मित्रों,कहना न होगा कि न्याय-व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने के चलते हमारे देश में आज जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत ने मूर्त रूप ग्रहण कर लिया है। न्याय किसको चाहिए होता है?उसको जो धर्म पर चलता है अथवा कमजोर होता है। जब न्याय नहीं मिलने की उल्टी गारंटी हो तो कोई क्यों धर्म पर चलेगा या क्यों कोर्ट में जाएगा? फैसला ऑन द स्पॉट खुद ही क्यों नहीं कर लेगा? आज सज्जन लोग भी कानून को अपने हाथों में ले रहे हैं तो इसके लिए दोषी कौन है? क्या इसके लिए दोषी खुद कानून ही नहीं है? हमारे राजनेता अक्सर कहते हैं कि कानून अपना काम करेगा मगर कैसे? एक तो कानून अमीरों की रखैल है,न्यायालयों में जितना भ्रष्टाचार है किसी अन्य सरकारी महकमे में शायद ही होगा वहीं दूसरी तरफ देश की 20% अदालतों में जज हैं ही नहीं। हाल में एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि हर साल 2630 करोड़ रुपये निचली अदालतों में घूसखोरी में चले जाते हैं। आज देश की 2% जनसंख्या की संख्या के बराबर मुकदमे लंबित हैं। अगर यह मान लिया जाए कि एक मुकदमे से औसतन 5 लोगों के हित जुड़े हुए हैं तो कम-से-कम भारत के 15 करोड़ लोग कम-से-कम 15 सालों से न्याय मिलने की बाट जोह रहे हैं और बजाए अदालतों की संख्या बढ़ाने के हमारी सरकारें वर्तमान जजों के पदों में से भी 20% को खाली रखे हुए हैं।
मित्रों,120वें विधि आयोग की रिपोर्ट में इस बात की ओर संकेत किया गया है कि भारत, दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है। अमरीका और ब्रिटेन में 10 लाख लोगों पर करीब 150 न्यायाधीश हैं जबकि इसकी तुलना में भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 10 न्यायाधीश हैं। अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने सरकार को न्यायाधीशों की संख्या में 2007 तक चरणबध्द ढंग से वृध्दि करने का निर्देश दिया था ताकि 10 लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीश हो जाएं, जो अब तक पूरा नहीं किया गया है। हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के मुताबिक़ यदि न्यायाधीशों की मौजूदा संख्या के हिसाब से ही मामलों की सुनवाई की जाए तो इसे निपटाने में लगभग 464 साल लग जाएंगे। आप स्वयं सोंच सकते हैं कि उस समय हमारी कौन-सी पीढ़ी मुकदमा लड़ रही होगी।
मित्रों,मैं अपने राज्य बिहार और केंद्र समेत सभी सरकारों से पूछना चाहता हूँ कि क्या इस तरह जनता को न्याय से वंचित रखकर वे देश और प्रदेश का न्याय के साथ विकास करेंगे? इस तरह तो सिर्फ भ्रष्टाचार के साथ विकास ही हो सकता है क्योंकि अगर विकास-कार्यों में धांधली हुई तो दोषियों को सजा कैसे मिलेगी जब जज होंगे ही नहीं? केंद्रीय कानून मंत्री अश्विनी कुमार के अनुसार इस समय देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के अनुमोदित पदों की कुल संख्या 895 है और पहली नवंबर 2012 की स्थिति के अनुसार 281 पद रिक्त हैं। कुमार ने बताया कि न्यायाधीशों के सबसे अधिक रिक्त पद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हैं। वहां 73 पद रिक्त हैं जबकि पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में 26, बंबई उच्च न्यायालय में 20, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और कलकत्ता उच्च न्यायालयों में 17,17 पद रिक्त हैं।
