गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

टेढ़े-मेढ़े रास्ते और मंजिल तेरी दूर

 राष्ट्रमंडल खेल का समापन समारोह शुरू है.सभी पदकों का फैसला हो चुका है और भारत कुल मिलाकर दूसरे स्थान पर रहा है कुल ३८ स्वर्ण पदकों के साथ. ऐसा पहली बार हुआ है इसलिए खुश हुआ जा सकता है.लेकिन यदि हम २ करोड़ जनसंख्या वाले आस्ट्रेलिया के प्रदर्शन को देखें या तुलना करें तो प्रदर्शन संतोषजनक नहीं कहा जा सकता.उसके पदक हमसे दोगुने से भी ज्यादा हैं.हमारी जनसंख्या १२० करोड़ के लगभग है और हमसे ज्यादा जनसंख्या वाला एकमात्र देश चीन खेलों के मामले हमसे मीलों आगे निकाल चुका है.जबकि १९७० के दशक तक चीन खेलों की दुनिया में हमारा समकक्षी था.हमने इस बार एक मिथक को जरूर तोड़ा है कि साबित किया है कि हम जेनेटिकली कमजोर नहीं हैं और एथलेटिक्स में पदक जीतना हमारे वश में है.हमने न सिर्फ एथलेटिक्स बल्कि भारोत्तोलन और जिम्नास्टिक में भी पदक जीते हैं.शूटिंग,कुश्ती,बैडमिंटन,टेनिस और मुक्केबाजी में तो पहले से भी पदक जीतने की उम्मीदें जतायी जा रही थीं.हालांकि आज हॉकी के फाइनल में हमारी विश्व चैम्पियन आस्ट्रेलिया के हाथों ८-० की हार से हमें निराशा भी हुई है और यह निराशा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि हमारी टीम ने मैच जीतने की बिलकुल भी कोशिश नहीं की.अगर हम इस मैच को अपवाद मान लें तो हमारे सभी खिलाड़ियों ने सभी खेलों में जिस दमखम और उससे भी ज्यादा जिस मनोबल का परिचय दिया वह भविष्य के लिए आशाओं को तो जगाता ही है.१९८२ के दिल्ली एशियाड में चीन ने पहली बार दिखाया कि खेलों की तैयारी कैसे की जाती है और फ़िर २००८ के बीजिंग ओलम्पिक में तो उसके सामने अमेरिका को भी नतमस्तक होना पड़ा.इन २६ सालों में हम भी यह कर सकते थे यदि देश में खेल-संस्कृति को बढ़ावा दिया गया होता.अगर खेल मंत्रालय और भारतीय ओलम्पिक असोशिएशन में तालमेल होता.अगर हम इस प्रतियोगिता में पदक जीतनेवाले अपने खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि को देखें तो हमारे आधे खिलाड़ी गरीब परिवारों से हैं या फ़िर गांवों या छोटे शहरों से हैं.खेलों में बड़े परिवारों के लड़कों को भी आगे लाना होगा और वे इस क्षेत्र में तभी आयेंगे जब उन्हें इस बात के लिए आश्वस्त किया जाए कि उनका आर्थिक भविष्य सुरक्षित रहेगा.ऐसा करना असंभव भी नहीं है क्योंकि हम दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से विकास कर रही अर्थव्यवस्था हैं इसलिए पैसों की कोई कमी नहीं,कमी है तो सिर्फ मनोबल की.खेलों के विकास के लिए राष्ट्रीय खेलों का समय पर आयोजन होना भी जरुरी है.२००७ में ही झारखण्ड में इनका आयोजन होना था लेकिन अब तक नहीं हो पाया और अगले खेलों का समय भी आ गया. इस तरह की लापरवाही खेलों के लिए अच्छी नहीं.साथ ही इन राष्ट्रीय खेलों में जो रहने के और अन्य इंतजाम किये जाएँ वे विश्वस्तरीय हों क्योंकि प्रदर्शन का सीधा सम्बन्ध सुविधाओं से होता है.हम देखते हैं कि राजनीति में बराबर खेल जारी रहता है,सत्ता के लिए.लेकिन हमारी राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे से खेल पूरी तरह गायब है.इस स्थिति को भी बदलना होगा और राजनीतिक पार्टियों को अपने घोषणापत्रों में बताना होगा कि उनके पास खेलों के लिए क्या योजनायें हैं?वर्तमान संतोषजनक भले ही नहीं हो भविष्य जरूर शानदार हो सकता है आखिर हम दुनिया के सबसे युवा देश हैं.

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