मित्रों,टीम अन्ना की पटना रैली ऐतिहासिक गांधी मैदान में 30 जनवरी को सम्पन्न हो चुकी है हालाँकि उसकी सफलता और विफलता को लेकर अभी भी बहस जारी है और जारी रहेगी। यह तथ्य है कि इस रैली में उतनी भीड़ जमा नहीं हो पाई जितनी की उम्मीद की जा रही थी। परन्तु मेरी समझ से परम आदरणीय अन्ना हजारे जी की मूल समस्या अपेक्षित भीड़ का जमा नहीं पाना नहीं है बल्कि यह है कि अन्ना की टीम एक बार टूट चुकने के बावजूद एकजुट नहीं दिख पा रही है। अन्ना हजारे की अहम सहयोगी और पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी ने आश्चर्यजनक तरीके से रद्दी की टोकरी में फेंकने के लायक संशोधित लोकपाल विधेयक के मसौदे का समर्थन कर दिया है। हालाँकि अन्ना हजारे इस विधेयक को पूरी तरह से ख़ारिज कर चुके हैं। ट्विटर पर किरण बेदी ने लिखा है, “यदि हम प्रस्तावित लोकपाल के मसौदे पर आगे बढ़ते हैं तो कोई नुकसान नहीं होगा और आगे चलकर जरूरत पड़ने पर हम इसे और बेहतर बना सकते हैं।” इससे पहले, भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल गठन के मुद्दे पर सरकार को मजबूर करने वाले अन्ना हज़ारे ने केंद्रीय मंत्रिमंडल की ओर से मंज़ूर किए गए लोकपाल विधेयक के नए मसौदे को सिरे से ख़ारिज कर दिया। उन्होंने इस मसौदे को 'झूठा' बताते हुए कहा कि सरकार एक 'कमज़ोर' क़ानून पारित करवाना चाहती है। अन्ना ने कहा, "भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए सख्त लोकपाल लाने के मसले पर अब प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी पर और भरोसा नहीं किया जा सकता है। अगर इस मुद्दे पर वे ईमानदार होते तो इस सिलसिले में ठोस फैसला लेने में सरकार को दो साल नहीं लगते"। जाहिर है कि टीम अन्ना में एक बार फिर से मतभेद तो उत्पन्न हो ही गया है समन्वय की भी भारी कमी है। इसके साथ ही टीम अन्ना के बाँकी सदस्यों की अन्ना और उनके भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन के प्रति निष्ठा भी संदेह के घेरे में आ गई है।
मित्रों, प्रश्न उठता है कि जब अपनी टीम में ही अन्ना हजारे अपने उद्देश्यों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध कुछ दर्जन लोगों को शामिल नहीं कर पा रहे हैं तो फिर इस बात की क्या गारंटी है कि उनकी रैली या आन्दोलन में जमा होनेवाले लोग उनके पवित्र उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध ही होंगे? मैं पहले भी अपने पूर्व के आलेखों में निवेदन कर चुका हूँ कि अन्ना को अपनी टीम के लिए कुछ दर्जन पूर्ण प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का नहीं मिल पाना अन्ना की समस्या नहीं है बल्कि वर्तमान युग की समस्या है। कदाचित् आज के भारत में अगर गांधी खुद फिर से आ जाएँ तो उनको भी इस तरह की समस्याओं से जूझना ही पड़ेगा। देश का पढ़ा-लिखा तबका विभिन्न मुद्दों पर इस कदर मतभिन्नता और स्वार्थपरकता का शिकार है कि उनको एक मंच पर लाना मेंढ़क को तराजू पर तौलने की तरह मुश्किल है और रहेगा। साथ ही जिस तरह अरविन्द केजरीवाल आदि ने अन्ना के साथ धोखा किया उससे जनता इस बात को लेकर आश्वस्त भी नहीं हो पा रही है कि टीम अन्ना में आगे टूट नहीं होगी या उनके आंदोलन को वैसी सफलता फिर से मिल सकेगी जैसी कि पिछले दो सालों में मिलती रही है। इन परिस्थितियों में अन्ना को अगर फिर से जनता का विश्वास जीतना है तो पहले तो उनको अपनी टीम में ऐसे लोगों को ही शामिल करना होगा जो उनके परम-पावन उद्देश्यों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हों,अटूट निष्ठा रखते हों। यह कतई आवश्यक नहीं कि टीम में कोई प्रसिद्ध व्यक्तित्व उपस्थित रहे ही। बल्कि सेलिब्रिटी को टीम में शामिल करने के अपने खतरे हैं जैसा कि पहले अरविन्द केजरीवाल के मामले में देखा गया और अब किरण बेदी के समझौतावादी बयान के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। बल्कि टीम अन्ना में आने पर कोई भी अनजाना व्यक्ति भी जल्दी ही प्रसिद्ध हो जाएगा इसमें संदेह नहीं। मैं एक और उस गलती की ओर अन्ना जी का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा जो उन्होंने पटना में की और वह गलती यह थी कि उन्होंने वर्तमान बिहार में व्याप्त भ्रष्टाचार को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया। मैं नहीं समझता कि नीतीश राज में लालू-राबड़ी के समय से भ्रष्टाचार में किसी तरह की कमी आई है बल्कि इसमें मात्रात्मक और गुणात्मक वृद्धि ही हुई है। इतना जरूर हुआ है कि इसका विकेंद्रीकरण हो गया है। अन्ना को अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की भावना देश में उत्पन्न करनी है तो उनको भविष्य में भ्रष्टाचार को खाँचे में बाँटने की गलती नहीं करनी होगी। मैं नहीं मानता और देश की जनता भी नहीं मानती है