मित्रों,जिला और अधीनस्थ अदालतों के आंकड़े भी समान रूप से चिंताजनक हैं। इन अदालतों में कुल 18,008 पद मंजूर हैं, जबकि 3,634 पद खाली पड़े हैं। गुजरात में 816 न्यायाधीशों की और जरूरत है, अभी वहां केवल 863 न्यायाधीश हैं। बिहार में 681 न्यायाधीश हैं, जबकि वहां 1,666 न्यायाधीशों की दरकरार है। उत्तर प्रदेश में कुल 1,897 न्यायाधीश कार्यरत हैं और वहां 207 रिक्तियां हैं। पश्चिम बंगाल में कुल 146 न्यायाधीशों की जरूरत है। ऐसे राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेशों की संख्या केवल दो हैं, जहां जरूरत के मुताबिक पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश हैं-अरुणाचल प्रदेश और चंडीगढ़।
मित्रों, पिछले साल सितंबर तक सर्वोच्च न्यायालय में कुल 56,304 मुकदमे लंबित थे। शीर्ष अदालत का दावा है कि यदि संबंधित मामलों को बाहर रखा जाए, तो लंबित मुकदमों की संख्या केवल 32,423 रह जाएगी। इस न्यायालय में एक साल तक पुराने मुकदमों की कुल संख्या 19,968 हैं। अदालत के अपने विश्लेषण के मुताबिक इस लिहाज से पहले से लंबित मुकदमों की तादाद 36,336 हैं। देश के 21 उच्च न्यायालयों के आंकड़े दर्शाते हैं कि उनके पास 43,50,868 मुकदमे लंबित हैं। इनमें 34,34,666 दीवानी मामले और 9,16,202 फौजदारी मामले शामिल हैं। इन आंकड़ों का बढिय़ा पहलू यह है कि कुछ उच्च न्यायालयों में जितने नये मामले आए हैं, उनसे कहीं ज्यादा संख्या में पुराने मुकदमों का निपटारा किया गया है। इस वजह से लंबी अवधि के दौरान लंबित मुकदमों की संख्या घटेगी। जिन उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या घट रही है, उनमें पटना (-3.80 फीसदी), दिल्ली (-1.78 फीसदी), गुवाहाटी (-1.42 फीसदी), गुजरात (-0.76 फीसदी) और छत्तीसगढ़ (-0.50 फीसदी) शामिल हैं। बाकी बचे उच्च न्यायालयों में जितने पुराने मुकदमों का निपटारा किया गया, उनसे कहीं ज्यादा संख्या में नये मामले आए। ऐसे अदालतों में कर्नाटक (+5.06 फीसदी), आंध्र प्रदेश (+2.92 फीसदी), मद्रास (+2.37 फीसदी) और सिक्किम (+12.96 फीसदी) प्रमुख हैं। राज्यों के अधीनस्थ न्यायालयों में भी निपटाए गए पुराने मुकदमों की संख्या और नये मामलों के आंकड़े मिलेजुले हैं। इन न्यायालयों में कुल 2,76,70,417 मुकदमे लंबित हैं, जिनमें से 78,34,130 दीवानी और 1,98,36,287 फौजदारी मामले हैं। खुशी की बात है कि कुछ राज्यों की अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम (नये मुकदमों की तुलना में ज्यादा पुराने मुकदमों का निपटारा) हो रही है। महाराष्ट्र में हालांकि 194 न्यायाधीशों की कमी है, लेकिन वहां लंबित मुकदमों की संख्या में 1.72 फीसदी की गिरावट आई है। इसी तरह दिल्ली में 5.60 फीसदी, मिजोरम में 14.54 फीसदी, तमिलनाडु में 1.26 फीसदी और चंडीगढ़ में 2.68 फीसदी लंबित मुकदमे घटे हैं।देश के सभी जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या 0.44 फीसदी बढ़ी है। यदि इन अदालतों को पर्याप्त बुनियादी ढांचा, कर्मचारी और धन मुहैया कराया जाए तो अगले कुछ वर्षों के दौरान इस मुश्किल का हल निकल आना चाहिए।
