बुधवार, 20 अप्रैल 2011

लागा आन्दोलन में दाग

shanti
मित्रों,कुछ ही दिनों पहले वर्तमान में विवादास्पद और पूर्व में कारपोरेट ईमानदारी का प्रतीक माने जानेवाले प्रसिद्द उद्योगपति रतन टाटा ने कहा था कि वर्तमान भारत में वक़्त जिस तरह करवटें ले रहा है उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि वे बूढ़े हो जाने के कारण शायद उसकी परिणति के प्रत्यक्ष गवाह नहीं बन पाएँगे.क्या सचमुच यह कालखंड भारतीय इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण और युगप्रवर्तक कालखंड है?हो भी क्यों नहीं,पहली बार भारतीय भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट जो हुए.एक अन्ना हजारे नाम के दरम्याने कद के वृद्ध ने पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जागृति की सुनामी पैदा कर दी.ऐसी सुनामी जिसकी उम्मीद न तो स्वयं हजारे को थी और न ही केंद्र में सत्तारूढ़ भ्रष्ट राजनीतिक दलों को ही.सरकार अप्रत्याशित रूप से बहुत जल्दी झुक गयी और दे गयी अन्ना और उनके मित्रों को जीत की खुशफहमी.अन्ना और सरकार के बीच एक तरफ बातचीत चल रही थी तो दूसरी ओर सियासी शतरंज की बिसातें भी बिछाई जा रही थीं.चूंकि दूसरा पक्ष सियासतदान थे इसलिए सियासत तो होनी ही थी.हम सभी जानते हैं कि शतरंज के खेल में आरंभिक बढ़त का मतलब ही जीत नहीं हो जाती वरन अंत तक अपने राजा को बचाते हुए शत्रु पक्ष के राजा को घेरना और मारना पड़ता हैं.
         मित्रों,इस घोषित रूप से गैर सियासी लेकिन अनिवार्य रूप से सियासी बन चुके शह-मात के इस खेल में अन्ना और उनके मित्रों पर आरंभिक जीत की खुमारी कुछ इस तरह छाई कि वे चाल चलने में शुरुआत में ही भारी गफलत कर बैठे.उन्होंने अपनी तरफ से जिन लोगों को जनलोकपाल निर्मात्री समिति में शामिल किया उनमें से दो एक ही परिवार के थे;बल्कि बाप-बेटे ही थे और दागी भी थे.इस ज़माने में जबकि ईमानदारी से दो जून रोटी का जुगाड़ करना भी आसान नहीं है उनके पास अरबों की स्व-अर्जित संपत्ति थी.जाहिर है कांग्रेस और अन्य भ्रष्ट दलों के भ्रष्ट नेताओं के हाथों भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लड़नेवालों की नेकनीयती पर प्रश्नचिन्ह लगाने का स्वर्णिम अवसर घर बैठे ही हाथ लग गया.रोज-रोज प्रख्यात वकील शांतिभूषण और प्रशांत भूषण के दामन पर कालिख उछाली जा रही है और असर पड़ रहा है भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जा रही लडाई पर.भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई दिन-ब-दिन कमजोर पड़ती जा रही है.
              मित्रों,अन्ना ने अभी तक इन दोनों बाप-बेटों पर लग रहे आरोपों की सत्यता के या उनके संदिग्ध चरित्र के बारे में कुछ भी नहीं कहा है.बल्कि वे आश्चर्यजनक रूप से यह कुतर्क दे रहे हैं कि जिन लोगों ने जनलोकपाल बिल को तैयार किया है उन्हें तो समिति में रखना ही पड़ेगा,चाहे वे भ्रष्ट ही क्यों न हों.अन्ना जी मानें या नहीं मानें उनसे गलती तो हो ही चुकी है जो उन्होंने भ्रष्टाचार के शीश महलों पर उछालने के लिए पत्थर ऐसे हाथों में पकड़ा दिया जिनके खुद के ही घर शीशे के बने हुए थे.मैं समझता हूँ कि अन्ना जी ने ऐसा जानबूझकर नहीं किया होगा.वे सीधे-सादे व्यक्ति हैं और शायद उनकी राजनीतिक समझ कमजोर है.राजनीति जंतर मंतर पर बैठकर नहीं सीखी जा सकती बल्कि यह तो ऐसा खेल है जो दिमाग में और दिमाग से खेली जाती है.साथ ही यह वह शह है जिसके प्रभाव में आने से चाहे-अनचाहे कोई भी व्यक्ति नहीं बच सकता.
         मित्रों,इस लडाई को जो क्षति पहुंचनी थी;पहुँच चुकी है.अब आगे क्षति नहीं हो इसके लिए क्षतिपूर्ति में लग जाने का समय आ गया है.अन्ना जी को अविलम्ब शांतिभूषण और प्रशांत भूषण से इस्तीफा दिलवाना चाहिए और उनकी जगह एक तो किरण बेदी को और दूसरे किसी ईमानदार व विद्वान न्यायविद को लेना चाहिए.मित्रों,कोई भी आन्दोलन जनता का विश्वास खोकर न तो खड़ा ही किया जा सकता है और न तो आगे चलाया ही जा सकता है.हालाँकि भारत सरकार तो सुप्रीम कोर्ट में सार्वजानिक तौर पर मान चुकी है कि भारत में ईमानदार व्यक्ति नहीं बचे लेकिन मुझे उम्मीद है कि अगर अन्ना तलाशेंगे तो ऐसे कानूनविद मिल ही जाएँगे.मेरी दृष्टि में सुप्रीम कोर्ट में एक वरिष्ठ महिला वकील हैं जो अविवाहित हैं और ताउम्र गरीबों और कमजोरों के पक्ष में लडती रही हैं.साथ ही सारे वादों-विवादों से परे भी हैं.अगर अन्ना जी को आवश्यकता महसूस हो तो संपर्क करने पर मैं उनका नाम,पता और मोबाईल नंबर सहर्ष देने को तैयार हूँ.             

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