कि भ्रष्टाचार की कोई पार्टी होती है,कोई जाति होती है या कोई धर्म होता है। अन्ना जी भ्रष्टाचार सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार होता है चाहे उसको करनेवाला कलमाडी हो,पवार हो,लालू हो,मुलायम हो,राजा हो,माया हो,मोदी हो या नीतीश हो। माना कि नीतीश जी पर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप आजतक नहीं लगे हैं लेकिन उनके शासन-तंत्र में व्याप्त अराजकतापूर्ण भ्रष्टाचार अगर दिन-प्रतिदिन सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा है तो इसके लिए वही जिम्मेदार हैं और होंगे। माना कि रैली के सफल और सरल आयोजन के लिए नीतीश का समर्थन प्राप्त करना जरूरी था लेकिन रैली तो बिना सरकारी अनुमति के भी उसी तरह आयोजित हो सकती थी जिस तरह अन्ना जी पूर्व में दिल्ली में आयोजित कर चुके हैं। मैं समझता हूँ तब रैली में ज्यादा लोग जमा होते और तब रैली निश्चित रूप से संख्यात्मक दृष्टि से भी सफल होती।
मित्रों, प्रश्न उठता है कि जब अपनी टीम में ही अन्ना हजारे अपने उद्देश्यों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध कुछ दर्जन लोगों को शामिल नहीं कर पा रहे हैं तो फिर इस बात की क्या गारंटी है कि उनकी रैली या आन्दोलन में जमा होनेवाले लोग उनके पवित्र उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध ही होंगे? मैं पहले भी अपने पूर्व के आलेखों में निवेदन कर चुका हूँ कि अन्ना को अपनी टीम के लिए कुछ दर्जन पूर्ण प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का नहीं मिल पाना अन्ना की समस्या नहीं है बल्कि वर्तमान युग की समस्या है। कदाचित् आज के भारत में अगर गांधी खुद फिर से आ जाएँ तो उनको भी इस तरह की समस्याओं से जूझना ही पड़ेगा। देश का पढ़ा-लिखा तबका विभिन्न मुद्दों पर इस कदर मतभिन्नता और स्वार्थपरकता का शिकार है कि उनको एक मंच पर लाना मेंढ़क को तराजू पर तौलने की तरह मुश्किल है और रहेगा। साथ ही जिस तरह अरविन्द केजरीवाल आदि ने अन्ना के साथ धोखा किया उससे जनता इस बात को लेकर आश्वस्त भी नहीं हो पा रही है कि टीम अन्ना में आगे टूट नहीं होगी या उनके आंदोलन को वैसी सफलता फिर से मिल सकेगी जैसी कि पिछले दो सालों में मिलती रही है। इन परिस्थितियों में अन्ना को अगर फिर से जनता का विश्वास जीतना है तो पहले तो उनको अपनी टीम में ऐसे लोगों को ही शामिल करना होगा जो उनके परम-पावन उद्देश्यों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हों,अटूट निष्ठा रखते हों। यह कतई आवश्यक नहीं कि टीम में कोई प्रसिद्ध व्यक्तित्व उपस्थित रहे ही। बल्कि सेलिब्रिटी को टीम में शामिल करने के अपने खतरे हैं जैसा कि पहले अरविन्द केजरीवाल के मामले में देखा गया और अब किरण बेदी के समझौतावादी बयान के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। बल्कि टीम अन्ना में आने पर कोई भी अनजाना व्यक्ति भी जल्दी ही प्रसिद्ध हो जाएगा इसमें संदेह नहीं। मैं एक और उस गलती की ओर अन्ना जी का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा जो उन्होंने पटना में की और वह गलती यह थी कि उन्होंने वर्तमान बिहार में व्याप्त भ्रष्टाचार को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया। मैं नहीं समझता कि नीतीश राज में लालू-राबड़ी के समय से भ्रष्टाचार में किसी तरह की कमी आई है बल्कि इसमें मात्रात्मक और गुणात्मक वृद्धि ही हुई है। इतना जरूर हुआ है कि इसका विकेंद्रीकरण हो गया है। अन्ना को अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की भावना देश में उत्पन्न करनी है तो उनको भविष्य में भ्रष्टाचार को खाँचे में बाँटने की गलती नहीं करनी होगी। मैं नहीं मानता और देश की जनता भी नहीं मानती है कि भ्रष्टाचार की कोई पार्टी होती है,कोई जाति होती है या कोई धर्म होता है। अन्ना जी भ्रष्टाचार सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार होता है चाहे उसको करनेवाला कलमाडी हो,पवार हो,लालू हो,मुलायम हो,राजा हो,माया हो,मोदी हो या नीतीश हो। माना कि नीतीश जी पर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप आजतक नहीं लगे हैं लेकिन उनके शासन-तंत्र में व्याप्त अराजकतापूर्ण भ्रष्टाचार अगर दिन-प्रतिदिन सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा है तो इसके लिए वही जिम्मेदार हैं और होंगे। माना कि रैली के सफल और सरल आयोजन के लिए नीतीश का समर्थन प्राप्त करना जरूरी था लेकिन रैली तो बिना सरकारी अनुमति के भी उसी तरह आयोजित हो सकती थी जिस तरह अन्ना जी पूर्व में दिल्ली में आयोजित कर चुके हैं। मैं समझता हूँ तब रैली में ज्यादा लोग जमा होते और तब रैली निश्चित रूप से संख्यात्मक दृष्टि से भी सफल होती।
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