मित्रों, न्यायिक सुधारों का कार्यान्वयन नहीं होने के कारणों में से एक के रूप में न्याय तंत्र को कम बजटीय सहायता का भी उल्लेख किया जाता रहा है। 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) के दौरान न्याय तंत्र के लिए 700 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे जो कुल योजना व्यय 8,93,183 करोड़ रुपए का 0.078 प्रतिशत था। नवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तो आवंटन और कम था जो सिर्फ 0.071 प्रतिशत था। यह माना गया है कि इतना अल्प आवंटन न्याय तंत्र की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी अपर्याप्त है। यह कहा जाता है कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 0.2 प्रतिशत ही न्याय तंत्र पर खर्च करता है।
मित्रों,न्याय में देरी न्याय देने से इंकार है इस बात को मानते हुए उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा मामले की इस बात को दोहराया कि, शीघ्र न्याय प्रदान करना, आपराधिक मामलों में तो और भी अधिक शीघ्र, राज्य का संवैधानिक दायित्व है, तथा संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21, 19, एवं 14 तथा राज्य के निर्देशक सिध्दांतों से भी निर्गमित न्याय के अधिकार से इंकार करने के लिए धन या संसाधनों का अभाव कोई सफाई नहीं है। यह समय की मांग है कि भारतीय संघ और विभिन्न राज्य अपने संवैधानिक दायित्वों को समझें और न्याय प्रदान करने के तंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ ठोस कार्य करें।
मित्रों,दुर्भाग्यवश हमारी राज्य और केंद्र सरकारों के कानों पर अब तक उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ की टिप्पणियों के बाद से जूँ तक नहीं रेंगी है। अदालतें 2002 ई. से कहीं ज्यादा संख्या में खाली हैं और न्याय नदारद है। मैं खुद भी जजों के पदों के खाली रहने से विलंबित न्याय का भुक्तभोगी हूँ। बात बहुत पुरानी है। साल 1934 के भूकंप को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि मेरे ननिहाल जगन्नाथपुर (महनार) को हैजे ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। मेरे नाना स्व. रामगुलाम सिंह जब तक बीमारी को समझ पाते तब तक उनके कंधों पर उनके दो-दो नौनिहाल बेटों का जनाजा उठाने की जिम्मेदारी आ चुकी थी। बाद में उनके तीन और संतानें हुईं लेकिन तीनों बेटियाँ। बड़ी कमला देवी की शादी उन्होंने मटिऔर (समस्तीपुर जिला) में मुंसिफ मजिस्ट्रेट जगदीश बाबू के लड़के माधव प्रसाद सिंह से की। मंझली बेटी जो मेरी माँ थी की शादी जुड़ावनपुर के नवधनाढ्य बाबू महेश नारायण सिंह के बेटे से हुई। सबसे छोटी प्रमिला बचपन से ही मानसिक रोग से ग्रस्त थी अतः किशोरावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो गई।
