गुरुवार, 16 सितंबर 2010
ज़िन्दगी की बिसात पर एक और दांव
कल उसने ज़िन्दगी की बिसात पर एक बार फ़िर दांव लगाने का फैसला किया.निर्णय पर पहुंचना आसान नहीं था.मन किसी बंधन को स्वीकारने को तैयार नहीं लेकिन परिस्थितियां पूरी तरह से अनुकूल भी तो नहीं.जब तक माता-पिता जीवित हैं तब तक तो उनके होटल में खाया जा सकता है लेकिन उसके बाद???कुछ-न-कुछ तो करना ही था इस पापी पेट को भरने के लिए सो उसने नौकरी करने का निर्णय लिया.कभी भी जर को रज से ज्यादा अहमियत नहीं देनेवाला शख्स कर रहा था कल मोलभाव.लगा रहा था पत्रकारिता के बाज़ार में अपना मूल्य.बाजारवाद के इस धुर विरोधी को कैसे बाज़ार ने मजबूर कर दिया था अपनी शरण में आने के लिए.शेर बाध्य था खुद ही पिंजरे में जाने के लिए और खुद अपने ही हाथों सिटकनी बंद करने के लिए.प्रश्न सिर्फ भूख और पेट भरने भर का ही नहीं था. प्रश्न था अस्तित्व का.कोई भी लड़कीवाला उसके हाथों में अपनी लड़की का हाथ देने को तैयार नहीं था.लोग आते देखते और चले जाते.जैसे वह और उसकी प्रतिभा नुमाईश की चीज बनकर रह गए हों.उम्र भी तो कम नहीं थी अब.३० वसंत पूरा हुए पूरे ५ साल बीत चुके थे.अपने माँ-बाप का वह इकलौता बेटा था.जल्दी-से-जल्दी शादी होनी भी जरुरी थी.जमीन-जायदाद की कोई कमी नहीं थी उसके पास.लेकिन बदले वक़्त में इनका कोई महत्व भी तो नहीं रह गया था लड़कीवालों की नज़रों में.उन्हें तो बस कमानेवाले वर की तलाश थी.चाहे उसका कमाने का तरीका वैध हो या अवैध.वह संघर्ष से नहीं भागता था.उसकी पूरी ज़िन्दगी संघर्ष करते ही तो बीती थी.कभी समाज से तो कभी भ्रष्टाचार से.लेकिन अब उसके पास समय नहीं था संघर्ष के लिए.उसे घर बसाना था जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी.बेतरतीबी से जीने का उसका समय समाप्त हो चुका था.घर के लोग भी उससे उबने लगे थे.बड़ी दीदी तो यहाँ तक कह देतीं कि कुछ तो कमाओ चाहे चपरासी की नौकरी ही क्यों न करो.क्या कहता वो जवाब में?चुपचाप रह जाता.वह अच्छा लिखता था लेकिन कमाई,कुछ भी तो नहीं थी.कब जाकर कमाई होती और कितनी,कुछ भी तो निश्चित नहीं था.वह मजबूर था हालात के हाथों,भाग नहीं सकता था.खुद अपने-आप से भागकर जाता भी तो कहाँ?इसलिए उसने फ़िर से नौकर बनना स्वीकार कर लिया.दुनिया को बदल देने का उसका सपना न तो टूटा था और न वह पराजित ही था.क्योंकि अभी ज़िन्दगी समाप्त नहीं हुई थी,अवसर समाप्त नहीं हुए थे.
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