रविवार, 25 दिसंबर 2011

गरीबी जाति नहीं देखती जनाब


मित्रों,भारत में जाति का क्या स्थान है इससे आप भी भली-भांति परिचित होंगे.हमारे कुछ पढ़े-लिखे मित्र भी जाति नाम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं.हमारे एक पत्रकार मित्र जो यादव जाति से आते हैं किसी से परिचित होने पर सबसे पहले उसकी जाति पूछते हैं.एक बार उन्होंने पटना से मुजफ्फरपुर तक पदयात्रा की योजना बनाई.तब मुझसे पूछा कि हाजीपुर से मुजफ्फरपुर के बीच सड़क किनारे यादवों के कितने गाँव हैं और तब मैं उनकी जातिभक्ति से हतप्रभ रह गया.यही वे लोग होते हैं जो सड़क पर पड़े घायल की तब तक मदद नहीं करते जब तक उन्हें इस बात की तसल्ली न हो जाए कि दम तोड़ रहा व्यक्ति उनकी ही जाति से है.ऐसे लोग ढूँढने पर बड़ी जातियों में भी बड़ी आसानी से मिल जाएँगे.
                  मित्रों,जहाँ तक मेरा मानना है कि व्यक्ति की जाति सिर्फ तभी देखनी चाहिए जब बेटे-बेटी की शादी करनी हो वरना २४ घंटे,सोते-जागते,उठते-बैठते जाति के बारे में सोंचना अमानवीय तो है ही मूर्खतापूर्ण भी है.ये तो हो गई आम जनता की बात लेकिन हम उनका क्या करें जो विभिन्न जातियों और धर्मों के बीच तनाव की ही खाते हैं.आपने एकदम ठीक समझा है मैं बात कर रहा हूँ उन नेताओं की जो गरीब और गरीब तथा वंचित और वंचित और इस तरह इन्सान और इन्सान के बीच में फर्क करते हैं.
           दोस्तों,गरीबी,जहालत और बेबसी ये ऐसे शह हैं जो कभी जाति-जाति और धर्म-धर्म के बीच भेदभाव नहीं करते.ये तो उतनी ही संजीदगी के साथ सवर्ण हिन्दुओं पर भी नमूदार हो जाते हैं जितनी संजीदगी के साथ अन्य जाति और धर्मवालों पर.फिर अगर हम गरीबों के बीच जाति और धर्म के नाम पर सुविधाएँ और आरक्षण देने में भादभाव करते हैं तो हमसे बड़ा काईयाँ और कोई हो ही नहीं सकता.
         मित्रों,अभी कुछ ही दिनों पहले देश के अग्रणी दलित उद्यमियों ने एक मेले का आयोजन किया शायद मुम्बई में.वहां उन्होंने बताया कि वे लोग अपनी फर्मों और कारखानों में ५०% सीटें दलितों के लिए आरक्षित रखते हैं और बाँकी ५०% अन्य सारी बड़ी-छोटी जातियों के लिए;आखिर गरीबी तो उनमें भी है न.क्या हमारी सरकार और हमारे राजनेताओं को भी इन दलित उद्यमियों से शिक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है?ये दलित उद्यमी कोई रामविलास पासवान के परिवार से नहीं हैं और न हो चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए हैं.इन्होंने गरीबी में जन्म लिया और गरीबी में ही पले-बढ़े.फिर अपनी बुद्धि और बाहुबल से गरीबी से लड़कर उसे पराजित किया और आज सफलता के शिखर पर जा पहुंचे हैं.लेकिन ये लोग नहीं भूले हैं गरीबी के दर्द को जो अपने आपमें सबसे बड़ी बीमारी है.अगर हम इनकी तुलना गरीबी से उठकर आए राजनेताओं से करें तो सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं आएगा.लालू-रामविलास-मुलायम-मायावती जैसे बहुत-से राजनेता हैं जो वास्तव में गुदड़ी के लाल हैं लेकिन सफलता पाते ही,अमीर बनते ही ये अपने गरीबी धर्म को भूल गए और जाति-धर्म की राजनीति में खोकर रह गए.
