मुझे रोना आ रहा था और बार-बार रोना आ रहा था.कभी खुद पे तो कभी हालात पे.दिन सोमवार,तारीख १० जनवरी,२०११.मैं भोपाल से दिल्ली जाने के लिए गोंडवाना एक्सप्रेस में सवार था.सौभाग्यवश मेरे अभिन्न मित्र हुसैन ताबिश मेरे साथ थे.ट्रेन शर्माती,लजाती ५ मिनट चलती तो ३० मिनट के लिए रूक जाती.जी में आता पैदल ही दिल्ली के लिए चल दूं.सड़कों पर ट्रैफिक जाम तो मैंने बहुत बार देखा था उस दिन पहली बार रेलवे ट्रैक पर जाम देख रहा था.आगे-पीछे बीसियों ट्रेनें भोपाल से लेकर दिल्ली तक एक-एक किलोमीटर के अंतर पर रेंग रही थीं.मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि गलती किसकी है?किसकी गलती के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रही है?रेलयात्रियों की या फ़िर रेलमंत्री की?क्या हमने रेलवे पर यह विश्वास करके कि वह हमें समय पर और सही सलामत गंतव्य तक पहुंचा देगा,गलती की थी.
इससे पहले ९ जनवरी को भोपाल जानेवाली भोपाल एक्सप्रेस के लगभग १२ घन्टे लेट हो जाने के कारण मेरे कई साथी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल की प्री पीएच.डी. परीक्षा में शामिल होने से वंचित हो चुके थे.उससे भी पहले रेलवे ने धड़ल्ले से दर्जनों गाड़ियों को पूरी सर्दी के मौसम के लिए रद्द कर दिया गया.ऐसा क्यों किया गया ममता बनर्जी ही जाने?इसके बावजूद ट्रेनें कछुवे की चाल में सरक रही थीं.जब यही करना या होना था तो फ़िर ट्रेनें रद्द करने का क्या लाभ?जिन ट्रेनों को रद्द किया था वे भी चलतीं और इसी तरह देर से चलतीं.कम-से-कम यात्रियों के लिए विकल्प तो बढ़ जाते.
हम गोंडवाना एक्सप्रेस के यात्रियों की जान कैद में थी और इस यात्रा को और भी यातनापूर्ण बना रही थी हमारी ट्रेन में कैटरिंग का नहीं होना.ट्रेन रूकती तब हम कुछ खा लेते जो सामग्री न जाने किस गुणवत्ता की होती थी.मेरे बगल की सीट पर एक २ साल की बच्ची थी अपने माता-पिता के साथ.वह बार-बार अपने माता-पिता से ट्रेन से उतरने की जिद करती और जब-जब वह ऐसा करती उसके पिता उसे समझा देते कि अभी उसके मामा की ससुराल ही आई है और यहाँ नहीं उतर सकते क्योंकि यहाँ बन्दर रहते हैं आदमी नहीं.इस यातना शिविर का मैं भी भोक्ता था,द्रष्टा नहीं.बार-बार मन में गुस्सा आता देश और रेलवे की हालत पर और केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार पर और कई-कई प्रश्न मन में उमड़ने-घुमड़ने लगते.
ऐसा क्यों हो रहा है?क्यों ट्रेनें घंटों नहीं दिनों लेट चल रही हैं?क्या हुआ टक्कररोधी यंत्रों का?कब तक गरीब भारतीय इस तरह यातनापूर्ण रेलयात्रा करने को अभिशप्त रहेंगे?कब चलेगी भारत में पहली बुलेट ट्रेन?हालांकि मैं नहीं मानता कि लालू द्वारा रेलवे को दुधारू गाय बना देने और वो भी यात्रियों की सुविधा की कीमत पर सही था लेकिन ममता के समय में तो लालू की गाय बलाय हो गई है.पूरी तरह से यथास्थिति कायम हो गई है रेलवे में.कहीं कोई सुधार के प्रयास नहीं.न तो टक्कररोधी उपकरण ही लगाए जा रहे हैं और न ही ट्रेनों की गति बढ़ाने के ही उपाय हो रहे हैं.ममता को दुर्घटना रोकने के लिए बस एक ही उपाय नजर आ रहा है और वह यह है कि दर्जनों ट्रेनों को रद्द कर दो.न चलेगी ट्रेन और न ही दुर्घटना का ही डर होगा और इस तरह ममता को बार-बार इस संवेदनशील समय में बंगाल छोड़कर दुर्घटनास्थल पर नहीं जाना पड़ेगा.ममता को तो इस समय सिर्फ बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी ही नजर आ रही है.वह बिलकुल ही भूल गई है कि वह इस समय भारत की रेलमंत्री भी है.कौन याद दिलाएगा उन्हें?कायदे से तो यह काम प्रधानमंत्री का है लेकिन न तो मनमोहन सिंह में ही वह दम है और न ही ऐसा कर पाने में सोनिया गांधी ही सक्षम हैं.यक़ीनन बंगाल की जनता ऐसा कर सकती है लेकिन वह ऐसा करेगी क्या?कहीं इसी अराजकता उत्पन्न करनेवाले स्टाईल में उन्होंने बंगाल की सरकार चलाई तो??