मित्रों,बेटे के गम और बाद में बेटा नहीं होने की बात ने मेरे नाना को विक्षिप्त जैसा कर दिया और उन्होंने मेरी नानी का परित्याग-जैसा कर दिया। नानी को उसके देवरों के बेटों ने नाना के जीते-जी ही तंग करना शुरू कर दिया और गाली-गलौज, मार-पीट नानी के लिए रोजाना की बात हो गई। कई बार तो डंडों से और कई बार कांसे के बरतनों से नानी की हड्डियाँ तोड़ दी गईं। कहने को तो अब भी घर के मालिक मेरे नाना ही थे लेकिन नानी जैसे मंदिर की घंटी बना दी गई थी। मेरे मौसी को नानी से ज्यादा मतलब कभी नहीं रहा लेकिन मेरी माँ से अपनी माँ की हालत देखी न गई और वो ससुराल छोड़कर जगन्नाथपुर में ही रहने लगी। अभी भी नानी को नाना की मौन-स्वीकृति से पेट पर अनाज मिलता था जिसमें मेरी माँ,मेरे पिताजी और मेरे बड़ी बहन मुन्नी दीदी का गुजारा संभव नहीं था। कई बार तो चूल्हा ठंडा ही रह जाता और इनलोगों को केवल पानी पीकर सो जाना पड़ता था। इसी बीच नाना के साथ उनके सबसे छोटे भाई ने चंद बैगनों को लेकर बदतमीजी कर दी और नाना का उनसे मोहभंग हो गया। नाना फिर से नानी के चूल्हे में खाने लगे। सन् 1974 में उनकी मौत से पहले गाँव वालों के भारी दबाव को नकारते हुए नाना ने भतीजों के नाम जमीन नहीं की और स्वर्गवासी हो गए। उन्होंने कहा भी कि अगर मैं भतीजों को जमीन लिख देता हूँ तो ये लोग मेरी विधवा को फुटबॉल बनाकर रख देंगे। बाद में 1980 में मेरी बड़ी मौसी का भी देहान्त हो गया। इसके बाद मौसा जो जिला मत्स्य पदाधिकारी थे,का चारित्रिक पतन हो गया और उनका कई विवाहित-अविवाहित महिलाओं के साथ संबंध रहे। इसी बीच नानी ने 1990 में अपनी वसीयत लिखी जिसके अनुसार माँ को कुल पैतृक सम्पत्ति का दो तिहाई हिस्सा और मेरे दोनों मौसेरे भाइयों को एक तिहाई हिस्सा मिलना था परन्तु ऐसा हो न सका। लगभग पूरा गाँव माँ के खिलाफ हो गया और उसके चचेरे भाइयों ने नानी के जीते-जी जबरन जमीन जोत ली। बाद में नानी की मृत्यु के बाद माँ ने 1994 में न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। केस नं. था 54/1994। भगवान न करे किसी को वैसे दिन भी देखने पड़ें जैसे हमने तब देखे जब कोर्ट में गवाही गुजर रही थी। गाँव से तो किसी ने हमारे पक्ष में गवाही दी ही नहीं और आस-पास के गाँवों से हमने जो भी गवाह जुटाए उनको मेरे चचेरे मामाओं ने इस तरह डराया-धमकाया कि कई बार तो लगा कि हम निर्धारित न्यूनतम 5 पाँच गवाह जुटा ही नहीं पाएंगे और अन्ततः यह धर्मयुद्ध हार जाएंगे।
मित्रों,अंत में भगवान की कृपा से मार्च 1999 में न्यायालय ने अपना निर्णय दिया और मेरी माँ के पक्ष में दिया। फिर हमने कमिश्नर बहाल करवाया और उन्होंने भी अक्टूबर,2005 में फाइनल डिक्री दे दी फिर भी अब तक कोर्ट का आदेश लागू नहीं हो पाया है और जमीन की दखलदहानी नहीं हो पाई है। बार-बार तारीख-पर-तारीख। कभी उस तारीख को मिसलेनियस डे हो जाता है तो कभी जज की कुर्सी बदली हो जाती है या किसी अन्य कारण से हमारा कोर्ट जजविहीन हो जाता है। एक ही जज कई-कई अदालतों में बैठता है और इसके चलते भी जनता को न्याय नहीं मिलता है मिलती है तो केवल तारीख। इस तरह तारीख मिलते-मिलते क्या मेरी माँ भी तारीख का हिस्सा बन जानेवाली है? अगर जजों के पदों को बिना देरी किए भरा नहीं गया और न्याय-प्रणाली को समय रहते सरल नहीं बनाया गया तो यकीनन ऐसी ही होनेवाला है।
