मित्रों,यह दौर बड़ा ही संक्रमण भरा है। प्राचीन काल में जहाँ हिन्दू-सनातन समाज में चार आश्रम हुआ करते थे-ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास वहीं कालान्तर में व्यावहारिक कठिनाइयों के चलते सिर्फ दो आश्रम ही शेष बचे हैं-गृहस्थ और संन्यास। परन्तु आज के समय में ये दोनों आश्रम भी संकट में हैं। गृहस्थाश्रम को शास्त्रों में जहाँ धर्म-प्राप्ति का माध्यम माना गया है वहीं संन्यास को मोक्ष-प्राप्ति का लेकिन हम देखते हैं कि आज हिन्दू-गृहस्थ और संन्यासी दोनों ही पथ-भ्रष्ट हो रहे हैं,उनमें से कई तो अपने मार्ग से भटक भी गए हैं। पहले जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर के पद पर परम-ग्लैमरस राधे माँ को बिठाने और अब महानिर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर के पद पर नित्य कुकर्म में रत रहनेवाले नित्यानंद को बिठा देने से संन्यास-आश्रम और संन्यासियों के अखाड़ों के औचित्य पर ही प्रश्न-चिन्ह लग गया है। प्रश्न उठता है कि इन अखाड़ों में बहुमत किस तरह के संन्यासियों का है? क्या इनके सदस्यों में बहुमत नित्यानंद और राधे माँ जैसे संन्यासियों का है,उनकी तरह की सोंच रखनेवाले संन्यासियों का है? अगर हाँ तो फिर क्या औचित्य है ऐसे अखाड़ों का और अगर नहीं तो फिर नित्यानंद और राधे माँ कैसे महामंडलेश्वर के महान पद पर काबिज हो गए? मुझे संन्यासियों के अखाड़ों की परंपरा से कोई निजी शत्रुता नहीं है मगर जब संन्यासी आध्यात्मिक चिंतन और भगवद्भक्ति को त्याग कर अनैतिक आमोद-प्रमोद में संलिप्त हो रहे हैं तो सिर्फ ढोंग के लिए संन्यास-आश्रम और अखाड़ों को बनाए रखने की क्या आवश्यकता है? अगर किसी संन्यासी से ब्रह्मचर्य नहीं संभल पा रहा है तो उसे गृहस्थ बन जाना चाहिए। भारत में इस तरह की परंपरा भी रही है। इससे दोनों ही आश्रमों की गरिमा बनी रहेगी। यह क्या कि धर्मभीरू लोगों की मूर्खता का लाभ उठाते हुए सामान्य गृहस्थों के लिए दुर्लभ आराम की ऐश्वर्यपूर्ण जिन्दगी भी बिता रहे हैं और फिर उसी पैसों के बल पर गृहस्थों की बेटी-बहुओं का शीलहरण भी कर रहे हैं? एकसाथ दोनों ही आश्रमों को पतन के गर्त में धकेलते इन संन्यासियों को शर्म भी नहीं आ रही है।
मित्रों,इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर कोई संन्यासी अनैतिक कर्म में रत पाया जाए तो हिन्दू-समाज को जबरन उसकी शादी कर देनी चाहिए और अगर फिर भी वो नहीं सुधरे तो उसको सूली पर चढ़ा देना चाहिए या फिर उससे ऐसा व्रत करवाना चाहिए जिससे उसका प्राणान्त हो जाए क्योंकि इस तरह के लोग समाज के लिए किसी भी तरह से लाभदायक नहीं हो सकते। मैं देखता हूँ कि जिस भी व्यक्ति को किसी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया जाता है अखाड़े में भगवान के साथ-साथ उसकी भी मूर्तियाँ लगाई जाती हैं और उसको भी भगवान का दर्जा दे दिया जाता है। मेरे हिसाब से ऐसा करना पूरी तरह से अनुचित है। कोई भी ईन्सान सिर्फ ईन्सान है वह किसी पद पर जाने मात्र से कैसे भगवान हो जाएगा जबकि उसका मन अब भी पूरी तरह से पाप में डूबा हुआ होता है? मैं अपने पहले के एक आलेख में अर्ज कर चुका हूँ कि गरिमा व्यक्ति में निहित होती है न कि पद में। इसलिए महामंडलेश्वरों की मूर्ति लगाकर पूजने का पाखंड भी तत्क्षण बंद होना चाहिए क्योंकि पाखंड से धर्म को नुकसान ही होता है कभी लाभ नहीं हो सकता। तुलसी ने रामचरितमानस में कहा भी है कि हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें लुप्त होहिं सदपंथ॥ (मैंने यहाँ गुप्त को लुप्त और सदग्रंथ को सदपंथ कर दिया है)
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