शनिवार, 18 जून 2011

राह बनी खुद मंजिल


A R. Rajput075

मित्रों,एक बार डॉ. बशीर बद्र के मुखारविंद से दूरदर्शन पर उनकी ही पंक्तियाँ सुनीं.पंक्तियाँ कुछ इस तरह से थीं-जबसे मैं चला हूँ मंजिल पर मेरी नजर है,रस्ते में मील का पत्थर मैंने नहीं देखा.ये पंक्तियाँ मुझे कुछ इस तरह पसंद आईं कि मैंने इन्हें अपने जीवन का वेदवाक्य ही बना लिया.कई उपलब्धियां प्राप्त कीं तो कई रेत की तरह मुट्ठी में आते-आते फिसल गईं.लेकिन मंजिल-दर-मंजिल ऊँचाइयां छूने के बावजूद मुझे ख़ुशी नहीं मिल सकी;सबकुछ महज एक औपचारिकता बनकर रह गयी.तब मैंने जाना कि सफ़र का असली मजा तो सफ़र में है न कि मकसद को प्राप्त करने में.रास्ते में अगर आप तन्हा हैं,अकेले हैं तो फिर आपके सफ़र का बेमजा होना और सजा बन जाना तय है.
              मित्रों,सफ़र का मजा तो तब है जब आपके साथ कदम-दर-कदम सुख-दुःख को बाँटने के लिए कोई हमसफ़र हो और अगर हमसफ़र तन और मन दोनों से खूबसूरत भी हो तो फिर कौन कमबख्त चाहेगा कि किसी मंजिल पर जाकर उसका सफ़र समाप्त हो जाए.मैं १२ जून को युवती ब्याहने गया था लेकिन साथ में जिसको लाया वह प्रेम था,खालिश प्रेम.प्रथम मुलाकात में ही आशंका संबल में बदल गयी.पिछले चार-पाँच दिन किस तरह गुजर गए मालूम ही नहीं चला.हम दोनों जो अब तक अजनबी थे एक-दूसरे में इस गहराई तक उतर चुके हैं कि लगता ही नहीं है कि हम अभी-अभी मिले हैं.बल्कि हमें तो लगता है कि हम जन्म-जन्मान्तर से एक-दूसरे को जानते हैं,एक-दूजे के लिए ही बने हैं.अब हम दोनों की काया एक है,दिल की धड़कन एक है;सुख-दुःख एक है.मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह कैसा जादू है या चमत्कार है.
               मित्रों,इन दिनों मुझे मेरा जीवन स्वप्न जैसा लग रहा है.जब-जब अपनी आँखों पर यकीन नहीं होता दीवारों को छूकर तसल्ली कर लेता हूँ.अगर मुझे पहले से पता होता कि मेरी शादी कहाँ होने जा रही है तो आपकी कसम मैंने कई साल पहले ही शादी कर ली होती और अपने जीवन में खूबसूरत क्षणों को बढ़ा लेता.सूफी संत इश्के मजाजी (शारीरिक प्रेम) से इश्के हकीकी (ईश्वरीय प्रेम) तक के सफ़र की बात करते थे परन्तु मैंने तो सीधे इश्के हकीकी की उपलब्धि कर ली है.हम समय को रोकने के प्रयास में रात-रात भर जग रहे हैं लेकिन फिर भी वह ठहर नहीं रहा है.रात के बाद हमारे प्रबल विरोध के बावजूद जबरन दिन आ जा रहा है.
              मित्रों,हम (दरअसल अब मेरा स्वतंत्र अस्तित्व विगलित हो चुका है और मैं हम हो गया है) ईशावास्योपनिषद के अनुसार पूर्ण ब्रह्म भले ही न हो पाए हों हम पूर्णरूपेण एकाकार जरूर हो गए हैं.हम दोनों की काया में अब एक ही दिल धड़कता है.आश्चर्यजनक रूप से हमारी पसंद भी एक ही है.चाहे आराध्य की बात हो या फिर फिल्मों की.कल तलक जो एक-दूसरे से पूरी तरह अजनबी थे आज एक-दूसरे के लिए सबकुछ बन चुके हैं.आज हम एक-दूसरे एक बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते.अब मुझे न तो मंजिल की फिक्र है और न ही रास्ते की चिंता.हम दोनों ही एक-दूसरे की मंजिल हैं,सफ़र भी और बसेरा भी.मंजिल चाहे जितनी भी दूर हो रास्ता चाहे कितना ही कठिन क्यों न हो अब हमें वहां तक और फिर उससे भी आगे बढ़ जाने से कोई भी नहीं रोक सकता.

1 टिप्पणी:

  1. वाह
    यही है
    "अर्पण में दर्पण को दर्पन में अर्पण को न भूल पाने वाली बात "

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