शनिवार, 14 जनवरी 2012

अब तो भगवान भी नहीं रहे सुरक्षित


मित्रों,हमारा देश इस समय जनसंख्या-विस्फोट के युग से गुजर रहा है.जहाँ देखिए वहीं अनियंत्रित और अनुशासनहीन भीड़.नई पीढ़ी प्रत्येक पुराने मूल्य को नकारने पर आमादा है.मानो केवल पुराना होना ही सबसे बड़ा कलंक हो गया.पुराने मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं और नए मूल्यों की स्थापना भी नहीं हो रही.परिणाम यह है कि हमारा भारतीय समाज एक शाश्वत मूल्यहीनता के दौर में प्रवेश कर गया है.एक ऐसे दौर में जिसके दोनों सिरों पर अंधेरा-ही-अंधेरा है,अंधेरे का विकट साम्राज्य.
                    मित्रों,एक समय था जब हम लोग मंदिरों और देवमूर्तियों को सत्य का अंतिम ठिकाना मानते थे.दो लोगों में किसी बात को लेकर गंभीर विवाद पैदा हो गया और सच-झूठ का निर्णय नहीं हो पा रहा है तो फिर चलिए दोनों पक्ष देवमूर्ति को छूकर खाइए कसम कि पुत्र मर जाए या पति मर जाए जो मैं झूठ रहा/रही होऊँ.लोगों का अटल विश्वास था कि कोई बेईमान-से-बेईमान व्यक्ति भी देवमूर्तियों को छूकर झूठी कसमें नहीं खाएगा और अगर वह ऐसा करता है तब वह देवमूर्ति उसे अवश्य दण्डित करेगी.इस प्रकार समाज में धर्म और अधर्म व विश्वास और अविश्वास के बीच एक प्रभावकारी संतुलन बना रहता था.
                            मित्रों,फिर वो दौर भी आया जब झूठी कसमें खानेवालों ने पाया कि ऐसा करने से कोई नुकसान तो होता ही नहीं.फिर तो हमारे धर्मभीरु समाज में ऐसा करनेवालों की संख्या बढती ही चली गयी.साथ ही क्रमशः देव मूर्तियों और मंदिरों के प्रति लोक-आस्था में भी गिरावट का दौरे-दौरा चलता रहा और आज हमारा समाज एक ऐसे मुकाम पर आ पहुंचा है जहाँ इन मंदिरों और देवमूर्तियों के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो गया है.सबसे पहले २०१० में रजरप्पा स्थित महान छिन्नमस्तिका मंदिर से माता की पिण्डिका को चोरों द्वारा ध्वस्त कर देने और उसमें से मूल्यवान धातुओं और पत्थरों की चोरी की घटना घटी और फिर तो यह सिलसिला ही चल पड़ा.अब हालत ऐसी हो गयी हैं कि हमारे प्रदेश का कोई भी मंदिर या मूर्ति सुरक्षित नहीं है.ये मंदिर या इनमें स्थापित मूर्तियाँ केवल एक जड़-वस्तु नहीं हैं बल्कि ये लोक-आस्था के उद्दाम प्रतीक भी हैं.लोगों के इस विश्वास का प्रतीक कि जब भी मन निराश हो  जाए और चारों तरफ से पंगु हो जाए तब उसे ईश्वर सहारा देता है.लोगों की इस आस्था के प्रतीक हैं ये कि जब भी कोई पाप करेगा तो उसे उसका दंड अवश्य भुगतना पड़ेगा.अगर ये आस्था और विश्वास के दुर्ग ढह गए तो फिर कोई भी अधर्म करने से नहीं डरा करेगा और तब निश्चित रूप से समाज में कभी दूर नहीं हो सकनेवाली अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी और हम फिर से एकबारगी आदिकालीन सामाजिक स्थिति में पहुँच जाएँगे जिस समाज का सिर्फ एक ही धर्म होगा और आस्था भी एक ही होगी कि जिसकी लाठी उसकी भैंस.फिर तो बलवान अपने से निर्बलों पर इस कदर कहर ढाएंगे कि मानवता की रूह ही कांपने लगेगी.न तो किसी का धन ही सुरक्षित रहेगा और न ही स्त्री ही.तब भाई ही बहनों के साथ बलात्कार किया करेंगे अथवा बहनें ही भाइयों के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए बेहाल होने लगेंगी.
                मित्रों,प्रत्येक क्रिया का कोई-न-कोई कारण होता है.नई पीढ़ी की मूल्यहीनता के भी कारण हैं.मेरी समझ से सबसे बड़ा कारण है दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली.हम उन्हें शिक्षित तो कर रहे हैं परन्तु दीक्षित नहीं कर रहे.हमने उन्हें यह तो रटा दिया की सत्यं वद,धर्मं चर परन्तु खुद कभी सत्याचरण नहीं किया और जीवनपर्यंत अधर्म और अनीति में लीन रहे.हमारी नई पीढ़ी को केवल कोरे शब्द नहीं चाहिए उन्हें तो उदहारण भी चाहिए और अगर हमें सनातन भारतीय सामाजिक मूल्यों की रक्षा करनी है,अपनी इस अमूल्य थाती को बचाना है तो हमें खुद ही उदाहरण बनना पड़ेगा.कोई राम या कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए नहीं आनेवाले जो भी करना होगा हमें ही करना होगा.परन्तु क्या हम ऐसा करेंगे.............?

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