मित्रों,कई नकारात्मक मामलों में अपने भारत का इस वसुधा पर कोई जोड़ नहीं है। है कोई दूसरा ऐसा महान लोकतंत्र इस ग्लोब पर जहाँ कि अदालतों में 3 करोड़ से मुकदमें न्याय के लिए इंतजार कर रहे हों फिर भी कुल जजों के पदों में से लगभग 20% खाली हों। न तो अधीनस्थ न्यायालयों में नियुक्ति करनेवाली राज्य सरकारों और न ही उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में नियुक्ति करनेवाली केंद्र सरकार को इस बात की चिंता है कि कानून तोड़नेवालों को दंड और पीड़ितों को न्याय मिल रहा है या नहीं। यह स्थिति तब है जबकि देश का कानून मंत्री खुद कह रहा है कि वर्तमान भारत में एक मुकदमे के निपटान में औसतन 15 साल लग रहे हैं। इसका यह मतलब कतई नहीं निकालना चाहिए कि प्रत्येक मुकदमे का फैसला 15 साल में आ ही जाता है बल्कि कभी-कभी तो 50-50 सालों तक भी निर्णय नहीं आता। इतना ही नहीं फैसला आने के बाद भी संभव है कि फैसले को लागू करने में धरती को सूर्य की 10-20 बार और परिक्रमा करनी पड़े। नतीजा यह होता है कि न्याय की अपील परदादा करता है और परपोता भी न्याय मिलने का इंतजार करता हुआ बूढ़ा हो जाता है। सच्चाई तो यह है कि जो लोग एक बार न्याय की गुहार लगा बैठते हैं वे आजीवन खुद को एक भूलभुलैया में फँसा हुआ महसूस करते हैं और उनकी गति साँप-छुछुंदर वाली हो जाती है।
मित्रों,आज दिन-प्रतिदिन आम आदमी और न्याय के बीच फासला बढ़ता ही जा रहा है। न्याय तो मिलता नहीं लेकिन इस जद्दोजहद में अमीर कम अमीर रह जाता है और गरीब तो सड़कों पर ही आ जाता है। हमने खुद ही अपने इन खुरदरे हाथों से न जाने कोर्ट के कर्मचारियों और न्यायाधीशों को पिछले 20 सालों में कितने हजार घूस के रूप में दिए हैं जबकि न्याय पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार था। अगर कानून को लागू करवाने की कूव्वत सरकार में नहीं थी तो क्यों दिया स्त्रियों को पैतृक-सम्पत्ति में बराबरी का अधिकार? क्यों बनाया ऐसा कानून? क्यों बर्बाद किया संसद का और हमारे परिवार का कीमती वक्त? कम्प्यूटर के इस युग में जबकि माउस को क्लिक करते ही कार्य सम्पन्न हो जाते हैं क्या प्रार्थी के पास इतना धैर्य होता है कि वह 15-20 सालों तक न्याय मिलने का इंतजार करता रहे और महीने में कई-कई बार कोर्ट का चक्कर लगाए और भ्रष्टाचार के देवताओं की जेबों को गर्म करता रहै। मेरी माँ को भी उसका वैधानिक और सामाजिक अधिकार चाहिए। मेरी माँ को 20 साल बाद भी न्यायालय से न्याय मिलने का इंतजार है। आज भी मेरी माँ को उसके वैधानिक,आर्थिक और सामाजिक अधिकारों से वंचित रखने वाले उसके चचेरे भाई उसके हिस्से की जमीन जोत रहे हैं और गर्व से माथा ऊँचा किए घूम रहे हैं और आज भी दंभपूर्वक सबसे यह कहते फिर रहे हैं कि मेरी माँ को न्यायालय से भी न्याय नहीं मिलेगा और अंततः उसे अपना बाजिब हक छोड़ना पड़ेगा। मैं बिहार और केंद्र की सरकारों से जानना चाहता हूँ कि मेरी माँ और उसके जैसे न्याय के लिए प्रतिक्षारत अन्य पीड़ितों को कब न्याय मिलेगा? क्या उन्हें इसी जन्म में न्याय मिल जाएगा अथवा कई और जन्म लेने पड़ेंगे? और अगर ऐसा हुआ तो इसके लिए दोषी कौन होगा जजों की खाली और धूल से सनी कुर्सियाँ या हमारी सरकारें? हमारी न्यायपालिका का वेद-वाक्य है जहाँ धर्म है वहीं जय है मगर क्या जजों के हजारों पदों के खाली रहते कभी ऐसा संभव है या हो पाएगा?
भारत में 124 करोड़ लोगों के लिए न्यायव्यवस्था भी दे पाना सरकारों के बूते के बाहर है इसीलिए दूसरी तरह की व्यवस्थाएं यह खाली स्थान भरती आई हैं
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