इससे पहले ९ जनवरी को भोपाल जानेवाली भोपाल एक्सप्रेस के लगभग १२ घन्टे लेट हो जाने के कारण मेरे कई साथी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल की प्री पीएच.डी. परीक्षा में शामिल होने से वंचित हो चुके थे.उससे भी पहले रेलवे ने धड़ल्ले से दर्जनों गाड़ियों को पूरी सर्दी के मौसम के लिए रद्द कर दिया गया.ऐसा क्यों किया गया ममता बनर्जी ही जाने?इसके बावजूद ट्रेनें कछुवे की चाल में सरक रही थीं.जब यही करना या होना था तो फ़िर ट्रेनें रद्द करने का क्या लाभ?जिन ट्रेनों को रद्द किया था वे भी चलतीं और इसी तरह देर से चलतीं.कम-से-कम यात्रियों के लिए विकल्प तो बढ़ जाते.
हम गोंडवाना एक्सप्रेस के यात्रियों की जान कैद में थी और इस यात्रा को और भी यातनापूर्ण बना रही थी हमारी ट्रेन में कैटरिंग का नहीं होना.ट्रेन रूकती तब हम कुछ खा लेते जो सामग्री न जाने किस गुणवत्ता की होती थी.मेरे बगल की सीट पर एक २ साल की बच्ची थी अपने माता-पिता के साथ.वह बार-बार अपने माता-पिता से ट्रेन से उतरने की जिद करती और जब-जब वह ऐसा करती उसके पिता उसे समझा देते कि अभी उसके मामा की ससुराल ही आई है और यहाँ नहीं उतर सकते क्योंकि यहाँ बन्दर रहते हैं आदमी नहीं.इस यातना शिविर का मैं भी भोक्ता था,द्रष्टा नहीं.बार-बार मन में गुस्सा आता देश और रेलवे की हालत पर और केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार पर और कई-कई प्रश्न मन में उमड़ने-घुमड़ने लगते.
ऐसा क्यों हो रहा है?क्यों ट्रेनें घंटों नहीं दिनों लेट चल रही हैं?क्या हुआ टक्कररोधी यंत्रों का?कब तक गरीब भारतीय इस तरह यातनापूर्ण रेलयात्रा करने को अभिशप्त रहेंगे?कब चलेगी भारत में पहली बुलेट ट्रेन?हालांकि मैं नहीं मानता कि लालू द्वारा रेलवे को दुधारू गाय बना देने और वो भी यात्रियों की सुविधा की कीमत पर सही था लेकिन ममता के समय में तो लालू की गाय बलाय हो गई है.पूरी तरह से यथास्थिति कायम हो गई है रेलवे में.कहीं कोई सुधार के प्रयास नहीं.न तो टक्कररोधी उपकरण ही लगाए जा रहे हैं और न ही ट्रेनों की गति बढ़ाने के ही उपाय हो रहे हैं.ममता को दुर्घटना रोकने के लिए बस एक ही उपाय नजर आ रहा है और वह यह है कि दर्जनों ट्रेनों को रद्द कर दो.न चलेगी ट्रेन और न ही दुर्घटना का ही डर होगा और इस तरह ममता को बार-बार इस संवेदनशील समय में बंगाल छोड़कर दुर्घटनास्थल पर नहीं जाना पड़ेगा.ममता को तो इस समय सिर्फ बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी ही नजर आ रही है.वह बिलकुल ही भूल गई है कि वह इस समय भारत की रेलमंत्री भी है.कौन याद दिलाएगा उन्हें?कायदे से तो यह काम प्रधानमंत्री का है लेकिन न तो मनमोहन सिंह में ही वह दम है और न ही ऐसा कर पाने में सोनिया गांधी ही सक्षम हैं.यक़ीनन बंगाल की जनता ऐसा कर सकती है लेकिन वह ऐसा करेगी क्या?कहीं इसी अराजकता उत्पन्न करनेवाले स्टाईल में उन्होंने बंगाल की सरकार चलाई तो??
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