हुआ बगीचा;
लोकप्रिय हो भूमंडल में फैले
है यह हिंदीजनों की आशा;
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी भारत की परिभाषा.
घर की मालकिन नौकरानी,
अंग्रेजी बन बैठी पटरानी;
दिलाना है हमें इसका बाजिब हक़
पोंछना है आँखों से पानी;
प्रतीक्षा की घड़ियाँ असह्य हुईं अब
बीत गए अनगिन दिन-मासा;
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी भारत की परिभाषा.
रविवार, 12 सितंबर 2010
एक राज्य जिसे अपनों ने लूटा
बात १९९९ की है.मुझे बिहार सरकार के अन्तर्गत शिक्षक पद के लिए परीक्षा देनी थी.जिसके लिए बोकारो जाना था.रातभर का सफ़र था.मैं परेशान था और सोंच रहा था कि अच्छा होता अगर झारखण्ड अलग राज्य बन ही जाता.मुझे कम-से-कम परीक्षा देने इतनी दूर तो नहीं आना पड़ता.अगले साल ही मेरे शहर की सड़कों पर बन गईल झारखण्ड अब खईह शक्करकंद गीत गूंजने लगा.दरअसल साल २००० के १ नवम्बर को बिहार दो भागों में बँट गया.बतौर लालू बिहार में लालू,बालू और आलू के सिवा कुछ नहीं बचा था.संयुक्त बिहार के अधिकारियों और कर्मचारियों में बिहार छोड़कर झारखण्ड कैडर में शामिल होने की जैसे होड़-सी लग गई.चारों तरफ हवाओं में यही संभावनाएं तैर रही थीं कि अब बिहार तो पिछड़ा ही रहेगा और झारखण्ड का सुपरसोनिक गति से विकास होगा जिससे यह जल्दी ही विकसित राज्यों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा.पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के काल में परिवर्तन देखने को मिला भी.सारी-की-सारी सड़कें चकाचक हो गईं.उनके बाद सत्ता में आये अर्जुन मुंडा के समय शासन में शिथिलता आने लगी.मुंडा के समय ही शुरू हुआ कभी न थमनेवाले राजनैतिक उठापटक का दौड़.भारत के इतिहास में दूसरी बार एक निर्दलीय किसी राज्य का मुख्यमंत्री बना.अनुभवहीनता और अयोग्यता के दोहरे गुणों को धारण करनेवाले मधु कोड़ा ने सत्ता की बागडोर संभाली और प्रारंभ हुआ अनियंत्रित लूट का खेल.मंत्रियों के घरों में रूपये गिनने की मशीन लगने की चर्चा गर्म होती रही और राज्य गरीब होता गया.इस बीच शेष बिहार में सत्ता बदल चुकी थी और लालू के जंगल राज का खात्मा हो गया था.जहाँ बिहार अब कथित सुशासन की छाँव में था झारखण्ड में उम्मीद के विपरीत जंगल राज कायम हो चुका था.बीच में गुरूजी यानी शिबू शोरेन भी सत्ता में रहे लेकिन शासन के चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं आया,जो जैसे चल रहा था चलता रहा.झारखण्ड लोक सेवा आयोग ने इस बीच २ बार अधिकारियों की बहाली की.नेताओं में अपने परिजनों और रिश्तेदारों को अधिकारी बनाने की होड़ लग गई.परीक्षा में प्राप्त अंकों में अभूतपूर्व हेरा-फेरी की गई.८ को ८० और १८ को १८० बनाया गया.भाजपा और कांग्रेस दो-२ नावों की सवारी गुरूजी को महँगी पड़ी और वे वर्तमान से भूतपूर्व बन गए.राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.कई क्षेत्रों में सकारात्मक परिवर्तन महसूस किए जाने लगे.शासन अब नजर आने लगा.पूर्व मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के मुकदमें दर्ज हुए.लोक सेवा आयोग को भंग कर दिया गया.सरकार (मुख्य सचिव) गांवों तक पहुँचने लगी.अब एक बार फ़िर से राज्य में चुनी हुई जोड़-तोड़ से बनी सरकार का गठन हो गया है.बोतल बदल गई है शराब वही है.वही भूमिपुत्र फ़िर से कुर्सियों पर काबिज हैं जिन पर अपने ही घर को लूटने का शक है.शायद यह राज्य बिगड़ने के लिए ही बना था-मुझे अपनों ने लूटा गैरों में कहाँ दम था,मेरी कश्ती वहीँ डूबी जहाँ पानी कम था.