३ दिसंबर जो १९८३ तक जाना जाता था,
केवल देशरत्न राजेंद्र प्रसाद के जन्मदिन के रूप में;
१९८४ से बन गया रातोंरात हजारों निर्दोषों की पुण्यतिथि भी.
गलतियाँ घूसखोर नेताओं और अफसरों की थी,
और खामियाजा भुगतना पड़ा बेवजह उनलोगों को;
जिनका इस मसले से नहीं था कुछ भी लेना-देना.
हमेशा न जाने क्यों भारत में खेत गदहे खाते हैं और
मार पड़ती है गरीब जुलाहों को;
क्यों जबरन चरितार्थ होती रहती है यह बदनाम कहावत?
दुर्घटना के बाद भी हमारे नेताओं ने नहीं छोड़ा अपना कमीनापन,
और भगा दिया हत्यारे एंडरसन को;
न जाने क्या ले-देकर गरीबों के कफ़न के सौदागरों ने.
पीड़ितों के परिवारों को है आज भी,
दोषियों को सजा दिए जाने का ईन्तजार;
उम्मीदें बुझने लगी हैं और आशाएं तोड़ने लगी हैं दम.
पीड़ित हो चुके हैं किशोर से जवान,
और जवान से बूढ़े भी,
और न जाने कितने बूढ़े कर गए हैं;
बिना न्याय पाए ही दुनिया से प्रयाण.
आज जबकि नेता और अफसर पहले से भी ज्यादा हैं भ्रष्ट,
और भी आसान हो गया है खरीदना उनके ईमान को;
ऐसे में कभी भी,कहीं भी हो सकती है;
फ़िर से भोपाल जैसी दुर्घटना.
आज भी उद्योग नहीं कर रहे सुरक्षा नियमों का पालन,
आज भी मंत्री-अफसर पैसे लेकर दे रहे हैं;
असुरक्षित औद्योगिक इकाईयों को नो ऑब्जेक्शन का सर्टिफिकेट.
आज भी हम नहीं सुधरे हैं और न ही सुधरनेवाले हैं,
हमारी यह आदत अब बन चुकी है लाईलाज बीमारी;
चाहे एक की जगह हजारों भोपाल क्यों न हो जाए,
हम उनसे कोई सीख नहीं लेनेवाले,क्योंकि हम भारतीय हैं.
आत्मिक वेदना के उजास से भरी संवेदनशील रचना, साधुवाद आपको. ऐसे मुक्कमल सोच की आज सखत जरुरत है
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