                     मित्रों,गरीब सिर्फ गरीब होता है;उसकी कोई जाति नहीं होती.अभाव उसका भाई होता है,दुःख उसका पिता और जहालत उसकी माँ.बेबसी और भूख ही उसके भाई-बन्धु होते हैं.मैंने अपने गाँव में कई ऐसे राजपूत-ब्राह्मण देखे हैं जिनके पास पहनने के लिए ढंग का कपड़ा तक नहीं है.जाकर उनकी मजबूरी से पूछिए कि उसकी क्या जाति है?जाकर उनके परिजनों के फटे पांवों और खाली पेटों से पूछिए कि उसका मजहब क्या है?यक़ीनन वो राजपूत-ब्राह्मण-यादव-दलित या मुसलमान नहीं बताएँगे बल्कि अपनी जाति और धर्म दोनों का नाम सिर्फ और सिर्फ गरीबी बताएँगे.मैंने अगर दलितों के घर में गरीबी के कारण भैस बेचने पर लोगों को मातम मनाते देखा है तो मैंने बड़ी जातिवालों के घर में भी बेटी की शादी में इकलौता बैल बेचने के बाद दो-दो दिनों तक चूल्हे को ठंडा रहते हुए भी देखा है.क्या इन दोनों परिवारों की मजबूरी की,उनके आंसुओं की कोई जाति है?क्या इन दोनों घरों में पसरे मातमी सन्नाटे का कोई मजहब है?खुद मेरे चचेरे चाचा को लम्बे समय तक अपनी माँ के पेटीकोट को लुंगी बनाकर पहनना पड़ा और पढ़ाई भी बीच में ही छोडनी पड़ी.क्या मेरे उन चाचा की दीनता और हीनता को किसी खास जाति या धर्म की दीनता या हीनता का नाम देना अनुचित नहीं होगा?मेरे उन्हीं चाचा की पत्नी और बच्चों के कपड़ों पर लगे पैबन्दों की क्या कोई जाति हो सकती या कोई मजहब हो सकता है?पहले भले ही विभिन्न जातियों में गरीबी का अनुपात काफी अलग रहा हो अब लम्बे समय से चले आ रहे जाति-धर्म आधारित आरक्षण के बाद स्थिति बहुत ज्यादा अलग नहीं रह गयी है.इस बात का गवाह सिर्फ एक मैं ही नहीं हूँ बल्कि सरकारी अमलों द्वारा निर्मित गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीनेवालों की सूची भी चीख-चीखकर यही कह रही है कि गरीबों की और गरीबी की कोई जाति नहीं होती,कोई धर्म नहीं होता.
          दोस्तों,अंत में मैं सत्ता पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं से विनम्र निवेदन करता हूँ कि वे कृपया इंसानियत को जातियों और धर्मों में विभाजित न करें.जब गरीबी ने कभी इंसानों और इंसानों के बीच अंतर नहीं किया तो वे कौन होते हैं ऐसा करनेवाले?गरीबी अपने-आपमें ही बहुत बड़ा ईश्वरीय मजाक होती है इसलिए कृपया वे इस क्रूर मजाक का और भी मजाक नहीं बनाएँ.आरक्षण देना हो या कोई और सुविधा देनी हो दीजिए,शौक से दीजिए परन्तु सुविधा दीजिए सिर्फ गरीबी देखकर,गरीबों की पहचान करके;न कि उसकी जाति और धर्म देखकर क्योंकि इस तरह तो बहुत-से ऐसे लोग सुख की उस रौशनी और अवसर से वंचित रह जाएँगे जिन पर उनका भी वास्तविक हक़ है और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी उनके लिए घर में जबरदस्ती घुस आए मेहमान की तरह अड्डा जमा लेगी.         

7 टिप्‍पणियां:

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